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वी. डी. सावरकर के बदलते राजनीतिक दृष्टिकोण पर लिखा जाता रहा है, लेकिन यह भी सच है कि ऐसे परिवर्तन सिर्फ़ उन तक सीमित नहीं हैं. हिंदुत्व के प्रस्तावक सावरकर के विचारों में देखे गए बदलावों की पड़ताल के उद्देश्य से प्रेरित पत्रकार और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व सदस्य अरुण शौरी की किताब, ‘द न्यू आइकन: सावरकर एंड द फैक्ट्स’ ख़ुद लेखक को ही कठघरे में खड़ा कर देती है क्योंकि सावरकर पर सवाल उठाने वाली इस किताब में कहीं नहीं बताया गया है कि क्यों शौरी ने सालों साल राज्य और सत्ता की सावरकरवादी अवधारणा का बचाव किया था.
ख़ुद की राजनीति पर शौरी की चुप्पी इस किताब को संदिग्ध बना देती है. उनसे सवाल इसलिए भी पूछा जाना चाहिए, क्योंकि सावरकर का हिंदुत्व अब भारत सरकार की अनौपचारिक विचारधारा है. इसलिए भी शौरी के मोहभंग की वजह को, अगर सच में ऐसा हुआ है तो, जानना किताब के पाठकों के लिए ज़रूरी हो जाता है.
सावरकर की अन्य जीवनियों से हट कर, ‘द न्यू आइकन’ उनकी स्थिति की विषयवार पड़ताल करती है. मानना होगा कि शौरी काफ़ी हद तक ठोस नतीजों तक पहुंचे हैं, लेकिन कुछ कमियां रह ही गई हैं.
विवरण और स्रोतों के संदर्भ में किताब का सबसे मज़बूत हिस्सा संभवतः वह खंड है जो जेल से रिहा होने के बाद एक बदले हुए सावरकर से जुड़ा है. जहां से वह अंग्रेज़ों के सहयोगी बन गए. इससे पहले, लंदन में कानून की पढ़ाई करते हुए सावरकर कट्टर ब्रिटिश-विरोधी थे. 1911 में, उन्हें हत्या के एक मामले में गिरफ़्तार किया गया. भारत में उन पर मुक़दमा चला. दोहरी आजीवन कारावास की सजा हुई और अंडमान और निकोबार में कैद कर दिया गया. औपनिवेशिक अधिकारियों को दया याचिकाएं लिख कर, अपीलें करके और माफ़ी के बदले वफ़ादारी, राज्य भक्ति और माकूल बर्ताव का भरोसा दिला कर 1924 में सावरकर अपनी रिहाई मंजूर करा पाए. रिहा होने से महीनों पहले, उन्होंने एक छोटी सी किताब लिखी जिसका शीर्षक था, ‘एसेंशियल्स ऑफ़ हिंदुत्व’. इसका मूल विचार था कि हिंदू ही राष्ट्र निर्माता हैं, क्योंकि उनकी पुण्यभूमि भारत है. चूंकि मुसलमानों की पवित्र भूमि अरब और ईसाइयों की वैटिकन है इसलिए वे भारतीय नहीं हो सकते.
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