सेक्युलर दलों से दूरी और ओवैसी से नजदीकी बढ़ाते देश के मुसलमान

एआईएमआईएम का उदय विपक्षी दलों के सेक्युलरिज्म को खारिज करता है. रफीक मकबूल/एपी
06 November, 2019

महाराष्ट्र में हाल में हुए विधानसभा चुनावों में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के प्रदर्शन ने मुसलमानों के राजनीतिक व्यवहार में बदलाव के संकेत दिए हैं. पारंपरिक रूप से मुसलमान खासकर अपने समुदाय का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाले उम्मीदवारों को वोट नहीं देते थे. इसके बजाय उनकी प्राथमिकता कांग्रेस तथा अन्य क्षेत्रीय दल होते थे जिनका सामाजिक आधार व्यापक होता था. यह रणनीति एक विशेष उद्देश्य से संचालित होती थी यानी भारतीय जनता पार्टी को सत्ता कब्जाने से रोकना. बीजेपी ने बहुसंख्यक समुदाय के मुस्लिम पार्टी के पुराने डर (देश के बंटवारे में मुस्लिम लीग की भूमिका) का फायदा उठाकर हिंदू वोटों को ध्रुवीकरण किया.

लेकिन महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में मुसलमानों ने अच्छी खासी संख्या में एआईएमआईएम को वोट दिया. इसने पार्टी को 2014 के लोकसभा चुनावों में महाराष्ट्र में हासिल किए गए आधार का विस्तार करने और 21 अक्टूबर को महाराष्ट्र चुनावों के साथ-साथ विधानसभा उप-चुनावों में हिंदी भाषी क्षेत्र में प्रवेश करने में सक्षम बनाया. यह मुसलमानों द्वारा कांग्रेस और समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी जैसे अन्य क्षेत्रीय संगठनों, जो अपने चुनावी लाभ के लिए समुदाय के समर्थन पर निर्भर हैं, को छोड़ने की शुरुआत हो सकती है.

मुसलमानों की चुनावी प्राथमिकताओं में यह बदलाव महाराष्ट्र में बहुत साफ जाहिर है. एआईएमआईएम ने कुल 44 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे जिनमें से दो सीटों, धुले सिटी और मालेगांव सेंट्रल में पार्टी को जीत मिली और चार सीटों में वह दूसरे स्थान पर रही. पार्टी को राज्य के 288 निर्वाचन क्षेत्रों में डाले गए कुल मतों का 1.34 प्रतिशत प्राप्त हुए. 2014 में, एआईएमआईएम ने 24 निर्वाचन क्षेत्रों से उम्मीदवार खड़े किए थे और दो सीटों, औरंगाबाद सेंट्रल और बायकुला में जीत हासिल की थी, तीन क्षेत्रों में पार्टी दूसरे स्थान पर रही और कुल वोटों का 0.93 प्रतिशत मतदान उसे प्राप्त हुआ था.

2019 में एआईएमआईएम के प्रदर्शन का विश्लेषण कांग्रेस-एनसीपी और बीजेपी-शिवसेना गठबंधन की पृष्ठभूमि में किया जाना चाहिए. इन चारों दलों ने 2014 के चुनावों में स्वतंत्र रूप से भागेदारी की थी. इसके मायने यह हुए कि इस साल के विधानसभा चुनावों में, एआईएमआईएम को मुसलमानों को कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को वोट देने से रोकना था और साथ ही चुनाव जीतने के लिए इससे ज्यादा वोट लेने थे.

इस मायने में एआईएमआईएम का प्रदर्शन हैरतअंगेज करने वाला था. इसने चार निर्वाचन क्षेत्रों में 30000 से 40000, तीन में 40000 से 50000 के बीच, दो में 50000 से ऊपर और एक में एक लाख से ऊपर वोट हासिल किए. धुले शहर में, एआईएमआईएम ने 2014 में हासिल किए 3775 वोटों से 2019 में 46679 की बढ़त हासिल की, मालेगांव सेंट्रल में उसे 2014 में 21050 वोट मिले थे, वहीं 2019 में वोटों की संख्या बढ़कर 117242 हो गई. हालांकि पार्टी औरंगाबाद सेंट्रल में इस विशाल बढ़त को बरकरार नहीं रख सकी, लेकिन 2014 की तुलना में उसे 6482 वोट अधिक मिले. इसी तरह भले ही शिवसेना एआईएमआईएम से भायखला सीट कब्जाने में कामयाब रही लेकिन एआईएमआईएम को यहां 2014 की तुलना में 5843 वोट अधिक मिले.

ऐसा लगता है कि दोनों गठबंधनों ने भायखला में एआईएमआईएम की संभावनाओं को बहुत कम करके आंका. इंडियन यूथ कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय सचिव नदीम नुसरत ने मुझसे बात करते हुए कहा, “हमारा कहना है कि एआईएमआईएम बीजेपी विरोधी वोटों को बांटती है." उन्होंने कहा कि "एआईएमआईएम यह कह सकती है कि कांग्रेस भायखला से अपने प्रत्याशी को बैठी दे तो उसका मौजूदा विधायक जीत सकता है.” शिवसेना ने 51180 वोट हासिल कर भायखला में जीत दर्ज की. एआईएमआईएम को 31157 और कांग्रेस को 24139 वोट मिले.

2014 के चुनावों से तुलना करें तो कांग्रेस-राकांपा गठबंधन ने कई निर्वाचन क्षेत्रों में एआईएमआईएम के वोटों में सेंध लगाई है. उदाहरण के लिए, नांदेड़ दक्षिण में, एआईएमआईएम का रुझान 2014 में 34590 से घटकर 2019 में 20512 वोट हो गया. परभणी में पार्टी ने 2019 में 22741 वोट हासिल किए थे जो 2014 के 45458 वोटों की तुलाना में भारी गिरावट है. मुंबादेवी में पार्टी ने 2014 में 16165 की तुलना में इस साल 6373 वोट पाए. फिर भी नांदेड़ दक्षिण और परभणी के नतीजों से समझा जा सकता है कि एआईएमआईएम ने समर्थकों का एक कोर बना लिया है जो बीजेपी के विकल्प के रूप में मानी जाने वाली पार्टियों को वोट नहीं देता.

एआईएमआईएम के चुनावी प्रदर्शन की कई अन्य महत्वपूर्ण विशेषताएं थीं. पार्टी ने बालापुर में शानदार शुरुआत की, जहां उसके उम्मीदवार ने 44507 वोट हासिल किए, जो एनसीपी को मिले वोटो से दोगुना है. एआईएमआईएम के 44 उम्मीदवारों में से 12 गैर-मुस्लिम थे. हालांकि इसे अक्सर मुस्लिम पार्टी के रूप में पहचाना जाता है, इसके अध्यक्ष, असदुद्दीन ओवैसी ने अक्सर मुसलमानों, दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों के बीच एक सामाजिक गठबंधन बनाने पर जोर दिया है. अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र औरंगाबाद पश्चिम में एआईएमआईएम के उम्मीदवार, अरुण विट्ठलराव बोर्डे 39366 वोट प्राप्त कर तीसरे स्थान पर रहे. कुर्ला आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र में रत्नाकर डी दावरे को 17000 से अधिक वोट मिले.

इन नतीजों से कांग्रेस और क्षेत्रीय संगठनों को एआईएमआईएम के बारे में परेशान होना चाहिए. एआईएमआईएम के साथ मुस्लिम एकीकरण बढ़ने से दलितों और ओबीसी के बीच असंतुष्ट समूह भी ओवैसी के साथ जाने के लिए प्रेरित हो सकते हैं. पार्टी ने किशनगंज विधानसभा क्षेत्र के लिए हुए उपचुनाव में बिहार में अपनी पहली सीट जीती. इस जीत ने हिंदी पट्टी में एआईएमआईएम की शुरुआत का संकेत दिया है. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने पहले ही एआईएमआईएम की जीत को दलित-मुस्लिम एकता के लिए अनुकूल बताना शुरू कर दिया है.

उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ विधानसभा उपचुनाव में एआईएमआईएम का प्रदर्शन किशनगंज में उसकी जीत से भी अधिक महत्वपूर्ण था. पार्टी को मई में हुए लोकसभा चुनावों में किशनगंज लोकसभा क्षेत्र में लगभग दो लाख वोट पड़े थे और किशनगंज विधानसभा सीट जीतने का उसके पास अच्छा मौका था. हालांकि प्रतापगढ़ में एआईएमआईएम पहली बार चुनाव लड़ रही थी फिर भी उसके उम्मीदवार इसरार अहमद को 20269 वोट मिले. एआईएमआईएम ने समाजवादी पार्टी से लगभग 3000 वोट कम हासिल किए. बीजेपी की सहयोगी पार्टी अपना दल चुनाव जीत गई लेकिन दूसरा स्थान एआईएमआईएम को हासिल हुआ जबकि कांग्रेस और बसपा भी मैदान में थीं.

48 साल के अहमद जनवरी 2018 में एआईएमआईएम में शामिल हो गए. अपने कॉलेज के दिनों में वह कांग्रेस समर्थक थे. 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद इस भव्य पुरानी पार्टी के साथ उनकी नाराजगी शुरू हुई. उन्होंने मुझसे कहा, "मैं एआईएमआईएम में शामिल हो गया क्योंकि मैंने इन सालों में देखा है कि कोई भी सेक्युलर पार्टी मुसलमानों के साथ खड़ा नहीं होना चाहती.”

अहमद ने ओवैसी की धर्मनिरपेक्ष पार्टियों की आलोचना को सही ठहराया. अक्सर ओवैसी धर्मनिरपेक्ष खेमे पर आरोप लगाते हैं कि वोट के लिए ये पार्टियां मुसलमानों के अंदर बीजेपी के डर को भुनाती हैं और फिर अगले चुनाव उनको भूला देती हैं. कई मौकों पर ओवैसी ने कहा है कि धर्मनिरपेक्ष पार्टियां मुसलमानों को ज्यादा भाव नहीं देती क्योंकि उन्हें पता है कि मुसलमान बीजेपी को वोट नहीं देंगे. आम लहजे में कहें तो ओवैसी की आलोचना का अर्थ यह है कि धर्मनिरपेक्ष दलों को मुस्लिम वोटों के बारे में अपनी बनी-बनाई धारणा को छोड़ना चाहिए.

ओवैसी का राजनीतिक मॉडल मुसलमानों को अपनी पार्टी के माध्यम से आत्म-प्रतिनिधित्व करने को प्रेरित करता है. रचना बाजपेयी और अदनान फारुकी ने 2018 के अपने एक अकादमिक शोधपत्र "गैर-चरमपंथी प्रकोप : बहुसंख्यवादी भारत में मुस्लिम नेतृत्व" में लिखा, "ओवैसी की सलाह... में वैसा ही संरक्षण-विरोधी तेवर है जैसा 1980-1990 के दशक में निम्न जाति के राजनीतिक दलों के उदय से जुड़े तर्कों में था. ओवैसी का तर्क है कि एआईएमआईएम की जरूरत है क्योंकि मुख्यधारा के दलों के मुस्लिम प्रतिनिधि कमजोर और अप्रभावी रहे हैं.”

ओवैसी की राजनीति उनके व्यक्तित्व से पूरी तरह मेल खाती है. दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया में राजनीति विज्ञान पढ़ाने वाले फारुकी ने मुझे बताया, "मुसलमानों के लिए ओवैसी की अपील इस तथ्य में निहित है कि वह अपनी पहचान को सरेआम जाहिर भी करते हैं, लेकिन अनिवार्य रूप से धर्मनिरपेक्षता से संबंधित मुद्दों को उठाने के लिए संविधान की बात करते हैं." ओवैसी “आज की जरूरतों का प्रतिनिधित्व करते हैं, उनकी टीम सोशल मीडिया का खूब इस्तेमाल करती है, उनके भाषण फेसबुक पर आजमगढ़ से लेकर हैदराबाद तक देखे और सुने जाते हैं.”

ओवैसी की रैलियों में हमेशा ही भारी भीड़ उमड़ती है. खास तौर से मुस्लिम युवाओं की. लेकिन इन वोटरों ने एआईएमआईएम को इसलिए वोट नहीं दिया कि वह बीजेपी को हरा सकती है. हाल के विधानसभा चुनावों के परिणामों से पता चलता है कि ओवैसी की प्रसिद्धि अब एआईएमआईएम के लिए वोटों में बदल रही है. मोटे तौर पर ऐसा इसलिए है क्योंकि राजनीतिक दलों ने उनके इस आरोप को सही साबित कर दिया है कि वे मुसलमानों से वोट तो लेते हैं लेकिन चुनाव के बाद उन्हें भूल जाते हैं. देश भर में एनआरसी लागू करने की केंद्र सरकार की धमकियों और लिंचिंग के खिलाफ जनमत तैयार करने में धर्मनिरपेक्ष दलों की अनिच्छा पर मुस्लिम स्तब्ध हैं. वे युवा कांग्रेस नेताओं द्वारा अनुच्छेद 370 को खत्म किए जाने का समर्थन करते सुनकर चौंक गए.

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर मोहम्मद सज्जाद ने कहा, "मुस्लिम लोग देखते हैं कि वे चाहे जिस भी तरह मतदान करते हैं फिर भी हिंदू ध्रुवीकरण हो रहा है. चूंकि कांग्रेस और क्षेत्रीय दल मुसलमानों के बचाव में बोलने से हिचकते हैं इसलिए उन्हें लगता है कि उन्हें कम से कम उस पार्टी को वोट देना चाहिए जो उनके लिए आवाज उठाती है."

सज्जाद ने कहा कि मुस्लिम ओवैसी का समर्थन कर रहे हैं क्योंकि वे सहज रूप से बहुसंख्यकवादी राजनीति के युग में ओवैसी के महत्व को समझते हैं. "ओवैसी मुस्लिम शिकायतों को दर्ज करा रहे हैं," सज्जाद ने कहा. "इन शिकायतों को दर्ज नहीं किया जाएगा तो मुस्लिमों का उत्पीड़न सार्वजनिक चेतना से ही गायब हो जाएगा." इस मायने में एआईएमआईएम उनके होने की सच्चाई को स्थापित करने और उनके दर्द को दर्ज करने तरीका बन गई है.

राज्यसभा में कांग्रेस के सांसद हुसैन दलवई को महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार के दौरान "मुस्लिम शिकायतों की सूची" की एक झलक मिली. "मैं जहां भी गया, मुसलमानों ने कहा कि उन्हें कांग्रेस में कोई इज्जत नहीं मिलती है. मुझे कांग्रेस की रैलियों में पोडियम पर बहुत कम मुसलमान मिले,” दलवई ने मुझे बताया. पार्टी में सम्मान नहीं होने पर भी मुस्लिमों से समर्थन की उम्मीद करना कांग्रेस का अक्खड़पन ही है. दलवई ने कहा, "मुसलमान महाराष्ट्र की आबादी का लगभग 11.5 प्रतिशत हैं, लेकिन उनमें से केवल 13, यानी महज 4.5 प्रतिशत को ही कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन ने टिकट दिया." उन्हें लगता है कि कांग्रेस ने मुसलमानों और दलितों के हितों की रक्षा करने की अपनी विचारधारा को कमजोर कर दिया है. उन्होंने कहा, "हमने लिंचिंग और भीमा कोरेगांव हिंसा के खिलाफ किसी मोर्चे का आयोजन नहीं किया, जिसमे दलितों को निशाना बनाया गया था. क्या हमें सावरकर का समर्थन करना था, जिन्होंने महात्मा गांधी के हत्यारों को प्रेरित किया था?” यह शायद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अभिषेक सिंघवी के संदर्भ में कहा गया था, जिन्होंने हिंदुत्व के विचारक के बारे में कहा था कि वे “एक निपुण व्यक्ति थे जिन्होंने हमारे स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और जो दलित अधिकारों के लिए लड़े थे."

मुसलमान एआईएमआईएम की तरफ झुक रहे हैं भले ही वे जानते हैं कि वह अपने दम पर सत्ता में नहीं आ सकती है क्योंकि यही सबक उन्होंने राष्ट्रीय पार्टियों से हासिल किया है जो एक या दो जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाली क्षेत्रीय संगठनों के साथ गठजोड़ करती हैं. अपेक्षाकृत अपने छोटे आधार क्षेत्र के साथ भी ये स्थानीय दल राष्ट्रीय या क्षेत्रीय पार्टी के चुनाव जीतने या हारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. मुस्लिम समुदाय को उम्मीद है कि एआईएमआईएम के विस्तार करने से ओवैसी के साथ गठबंधन के लिए अन्य लोगों का समर्थन मिलेगा और उन्हें शासन में हिस्सेदारी भी दी जाएगी.

यही कारण है कि एआईएमआईएम को कांग्रेस द्वारा बीजेपी विरोधी वोटों को बांटने वाली बताने के बावजूद मुसलमानों ने उसे वोट दिया. जैसा कि कांग्रेस के पूर्व युवा नेता नुसरत ने समझाया, “मुसलमान कांग्रेस द्वारा बीएसपी और ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट को वोट काटने वाले के रूप में पेश करने को देख चुके हैं. हालांकि, कांग्रेस असम में एआईयूडीएफ के साथ गठजोड़ करने के लिए तैयार है और उत्तर प्रदेश में गठबंधन के लिए बीएसपी से अनुरोध करती है.” मुसलमानों के लिए यह सोचना स्वाभाविक है कि एक मजबूत एआईएमआईएम उनके लिए राजनीतिक रूप से फायदेमंद है.

यह भावना और तेज हुई है क्योंकि गैर-बीजेपी दल मुसलमानों पर अपनी हार का ठीकरा फोड़ते हैं. एएमयू में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर असमर बेग ने मुझसे कहा, “क्या आपने कभी बीएसपी को अपनी हार के लिए गैर-जाटव दलितों पर आरोप मढ़ते सुना है या एसपी को गैर-यादव ओबीसी के बारे में, या कांग्रेस को सवर्णों बारे में?” उनका ऐसा कहना मुसलमानों को नाराज करता है और उन्हें अलग-थलग करता है, जिनके बीच ये चिंता बढ़ती जा रही है कि वे हिंदुत्व के वर्चस्व के इस दौर में उनका समर्थन नहीं करने वाली पार्टियों के साथ नहीं रहेंगे. मुस्लिम समुदाय अब ओवैसी का समर्थन करने में निहित उस राजनीतिक जोखिम को नजरअंदाज करने के लिए तैयार है क्योंकि एआईएमआईएम को वोट न देने पर भी वह उनका साथ देती है.

इस पर अभी एक राय नहीं है कि एआईएमआईएम की ओर मुसलमानों का बढ़ता झुकाव उनके हितों के लिए अच्छा है या बुरा. माइक्रोफाइनेंस क्षेत्र में कार्यरत पटना स्थित एक गैर सरकारी संगठन “सहुलात” के संचालक अरशद अजमल के अनुसार, “लाखों लोग एआईएमआईएम के लिए मतदान कर रहे हैं क्योंकि वे सत्ता में हिस्सेदारी चाहते हैं.” लेकिन अजमल ने कहा कि एआईएमआईएम केवल उन निर्वाचन क्षेत्रों में जीत सकती है जहां मुसलमानों की संख्या अधिक है. "उन निर्वाचन क्षेत्रों में जहां मुसलिम मतदाताओं की संख्या 10 या 20 प्रतिशत है, वहां क्या होगा?" उन्होंने बताया कि मुस्लिम समुदाय के इस राजनीतिक व्यवहार का असर उसी तरह का होगा जैसा देश के बंटवारे के वक्त उनके साथ हुआ था. “मुस्लिम बहुलता वाले प्रांत पाकिस्तान का हिस्सा बन गए लेकिन जहां वे अल्पसंख्यक थे वहां उन्हें ज्यादा कष्ट झेलना पड़ा," उन्होंने कहा.

समुदाय इस बात से भी चिंतित है कि एआईएमआईएम किसका प्रतिनिधित्व करती है. ओवैसी संविधान की बात करते हैं लेकिन उनके भाई अकबरुद्दीन को भड़काऊ राजनीति करने वाला माना जाता है जो लोगों को सांप्रदायिक लाइन पर बांटता है. जैसा कि बाजपेयी और फारुकी ने उनकी रैलियों में भाग लेने वालों के साक्षात्कार के आधार पर अपने शोधपत्र में बताया, “कुछ लोग इसे ओवैसी बंधुओं के बीच काम का बंटवारा बताते हैं जो एआईएमआईएम की दोहरी रणनीति की तरह है जिसमें असदुद्दीन पार्टी की तार्किक, उदारवादी और राष्ट्रीय छवि पेश करते हैं और अकबरुद्दीन… जिन्हें मुस्लिम श्रोता के सामने अपने भड़कीले भाषणों के लिए जाना जाता है, अक्सर हिंसक अंदाज में राजनीतिक विरोधियों का मुकाबला करते नजर आते हैं.”

मुंबई विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के पूर्व प्रोफेसर जहीर अली ने एआईएमआईएम के दोहरे दृष्टिकोण का हवाला दिया और मुझसे कहा, "एआईएमआईएम सत्ता में कभी नहीं आ सकती है. वह केवल राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों की चुनावी संभावनाओं को कम करेगी." उनका कहना था कि यह "मुसलमानों के लिए एक आत्मघाती विकल्प है." मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक आत्मघात या आत्महत्या बदलाव की गहरी पुकार होती है. गैर-बीजेपी दलों के पाखंडी दोहरेपन के खिलाफ असंतोष दर्ज करने के लिए मुसलमान सामूहिक चुनावी आत्महत्या करके अपने हितों का बलिदान कर रहे हैं. ये राजनीतिक दल चुनाव के दौरान मुस्लिम समुदाय का वोट पाने के लिए धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देते हैं और फिर हिंदुत्व के सॉफ्ट संस्करण को बढ़ावा देते हैं. एआईएमआईएम का उदय विपक्षी दलों के सेक्युलरिज्म को खारिज करता है.