पिछले महीने असम विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद भारतीय जनता पार्टी को राज्य के मुख्यमंत्री का नाम तय करने में एक सप्ताह का समय लगा. एक ऐसे राजनीतिक माहौल में जहां कई आदिवासी और जातीय समूह हैं, बीजेपी ने असम के जातीय समुदाय से आने वाले निवर्तमान मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल को किनारे कर ब्राह्मण जाति के हिमंत बिस्वा सरमा को राज्य का मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया. बीजेपी के सत्ता में दुबारा लौटने के बाद जो बात साफ हो जाती है वह यह कि जातियोतावाद (एथनोनेशनलिज्म) की राजनीति वाले इस राज्य में हिंदुत्व समर्थक ताकतें मजबूती से लामबंद हो चुकी हैं.
बहुसंख्यकवादी आक्रमकता से हमेशा बेअसर रहने वाले और भारत को सहिष्णु और धर्मनिरपेक्ष मानने वाले प्रिवलिज्ड लोगों के असमिया असाधारणवाद (इक्सेप्शनलिज्म) के दावे की पोल खुलती नजर आ रही है. 2014 में जब बीजेपी के केंद्र की सत्ता में आई थी, तो उसने उस देश में हिंदुओं को एकजुट हो जाने का आसान अवसर दे दिया जहां लगभग एक तिहाई मतदाता मुस्लिम हैं और जिसमें चार दशकों से अदरिंग (बहिष्कार करना, अन्य) की राजनीति जारी है. इन्हीं परिस्थितियों ने सोनोवाल को, जो पहले क्षेत्रीय असम गण परिषद के नेता थे, और सरमा, जो लंबे समय तक कांग्रेसी नेता रहे और जिनकी जड़ें अखिल असम छात्र संघ से जुड़ी थीं, को बेझिझक बीजेपी के नेताओं में तबदील हो जाने दिया.
समाचार पत्र द हिंदू के असम के एक पूर्व संवाददाता एमएस प्रभाकर ने 2009 में लिखा था कि, संक्षेप में, “यह नृजातीय-राष्ट्रवादी आंदोलन उन हिंदुत्ववादी आंदोलनों से अलग नहीं हैं जिनमें 'अन्य' का भय और घृणा जान फूंकती है.” पहले के मामलों में इस अन्य या अदर को मुख्य रूप से बंगाली मूल के लोगों रूप में समझा जाता था और बाद में इसे मुसलमान बना दिया गया. “इसीलिए, एथनिक क्लींजिंग या नस्लीय सफाई की घटनाएं होती हैं जो एथनिक नेशनलिज्म और हिंदुत्ववादी आंदोलनों का अभिन्न अंग है.” चुनाव परिणाम बताते हैं कि अंततः उपरोक्त दोनों विचारधाराएं बंगाली मूल के मुस्लिम या मियां मुस्लिम को “अन्य” मानने में एक साथ आ गई हैं. हिंदुत्व और सांप्रदायिक हिंसा के एक प्रमुख विद्वान थॉमस ब्लॉम हानसेन ने पिछले महीने मुझे ईमेल पर बताया, “असम में लंबे समय से मुसलमानों को अन्य के रूप में देखने के चलन के मद्देनजर हैरानी सिर्फ बात की है कि राज्य द्वारा भगवा रूप धारण करने में इतना वक्त लगा. मुझे लगता है कि ऐतिहासिक रूप से देखें तो यह देरी असम और बंगाल दोनों ही राज्यों में आरएसएस के अपेक्षाकृत कमजोर नेटवर्क के चलते हुई है. अब हालात बदल रहे हैं और तेजी से बदल रहे हैं.”
चुनावों से पहले, मानो सरमा हिंदुत्व मैनुअल से रट्टा लगाने लगे रहो, इस्लामोफोबिक बयानबाजी करने लगे. फरवरी में उन्होंने घोषणा की कि बीजेपी को चुनाव जीतने के लिए असम में बंगाली मूल के मुसलमानों के वोटों की जरूरत नहीं है. “उन्होंने खुद की पहचान मियां के रूप में बनाई है. ये तथाकथित मियां लोग बहुत सांप्रदायिक हैं, बहुत कट्टर हैं और वेह असमिया संस्कृति, असमिया भाषा को विकृत करने वाली विभिन्न गतिविधियों में शामिल हैं. इसलिए मैं उनके वोट से विधायक नहीं बनना चाहता.”
सरमा ने ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के अध्यक्ष बदरुद्दीन अजमल को “हमारा दुश्मन” बताया और कहा कि “यह असम की राजनीति का सबसे खतरनाक दौर है... एक व्यक्ति के रूप में नहीं बल्कि कुछ लोगों के प्रतीक के रूप में अजमल दुश्मन हैं." एक अन्य अवसर पर, उन्होंने दावा किया कि उन्होंने एक वीडियो देखा था जिसमें अजमल “मुस्लिम महिलाओं से जितना चाहे उतने बच्चे पैदा करने को कह रहे हैं." सरमा ने तंज से भरा सवाल किया कि मुस्लिम लड़कियां “बच्चे पैदा करने वाली मशीन” हैं. फिर उन्होंने मुसलमानों के चुनावी प्रभाव को कम करने के लिए निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन करने का वादा किया.
चुनाव के बाद के विश्लेषणों में ज्यादातर बीजेपी सरकार के पिछले कार्यकाल की लोकलुभावन नकदी योजनाएं और कोविड-19 संकट में उसका अपेक्षाकृत सफल प्रबंधन (तब सरमा स्वास्थ्य मंत्री थे) की बात की गई है. कुछ लोगों ने यह भी दावा किया है कि बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में नागरिकता (संशोधन) अधिनियम का उल्लेख नहीं किया क्योंकि 2019 में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार द्वारा पारित किए जाने के बाद उसे असम में बड़े पैमाने पर विरोध का सामना करना पड़ा था. ऐसे विश्लेषणों में इस तथ्य की अनदेखी की गई बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने वादा किया है कि सीएए को उसके "सही अर्थों और भावना में लागू किया जाएगा.” संक्षेप में, अधिकांश विश्लेषकों ने हिंदू सुदृढीकरण को छोड़ कर सब कुछ लिखा और जानबूझकर इस्लामाफोबिया को नजरअंदाज किया है, जिसे सरमा ने सामान्य बनाने में मदद की है. असमिया असाधारणवाद के बौद्धिक चैंपियनों ने भी राज्य के भगवा हो जाने पर चुप्पी साधी रखी.
इंडिया टुडे के डिप्टी एडिटर कौशिक डेका के विचारों पर गौर करें. सीएए विरोधी प्रदर्शनों के दौरान डेका ने लिखा था कि इस नए कानून के एक प्रमुख सूत्रधार मोदी और अमित शाह "चाहते हैं कि हम 'अच्छे हिंदू' बनें, एक अलग देश के हिंदुओं को गले लगाएं, भले ही वे बांग्ला भाषा बोलते हों.” सीएए पड़ोसी देशों के उत्पीड़ित गैर मुस्लिम अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने वाला कानून है. इस कानून के बारे में असम के बहुत से लोगों आशंका थी कि यह बांग्लादेश से बंगाली हिंदुओं की आमद को बढ़ाएगा. डेका ने आगे लिखा, “ऐसा मानने वाले लोग यह नहीं समझ रहे कि मेरे लिए और हर असमिया के लिए, असम में असमिया का होना बाकी सब से ऊपर है. अगर हम असमिया नहीं रहेंगे तो हम हिंदू या मुसलमान भी नहीं होंगे.” डेका ने लिखा कि वे किसको इसका जिम्मेदार मानते हैं. उन्होंने कहा, “मैं मोदी और शाह से नाराज नहीं हूं...उन्होंने हमेशा हमें बताया कि वे क्या करना चाहते हैं. यह कोई छिपी हुई योजना नहीं थी. लेकिन मैं सर्बानंद सोनोवाल को माफ नहीं कर सकता. मैं हिमंत बिस्वा सरमा को माफ नहीं कर सकता. उन्होंने 2016 की गर्मियों में मुझसे वादा किया था कि वे मेरी माटी (भूमि), भेटी (घर) और जाति (मेरे असमिया अस्तित्व) की रक्षा करेंगे. आज उन्होंने मुझे धोखा दिया है."
जैसे ही नतीजे आए डेका इंडिया टुडे टीवी पर सरमा के साथ ऑन एयर हुए. डेका को सरमा का करीबी माना जाता है. डेका ने उम्मीद जताई की सरमा मुख्यमंत्री बने. बीजेपी द्वारा सरमा के नाम पर मोहर लागते ही डेका ने सरमा की मख्खनबाजी करते हुए प्रोफाइल लिखी और पार्टी के कदम को “अभूतपूर्व” बताते हुए इस फैसले को ऐसा बताया जो न केवल असम और पूर्वोत्तर की राजनीति में, बल्कि बीजेपी के बड़े गेम प्लान में भी सरमा के महत्व को स्थापित करता है. उन्होंने लिखा, “इस फैसले के पीछे का 'वैचारिक स्रोत' राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है.” डेका ने गिनाया कि सरमा को किन चीजों का फायदा हुआ : उनके परिवार का आरएसएस के साथ लंबा जुड़ाव, अपनी विचारधारा के प्रति उनकी अटूट प्रतिबद्धता और सीएए (जो आरएसएस के दिमाग की उपज है) को लेकर उनका मुखर समर्थन.
विश्लेषण करते हुए तथ्यों को अपनी लाइन के हिसाब से चयन करने की यह तरकीब असम में 2016 में विधानसभा चुनावों में भी दिखाई दी थी. उस वक्त बीजेपी ने असम गण परिषद (एजीपी) और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट के साथ गठबंधन कर पहली सरकार बनाई थी. असमिया अकादमिक उदयन मिश्रा ने उस परिणाम को हिंदुत्व की नहीं बल्कि पहचान की राजनीति की जीत के रूप में चित्रित किया था. उन्होंने लिखा कि बावजूद इस बात के कि नृजातीय राष्ट्रवादी (एथनिक नेशनलिज्म) पार्टी एजीपी कमजोर हो रही है लेकिन उसके बीजेपी के साथ गठबंधन बनाने से गठबंधन का स्वरूप धर्मनिरपेक्ष हो गया है और माटी, भेटी (बेटी) और जाति की अपील लोकप्रिय हुई है. बीजेपी ने उन चुनावों की तुलना सरायघाट की लड़ाई से की थी, जो मुगल सेना की निर्णायक हार थी. मिश्रा ने इसे 1979 से 1985 तक चले असम आंदोलन की विदेशी विरोधी भावना को पुनर्जीवित करने वाले कारक की तरह भी देखा. वह जाने कैसे इस बात को भूल गए कि इसे मुस्लिम घुसपैठ पर जीत के रूप में देखा जाना चाहिए. बाद में वैसा ही दिखाया भी गया.
मिश्रा ने राज्य में आरएसएस की महत्वाकांक्षाओं के खिलाफ “असमिया समाज की अत्यधिक समन्वित और बहुल प्रकृति” और “आव्रजन, भूमि और भाषा पर केंद्रित पहचान की राजनीति” के इतिहास की दुहाई दी. उन्होंने लिखा कि “असम की राजनीति का भगवाकरण करने के आरएसएस के प्रयासों का विरोध बीजेपी सरकार की सहयोगी एजीपी और बीपीएफ द्वारा किया जाना तय है. साथ ही साथ जब तक असम स्टूडेंट्स यूनियन जैसे असमिया राष्ट्रवादी समूह अपनी धर्मनिरपेक्ष साख पर कायम हैं, भगवाकरण का विरोध होगा.” मिश्रा ने यह भी लिखा कि अजमल के एआईयूडीएफ ने मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण का प्रयास किया लेकिन वह प्रयास विफल रहा क्योंकि बड़ी संख्या में मुसलमानों ने कांग्रेस को भी वोट दिया है.”
एक अन्य प्रमुख असमिया बुद्धिजीवी, संजीब बरुआ ने भी इसी तर्ज पर तर्क पेश किया. उन्होंने लिखा, “अगर इन चुनावों में किसी विचारधारा की भूमिका है तो न तो हिंदुत्व थी और न ही भारत माता की जय ब्रांड वाला राष्ट्रवाद. यह जीत असम के इतिहास में पनपी विचारधार की जीत है.”
बरुआ के लिए उन चुनावों की “सबसे प्रतिष्ठित छवि अजमल के बगल में सोनोवाल की तस्वीर वाला एक पोस्टर था जिसमें सवाल था : खिलोंजिया, आप किसे वोट देंगे?” (असम के मूल निवासियों के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द. यहां सोनोवाल को धरतीपुत्र बताने के लिए इस्तेमाल किया गया है.) बरुआ ने लिखा, “आगे की कहानी बताने की जरूरत नहीं थी. दो नेताओं के फिनोटिपिक अंतर ने सब कुछ कह दिया.” यह फिनोटिपिक पर जोर देकर इस बात को छिपा दिया गया की अजमल अपने विशिष्ट परिधान, दाढ़ी और टोपी, में मुस्लिम पहचान को दर्शाते हैं.
बरुआ ने उल्लेख किया कि पूर्वी बंगाली मूल के मुसलमान, जो कभी कांग्रेस के विश्वसनीय मतदाता थे, उनका पुरानी पार्टी से मोहभंग हो गया है और 2005 के बाद से वे बड़ी संख्या में अजमल के एआईयूडीएफ का समर्थन करने लगे हैं. उन्होंने यहां तक स्वीकार किया कि “इस समुदाय के वोट बैंक के बजाए एक स्वतंत्र राजनीतिक ताकत के रूप उभरने से खिलोंजिया आबादी डर गई जिसके चलते इस चुनाव और बाद के सभी चुनावों में उनकी पसंद ने आकार लिया है.”
मिश्रा और बरुवा ने यह मानने से इनकार कर दिया कि असमिया हिंदुओं ने सांप्रदायिक लाइन पर वोट दिया है. दोनों ने यह भी नहीं माना कि अब असमिया जाति को हिंदू देखा जाने लगा है.
दोनों ने कांग्रेस पार्टी पर मुस्लिम वोटों को प्रमुखता देने का आरोप लगाने के साथ ही एआईयूडीएफ पर ध्रुवीकरण की राजनीति करने का दोष मढ़ा. लेकिन दोनों ने यह मानने से इनकार किया की हिंदुओं के ध्रुवीकरण के पीछे जो सांप्रदायिकता निहित है उसके पीछे बीजेपी है. सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटी (सीएसडीएस) के चुनाव पूर्व विश्लेषण में उपरोक्त बातें स्पष्ट होती हैं. विश्लेषण में कहा गया है कि असम में बीजेपी की जीत के पीछे के कारणों में मुख्य है धर्म. शोधकर्ताओं ने लिखा है, “असम एक ऐसा राज्य है जहां हाल तक चुनाव परिणामों को बहु जातीयता (मल्टीपल एथनिसिटी) के परिप्रक्ष्य में समझा जाता था वहां अब धार्मिक पहचान मतदाता के अपने चुनाव को मुख्य रूप से निर्धारित करती है.” इस विश्लेषण के शोधकर्ताओं ने लिखा है,
बीजेपी गठबंधन की सफलता में हिंदू लामबंदी की भूमिका है. स्वयं को हिंदू मानने वाले 63% मतदाताओं ने बीजेपी को वोट दिया है. यह ट्रेंड 2014 में शुरू हुआ था जिसके चलते मोदी सत्ता में आए थे. तब हिंदू मतदाताओं के 58% ने बीजेपी को वोट दिया था और यदि हम एजीपी को मिले हिंदू वोटों को इसमें जोड़ दें तो यह आंकड़ा 65% हो जाता है. एक तथ्य यह भी है कि 2014 में गुजरात के बाद असम ही वह दूसरा राज्य था जहां के बहुसंख्यक हिंदुओं की पसंद बीजेपी थी. अध्ययन में हमें मुस्लिम ध्रुवीकरण का कोई सबूत नहीं मिलता.” उस विश्लेषण में लिखा है कि जिस तरह का उल्लेखनीय ध्रुवीकरण भी हिंदुओं का बीजेपी की ओर हुआ है कुछ तरह का काउंटर ध्रुवीकरण मुसलमानों मैं नहीं देखने को मिलता. असम में 34% मुस्लिम आबादी है जो जम्मू और कश्मीर के बाद मुसलमानों की सबसे बड़ी आबादी है लेकिन फिर भी एक तरफा वोट नहीं दिया.
हिंदू समुदाय की जारी लामबंदी चुनाव परिणाम को ठीक तरह समझाने के लिए काफी है और अन्य कारणों को इस लांमबंदी से ज्यादा महत्वपूर्ण समझना मामले को गोलमाल करने जैसा होगा. फिर भी असम के हिंदू, खासकर एलिट जातियों के हिंदू, इस बात को मानने को तैयार नहीं होते क्योंकि यह बात उनकी असमिया “असाधारण” की मान्यता से मेल नहीं खाती.
बाहरी लोगों के खिलाफ असमिया लोगों की भावनाएं इसी ऊंची जाति के एलीटों का निर्माण है और ऐसे करने से वे सत्ता पर अपनी ताकत को बनाए रख पाते हैं. जब से असम को ब्रिटिश राज ने अपने में विलय कर लिया था तभी से यहां बंगाली हिंदुओं को सत्ता की पहुंच से बाहर रखना एलीट जातियों का उद्देश्य रहा है क्योंकि बंगाली हिंदुओं द्वारा प्रशासनिक मामलों में एकाधिकार जमा लेने का खतरा था.
बाहरी लोगों के खिलाफ शुरू हुआ असम आंदोलन, जिसके निशाने पर मारवाड़ी, चाय बागान के मजदूर और अन्य लोग थे, आगे चलकर विदेशी विरोधी बन गया. 1971 की लड़ाई के बाद बांग्लादेश अस्तित्व में आया लेकिन जब शरणार्थी असम आने लगे तो इस आंदोलन का एक खास लक्ष्य बंगाली मूल के शरणार्थी हो गए, खासकर मुसलमान. लेकिन आने वालों हिंदू भी थे. हैरानी की बात है कि असम आंदोलन के बारे में इतना सारा अध्ययन होने के बावजूद इस बात का कोई स्पष्टीकरण नहीं मिलता कि विदेशी विरोधी आंदोलन कब बंगाली मूल के शरणार्थी विरोधी आंदोलन में बदल गया. हो सकता है कि ऐसा इसलिए हुआ हो की असम की मिलीजुली और सहिष्णु संस्कृति के दावे को इस स्वीकृति से चोट पहुंचती हो. पत्रकार संगीता बरुआ पिशारोती ने अपनी किताब, जिसका नाम असम : दि अकॉर्ड, द डिस्कवर्ड है, में असम आंदोलनों के कुछ अनाम नेताओं के हवाले से लिखा है कि आईबी ने इस बदलाव में भूमिका निभाई ताकि संविधान के प्रवाधानों के उल्लंघन से बचा जा सके. दूसरी थ्योरी, जो संभवतः अधिक मान्य हो लेकिन जिस पर कम ध्यान जाता है, यह है कि ऐसा असम आंदोलन के युवा नेतृत्व में आरएसएस के प्रभाव के चलते हुआ है. एक अन्य संदर्भ में पिशारोती ने स्वयं लिखा है कि “जनसंघ ने आसू (अखिल असम छात्र संघ) को अपने प्रभाव में कर लिया.” असम में आरएसएस की मौजूदगी 1946 से है. उस साल संघ ने इस भू-भाग में अपनी पहली शाखा लगाई थी और उसने शरणार्थी मामले को सांप्रदायिक रंग देते हुए अवधारणा रखी कि शरणार्थी के रूप में वाले आने वाले हिंदुओं को संरक्षण की जरूरत है जबकि आने वाले मुसलमान घुसपैठिए हैं.
असम के एलीट कास्ट हिंदू बुद्धिजीवी नल्ली जनसंहार के बारे में भी खामोश रहते हैं जो असम आंदोलन के चरम में अंजाम दिया गया था और बंगाली मूल के हजारों मुसलमानों की हत्या कर दी गई थी. राजनीतिक विज्ञानी पॉल ब्रास ने अपनी किताब द प्रोडक्शन ऑफ हिंदू मुस्लिम वायलेंस इन कंटेंपरेरी इंडिया में उल्लेख किया है कि “प्रत्येक सांप्रदायिक दंगे के बाद उस दंगे को “अर्थ देने” और और हेजिमोनिक (अधिपत्य वाली) सहमति को स्थापित करने के प्रयास होते हैं जो समाज में शक्ति संबंधों का निर्धारण और उन्हें प्रभावित करते हैं.” पीशारोटी की किताब में और बरुआ की किताब नेम ऑफ द नेशन दोनों में यही चीज देखने को मिलती है कि नल्ली हत्याकांड को हिंदू-मुस्लिम हिंसा के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि उस वक्त आदिवासी और बंगाली हिंदुओं पर भी हमले हो रहे थे. दोनों कहते हैं कि नल्ली को कुछ ज्यादा ही भाव दिया जाता है जबकि हिंसा के पीछे नस्लीय कारण थे, न कि सांप्रदायिक.”
लेखक द्वय कहते हैं कि इस हत्याकांड के पीछे जो सबसे महत्वपूर्ण कारक था वह था केंद्र सरकार वह विभाजनकारी निर्णय जिसमें उसने विधानसभा चुनाव में बांग्लादेश से आए शरणार्थियों को भी वोट डालने का अधिकार दे दिया था.
अपनी बात को बल देने के लिए दोनों लेखक नल्ली हत्याकांड का अध्ययन करने वाले बुद्धिजीवी मकीको किमूरा को मनमाने तरीके से उद्धरित करते हैं लेकिन उनकी उस बात का उल्लेख नहीं करते जब किमूरो लिखते हैं, “मुसलमानों पर हमला करने का वातावरण और उसे मिली वैधता (लेजिटिमेसी) को समझे बिना हम हिंसा के प्रति पुलिस की उदासीनता को नहीं समझ सकते. आसू के नेता न केवल हिंसा को रोकने में असफल रहे बल्कि इस संगठन ने अपने नेताओं को मुसलमानों के खिलाफ हिंसा में भाग लेने तक की छूट दी.”
गैर असमिया लेखकों ने अपने अध्ययन में उन बातों का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है जो ये दोनों लेखक नहीं स्वीकारते. हानसेन ने मुझे बताया, “नल्ली में लोगों को बंगाली और मुसलमान होने के चलते लक्ष्य बनाया गया था और इस हत्याकांड ने इस तरह के अभियान का घातक प्रभाव सामने ला दिया था.” हिंसा रुक गई लेकिन 2012 में फिर से हिंसा हुई और यह अवधारणा की “विदेशी” अर्थ अवैध बंगाली मुसलमान होता है असम भर के हिंदुओं और अन्य लोगों में मजबूती से स्थापित हो गई.
असम के एलीट हिंदुओं के लिए “विदेशी” सेक्यूलर कैटेगरी को स्वाकार करना बंगाली मूल के मुसलमानों वाली सांप्रदायिक कैटेगरी से बेहतर राजनीति विकल्प है. बीजेपी की देशभर के मुस्लिम अधिकारियों को विदेशी बनाने की परियोजना के हिस्से के तहत लाए गए सीएए के राष्ट्रीय नागरिक पंजीकरण का तथाकथित उद्देश असम के 50 लाख से अधिक शरणार्थियों को, जिसका अर्थ बांग्लादेश के मुसलमान है, बाहर करना है. लेकिन 2019 में प्रकाशित अंतिम एनआरसी सूची में 20 लाख लोगों को विदेशी बताया गया है और उनमें से एक चौथाई या उससे अधिक हिंदू हैं. बीजेपी इसे ऐसी त्रुटि बताती है जो ठीक की जाएगी और मुख्यमंत्री बनते ही अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में सरमा ने एनआरसी के पुनः सत्यापन का वादा किया है. असम के बुद्धिजीवी, जो पहले एनआरसी का समर्थन इस दावे के साथ कर रहे थे कि मामला जातीयता से जुड़ा है वे अब इस भरोसे के बाद चुप बैठ गए हैं. इस बीच कुछ असमिया हिंदुओं ने इसे सरायघाट के युद्ध का कानूनी स्वरूप कहना शुरू किया है.
बंगाली मूल के मुसलमान इस स्थिति में खुद को फंसा हुआ पाते हैं क्योंकि न तो उन्हें असमिया संस्कृति में गुलमिल जाने दिया जाता है और न अपनी पहचान का प्रदर्शन करने की आजादी दी जाती है. राज्य का मियां समुदाय में अब इस बात पर चर्चा है कि वह अपने अधिकार का दावा करे या परेशानियों से बचने के लिए मामले को छोड़ दे. अजमल की पार्टी ने विधानसभा चुनावों में लड़ी 20 में से 16 सीटें जीती थीं लेकिन मियां समुदाय उन्हें अपनी आवाज नहीं मानता. वकील अमन वदूद ने मुझे बताया, “हम लोग बिना नेता और नेतृत्व वाले लोग हैं. अजमल समुदाय के खिलाफ जारी नैरेटिव को काउंटर करने में विफल साबित हुए हैं.”
मियां लोगों के लिए एनआरसी ने विडंबना खड़ी कर दी है. मियां सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी अब्दुल कलाम आजाद ने मुझे कहा, “हमारे पास एनसीआर का समर्थन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. यदि हमने ऐसा नहीं किया तो फिर 19 लाख नहीं बल्कि 50 लाख लोगों को अवैध करार दे दिया जाएगा.” उन्होंने आगे कहा, “हम इन लोगों को कैसे खुश करें? क्या हम डिटेंशन सेंटर चले जाएं? क्या हम निर्वासित हो जाएं? खेल एकदम साफ है वे लोग एनआरसी के जरिए हमारे ज्यादा से ज्यादा लोगों को हटाना चाहते हैं और अब हमें सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ही बचा सकता है.”
आजाद ने समझाया कि “समुदाय की ताकत और उसका जुझारूपन एक हद तक समाप्त हो चुके हैं. शायद वे लोग चाहते हैं कि हम लोग पुनः सत्यापन के खिलाफ प्रदर्शन करें ताकि हमें जेल में डाला जा सके. एक सामाजिक कार्यकर्ता के नाते मुझे लोगों को यह कहने में तकलीफ होती है कि वे सड़क ऊपर आंदोलन न करें. हमारे कई नेताओं ने सीएए के खिलाफ प्रदर्शन किया था लेकिन इसके बावजूद वे अपनी असमिया पहचान को मजबूती के साथ स्थापित नहीं कर सके. आजाद ने कहा कि “उस वक्त भी मैंने नेताओं से कहा था कि यह हमारी लड़ाई नहीं है बल्कि यह असमिया राष्ट्रवादी युद्ध है और जैसे ही इनको फिर मौका मिलेगा वे हमें नहीं छोड़ेंगे. फिर चुनावों में यही देखने को भी मिला.”