असम चुनाव : असमिया पहचान पर हिंदुत्व की आसान जीत

असम चुनाव से पहले ही हिमंत बिस्वा सरमा ने इस्लामोफोबिक बयान देना शुरू कर दिए थे. बीजेपी ने एक असमिया नृजातीय समूह के पूर्व मुख्यमंत्री को किनारे कर ब्राह्मण सरमा को राज्य का नया मुख्यमंत्री नियुक्त किया है.
डेविड तालुकदार / नूरफोटो / गेट्टी इमेजिस
असम चुनाव से पहले ही हिमंत बिस्वा सरमा ने इस्लामोफोबिक बयान देना शुरू कर दिए थे. बीजेपी ने एक असमिया नृजातीय समूह के पूर्व मुख्यमंत्री को किनारे कर ब्राह्मण सरमा को राज्य का नया मुख्यमंत्री नियुक्त किया है.
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पिछले महीने असम विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद भारतीय जनता पार्टी को राज्य के मुख्यमंत्री का नाम तय करने में एक सप्ताह का समय लगा. एक ऐसे राजनीतिक माहौल में जहां कई आदिवासी और जातीय समूह हैं, बीजेपी ने असम के जातीय समुदाय से आने वाले निवर्तमान मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल को किनारे कर ब्राह्मण जाति के हिमंत बिस्वा सरमा को राज्य का मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया. बीजेपी के सत्ता में दुबारा लौटने के बाद जो बात साफ हो जाती है वह यह कि जातियोतावाद (एथनोनेशनलिज्म) की राजनीति वाले इस राज्य में हिंदुत्व समर्थक ताकतें मजबूती से लामबंद हो चुकी हैं.

बहुसंख्यकवादी आक्रमकता से हमेशा बेअसर रहने वाले और भारत को सहिष्णु और धर्मनिरपेक्ष मानने वाले प्रिवलिज्ड लोगों के असमिया असाधारणवाद (इक्सेप्शनलिज्म) के दावे की पोल खुलती नजर आ रही है. 2014 में जब बीजेपी के केंद्र की सत्ता में आई थी, तो उसने उस देश में हिंदुओं को एकजुट हो जाने का आसान अवसर दे दिया जहां लगभग एक तिहाई मतदाता मुस्लिम हैं और जिसमें चार दशकों से अदरिंग (बहिष्कार करना, अन्य) की राजनीति जारी है. इन्हीं परिस्थितियों ने सोनोवाल को, जो पहले क्षेत्रीय असम गण परिषद के नेता थे, और सरमा, जो लंबे समय तक कांग्रेसी नेता रहे और जिनकी जड़ें अखिल असम छात्र संघ से जुड़ी थीं, को बेझिझक बीजेपी के नेताओं में तबदील हो जाने दिया.

समाचार पत्र द हिंदू के असम के एक पूर्व संवाददाता एमएस प्रभाकर ने 2009 में लिखा था कि, संक्षेप में, “यह नृजातीय-राष्ट्रवादी आंदोलन उन हिंदुत्ववादी आंदोलनों से अलग नहीं हैं जिनमें 'अन्य' का भय और घृणा जान फूंकती है.” पहले के मामलों में इस अन्य या अदर को मुख्य रूप से बंगाली मूल के लोगों रूप में समझा जाता था और बाद में इसे मुसलमान बना दिया गया. “इसीलिए, एथनिक क्लींजिंग या नस्लीय सफाई की घटनाएं होती हैं जो एथनिक नेशनलिज्म और हिंदुत्ववादी आंदोलनों का अभिन्न अंग है.” चुनाव परिणाम बताते हैं कि अंततः उपरोक्त दोनों विचारधाराएं बंगाली मूल के मुस्लिम या मियां मुस्लिम को “अन्य” मानने में एक साथ आ गई हैं. हिंदुत्व और सांप्रदायिक हिंसा के एक प्रमुख विद्वान थॉमस ब्लॉम हानसेन ने पिछले महीने मुझे ईमेल पर बताया, “असम में लंबे समय से मुसलमानों को अन्य के रूप में देखने के चलन के मद्देनजर हैरानी सिर्फ बात की है कि राज्य द्वारा भगवा रूप धारण करने में इतना वक्त लगा. मुझे लगता है कि ऐतिहासिक रूप से देखें तो यह देरी असम और बंगाल दोनों ही राज्यों में आरएसएस के अपेक्षाकृत कमजोर नेटवर्क के चलते हुई है. अब हालात बदल रहे हैं और तेजी से बदल रहे हैं.”

चुनावों से पहले, मानो सरमा हिंदुत्व मैनुअल से रट्टा लगाने लगे रहो, इस्लामोफोबिक बयानबाजी करने लगे. फरवरी में उन्होंने घोषणा की कि बीजेपी को चुनाव जीतने के लिए असम में बंगाली मूल के मुसलमानों के वोटों की जरूरत नहीं है. “उन्होंने खुद की पहचान मियां के रूप में बनाई है. ये तथाकथित मियां लोग बहुत सांप्रदायिक हैं, बहुत कट्टर हैं और वेह असमिया संस्कृति, असमिया भाषा को विकृत करने वाली विभिन्न गतिविधियों में शामिल हैं. इसलिए मैं उनके वोट से विधायक नहीं बनना चाहता.”

सरमा ने ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के अध्यक्ष बदरुद्दीन अजमल को “हमारा दुश्मन” बताया और कहा कि “यह असम की राजनीति का सबसे खतरनाक दौर है... एक व्यक्ति के रूप में नहीं बल्कि कुछ लोगों के प्रतीक के रूप में अजमल दुश्मन हैं." एक अन्य अवसर पर, उन्होंने दावा किया कि उन्होंने एक वीडियो देखा था जिसमें अजमल “मुस्लिम महिलाओं से जितना चाहे उतने बच्चे पैदा करने को कह रहे हैं." सरमा ने तंज से भरा सवाल किया कि मुस्लिम लड़कियां “बच्चे पैदा करने वाली मशीन” हैं. फिर उन्होंने मुसलमानों के चुनावी प्रभाव को कम करने के लिए निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन करने का वादा किया.

प्रवीण दोंती कारवां के डेप्यूटी पॉलिटिकल एडिटर हैं.

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