अप्रैल की एक उमस भरी दोपहर को 42 साल के रमेश देबनाथ बशीरहाट दक्षिण निर्वाचन क्षेत्र के एक तिराहे पर अपने दो दोस्तों के साथ राजनीतिक बहस कर रहे थे. जब मैं उनके पास पहुंचा तो पहले तो उन लोगों ने मुझसे पूछा कि क्या मैं प्रशांत किशोर की टीम से हूं, और जब मैंने बताया कि नहीं तो वह लोग खुलकर यह बताने लगे कि इस बार किसे वोट देंगे और किसे नहीं.
हालांकि उन लोगों ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के काम की प्रशंसा की लेकिन इस इलाके में 2017 में हुई सांप्रदायिक हिंसा की याद अभी उनके जहन में ताजा थी और यह ताजा याद उनके ममता बनर्जी के खिलाफ होने की प्रमुख वजह थी. देबनाथ ने मुझसे कहा, “मैं तृणमूल कांग्रेस की ऑटो यूनियन में काम करता था. मैं दीदी का कट्टर समर्थक था लेकिन इस बार मैं चाहता हूं कि उनकी पार्टी इस सीट से हार जाए.” जब मैंने उससे पूछा कि क्यों तो उसका जवाब था, “जब 2017 में हिंसा हो रही थी तो उनकी पार्टी का कोई सदस्य हमें बचाने नहीं आया. टीएमसी ने हिंदुओं को उनकी असली औकात दिखा दी. तो फिर हिंदू होने के नाते मैं टीएमसी को वोट दूं?” देबनाथ की बातें अपवाद नहीं हैं. 2017 की हिंसा का प्रभाव यहां दिखाई देता है और उस हिंसा ने धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए एक उर्वर जमीन तैयार की है. बशीरहाट-एक या बशीरहाट दक्षिण, बशीहाट-दो या बशीरहाट उत्तर और बदुरिया पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना जिले के 22 प्रशासनिक ब्लॉकों में से तीन ब्लॉक हैं. ये तीन प्रशासनिक ब्लॉक बशीरहाट लोकसभा सीट बनाते हैं जो मुस्लिम बहुल सीट है और फिलहाल यहां की सांसद तृणमूल कांग्रेस की नुसरत जहां हैं. जुलाई 2017 में बदुरिया से सांप्रदायिक दंगे शुरू हुए जो जल्द ही बशीरहाट दक्षिण में फैल गए.
सांप्रदायिक दंगे 17 साल के 11वीं कक्षा में पढ़ने वाले सौविक सरकार द्वारा फेसबुक में पैगंबर मोहम्मद का एक भड़काऊ कार्टून शेयर करने के बाद शुरू हुए थे. परिवार ने दावा किया था कि सरकार का फेसबुक अकाउंट हैक कर लिया गया था लेकिन आक्रोशित भीड़ सरकार के अंकल के घर के बाहर इकट्ठा हो गई और तोड़फोड़ करने लगी. सौविक सरकार बदुरिया के एक सरकारी स्कूल में पढ़ता था. वह भीड़ से बच निकलने में सफल रहा लेकिन स्थिति नियंत्रण से बाहर हो गई. बदुरिया में पहले सांप्रदायिक हिंसा हुई जो बाद में बशीरहाट दक्षिण तक फैल गई. दंगों में इस इलाके के ट्रिमोहिनी चौक की कई दुकानों में तोड़फोड़ हुई और सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुंची. बशीरहाट के निवासी कार्तिक घोष भड़की हिंसा में घायल होकर मारे गए और बहुत सारे अन्य घायल हुए. दंगों के दौरान ममता बनर्जी प्रशासन की विपक्ष ने जमकर आलोचना की. आज चार साल बाद यहां के लोगों का कहना है कि वह हिंसा के घावों को भूले नहीं हैं. पहले तो हिंदू मतदाता दंगों के बारे में खुलकर बात नहीं कर रहे थे लेकिन जैसे ही ऊपरी परत को खोदा जाए तो उनके मनोवैज्ञानिक घाव दिखाई देने लगते हैं.
बदुरिया विधानसभा सीट से टीएमसी के उम्मीदवार काजी अब्दुल रहीम जिन्हें दिल्लू भी कहा जाता है, चुनाव लड़ रहे हैं. दिल्लू पहले कांग्रेस के सदस्य थे. 1967 से 2011 के बीच, उनके पिता और कांग्रेस के नेता अब्दुल गफ्फार काजी आठ बार विधानसभा के सदस्य रहे थे. 2016 में उन्होंने यह सीट अपने बेटे दिल्लू को दे दी जो उस साल विधायक बने. चुनाव से पांच महीने पहले रहीम ने कांग्रेस छोड़ दी और टीएमसी में आ गए.
मैंने बदुरिया में बीजेपी मंडल कार्यालय का दौरा किया. वहां बीजेपी कार्यकर्ताओं ने मुझसे रहीम और टीएमसी को हराने की अपनी रणनीति बताई और इस रणनीति में सांप्रदायिक तनाव सबसे शीर्ष में था. बीजेपी के पूर्व वार्ड अध्यक्ष बादल घोष ने मुझसे कहा, “जब हम घर-घर जाकर चुनाव प्रचार करते हैं तो हम मतदाताओं को बदुरिया दंगे में क्या-क्या हुआ था वह बताना नहीं भूलते. जब 2017 में दंगे हो रहे थे तो हमें उम्मीद थी कि हमारा एमएलए काजी अब्दुल रहीम आक्रोशित भीड़ को शांत कराएगा लेकिन वह छुपा रहा. जब बदुरिया के हिंदू वोटरों ने यह देखा तो जाहिर है कि उनका ध्रुवीकरण हुआ.” घोष सरकारी स्कूल में टीचर हैं और 2014 से बीजेपी के लिए काम कर रहे हैं. उनके अनुसार टीएमसी का स्थानीय नेतृत्व अल्पसंख्यक समुदायों से भरा पड़ा है जो अपनी मनमानी करते हैं.
कमेंट