अप्रैल की एक उमस भरी दोपहर को 42 साल के रमेश देबनाथ बशीरहाट दक्षिण निर्वाचन क्षेत्र के एक तिराहे पर अपने दो दोस्तों के साथ राजनीतिक बहस कर रहे थे. जब मैं उनके पास पहुंचा तो पहले तो उन लोगों ने मुझसे पूछा कि क्या मैं प्रशांत किशोर की टीम से हूं, और जब मैंने बताया कि नहीं तो वह लोग खुलकर यह बताने लगे कि इस बार किसे वोट देंगे और किसे नहीं.
हालांकि उन लोगों ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के काम की प्रशंसा की लेकिन इस इलाके में 2017 में हुई सांप्रदायिक हिंसा की याद अभी उनके जहन में ताजा थी और यह ताजा याद उनके ममता बनर्जी के खिलाफ होने की प्रमुख वजह थी. देबनाथ ने मुझसे कहा, “मैं तृणमूल कांग्रेस की ऑटो यूनियन में काम करता था. मैं दीदी का कट्टर समर्थक था लेकिन इस बार मैं चाहता हूं कि उनकी पार्टी इस सीट से हार जाए.” जब मैंने उससे पूछा कि क्यों तो उसका जवाब था, “जब 2017 में हिंसा हो रही थी तो उनकी पार्टी का कोई सदस्य हमें बचाने नहीं आया. टीएमसी ने हिंदुओं को उनकी असली औकात दिखा दी. तो फिर हिंदू होने के नाते मैं टीएमसी को वोट दूं?” देबनाथ की बातें अपवाद नहीं हैं. 2017 की हिंसा का प्रभाव यहां दिखाई देता है और उस हिंसा ने धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए एक उर्वर जमीन तैयार की है. बशीरहाट-एक या बशीरहाट दक्षिण, बशीहाट-दो या बशीरहाट उत्तर और बदुरिया पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना जिले के 22 प्रशासनिक ब्लॉकों में से तीन ब्लॉक हैं. ये तीन प्रशासनिक ब्लॉक बशीरहाट लोकसभा सीट बनाते हैं जो मुस्लिम बहुल सीट है और फिलहाल यहां की सांसद तृणमूल कांग्रेस की नुसरत जहां हैं. जुलाई 2017 में बदुरिया से सांप्रदायिक दंगे शुरू हुए जो जल्द ही बशीरहाट दक्षिण में फैल गए.
सांप्रदायिक दंगे 17 साल के 11वीं कक्षा में पढ़ने वाले सौविक सरकार द्वारा फेसबुक में पैगंबर मोहम्मद का एक भड़काऊ कार्टून शेयर करने के बाद शुरू हुए थे. परिवार ने दावा किया था कि सरकार का फेसबुक अकाउंट हैक कर लिया गया था लेकिन आक्रोशित भीड़ सरकार के अंकल के घर के बाहर इकट्ठा हो गई और तोड़फोड़ करने लगी. सौविक सरकार बदुरिया के एक सरकारी स्कूल में पढ़ता था. वह भीड़ से बच निकलने में सफल रहा लेकिन स्थिति नियंत्रण से बाहर हो गई. बदुरिया में पहले सांप्रदायिक हिंसा हुई जो बाद में बशीरहाट दक्षिण तक फैल गई. दंगों में इस इलाके के ट्रिमोहिनी चौक की कई दुकानों में तोड़फोड़ हुई और सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुंची. बशीरहाट के निवासी कार्तिक घोष भड़की हिंसा में घायल होकर मारे गए और बहुत सारे अन्य घायल हुए. दंगों के दौरान ममता बनर्जी प्रशासन की विपक्ष ने जमकर आलोचना की. आज चार साल बाद यहां के लोगों का कहना है कि वह हिंसा के घावों को भूले नहीं हैं. पहले तो हिंदू मतदाता दंगों के बारे में खुलकर बात नहीं कर रहे थे लेकिन जैसे ही ऊपरी परत को खोदा जाए तो उनके मनोवैज्ञानिक घाव दिखाई देने लगते हैं.
बदुरिया विधानसभा सीट से टीएमसी के उम्मीदवार काजी अब्दुल रहीम जिन्हें दिल्लू भी कहा जाता है, चुनाव लड़ रहे हैं. दिल्लू पहले कांग्रेस के सदस्य थे. 1967 से 2011 के बीच, उनके पिता और कांग्रेस के नेता अब्दुल गफ्फार काजी आठ बार विधानसभा के सदस्य रहे थे. 2016 में उन्होंने यह सीट अपने बेटे दिल्लू को दे दी जो उस साल विधायक बने. चुनाव से पांच महीने पहले रहीम ने कांग्रेस छोड़ दी और टीएमसी में आ गए.
मैंने बदुरिया में बीजेपी मंडल कार्यालय का दौरा किया. वहां बीजेपी कार्यकर्ताओं ने मुझसे रहीम और टीएमसी को हराने की अपनी रणनीति बताई और इस रणनीति में सांप्रदायिक तनाव सबसे शीर्ष में था. बीजेपी के पूर्व वार्ड अध्यक्ष बादल घोष ने मुझसे कहा, “जब हम घर-घर जाकर चुनाव प्रचार करते हैं तो हम मतदाताओं को बदुरिया दंगे में क्या-क्या हुआ था वह बताना नहीं भूलते. जब 2017 में दंगे हो रहे थे तो हमें उम्मीद थी कि हमारा एमएलए काजी अब्दुल रहीम आक्रोशित भीड़ को शांत कराएगा लेकिन वह छुपा रहा. जब बदुरिया के हिंदू वोटरों ने यह देखा तो जाहिर है कि उनका ध्रुवीकरण हुआ.” घोष सरकारी स्कूल में टीचर हैं और 2014 से बीजेपी के लिए काम कर रहे हैं. उनके अनुसार टीएमसी का स्थानीय नेतृत्व अल्पसंख्यक समुदायों से भरा पड़ा है जो अपनी मनमानी करते हैं.
बीजेपी के कार्यकर्ताओं ने दावा किया कि 2017 की सांप्रदायिक हिंसा के बाद उनके मतदाताओं की संख्या में कई गुना इजाफा हुआ है. “हमारा पहले एक छोटा सा वोटर आधार था लेकिन 2017 के बाद चीजें बदल गईं. दंगों के बाद से हमारा वोटर आधार कम से कम 5 से 7 गुना बढ़ा है”, बीजेपी के बूथ अध्यक्ष तारक नाथ ने मुझे बताया. बीजेपी कार्यालय में वोटिंग पैटर्न और हिंदू बहुल इलाकों को दर्शाता एक व्हाइट बोर्ड लटका हुआ था.
2016 में बीजेपी को बदुरिया में केवल 9 प्रतिशत वोट मिले थे. बदुरिया प्रशासन के 2011 के रिकॉर्ड के अनुसार इलाके में 65 फीसदी मुसलमान और 34 फीसदी हिंदू रहते हैं. बीजेपी ऑफिस, जहां मैंने घोष से मुलाकात की थी, सौविक सरकार के घर से ज्यादा दूर नहीं है. जहां आस पड़ोस की हिंदू आबादी पूरी तरह से भगवा रंग में रंग गई. 27 साल के अर्गो डे बदुरिया की एक निजी फर्म में काम करते हैं. 5 अप्रैल की देर रात वह टीएमसी कार्यालय के बगल में स्थित एक जनरल स्टोर में अपने दोस्तों के साथ खड़े थे. जो बात मुझसे बीजेपी कार्यकर्ताओं ने की थी वही बात मुझसे डे ने भी की. उन्होंने कहा, “दंगों ने एक सच्चाई हम सबके सामने ला दी. हमें एहसास हुआ कि बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही हिंदुओं के साथ खड़े होंगे. उससे हमें यह महसूस हुआ कि हम कहां खड़े हैं और चुनावों में हमें किसे वोट देना चाहिए.”
हालांकि बदुरिया और बशीरहाट में बीजेपी के जीतने की गुंजाइश कम है लेकिन डे जैसे मतदाताओं की पसंद बीजेपी और संघ परिवार हैं. लेकिन वहां के टीएमसी कार्यकर्ताओं ने इन कारणों का असर न पड़ने का दावा किया. टीएमसी के नेताओं और मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने दंगों के बाद ध्रुवीकरण की संभावनाओं को नकारा. ऑल इंडिया सुन्नत उल जमात के महासचिव अब्दुल माटिन उन लोगों में से हैं जिन्होंने 2017 की सांप्रदायिक हिंसा में आक्रोशित भीड़ को शांत कराने का प्रयास किया था. मैंने माटिन से अप्रैल में बात की तो उन्होंने बताया कि मतदाता बदुरिया और बशीरहाट के दंगों को भूल चुके हैं और यह चुनावी मुद्दा नहीं है. उन्होंने दावा किया लोग इसे भूल चुके हैं और राजनीतिक पार्टियां भी इनका जिक्र करने में संकोच कर रही हैं और इसलिए मतदाताओं पर इस मुद्दे का असर नहीं पड़ेगा.
टीएमसी के स्थानीय कार्यकर्ताओं ने भी कहा कि मतदाता 2017 के दंगों को भूल चुके हैं. 38 साल के टीएमसी कार्यकर्ता करीम अली ने मुझसे कहा, “बीजेपी जैसी पार्टियां ध्रुवीकरण की कोशिश करती हैं लेकिन बदुरिया में ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि यहां सांप्रदायिक सद्भाव का इतिहास है.”
फिर भी यहां के हिंदू मतदाताओं से बात करने पर पता चलता है कि टीएमसी के कार्यकर्ताओं का विश्वास सही नहीं है. बशीरहाट दक्षिण में मैं कार्तिक घोष के परिवार से मिला. वह दंगों में अपने पिता की मौत को नहीं भूले हैं. उनका घर बशीरहाट दक्षिण के तंत्रा इलाके में है. कार्तिक घोष के बड़े बेटे देवाशीष घोष चाय की दुकान चलाते हैं और छोटे बेटे प्रभाशीष घोष एक सरकारी विभाग में काम करते है जो नौकरी सांप्रदायिक हिंसा में पिता की मौत की क्षतिपूर्ति के रूप में उन्हें मिली है.
बदुरिया-बशीरहाट दंगों में बीजेपी की पश्चिम बंगाल इकाई ने दावा किया था कि कार्तिक घोष उनके कार्यकर्ता थे. उस वक्त घोष परिवार ने इससे इनकार किया था और मीडिया से कहा था कि उनका बीजेपी से कोई संबंध नहीं है लेकिन जब मैं अप्रैल में परिवार से मिला तो परिवार ने दावा किया कि वह लोग बीजेपी के समर्थक हैं. प्रभाशीष ने बताया, “मेरे पिता कार्तिक घोष बीजेपी के कार्यकर्ता थे. मेरे पिता की मौत के बाद टीएमसी के स्थानीय कार्यकर्ताओं ने हमें गंभीर परिणामों की धमकी दी. हमें कहा गया कि हम मीडिया से कहें कि बीजेपी के साथ कार्तिक घोष का कोई संबंध नहीं था और फिर डर के चलते हमने यही कहा.”
प्रभाशीष ने आगे दावा किया कि उनसे टीएमसी के कार्यकर्ताओं ने पिता कार्तिक घोष की मौत के कुछ दिन बाद मारपीट की थी. परिवार ने कहा कि उनके पिता बीजेपी के कार्यकर्ता थे लेकिन दोनों भाई और मां ममता बनर्जी के समर्थक थे लेकिन अब प्रभाशीष और देवाशीष दोनों बीजेपी और हिंदुत्व के कट्टर समर्थक हैं.
कार्तिक घोष के घर के आसपास के रहने वाले इस बात पर चुप थे कि वह किसे वोट देंगे लेकिन नाम गुप्त रखने को कह कर उन्होंने मुझे बीजेपी के पुराने नारे का इशारा किया, “चुपचाप कमल छाप.”
घोष के घर से बाहर आकर मैं बशीरहाट के चौमाथा बस स्टॉप गया. बस स्टॉप पर मैंने कुछ व्यवसायियों से बात की जो हिंदू समुदाय के थे. उन्होंने माना कि टीएमसी और बनर्जी ने इलाके का विकास किया है. वह लोग सांसद नुसरत जहां से नाराज थे लेकिन उन्होंने कहा कि वह फिर भी टीएमसी का समर्थन करेंगे. लेकिन 27 साल के ऋतुब्रता मंडल ने मुझसे कहा कि निशुल्क राशन और विकास योजनाओं का श्रेय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को मिलना चाहिए, बनर्जी को नहीं. मंडल ने कहा, “बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने विकास कराया है. आप हिंदू इलाकों में जाइए ताकि आपको सच्चाई समझ आए.” इसके बाद में टाकी गया जहां इच्छामति नदी भारत और बांग्लादेश की सीमा बनाती है. बाजार इलाके में टीएमसी और वाम मोर्चा, कांग्रेस और भारतीय सेक्यूलर फ्रंट के संयुक्त उम्मीदवारों के झंडे घरों और स्थानीय दुकानों में लगे हुए थे लेकिन जब मैं गांवों की ओर गया तो वहां मुझे बीजेपी के निशान और झंडे दिखाई दिए. टाकी से कुछ किलोमीटर दूर मुस्लिम इलाका दंदीरहाट गांव है. वहां मुझे टीएमसी और बनर्जी का एकतरफा समर्थन दिखाई दिया. वहां की महिलाओं ने मुझसे कहा कि वह टीएमसी को वोट देंगी क्योंकि लॉकडाउन के समय कई महीनों तक पार्टी ने उन्हें निशुल्क राशन उपलब्ध कराया था.
वहां 22 साल की फातिमा बीबी का कहना था कि “दीदी की सरकार ने इलाके का विकास किया है. लॉकडाउन के बाद ममता बनर्जी ने सभी संभावित तरीकों से मदद की.” हालांकि टीएमसी की सांसद नुसरत जहां यहां लोकप्रिय नहीं हैं. वोटरों का दावा था कि लॉकडाउन और जब मई 2020 में अंफा तूफान आया तो वह गायब थीं.
18 साल के छात्र एहसान सरदार ने मुझसे कहा, “नुसरत हमारी सांसद हैं लेकिन उन्होंने हमारे इलाके के लिए कुछ नहीं किया? अंफा जब तबाही मचा रहा था तो वह कहां थी? मैं तो सिर्फ उनकी आलोचना कर रहा हूं लेकिन अगर आप बशीरहाट के लोगों से बात करेंगे तो आप इनसे भी कड़े शब्दों में उनकी बुराई सुनेंगे.”
लेकिन जहां की आलोचना का यह अर्थ नहीं है कि लोग यहां टीएमसी को वोट नहीं देंगे. सरदार ने कहा, “मैं ममता बनर्जी सरकार की नीतियों के कारण पढ़ पा रहा हूं. इस चुनाव में हम टीएमसी का समर्थन करेंगे और यदि लोकसभा चुनावों में टीएमसी फिर से नुसरत जहां को उतारेगी तो हमें उनको वोट देना पड़ेगा लेकिन वह वोट टीएमसी के होंगे नुसरत के नहीं.”
लेकिन दंदीरहाट के जौटाला इलाके में, जो हिंदू बहुल है, लोगों के विचार अलग थे. यह इलाका बशीरहाट दक्षिण निर्वाचन क्षेत्र में आता है. हालांकि यहां सभी लोगों ने बीजेपी का समर्थन नहीं किया लेकिन जिन लोगों ने खुलकर बात की वह बीजेपी के समर्थक थे और समर्थन का मुख्य कारण बदुरिया सांप्रदायिक तनाव था. 30 साल के किशन घोष ने मुझसे कहा, “2017 के दंगों में लगभग 10 से 15 दिन तक हम डर के साए में जीए और अभी तलक दोनों समुदायों के संबंध सामान्य नहीं हुए हैं.” गांव के बुजुर्ग गोविंद चंद्र घोष ने मुझसे सीधे-सीधे कहा, “जब आरएसएस और बीजेपी के लोग लाठियों और हथियारों के साथ हमारी मदद करने आए तब जाकर दंगे रुके.” बशीरहाट और बदुरिया के बारे में घोष ने मुझसे कहा कि “इन इलाकों में मुसलमानों की संख्या बहुत ज्यादा है और अगर हम कुछ बोलते हैं तो हमारा विरोध होता है लेकिन हम लोग बीजेपी को सत्ता में लाने की लड़ाई लड़ रहे हैं ताकि हिंदुओं को उनका गौरव वापस मिल सके.”
बशीरहाट दक्षिण ने पश्चिम बंगाल में बीजेपी को जमाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है. 1999 में यहां से टीएमसी की मदद से बीजेपी ने राज्य में अपनी पहली विधानसभा सीट जीती थी. इसके बाद बीजेपी को अपनी दूसरी जीत हासिल करने में एक दशक लगा. सितंबर 2014 में बशीरहाट दक्षिण निर्वाचन क्षेत्र के लिए हुए उपचुनाव में बीजेपी के सामी भट्टाचार्य ने टीएमसी के उम्मीदवार दीपांशु विश्वास को हराया था. बशीरहाट उत्तर की तुलना में यहां हिंदू आबादी अधिक है. इसके बाद भट्टाचार्य ने लोकसभा का चुनाव लड़ा लेकिन हार गए.
2016 विधानसभा चुनावों में पश्चिम बंगाल में बनर्जी को हराने के बीजेपी के मंसूबे पूरे नहीं हुए. उस चुनाव में बीजेपी को केवल तीन विधानसभा सीटें मिलीं. बीजेपी के उम्मीदवार भट्टाचार्य टीएमसी के उम्मीदवार विश्वास से हार गए. इस निर्वाचन क्षेत्र में 2016 में टीएमसी का वोट शेयर 40 फीसद, बीजेपी का 29 और कांग्रेस का 26 फीसद था. गौरतलब है कि 2021 के विधानसभा चुनावों से पहले विश्वास बीजेपी में शामिल हो गए हैं.
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इसके बगल में बशीरहाट उत्तर विधानसभा सीट है. यह एक मुस्लिम बहुल इलाका है. 2016 में टीएमसी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) या सीपीएम और बीजेपी ने यहां मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे. उस साल टीएमसी और सीपीएम का वोट प्रतिशत 45 प्रतिशत से ऊपर था और बीजेपी को सिर्फ 6 प्रतिशत वोट मिला था. फिलहाल विधायक रफीकुल इस्लाम मंडल टीएमसी के टिकट पर यहां से चुनाव लड़ रहे हैं लेकिन इस सीट पर भी हिंदू ध्रुवीकरण दिखाई देता है. 40 वर्षीय पिंटू विश्वास बशीरहाट उत्तर में सैलून चलाते हैं. विश्वास ने दावा किया कि वह पहले टीएमसी को वोट देते थे लेकिन अबकी बार ऐसा नहीं करेंगे. उन्होंने कहा, “दीदी मुस्लिम तुष्टीकरण करती हैं. वह सार्वजनिक मंचों पर नमाज पढ़ती हैं और जय श्रीराम के नारे से भागती हैं. जब बीजेपी सत्ता में आएगी तो टीएमसी और दीदी को उनकी करतूतों सबक सिखाएगी.” उन्होंने कहा कि निजी रूप से अल्पसंख्यक होने से उनको कभी परेशानी नहीं हुई लेकिन फिर भी उन्होंने 2017 के दंगों की बात की.
विश्वास की दुकान से कुछ दूरी पर लोकनाथ मंदिर है. इस मंदिर से हिंदू और मुसलमान दोनों का गुजारा होता है. 61 साल के राबिन कहार मंदिर में पूजा अर्चना कराते हैं जिसके बदले उन्हें 100-200 रुपए की कमाई हो जाती है. जब सीपीएम सत्ता में थी तो कहार सीपीएम समर्थक थे. 2011 में उन्होंने टीएमसी को वोट दिया और अब वह कट्टर बीजेपी समर्थक हैं. मुसलमानों के बारे में उनका कहना है कि “जब वह अब्बास सिद्दीकी, जिन्हें भारतीय सेक्यूलर फ्रंट ने टिकट दिया है, को वोट दे सकते हैं तो मैं क्यों न हिंदू पार्टी को वोट दूं.” सिद्दीकी के साले बशीरहाट उत्तर से भारतीय सेक्यूलर फ्रंट के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं.
लेकिन अपर्णा मंडल जैसे कुछ अन्य लोग भी हैं जो आधारभूत संरचना को दुरुस्त करने का श्रेय बनर्जी को देते हैं. अपर्णा मंडल मिठाई की दुकान चलाती हैं और उन्होंने बीजेपी कार्यकर्ताओं के उन आरोपों का खंडन किया कि ममता बनर्जी की सरकार केवल अल्पसंख्यक समुदायों के हित के लिए काम करती है. उन्होंने कहा, “लोकनाथ मंदिर पुनर्विकास का काम, इलाके में सड़क बनाना और सड़कों में लाइट लगवाना यह सब काम दीदी के कार्यकाल में हुए हैं. ऐसे में कोई कैसे उन पर आरोप लगा सकता है कि वह सिर्फ एक विशेष समुदाय के हित के लिए काम करती हैं.”
यह कहना मुश्किल है कि बदुरिया और बशीरहाट दंगों से बीजेपी कितनी मजबूत हुई है लेकिन 2014 और 2019 के संसदीय चुनाव पर नजर दौड़ाएं तो दिखता है कि दंगों के बाद बीजेपी की स्थिति में सुधार हुआ है. 2014 लोक सभा चुनाव में टीएमसी को बशीरहाट लोक सभा क्षेत्र से 39 प्रतिशत वोट मिले थे और बीजेपी को 18 प्रतिशत. 2019 में यानी दंगों के दो साल बाद, इलाके में बीजेपी का वोट प्रतिशत लगभग दोगुना हो गया. टीएमसी की नुसरत जहां को 54 प्रतिशत वोट मिले तो बीजेपी के सयंतन बसु को 30.12 प्रतिशत वोट मिले. वहीं कांग्रेस ने अपना 2014 का प्रदर्शन दोहराया और उसे 7 प्रतिशत से थोड़ा ज्यादा वोट मिला. टीएमसी और बीजेपी की बढ़त का नुकसान सीपीआई को चुकाना पड़ा. वाम मोर्चे का वोट प्रतिशत, जो 2014 में 30 प्रतिशत था, 2019 में घटकर 4.7 प्रतिशत हो गया. यह संकेत है कि ध्रुवीकरण हुआ है. मुसलमान टीएमसी के साथ गए हैं और हिंदू मतदाता ने बीजेपी को वोट दिया है.
स्निगदेंदू भट्टाचार्य पत्रकार हैं और मिशन बंगाल : सैफरन एक्सपेरिमेंट नाम की किताब के लेखक हैं. उनका तर्क है कि हिंदू मतदाताओं का बीजेपी के पक्ष में ध्रुवीकरण बीजेपी और संघ परिवार के सालों के अभियान के चलते है. उन्होंने बताया कि बीजेपी का स्थानीय नेतृत्व संघ कार्यकर्ताओं से बना है. उन्होंने कहा, “2014 में बीजेपी की एंट्री से पहले तक इलाकों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कभी नहीं हुआ था. इस इलाके की जनसांख्यिकी नहीं बदली है और इसलिए बीजेपी और संघ परिवार के 2013 के बाद से चलाए गए अभियान के चलते ध्रुवीकरण हुआ है.” उन्होंने आगे कहा कि 2017 के दंगे के बाद निश्चित रूप से ध्रुवीकरण बढ़ा है. 2017 के दंगों में जो तनाव बना वह भी 2014 के बाद से बीजेपी के उग्र अभियान के चलते ही था.
2021 में बनर्जी अपना सबसे कठिन चुनाव लड़ रही हैं. जबकि बीजेपी राज्य से टीएमसी को हटाना चाहती है, सिद्दीकी के नेतृत्व वाले संयुक्त मोर्चा की नजर टीएमसी के मुस्लिम मतदाताओं पर है. फिर भी अपनी रैलियों में बनर्जी मुख्य रूप से बीजेपी को निशाना बना रही हैं. उनकी पार्टी ने बीजेपी पर पश्चिम बंगाल के सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने की कोशिश करने का इल्जाम लगाया है. अक्सर टीएमसी बीजेपी को बाहरी लोगों की पार्टी कहती है जो राज्य में सांप्रदायिक टकराव बनाने की कोशिश कर रहे हैं.
2016 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों से पहले हिंदू जागरण मंच के पूर्व नेता दिलीप घोष को बीजेपी राज्य इकाई का प्रमुख बनाया गया. हिंदू जागरण मंच संघ परिवार का संगठन है. मार्च 2017 में अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा, जो निर्णय लेने वाली आरएसएस की सबसे शीर्ष सभा है, ने तमिलनाडु में आयोजित सम्मेलन में पश्चिम बंगाल में “जिहादी तत्वों की बेलगाम बढ़त पर चिंता व्यक्त” करते हुए प्रस्ताव पारित किया था. 2017 में दिलीप घोष ने खड़कपुर सरदार में रामनवमी के जुलूस में भाग लिया. वहां उन्होंने घोषणा की कि दशहरे में ऐसी झांकियां राज्य भर में निकाली जाएंगी. टीएमसी और बीजेपी के बीच टकराव यहीं से तीव्र हो गया. उसी साल जब बदुरिया-बशीरहाट दंगे हुए तो घोष और उनकी टीम ने बनर्जी पर यह कहकर हमला किया कि वह स्थिति को नियंत्रण करने में असफल रहीं और उन्होंने केंद्रीय पुलिस बल को तैनात करने में देर की. दिलीप ने समाचार एजेंसी यूएनआई से कहा, “हम पीड़ितों के परिवारों से मिलेंगे लेकिन टीएमसी नहीं चाहती कि हम किसी भी तरह से मदद करें. वह लोग खुद स्थिति पर नियंत्रण करने में नाकामयाब हैं. यह सरकार नहीं चाहती कि राज्य की खराब स्थिति पूरे देश के के सामने आ जाए.”
जारी चुनाव में ध्रुवीकरण का असर केवल बदुरिया-बशीरहाट क्षेत्र तक सीमित नहीं है बल्कि यह पश्चिम बंगाल के अन्य इलाकों में भी देखा जा रहा है और टीएमसी को छोड़ने वाले लोग इसका लाभ लेने की कोशिश कर रहे हैं.
35 साल के सीपीएम कार्यकर्ता और शिक्षक अरित्रा विश्वास ने मुझसे कहा, “हम बीजेपी और तृणमूल को एक मानते हैं और उन्हें बीजे-मूल कहते हैं.” उन्होंने बताया कि वाममोर्चा के शासन में संघ परिवार कमजोर था लेकिन टीएमसी के शासन में बीजेपी और आरएसएस की पकड़ मजबूत हुई है. “टीएमसी के दौर में भगवा ताकतें मजबूत हो रही हैं.”
इस बीच कांग्रेस के जमीनी संगठन सेवा दल के राणाबत्रा चक्रवर्ती ने दावा किया कि भारतीय सेक्यूलर फ्रंट के मैदान में उतरने से बशीरहाट दक्षिण में उनकी पार्टी की स्थिति में सुधार आया है. उन्होंने बताया, “यहां पार्टी के उम्मीदवार अमित मजूमदार बीजेपी से सीधे भीड़ रहे हैं और टीएमसी चुनावी दौड़ में पिछड़ रही है. भारतीय सेक्यूलर फ्रंट के कारण हमारी उम्मीद मजबूत हुई है. कार्यकर्ता अभियान को मजबूत बना रहे हैं.” लेकिन टीएमसी के कार्यकर्ताओं का कहना है कि भारतीय सेक्यूलर फ्रंट के अब्बास सिद्दीकी का इस इलाके में बहुत कम प्रभाव है. 30 साल के टीएमसी कार्यकर्ता शब्बीर हुसैन ने मुझसे कहा, “सिद्दीकी का यहां कोई असर नहीं है. मुसलमान आरएसएस और बीजेपी को हराना चाहते हैं और वह समझते हैं कि बीजेपी इस देश को हिंदू राष्ट्र बनाने के एजेंडे पर काम कर रही है और इसलिए मुस्लिम ऐसी किसी ताकत को वोट नहीं देंगे जो बीजेपी को मजबूत बनाए.”