अरावली में बगावत

कैसे भील आदिवासी राजनीति का व्याकरण बदल रहे हैं

एक सभा को संबोधित करते भारतीय ट्राइबल पार्टी के नेता कांतिलाल रोत. फोटो : विनय सुल्तान

2 सितंबर 2021 को उदयपुर के एसपी कार्यालय से एक खत जिले के सभी सर्किल ऑफिसरों के नाम जारी हुआ. इस खत में 1 सितंबर 2021 के रोज राजस्थान पुलिस के इंटेलिजेंस विभाग के महानिदेशक के खत का हवाला देते हुए दक्षिण राजस्थान में सक्रिय राजनीतिक दल, भारतीय ट्राइबल पार्टी और अन्य आदिवासी संगठनों पर निगरानी रखने के निर्देश दिए गए थे. 

दरअसल पिछले साल 7 सितंबर को आदिवासी युवाओं ने शिक्षक भर्ती परीक्षा 2018 के रिक्त पदों की भर्ती की मांग को लेकर कांकरी डूंगरी नाम के पहाड़ पर धरना शुरू कर दिया था. 24 सितंबर 2020 के रोज यह आंदोलन हिंसक हो गया था. इस घटना की पहली वर्षगांठ पर आदिवासी छात्र से आंदोलन शुरू कर सकते हैं. इस आशंका को मद्देनजर रखते हुए एसपी उदयपुर ने अपने खत में लिखा : 

“प्रस्तावित कार्यक्रम के मद्देनजर सुरक्षा एवं कानून व्यवस्था के दृष्टिगत अपने-अपने क्षेत्राधिकार में भारतीय ट्राइबल (बीटीपी) व अन्य आदिवासी संगठन के वर्तमान में सक्रिय नेता/पदाधिकारियों के नाम, मोबाइल नंबर व संगठन का नाम सहित सूचना दिनांक 05.09.2021 को प्रातः 10 बजे तक, जरिए ई-मेल, आवश्यक रूप से पहुंच जानी चाहिए.” 

हालांकि यह खत पुलिस महकमे के अंदरूनी खत-ओ-किताबत का हिस्सा था लेकिन यह रिसते हुए पब्लिक डोमेन में आ गया. इसके बाद मानवाधिकार संगठनों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया. पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ने राज्य के प्रमुख शासन सचिव निरंजन आर्यपुलिस महानिदेशक एमएल लाठर, मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव कुलदीप रांका के नाम खुला खत लिखा. इस खत में सवाल उठाया गया कि पुलिस किसी राजनीतिक दल के नेताओं और दूसरे आदिवासी कार्यकर्ताओं की निगरानी किस बिनाह पर कर सकती है. आखिरकार उदयपुर एसपी को अपना खत वापस लेना पड़ा. 

लेकिन यह खत बताता है कि कांकरी डूंगरी की घटना के एक साल बाद भी स्थानीय राजनीतिक नेतृत्व और प्रशासन के बीच भरोसे की कितनी कमी है. आखिर क्या है यह कांकरी डूंगरी आंदोलन जो एक साल बाद भी प्रशासन के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है. इसे समझने के लिए आपको तकरीबन 10 महीने पीछे चलना पड़ेगा. 

उदयपुर के एसपी कार्यालय से जारी इस पत्र में सर्किल ऑफिसरों को 1 सितंबर 2021 को राजस्थान पुलिस के इंटेलिजेंस विभाग के महानिदेशक के खत का हवाला देते हुए दक्षिण राजस्थान में सक्रिय राजनीतिक दल, भारतीय ट्राइबल पार्टी और अन्य आदिवासी संगठनों पर निगरानी रखने के निर्देश दिए गए थे. सौजन्य : विनय सुल्तान

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25 नवंबर 2020 को शाम 4.30 बजे दक्षिण राजस्थान के डूंगरपुर जिले के उखेड़ी गांव में भारतीय ट्राइबल पार्टी के नेता और डूंगरपुर-बांसवाड़ा लोकसभा का चुनाव लड़ लाखों वोट जुटा चुके कांतिलाल रोत एक नुक्कड़ सभा को संबोधित कर रहे थे. दो दिन बाद डूंगरपुर में पंचायत समिति के चुनाव होने जा रहे थे. 5 बजे के बाद आचार संहिता के अनुसार कोई जनसभा नहीं हो सकती. लिहाजा यह चुनाव प्रचार की आखिरी जनसभा थी. रोत स्थानीय भाषा वागडी में बोल रहे थे. नब्ज समझ कर बोलने वाले रोत वक्ता के तौर पर पूरे इलाके में लोकप्रिय हैं. यूट्यूब पर उनके भाषण लाखों बार देखे जाते हैं. उनकी जबान अटकती नहीं है. वह अच्छे शब्दों का चुनाव करते हैं. उनके हाथ एक लय में थिरकते हैं. वागडी में उन्होंने लोगों को ललकारते हुए कहा, "आज भी हालात यह है कि हमारे में से कई लोग 'उनके' सामने हाथ जोड़ते हैं. उनके आने पर खड़े हो जाते हैं. उन्हें 'हुकम' कह कर बुलाते हैं."

ठीक इसी समय कांतिलाल की नजर हम पर पड़ती है. कंधे पर लटका हुआ डीएसएलआर कैमरा हमारे पत्रकार होने की तस्दीक करता है. वह भाषण के प्रवाह को तोड़ते हुए वागडी में कहते हैं, "दिल्ली से कुछ पत्रकार आए हैं. ये लोग भी हमारी बात समझ पाएं इसलिए मैं आगे की बात हिंदी में कहूंगा."

इसके बाद रोत के भाषण से सहजता चली जाती है. वह प्रेस कॉन्फ्रेंस में नेताओं जैसी सधी हुई भाषा में भाषण देने लगते हैं. वह पांचवी अनुसूची के बारे में बात करते हैं. जल, जंगल और जमीन पर आदिवासी समुदाय के हक की बात करते हैं. हाल ही में हुए कांकरी डूंगरी आंदोलन में हुई पुलिसिया कार्रवाई की याद दिलाते हैं. लेकिन गलती से भी राजपूतों के बारे में एक शब्द नहीं कहते. वह अपना भाषण खत्म करते हैं और गुजरात नंबर की लग्जरी एसयूवी एंडेवर में बैठकर नेताओं के अंदाज में हाथ हिलाते हुए निकल जाते हैं. 

लेकिन इस इलाके में जातिगत पहचान कितने गहरे में धंसी हुई है इसका एक सिरा हमें डूंगरपुर के सामाजिक कार्यकर्ता कारूलाल कोटेड देते हैं. कारूलाल इस इलाके में चलने वाला एक दिलचस्प लतीफा सुनाते हैं. लतीफे के मुताबिक मेवाड़ भील कोर का एक जवान अपनी ड्यूटी के दौरान सड़क के किनारे बैठकर खाना खा रहा था. तभी एक कुत्ता उसकी रोटी उठाकर भाग जाता है. अगले दिन उस जवान को किसी दूसरी जगह ड्यूटी पर भेजा जाता है. वहां उसे एक कुत्ता दिखाई देता है. वह डंडे से उसे पीटने लगता है. लोग उससे कुत्ते को पीटने का सबब पूछते हैं. मेवाड़ भील कोर का वह जवान बताता है कि कल एक कुत्ता उसकी रोटी लेकर भाग गया था. लोग सवाल करते हैं कि क्या यह वही कुत्ता है. जवान का जवाब होता है, "वही कुत्ता को नहीं है, लेकिन दोनों की जात तो एक हैं." 

दक्षिण राजस्थान और गुजरात की सीमा पर राजपूतों की गुहिल या गुहिलोत खाप की तीन बड़ी रियासतें पड़ती हैं. पहली है उदयपुर या मेवाड़ रियासत. दूसरी है डूंगरपुर रियासत और तीसरी है राजपीपला रियासत. तीनों ही रियासतों के कोट ऑफ आर्म्स में एक समानता है. तीनों रियासतों ने अपने कोट ऑफ आर्म्स पर भील आदिवासियों को जगह दी है. मेवाड़ रियासत का कोट ऑफ आर्म्स 1861 से 1874 के बीच महाराणा शम्भू सिंह के समय में डिजाइन हुआ था. इस पर एक तरफ राजपूत और दूसरी तरफ भील सैनिक को दिखाया गया है. डूंगरपुर राज के कोट ऑफ आर्म्स पर दोनों तरफ भील सैनिक खड़े देखे जा सकते हैं. राजपीपला स्टेट के कोट ऑफ आर्म्स पर भी दोनों तरफ दो भील लड़ाके हाथ में तीर लेकर खड़े हैं. 

महाराणा प्रताप और भीलों के बीच के संबंध के बारे आज भी अक्सर कई कहानियां सुनी जाती हैं. महाराणा प्रताप की मां जैवंता उनके पिता उदय सिंह से अलग रहा करती थीं. जैवंता ने ही प्रताप की परवरिश की. महलों की सुख-सुविधा से दूर प्रताप भीलों के साथ खेलते हुए बड़े हुए. भील अपनी भाषा में बच्चे को दुलार से 'कीका' कहते हैं. अबुल फज़ल ने कई जगह पर प्रताप के लिए 'राणा कीका' शब्द का इस्तेमाल किया है. प्रताप को यह नाम भीलों की सोहबत की वजह से ही मिला था. हल्दीघाटी के युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने गोगुंदा के पहाड़ी इलाकों में शरण ली थी. यहां भील सरदार पूंजा ने इस गाढ़े समय में उनकी मदद की थी. पूंजा और उनके भील लड़ाकों की मदद से महाराणा प्रताप 12 साल तक मुगलों के खिलाफ छापामार लड़ाई लड़ते रहे. 

पहली नजर में भीलों और राजपूत राजाओं के बीच का संबंध बेहद बिरादराना दिखाई देता है. लेकिन यह कहानी का वह हिस्सा है जिसे पहले दरबारी ख्यातों ने और बाद में इतिहासकारों ने दर्ज किया. लेकिन लोक में चलने वाली किवदंतियां राजपूत राजाओं और भीलों के बीच के संबंध की दूसरी तस्वीर पेश करती हैं. 

डूंगरपुर पर गुहिलोत राजवंश के कब्जे की किवदंती बेहद रोचक है. इस किवदंती को मुहणोत नैणसी ने अपनी किताब  'मुंहणोत नैणसी री ख्यात' में दर्ज किया है. किवदंती के मुताबिक 1228 के साल में सामंत सिंह मेवाड़ का राजा हुआ. अपने छोटे भाई की सेवा से खुश होकर उसने अपना राज अपने छोटे भाई कुमार सिंह को दे दिया और डूंगरपुर के आहाड़ा गांव में आकर बस गया. यहां से उसने बट-बडौद के शासक चौरसीमल को मारकर अपना नया राज कायम किया. सामंत सिंह के पास 500 घुड़सवारों की जमात थी. इतनी जमीन से उसका काम चल नहीं रहा था. वह भीलों की जमीन पर कब्जा करने की योजना बनाने लगा. 

जिस जगह को आज डूंगरपुर के नाम से जाना जाता है. उसका पुराना नाम 'डूंगर नु घेर' या डूंगर नी पाल' हुआ करता था. इस नामकरण की वजह था डूंगर बरंडा. डूंगर बरंडा भील आदिवासी समुदाय से आता था. राजपूतों के आने से पहले यह जगह 5000 से ज्यादा भीलों की बसावट थी और डूंगर बरंडा इस बस्ती का सरदार था. 

योजना के तहत सामंत सिंह भील राजा डूंगर बरंडा के पास शरण मांगने गया. उसने राजा डूंगर से कहा कि मेरा राज छूट चुका इसीलिए जीवन बिताने के लिए किसी राजा के यहां नौकरी की तलाश में हूं. लेकिन उसमें वक्त लगेगा. तब तक पैर टिकाने के लिए जमीन चाहिए. राजा डूंगर भील ने उसका भरोसा नहीं किया. कहा कि जैसे बट-बडौद राजा चौरसीमल को मारा वैसे मुझे भी मार डालोगे. सामंत सिंह ने कहा कि अगर उसे उस जमीन पर कब्जा ही करना था तो कब का कर लेता. वह एक डोम की सहायता के लिए बट-बडौद गया था. अब वही डोम वहां का राजा है. राजा डूंगर बरंडा ने पता करवाया तो सामंत सिंह की बात सही जान पड़ी. चुनांचे उसने सामंत सिंह को अपनी जमीन पर ठहरने के लिए जगह दे दी. 

करीब छह महीने बीतने पर सामंत सिंह राजा डूंगर बरंडा के पास गया. कहा कि अब उसे नौकरी के लिए मालवा जाना होगा. उससे पहले वह अपनी चार बेटियों की शादी करना चाहता है. अगर इजाजत हो तो वह शादी करके नौकरी की तलाश में निकले. राजा डूंगर बरंडा ने इजाजत दे दी. सामंत सिंह ने अपने सभी रिश्तेदारों को शादी में आने के न्यौते भेजे. कहलवाया कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को लेकर पहुंचे. 

बरात आने से एक दिन पहले वह फिर से डूंगर बरंडा के पास गया. कहा कि कल बरात आने वाली है. हम लोग बरात के सत्कार में लग जाएंगे. लिहाजा हम आपको और आपके लोगों के लिए आज ही शाम को भोज का आयोजन करना चाहते हैं. डूंगर बरंडा इसके लिए राजी हो गया. सामंत सिंह ने शाम के खाने के लिए एक बाड़ा बनवाया. खाने में वत्सनागा और धतूरा मिला दिया. पीने के लिए खूब नशीली 'दुबार' शराब निकलवाई. शाम को डूंगर बरंडा और उसके 700 साथी खाने के लिए आए. जब ये लोग शराब पीकर धुत हो गए तो सामंत सिंह के लोगों ने बाड़े में आग लगा दी. कई जलकर मर गए. जो अधजले भागे उन्हें तलवार से काट डाला गया. डूंगर बरंडा भी मारा गया. उसकी दो बीवियां धानी और काली बाद में सती हुई. इस तरह भीलों की आबादी वाला यह इलाका राजपूतों के कब्जे में आ गया. 

नैणसी ने जिस किवदंती को दर्ज किया उसका एक और स्वरूप भी मिलता है. इसे प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अपनी किताब 'डूंगरपुर राज्य का इतिहास' में डूंगरपुर राज्य की ख्यात के हवाले के साथ दर्ज किया है. इसके मुताबिक डूंगरपुर के पास ही थाना गांव में शालाशाह नाम का एक महाजन था. डूंगर बरंडा उसकी लड़की पर मोहित हो गया. उसने महाजन को लड़की से शादी करवाने के लिए धमकाया. महाजन मदद के लिए बट-बडौद के राजपूत राजा वीरसिंह देव के पास गया. वीरसिंह देव ने उसे सलाह दी कि वह शादी के लिए तैयार हो जाए. बरात में आए भीलों को शराब पिलाकर धुत कर दे. बाकी का काम वह संभल लेंगे. शालाशाह ने ऐसा ही किया. नशे में धुत पड़े भीलों पर राजपूतों ने हमला किया और उन्हें मारकर अपना राज कायम किया. 

राजस्थान का इतिहास ऐसी किवदंतियों से भरा पड़ा है. कोटा, बूंदी और आमेर के आदिवासी राजाओं को इसी किस्म के कपट की सहायता से मौत के घाट उतारा गया. 

डूंगरपुर में आज भी डूंगर बरंडा की छतरी बनी हुई है जिसमें घोड़े पर सवार एक भील लड़ाके की मूर्ति बनी हुई है. काले पत्थर पर बनी यह मूर्ति ज्यादा पुरानी नहीं दिखाई देती. वैसे डूंगर बरंडा से जुड़ी इस किवदंती को भी लगभग भुला दिया गया था. लेकिन पिछले पांच सालों में भीलों के बीच अपनी पहचान को लेकर खड़े हुए आंदोलन के साथ-साथ डूंगर बरंडा की कहानी भी फिर से प्रचलन में आ रही है. भारतीय ट्राइबल पार्टी और आदिवासी भील परिवार 15 नवंबर को भील राजा डूंगर बरंडा का शाहदत दिवस मनाते हैं. इसके अगले दिन ही डूंगरपुर का स्थापना दिवस मनाया जाता है. 

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"हमारे गीतों के साथ दिक्कत यह है कि वे तभी याद आते हैं जब उन्हें गाया जाना होता है", डूंगरपुर के सामाजिक कार्यकर्ता कारूलाल कोटेड पेशानियों पर बल डालते हुए कहते हैं. वह करीब दस मिनट से लोक गीत को याद करने की मशक्कत कर रहे थे. दूसरे आदिवासी समाजों की तरह भीलों में भी सामूहिक नाच की रवायत है. शादी और दूसरे मौकों पर लोग ढोल की थाप पर गाते हुए थिरकते हैं. बड़ी मशक्कत के बाद कारूलाल कुछ टूटी-फूटी लाइनों को जोड़कर गाना शुरू करते हैं. 

"डूंगरपुर ने थोक मां माथु गामड़ो काला गमेती

कुंवर बाई ने टिली वराड़ वाले आवे काला गमेती 

बेटी परणे तो थारे परणे म्हारे हूं है लिबू काला गमेती

देवल जिलहे तो जेलहां काला गमेती

बोखला जिलहे तो जेलहां काला गमेती

भराई जिलहे तो जेलहां काला गमेती

लेम्बरवाड़ा जिलहे तो जेलहां काला गमेती

पादर जिलहे तो जेलहां काला गमेती..."

इतिहास विजेता लिखते हैं ख्यातों, परचों, परवानों, रोजनामचों और शिलालेखों की शक्ल में. किसी खरीदे हुए गवाह की तरह. लेकिन जो पराजित होते हैं उनकी कहानी कहां दर्ज होती है? शायद ऐसे ही गीतों में. यह गीत शादी के मौके पर गाया जाता है और इस गीत की कहानी भी एक शादी से ही शुरू होती है.

गाने के अनुसार डूंगरपुर के महारावल बिजय सिंह की बिटिया की शादी गुजरात के वांकनेर में तय हुई. बेटी के टीके की रकम इकट्ठी करने के लिए महारावल बिजय सिंह ने जनता पर 'टीका वराड' नाम का नया कर लाद दिया. डूंगरपुर की प्रशासनिक व्यवस्था में गांव से महसूल इकठ्ठा करने का काम गांव का अगुवा किया करता था. इसे पटेल या गमेती के नाम से जाना जाता था. गमेती पूरे गांव का महसूल इकठ्ठा करके डूंगरपुर राज के खजाने में जमा करवा देता. इसके बदले में गमेती को सवा सेर प्रति मण के हिसाब से कमीशन दिया जाता था. 

बिजय सिंह ने अपने एक आदमी को इन्हीं गमेतियों के पास 'टीका वराड' जमा करवाने के फरमान के साथ भेजा. राज का यह आदमी सबसे पहले घोड़े पर सवार होकर मातु गामड़ा पाल पहुंचा. भीलों के गांव पाल नाम से जाने जाते हैं. डूंगरपुर में भीलों की कुल 12 पाल हैं. मातु गामडा पाल के गमेती का नाम काला था. उसने राज के इस अफसर को जवाब दिया कि अगर देवल पाल वाले इस नए वराड को झेलने के लिए तैयार हो जाते हैं तो वह भी यह वराड इकठ्ठा करके खजाने में जमा करवा देगा. 

राज के अफसर का घोड़ा देवल पाल पहुंचता है. देवल पाल का गमेती उसे बोखला का रास्ता दिखा देता है. बोखला पाल का गमेती भराई का और भराई का गमेती लेम्बरवाड़ा का. इस तरह सभी पालों के चक्कर काटकर राज का यह अफसर आखिर में पाल पादर पहुंचता है. पादर पाल के गमेती का नाम लाल गमेती था. इलाके में उनकी पहचान दबंग के तौर पर थी. उसकी राज के अफसर के साथ बहस हो जाती है. लाल गमेती कहता है कि आपके यहां बेटी की शादी है. इससे हमारा क्या ताल्लुक है. बहस झगड़े में तब्दील हो जाती है. पादर पाल के लोग डूंगरपुर राज के उस आदमी को बंदी बना लेते हैं. उसके घोड़े की पूंछ काटकर, उसके हाथ बांधकर, उसे घोड़े पर उल्टा बैठाकर डूंगरपुर की तरफ रवाना कर देते हैं.

बाद में महारावल बिजय सिंह 12 पालों के गमेतियों को बुलाकर मामले को सुलझाने की कोशिश करते हैं. भीलों पर लगाया गया 'टीका वराड' माफ कर दिया जाता है. महारावल देवल पाल को अपना ननिहाल और मातु गमाडा पाल को अपना भाई कहते हैं और सभी को अपनी कुंवर बाई की शादी में आने का न्यौता देते हैं. परंपरा के तौर पर आज भी डूंगरपुर के महारावल का राज-तिलक मातुगामड़ा पाल का गमेती करता है. 

वराड या महसूल को लेकर भीलों और राजपूत राजाओं के बीच तकरार पर डूंगरपुर-बांसवाड़ा में आपको कई सारी किवदंतियां मिल जाएंगी. लेकिन वराड को लेकर पहली बड़ी घटना 1913 की है जिसका कायदे से दस्तावेजीकरण हुआ है. 

17 नवंबर 1913 को जबकि जलियांवाला बाग नरसंहार में अभी छह साल का समय बाकी था. डूंगरपुर के महारावल बिजय सिंह ने इस इलाके के ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेंट आर. ई. हैमिल्टन को एक खत लिखा. इस खत में महारावल की घबराहट साफ दिखाई दे रही थी. वह लिखते हैं : 

"भीलों के मामले को सुलझाने में जो देर हो रही है, उसका यहां के भीलों पर गलत असर हो रहा है. भील पालों (गांवों) में इकठ्ठा हो रहे हैं और प्रार्थना कर रहे हैं कि ब्रिटिश सेना की हार हो. बाबा गोविंद गुरु जिनके पास अलौकिक शक्तियां हैं वह इस जंग में फतेह हासिल करें. साथ ही यह धारणा भी बन रही है कि अंग्रेज साहब लोग बाबा पर हमला करने से डर रहे हैं. जब तक आप कार्रवाई नहीं करेंगे तब तक यहां के भील और मुझे भरोसा है कि मेवाड़ और ईडर के भील भी मुसीबत पैदा करेंगे. इस खत को लिखने के लिए मैं माफी चाहता हूं. लेकिन यह सही समय है कि मैं आपको यह जानकारी दूं कि लिम्बरवाड़ा के भील पहले से मुसीबत पैदा कर रहे हैं और मैं उन्हें शांत करने के लिए हर मुमकिन कदम उठा रहा हूं."

लेकिन महारावल बिजय सिंह को तब तक यह पता नहीं था कि उनका खत पहुंचने से पहले ही अंग्रेज सरकार और देसी रियासतों की फौज भीलों के नरसहांर के अभियान पर निकल चुकी है. इस घटना को बाद में 'आदिवासियों के जलियांवाला बाग कांड' के तौर पर दर्ज किया जाना था. हालांकि यह जलियांवाला बाग से करीब छह साल पहले अंजाम दिया गया था. 

अक्टूबर 1913 में भीलों ने राजस्थान और गुजरात की सीमा पर खड़ी एक पहाड़ी मानगढ़ पर इकठ्ठा होना शुरू किया. इस पहाड़ी के बारे में एक किवदंती यह थी कि 17वीं शताब्दी में यहां मान सिंह चौहान नाम का एक बागी रहता था. जिसने इस पहाड़ी पर अपना एक छोटा सा किला बनाया था. मान सिंह की वजह से इस पहाड़ी का नाम मानगढ़ पड़ा. 10 वर्ग किलोमीटर में फैली इस पहाड़ी की औसतन चौड़ाई 300 मीटर है. इसकी समुद्र तल से अधिकतम ऊंचाई 253 मीटर है. इस पहाड़ी की एक सीमा राजस्थान की बांसवाड़ा रियासत और दूसरी सीमा गुजरात की संतरामपुर रियासत को लगती थी. 

भीलों के इस जुटान के केंद्र में थे गोविंद गिरी या गोविंद गुरु नाम के एक संन्यासी. गोविंद गुरु की पैदाइश बांसवाड़ा के पाटन के एक बंजारा परिवार में हुई थी. 1899-1900 के भयंकर अकाल में खुद को जिंदा रखने के लिए उन्हें गुजरात की संतरामपुर रियासत में मजदूरी और बेगार करनी पड़ी थी. खाली पेट बेगार खटते हुए उनके मन में सामंती व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह पैदा हो गया. वह इस नतीजे पर पहुंचे कि भील आदिवासियों में शराब की लत और मांसाहार की वजह से उनका मन दूषित है. शराब की लत को पूरा करने के लिए यह जनजाति डाका डालने और चोरी करने जैसे काम करती है. लिहाजा उन्होंने डूंगरपुर, बांसवाडा और संतरामपुर में एक धार्मिक सुधार आंदोलन शुरू किया. इसे बाद में भगत आंदोलन के नाम से जाना गया. गोविंद गिरी ने ईडर से लेकर झाबुआ तक कई गांवों में धूणी या हवन कुण्ड खड़े किए. इन धूणीयों की देखभाल के लिए गांव में सम्प सभा होती. देखते ही देखते गोविंद गिरी के अनुयायियों की संख्या पांच लाख तक पहुंच गई.

मानगढ़ पर भीलों के इकठ्ठा होना बांसवाडा और सूंथ (संतरामपुर) के अलावा आस-पास की दूसरी रियासतों को भी असहज कर रहा था. 1911 की जनगणना के अनुसार राजपुताना सदर्न एजेंसी और रेवाकांठा एजेंसी की बहुत सारी राजपूत रियासतों में भीलों की आबादी 35 फीसदी से 83 फीसदी तक थी. ऐसे में भीलों का कोई भी विद्रोह इन रियासतों के लिए खतरे की घंटी था. सबसे पहले बांसवाड़ा महारावल शम्भू सिंह के कहने पर अक्टूबर के महीन में सदर्न स्टेट एजेंसी के पॉलिटिकल एजेंट मेजर आर. ई. हैमिल्टन ने रेवाकांठा ऐजंसी के ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेंट को खत लिखकर गोविंद गिरी को गिरफ्तार करने के निर्देश दिए. 

सूंथ राज्य ने रेवाकांठा के पॉलिटिकल एजेंट के निर्देश पर गोविंद गिरी की तलाशी का अभियान शुरू कर दिया. सूंथ राज्य के सैनिकों और गोविंद गिरी के शागिर्दों के बीच पहली टक्कर 31 अक्टूबर 1913 को हुई. सून्थ रियासत के गडरा थाने पर गोविंद गुरु के समर्थकों ने हमला कर दिया. इस हमले में गडरा का थानेदार गुल मोहम्मद मारा गया और एक सिपाही को बंदी बना लिया गया. राष्ट्रीय अभिलेखागार में मौजूद तत्कालीन विवरण बताते हैं कि गोविंद गिरी खुद इस हमले में शामिल थे. लेकिन बाद में गोविंद गिरी ने अपने बयानों में इससे साफ इनकार किया है. 

इसके अगले ही दिन यानी 1 नवंबर 1913 को गोविंद गुरु के समर्थकों ने प्रतापगढ़ के किले पर हमला बोल दिया. वे किले के भीतर घुस गए और जमकर लूटपाट की. प्रतापगढ़ का शाही खजाना लूट लिया गया. इस घटना के तुरंत बाद प्रतापगढ़ के ठाकुर ने अहमदाबाद के अंग्रेज कमिश्नर, बडौदा और बारिया रियासत को मदद की गुहार लगाते हुए खत लिखा. इसमें वह लिखते हैं, "एकदम से लश्कर (फौज) लेकर आ जाइए. मेरे राज्य में डेढ़ लाख लुटेरे इकठ्ठा हो गए हैं"

इस घटना के साथ ही आस-पास की भील आबादी में एक अफवाह फैल गई कि "गोविंद गुरु राज मांगे छे." मतलब कि गोविंद गुरु अपने लिए अलग राज मांग रहे हैं. इस अफवाह ने देसी रियासतों की पेशानियों में बल डाल दिया. 

अंग्रेजों ने स्थिति को गंभीरता से लेते हुए मानगढ़ की पहाड़ी के चारों तरफ लश्कर इकठ्ठा करना शुरू कर दिया. 12 नवंबर 1913 को मेजर बैली के नेतृत्व में 104 रायफल्स की एक कंपनी बड़ौदा से रवाना होकर संत रोड पहुंच गई. इसी दिन 7 जाट रेजिमेंट का एक डिस्पेचमेंट मशीनगन के साथ संत रोड पहुंच गया. 8 नवंबर को खैरवाड़ा से मेजर स्टोईकले के नेतृत्व में मेवाड़ भील कोर की दो कंपनी भूखिया गांव की तरफ रवाना कर दी गईं. ये भी 12 नवंबर तक अपनी निर्धारित जगह पर पहुंच चुकी थीं. इसके अलावा संत रामपुर, बांसवाड़ा और डूंगरपुर रियासत का पुलिस महकमा भी इस अभियान में शामिल था. रामपुर के ठाकुर, कडाना के ठाकुर भीम सिंह और गढ़ी के राव हिम्मत सिंह देसी रियासत के सैनिकों का नेतृत्व कर रहे थे. खच्चरों के जरिए तोपखाना पहाड़ी के दक्षिण में ऊंचाई पर पहुंचाया गया और मोर्चाबंदी शुरू कर दी गई. 

गोविंद गुरु के साथ समझौते के आखिरी प्रयास 12 नवंबर को किए गए. इस दिन गोविंद गुरु की तरफ से 34 मांगों वाला एक बेहद उलझा हुआ मांगपत्र अंग्रेजों के पास भेजा. इस पत्र में एक चीज बेहद स्पष्ट थी. गोविंद गुरु का अंग्रेजों के खिलाफ कोई विरोध नहीं था. वह देसी रियासतों के रुख से खफा हैं. अपने खत में वो लिखते हैं : 

"संजोली के अधिकारियों ने मेरे नेजे (झंडे) जला दिए. संत दरबार ने हमारे साथ बहुत जुल्म किए. आप (अंग्रेज) वास्तव में महान हैं. ऐसे महान हैं जो मनुष्य को कानून के अधीन रखते हैं. जो राजा और रैय्यत को कानून के दायरे में रखते हैं. आप सरकार मेरे पंच-प्रतिनिधि हैं. मैं न तो किसी को मारने वाला हूं और न ही किसी पर हमला करने वाला हूं. मैं अपनी धार्मिक पूजा-अर्चना में लिप्त हूं क्योंकि कोई मुझे अपने राज्य में रहने नहीं देगा और मेरी पूजा-अर्चना में खलल डालेगा इसलिए मैं यहां मानगढ़ की पहाड़ी पर आ गया हूं." 

इस पूरे मांगपत्र में गोविंद गुरु ने दो बातों पर खास जोर दिया है. पहली कि उनको और उनके शिष्यों को उनके धार्मिक विश्वास मानने दिए जाएं. दूसरी अहम मांग थी लगान की दर को निश्चित करना और बैठ बेगार बंद करना. गोविंद गुरु की तरफ से मांग थी कि राज्य प्रति हल पर सवा रूपए से ज्यादा का राजस्व न ले. अपने मांग पत्र में उन्होंने सात लोगों के नाम बतौर मुख्तियार नियुक्त किया. तत्कालीन विवरणों से मालूम होता है कि इन लोगों की अंग्रेज अधिकारियों के साथ बैठक एक गरमा-गर्म बहस की शक्ल में खत्म हुई. 

गोविंद गुरु के मांग पत्र के जवाब में जो अंग्रेजों की तरफ से जो खत भेजा गया उस पर पॉलिटिकल एजेंट रेवाकांठा, सुप्रीटेंडेंट हिली ट्रेकट्रा और पॉलिटिकल एजेंट राजपूताना सदर्न स्टेट्स के हस्ताक्षर थे. इस खत में गोविंद गुरु को 15 नवंबर 1913 की सुबह तक मानगढ़ खाली करने का समय दिया गया था. खत का मजमून कुछ इस तरह से था :

"हमें आपका प्रार्थना पत्र मिला. हमें यह देखकर खुशी हुई कि आपने शराब पीना, डाका डालना और चोरी जैसी बुराइयों में लिप्त रहना छोड़ दिया है और धर्म की तरफ प्रवृत हुए हैं. हम आपको कभी शराब पीने या अन्य किसी बुराई की तरफ नहीं धकेलेंगे. राज्यों को भी यह आदेश जारी किया गया है कि वे आपको इन पाप कर्मों के लिए विवश न करें.

लेकिन एक जगह पर इतनी भीड़ जमा करना हमें मंजूर नहीं है. हम कल एक सैनिक टुकड़ी पहाड़ पर भेजेंगे. इसलिए आपको चेतावनी दी जाती है कि सूरज निकलने से पहले आप पहाड़ के नीचे उतर आएं. अगर कोई पहाड़ पर रह जाता है तो वह लड़ाई न करे. यदि कोई ऐसा करता है तो वह मारा जाएगा."

अंग्रेजों की चेतावनी के बाद 15 नवंबर 1913 की सुबह तक भीलों को मानगढ़ की पहाड़ी खाली करनी थी. लेकिन मौके पर मौजूद ब्रिटिश नेतृत्व ने एक और दिन इंतजार करना ठीक समझा. 17 नवंबर 1913 की सुबह 8.30 पर अंग्रेज फौज और मेवाड़ भील कोर मिले-जुले दस्ते के साथ भीलों की पहली मुठभेड़ हुई. 10 बजे के तकरीबन भीलों का प्रतिरोध दम तोड़ चुका था. अंग्रेज फौज ने निहत्थे भीलों पर गोलियां चलने में गुरेज नहीं किया. 10.30 बजे के तकरीबन इस अभियान का नेतृत्व कर रहे मेजर बेली ने काली बाई रोत नाम की एक महिला की लाश देखने के बाद फायरिंग रोकने के आदेश दिए. काली बाई की लाश के पास उनका तीन साल का बच्चा भूख के मारे उनके स्तन नोच रहा था. 

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस मुठभेड़ में 7-8 लोगों की जान गई. जबकि कुल 900 लोगों ने आत्मसमर्पण किया. जिस समय मानगढ़ पहाड़ी को खाली करवाने लिए सैनिक दस्ते भेजे गए, उस समय वहां महज 3000 लोग थे. यह आंकड़े बेहद विरोधाभासी हैं. अंग्रेजों को लिखे खत में संत रामपुर रियासत के ठाकुर ने पहाड़ी पर डेढ़ लाख लोगों के होने का जिक्र किया है. मार्च 1914 में बॉम्बे प्रेसिडेंसी के पॉलिटिकल डिपार्टमेंट की खत-ओ-किताबत में मरने वालों का आंकड़ा 20-25 के करीब पहुंच गया. स्थानीय किवदंतियों में मरने वाले लोगों की संख्या 20000 बताई जाती है. जोकि अतिश्योक्ति लगती है. मानगढ़ नरसंहार पर किताब लिखने वाले रूप सिंह भील तमाम विश्लेषणों के आधार पर मरने वालों की संख्या 1500 से 3000 के बीच मानते हैं. 

मानगढ़ नरसंहार के बाद गोविंद गुरु और उनके सहयोगी पूंजा धीरा को गिरफ्तार कर लिया गया. पूंजा को आजीवन कारावास की सजा काटने सेलुलर जेल भेज दिया गया. जबकि गोविंद गुरु को हैदराबाद जेल. गोविंद गुरु के आंदोलन की तासीर धार्मिक सुधार जैसी थी लेकिन कई किस्म की राजनीतिक मांगें इनमें उपांग की तरह जुड़ी हुई थीं. आधुनिक दौर में यह वागड़ में भीलों की राजनीतिक चेतना के विकास का प्रस्थान बिंदु माना जा सकता है.

कारूलाल कोटेड फोटो : विनय सुल्तान

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"झालोद माय मारी कुंडी है

दाहोद माय मारो दिवो है

भूरेटीयो नहीं मानो रे...

गोधरा माय मारी जाजम

अहमदाबाद मारी बैठक

दल्ली माय मारी गादी

भूरेटीयो नए मानो रे..."

17 मई 2015 के मानगढ़ संघर्ष के दौरान स्थानीय भाषा वागडी में गढ़े गए इस गीत को करीब 100 साल बाद नए कंठ मिल रहे थे. गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश के करीब 250 भील कार्यकर्ता मानगढ़ में जुटे हुए थे. इससे पहले इन लोगों का आपस में व्यक्तिगत परिचय न के बराबर था. इनमें से ज्यादातर छात्र थे और सोशल मीडिया के मार्फत एक-दूसरे जानते थे. डूंगरपुर का एक प्राइमरी टीचर इस पूरे आयोजन की धुरी था और नाम था भंवर लाल परमार. दो दिन की बैठक में एक नया संगठन खड़ा हुआ जिसका नाम 'आदिवासी परिवार' रखा. संगठन का मुख्य उद्देश्य था कि भील समुदाय के हितों के लिए साझा प्रयास किए जाएं. इस प्रक्रिया में राजनीतिक हित आड़े नहीं आने चाहिए. दूसरा उद्देश्य भील समुदाय की संस्कृति की रक्षा. 

लेकिन देखते ही देखते भीलों की सांस्कृतिक पहचान को बचाने के लिए खड़ा हुआ संगठन एक राजनीतिक आंदोलन में तब्दील हो गया. इस राजनीतिक समझ के विकास में एक और कारक अपनी भूमिका निभा रहा था. डूंगरपुर का श्री भोगीलाल पंड्या कॉलेज. 

साल 2006 तक डूंगरपुर के श्री भोगीलाल पंड्या कॉलेज में चुनाव परंपरागत तौर पर दो छात्र संगठनों के बीच ही हुआ करता था. संघ परिवार के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् और कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई के बीच. 2006 में इस मुकाबले में तीसरा कोना जुड़ने वाला था. 2006 के छात्रसंघ चुनाव में सीपीएम की छात्र इकाई एसएफआई के पदचाप कैंपस में सुनाई देने लगे. एसएफआई के गौतम डामोर को अध्यक्ष सीट जीतने में कामयाबी मिली. लेकिन अगले ही साल राजस्थान में छात्रसंघ चुनावों पर रोक लग गई. दो बड़े दलों के बीच तीसरा प्रगतिशील विकल्प अल्पजीवी साबित हुआ. 

छात्रसंघ चुनाव के बंद होने के बावजूद कॉलेज में छात्रों का आंदोलन जारी रहा. 2006 के साल में सबसे पहले छात्रों ने आदिवासी छात्रों को मिलने वाली छात्रवृति के लिए आंदोलन किया. इसके बाद तो जैसे छात्र आंदोलन का एक क्रम सा बन गया. लेकिन 2010 में हुआ छात्र आंदोलन बेहद निर्णायक साबित होने जा रहा था. बांसवाड़ा, डूंगरपुर और प्रतापगढ़ के ट्राइबल सब प्लान एरिया में बीएड के छात्रों की महज 500 सीट हुआ करती थीं. छात्रों की मांग थी कि इस इलाके के छात्रों के लिए सीटें बढ़ाई जाएं. 2006 में हुए आंदोलन के बाद सरकार ने इस मांग को मानते हुए दो हजार सीट बढ़ाने का फैसला किया था. 2009 में हुई पीटीईटी में सीटों का आवंटन नहीं किया जा रहा था. आक्रोशित छात्र एक बार फिर सड़कों पर थे. 

पीटीईटी बेहद जरूरी मुद्दा बन चुका था. कॉलेज में सक्रिय सभी छात्र संगठन इस मांग के पक्ष में खड़े थे. इन छात्र संगठनों ने इस आंदोलन के लिए एक साझा मोर्चा बनाया. नाम रखा एससी-एसटी संघर्ष मोर्चा. इस मोर्चे का नेतृत्व विक्रम कटारा नाम का एक छात्र कर रहा था. 4 जनवरी 2010 को छात्रों ने वागदड़ी मोड़ एनएच-8 से लगती हुई एक पहाड़ी पर छात्रों का महापड़ाव शुरू किया. करीब एक महीने बाद भी जब छात्रों को कोई आश्वासन नहीं मिला तो उन्होंने एनएच-8 जाम कर दिया. दो फरवरी 2010 को बोखला मोड़ के पास रिझवा घाटी में छात्र हाईवे पर बैठ गए. 36 घंटे के जाम के बाद सरकार ने छात्रों को सात दिन के भीतर कॉलेज आवंटित करने का आश्वासन दिया. यह छात्रों के संयुक्त मोर्चे की जीत थी. 

लेकिन 2012 के छात्रसंघ चुनाव में विक्रम कटारा एससी-एसटी मोर्चा की तरफ से चुनाव लड़ रहे थे. छात्र आंदोलन का साझा मोर्चा अब चुनावी राजनीति का मोर्चा बन चुका था. इस मोर्चे ने आदिवासी भील छात्रों को अपने साथ जोड़ना शुरू किया. विक्रम बड़ी आसानी से यह चुनाव जीतने में कामयाब रहे. श्री भोगीलाल पंड्या कॉलेज में 70 फीसदी से ज्यादा छात्र आदिवासी समुदाय से आते हैं. सभी छात्र संगठनों का नेतृत्व भी आदिवासी छात्र ही करते रहे हैं. लेकिन एससी-एसटी संघर्ष मोर्चे ने पहली बार आदिवासी पहचान को अपनी राजनीति का आधार बनाया.

इस बीच एक और राजनीतिक घटनाक्रम ने भीलों को लामबंद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. राजस्थान में 1995 में ट्राइबल सब प्लान एरिया में आदिवासियों को 45 फीसदी आरक्षण दिया गया था. पांच फीसदी आरक्षण अनुसूचित जाति के लिए था. शेष 50 फीसदी सीट अन्य वर्गों के लिए थी, जिन पर अधिकतर सामान्य वर्ग के उम्मीदवार चुने जाते थे. ट्राइबल सब प्लान एरिया होने के बावजूद सामान्य सीटों पर राज्य के दूसरे हिस्सों से आए उम्मीदवारों को नौकरी दे दी जाती थी. टीएसपी एरिया में सामान्य वर्ग की सीटों को स्थानीय उम्मीदवारों से भरा जाए इस मांग को लेकर डूंगरपुर में नया संगठन सक्रिय हुआ. नाम रखा गया समानता मंच. समानता मंच ने सरकारी नौकरी में सामान्य वर्ग के स्थानीय उम्मीदवारों को 50 फीसदी आरक्षण देने की मांग उठाना शुरू किया. समानता मंच का गठन 2004 में ही हो चुका था लेकिन 2007 के बाद इसने सामान्य वर्ग के लोगों में तेजी से अपनी जड़ें जमाना शुरू किया. समानता मंच के संयोजक दिग्विजय सिंह चुण्डावत कहते हैं : 

"हमारी आदिवासियों के साथ कोई दुश्मनी नहीं है. लेकिन यह पूरा ही इलाका पिछड़ा हुआ है. ऐसे में होता यह था कि यहां का सामान्य वर्ग का छात्र प्रदेश के दूसरे हिस्सों के छात्र के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाता था. इस वजह से यहां की सरकारी नौकरियों पर बाहरी लोगों का कब्जा था. हमने इसके खिलाफ आवाज उठानी शुरू की. हम गांव-गांव गए. पंचायतें की. लोगों को अपने साथ जोड़ा. यह लोगों की रोजी-रोटी का मसला था. हमें लोगों का भरपूर समर्थन मिला." 

9 जून 2013 को समानता मंच ने बांसवाड़ा के गढ़ी में महापड़ाव डाला. इस महापड़ाव ने राज्य की अशोक गहलोत सरकार के माथे पर शिकन पैदा कर दी. विधानसभा चुनाव में महज 6 महीने का समय बचा था. इसके तीन दिन बाद उदयपुर के गिरवा में हुई जनसभा में मुख्यमंत्री ने टीएसपी एरिया में सामान्य वर्ग की सीटें स्थानीय उम्मीदवारों से भरे जाने की घोषणा कर दी. 

सामान्य वर्ग को आमतौर पर बीजेपी का वोटर माना जाता है. कांग्रेस इस घोषणा के जरिए बीजेपी के वोट-बैंक में सेंध लगाना चाह रही थी. लेकिन इस चक्कर में उसके परंपरागत आदिवासी वोट बैंक में ध्रुवीकरण शुरू हो गया. 

समानता मंच के समानांतर भीलों में अपनी पहचान को लेकर कसमसाहट शुरू हो गई थी. श्री भोगीलाल पंड्या कॉलेज में चुनाव उसकी बानगी भर थे. छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे विक्रम कटारा बताते हैं : 

"समानता मंच आंदोलन के चलते 50 फीसदी सीटों पर स्थानीय सवर्णों को प्राथमिकता मिल गई थी. इससे पहले कई आदिवासी मेरिट के हिसाब से सामान्य वर्ग की सीटों पर चुने जाते थे. मुख्यमंत्री की घोषणा के बाद लोगों को लगने लगा कि 50 फीसदी सीटों पर सिर्फ सवर्णों का कब्जा हो गया है. इसने युवाओं को असहज कर दिया.

हम कई दिनों से दूसरे राज्यों के पांचवीं अनुसूची इलाकों के प्रशासनिक ढांचे के बारे में जानकारी जुटा रहे थे. आंध्र प्रदेश में सरकार ने आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षकों की भर्ती में आदिवासी समुदाय को 100 फीसदी आरक्षण दिया था. हमें लगा कि अगर आंध्र प्रदेश में हो सकता है तो यहां क्यों नहीं? हमने इस इलाके  में आदिवासियों के लिए 73 फीसदी आरक्षण की मांग की. इसको केंद्र में रखते हुए तमाम आदिवासी संगठनों का साझा मोर्चा बना. मिशन 73 के नाम से."

मिशन 73 को तकरीबन हर दल के आदिवासी नेता का समर्थन हासिल था. भीलों में बेहद लोकप्रिय रहे कम्युनिस्ट नेता मेघराज तावड़ इसकी सदारत कर रहे थे. यह मोर्चा आदिवासी आरक्षण को केंद्र में रखकर बनाया गया था. इसे भीलों का अभूतपूर्व समर्थन हासिल हुआ. प्रतापगढ़, डूंगरपुर,बांसवाड़ा में हुई मिशन-73 की जनसभाओं में 20-30 हजार लोग जुटने लगे. 

2013 चुनावी साल था और कांग्रेस अपने परंपरागत वोट में बैंक सेंध नहीं लगने देना चाहती थी. लिहाजा इस आंदोलन की 11 में 8 मांगों को तुरंत मान किया गया. लेकिन तीन मांगों पर सरकार जल्दबाजी में फैसला लेने के मूड में नहीं थी. टीएसपी इलाके में आदिवासियों को 73 फीसदी आरक्षण देने के लिए सरकार ने एक हाईपॉवर कमेटी का गठन किया. लेकिन चंद ही महीनों में सरकार बदल गई. पिछली सरकार के साथ हुई सारी बातचीत किनारे लगा दी गई. 

मिशन-73 एक छाता संगठन था. इसमें आरएसएस से लेकर कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी के लोग शामिल थे. 2013 के चुनाव में बीजेपी को इस इलाके में मजबूत समर्थन मिला था. डूंगरपुर-बांसवाडा की कुल 11 एसटी सीटों में से कांग्रेस महज एक पर जीत दर्ज करवा पाई थी. चुनाव होने के बाद राजनीतिक दलों की मिशन-73 से दिलचस्पी खत्म सी हो गई. मिशन-73 अब ढहना शुरू हो गया था. मिशन-73 में रेडिकल छात्रों का एक धड़ा हुआ करता था, जिसे बामसेफ के आदिवासी सदस्यों का समर्थन हासिल था. मिशन-73 के इस असंतुष्ट धड़े ने अपनी अलग राह चुन ली. और इस धड़े के केंद्र में एक प्राइमरी स्कूल का टीचर भंवर परमार था.

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27 नवंबर 2020 को रात के करीब 8 बजे थे मुझे बीटीपी नेता कांतिलाल रोत का फोन आया. कांतिलाल रोत ने सबसे पहला सवाल पूछा, "आपकी भंवर जी से मुलाकात हुई?" मैंने बताया कि हां बात हुई है तो रोत ने तुरंत दूसरा सवाल किया, "कितना समय दिया भंवर जी ने?" मैंने जवाब दिया, "करीब डेढ़-दो घंटे." कांतिलाल चौंक गए. मेरे जवाब को दोहराते हुए बोले, "दो घंटे". उनकी आवाज में एक आध्यात्मिक श्रद्धा थी. हम लोग भंवर परमार से मिलने के लिए दो दिन से प्रयास कर रहे थे लेकिन उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आ रहा था. आखिरकार हम कांतिलाल रोत के मार्फत उनसे मिलने में कामयाब रहे.

27 नवंबर 2020 के सुबह 8 बजे जब हम डूंगरपुर से करीब 20 किलोमीटर दूर एक गांव में पहुंचे. यहां हमारी मुलाकात भंवर परमार नाम के उस शख्स से हुई जो खुद के आभामंडल में घिरा हुआ था और जिसकी जेब में कुल चार संस्थापनाएं तह करके रखी हुई थीं. 

"धर्म का आधार आदिवासी हैं. संस्कृति का आधार आदिवासी हैं. डेमोक्रेसी का आधार आदिवासी हैं. जीवन मूल्यों की बुनियाद आदिवासी हैं."

भंवर परमार पेशे से टीचर हैं और डूंगरपुर के ही एक स्कूल में पढ़ाते हैं. उनका शुरुआती राजनीतिक रुझान बामन मेश्राम के संगठन दि ऑल इंडिया बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटी इंप्लाइज फेडरेशन या बामसेफ की तरफ रहा. डूंगरपुर के कई आदिवासी कर्मचारी इस संगठन के साथ जुड़े हुए थे. यह संगठन आरक्षण के मुद्दे पर होने वाले छात्र आंदोलन को समर्थन दिया करता था. इंटेलिजेंस रिपोर्टों के अनुसार भंवर परमार फरवरी 2009 के छात्र आंदोलन में वक्ता के तौर गए थे. मिशन-73 आंदोलन के समय भी उनका आदिवासी छात्रों के साथ सीधा जुड़ाव रहा. 2013 के विधानसभा चुनाव के बाद असंतुष्ट छात्रों और आदिवासी एक्टिविस्ट का एक धड़ा मिशन-73 से अलग हो गया और भंवर परमार इसके केंद्र में थे. 

छात्रों और कर्मचारियों के गुट के कई सदस्यों ने देश के दूसरे आदिवासी इलाकों में घूमना शुरू किया. मध्य प्रदेश, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और गुजरात. इस दौरान वो आदिवासी क्षेत्रों में चल रहे अलग-अलग आंदोलनों के संपर्क में आए. भारतीय ट्राइबल पार्टी के नेता और उस दौर से भंवर परमार के साथी रहे कांतिलाल रोत बताते हैं, "2013 के बाद से हमने पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में घूमना शुरू किया. हमने देखा कि हर जगह आदिवासियों की एक जैसी स्थिति है. हम गुजरात भी गए. वहां सती-पति करके आदिवासियों का आंदोलन चलता है. हमने उनसे सारे डॉक्यूमेंट लिए. पांचवीं अनुसूची के बारे में तमाम दस्तावेज पढ़े. समता जजमेंट के बारे में पढ़ा. 2014 में हम विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर झारखंड गए. वहां आदिवासी महासभा इस मौके पर बड़ा कार्यक्रम करती है. हमने अब तक सुना था कि विश्व आदिवासी दिवस होता है. इसे कैसे मनाया जाता है इसकी समझ हमारे पास नहीं थी. झारखण्ड में हमने पहली बार इसका अनुभव किया. हमें लगा कि हमें भी अपने इलाके में ऐसा कुछ करना चाहिए." 

देश के दूसरे आदिवासी आंदोलन के संपर्क में आने के साथ उनकी शब्दावली भी इन गुट के व्याकरण में जुड़ती जा रही थी. जोहार भी उसी क्रम में जुड़ गया. साथ ही यह नारा भी, "एक तीर, एक कमान, आदिवासी एक समान". 2015 की मानगढ़ मीटिंग के बाद इस गुट ने एक नए लचीले संगठन के तौर पर खुद को नए सिरे से खड़ा किया. नाम रखा गया, "आदिवासी  परिवार".

आदिवासी परिवार ने गांव-गांव में चिंतन शिविर लगाने शुरू किए. इन शिविरों में समता जजमेंट, पांचवी अनुसूची, आदिवासियों के इतिहास और धर्म पर बात की जाती. कांतिलाल रोत बताते हैं कि "जहां तक मुझे याद है, हमने पहला चिंतन शिविर दाहोद में किया था. दाहोद में एक जगह पड़ती है सुखसर. पहले चिंतन शिविर में 150 से 200 लोग थे. लेकिन कई जगहों पर संख्या 20-50 लोग भी होते थे. वहां से शुरू करके हमें गुजरात के अरवल्ली, पंचमहल, गोधरा, संतरामपुर के इलाके जगह-जगह चिंतन शिविर किए. यहां से हम मध्य प्रदेश में गए. धार और झाबुआ, अलीराजपुर और बड़वानी में हमने चिंतन शिविर किए. सबसे आखिर में हम राजस्थान आए. राजस्थान में पहला चिंतन शिविर बांसवाड़ा में किया. बांसवाड़ा के बाद हम डूंगरपुर में घुसे." 

इन चिंतन शिविरों के साथ एक और दिलचस्प बात थी. इसमें किसी भी गैर-आदिवासी का प्रवेश वर्जित था. यहां बोलने वाले कई वक्ता परंपरागत हिंदू मान्यताओं पर सवाल खड़ा करते. इसने इन चिंतन शिविरों को प्रशासन और संघ परिवार दोनों की नजरों में संदिग्ध बना दिया. धीरे-धीरे चिंतन शिविरों में भाग लेने वाले लोगों की तादाद बढ़ने लगी. खास तौर पर कॉलेज के छात्रों को इन शिविरों में नई दिमागी खुराक मिल रही थी. 

एक गैर-राजनीतिक तंजीम की तरह शुरू हुए आदिवासी भील परिवार में एक साल के भीतर ही सियासी कोपलें फूटनी शुरू हो गई. मौका था श्री भोगीलाल पंड्या कॉलेज के छात्रसंघ चुनाव का. एबीवीपी, एनएसयूआई के अलावा एसएफआई पहले से कॉलेज में सक्रिय था. अब तक एसएफआई को आदिवासी छात्रों का समर्थन हासिल था. लेकिन इस बार नया संगठन मैदान में था. नाम रखा गया 'भील प्रदेश विद्यार्थी मोर्चा'. यह आदिवासी भील परिवार का छात्र संगठन था. पहली बार चुनाव लड़ रहे भील प्रदेश विद्यार्थी मोर्चा ने छात्रसंघ चुनाव में जीत के झंडे गाड़ दिए. चार के चार पदों पर इसके उम्मीदवारों को जीत हासिल हुई. कॉलेज के छात्रों के जुड़ाव के साथ ही आंदोलन को नई गति मिल गई. चिंतन शिविरों में संख्या 200-300 से बढ़कर 10-15 हजार  तक पहुंचने लगी. 

आदिवासी परिवार की शुरुआत एक गैर-राजनीतिक संगठन के तौर पर हुई थी. लेकिन 2017 आते-आते यह संगठन राजनीति में प्रवेश करने की तैयारी कर रहा था. इसकी वजह थी डूंगरपुर-सागवाड़ा तहसील में हुई एक छोटी सी घटना. जनवरी 2017 में आदिवासी भील परिवार गांव-गांव में अपना चिंतन शिविर कर रहा था. चिंतन शिविर पहले से विवादों के केंद्र में था. इस बीच 3 जनवरी को आदिवासी नेता और संविधान सभा के सदस्य रहे जयपाल सिंह मुंडा की जयंती थी. उस दिन सागवाड़ा के सेमलिया पंड्या नाम के गांव में चिंतन शिविर का आयोजन होना था. आदिवासी भील परिवार ने जयपाल सिंह मुंडा जयंती मनाने के लिए जिला प्रशासन से अनुमति मांगी. जवाब में जिला प्रशासन ने अनुमति देने से मना कर दिया. तर्क दिया कि जयपाल सिंह मुंडा जयंती पहले से 'लोक व्यवहार' में नहीं है. लेकिन तब तक जयंती मनाने की तैयारी की जा चुकी थीं. 

इधर प्रशासन चिंतन शिविर पर रोक लगाने के लिए मौके के इंतजार में था. पुलिस का भारी जाब्ता सेमलिया पंड्या की तरफ भेज दिया गया. वहां लगे टेंट उखाड़ दिए गए. साउंड सिस्टम जब्त कर लिए गए. कांतिलाल रोत याद करते हैं कि "पुलिस ने आयोजन स्थल को तहस-नहस कर दिया. हमारे कई लोगों के साथ मारपीट की. गांव के जिन लोगों ने इस आयोजन में मदद की थी पुलिस ने उन्हें भी खूब परेशान किया. प्रशासन ने इस मौके का इस्तेमाल करके हमारे चिंतन शिविरों पर रोक लगा दी."

फिलहाल जयपुर ग्रामीण के एसपी शंकर दत्त शर्मा उस दौर में डूंगरपुर के एसपी हुआ करते थे. वह कहते हैं :

"उस इलाके में आज भी बहुत पिछड़ापन है. ऐसे में कोई भी आदिवासियों की बात करता है तो यूथ उसकी तरफ आकर्षित होगा. चिंतन शिविरों में वहां के युवाओं को गलत दिशाओं में ले जाया जा रहा था. हमने सबसे पहले स्कूल और कॉलेजों को टारगेट किया. पुलिस लोगों के पास गई. हर सप्ताह हम किसी ना किसी स्कूल जाते. वहां लोगों, छात्रों को उनके कानूनी अधिकारों के बारे में बताते. उन्हें बताते कि पढ़-लिखकर वो कितना आगे पहुंच सकते हैं. 

दूसरी तरफ हमने चिंतन शिविरों पर रोक लगा दी. हमने कहा कि हम चिंतन शिविर होने ही नहीं देंगे. कैसे नहीं होने देंगे? हमने चिंतन शिविर की जगहों की नाकेबंदी कर दी. कहा कि बिना अनुमति कोई आयोजन नहीं होगा और परमिशन हमने दी नहीं. धीरे-धीरे हमने इलाके पर अपना होल्ड मजबूत कर लिया." 

चिंतन शिविरों पर रोक के बाद आदिवासी भील परिवार बंद गली में घिर चुका था. आदिवासी भील परिवार के भीतर अब राजनीतिक विकल्प की तरफ जाने की बहस तेज होने लगी. आदिवासी भील परिवार का एक धड़ा राजनीतिक विकल्प के साथ जाने के लिए तैयार नहीं था क्योंकि अब तक आदिवासी भील परिवार खुद को अराजनीतिक संगठन बताता आया था. इनके चिंतन शिविरों में कांग्रेस-बीजेपी के नेता भी पहुंचते. उन्हें मंच पर बोलने नहीं दिया जाता. सामान्य लोगों की तरह जमीन पर बैठाया जाता. इसने आदिवासी भील को परिवार को समाज में एक मोरल ग्राउंड दिया था. राजनीतिक विकल्प की तरफ जाना कई लोगों की नजर में एक किस्म का नैतिक पतन था. 

दूसरी तरफ राजनीति की तरफ जाने वाले धड़े का तर्क था कि राजनीतिक संरक्षण के अभाव में आंदोलन को प्रशासनिक सख्ती झेलनी पड़ती है. आखिर में आदिवासी भील परिवार राजनीतिक विकल्प की तरफ जाने का फैसला करती है. भंवर परमार राजनीतिक विकल्प की जरूरत को साफ करते हुए कहते हैं, "जिन्हें हमने नेता चुना था वो अपनी मर्जी से बोल तक नहीं सकते. संसद में नहीं बोल सकते,विधानसभा में नहीं बोल सकते. जिला परिषद और पंचायत समिति में नहीं बोल सकते. वे वही बोल सकते हैं जो उनके राजनीतिक आका उन्हें बोलने के लिए कहते. तो हमने तय किया कि ऐसे लोगों को चुनकर भेजें जो हमारी बात रख सकें. इसके लिए राजनीति में उतरना पड़े तो उतरेंगे." 

2018 की जनवरी में राजनीति में जाने के फैसले के बाद आदिवासी भील परिवार ने अपनी अलग पार्टी बनाने के प्रयास तेज कर दिए. नई पार्टी को नाम दिया गया, "गोंडवाना गणतंत्र पार्टी". लेकिन कुछ कागजी पचड़ों के चलते यह पार्टी रजिस्टर नहीं हो पा रही थी. विधानसभा चुनाव में महज छह महीने का समय रह गया था. आदिवासी भील परिवार को किसी त्वरित समाधान की जरूरत थी.

इस बीच बगल के राज्य गुजरात में हुई एक राजनीतिक घटना उम्मीद की किरण के तौर पर दिखाई देने लगी. जनता दल (यू) से विधायक रहे भील नेता छोटूभाई वसावा का केंद्रीय नेतृत्व के साथ मनमुटाव 2017 में शुरू हुआ. एनडीए का घटक दल होने के बावजूद छोटूभाई वसावा ने 2017 के गुजरात राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार अहमद पटेल को वोट डाल दिया था. अगस्त 2017 में उन्होंने अपनी अलग पार्टी बना ली. नाम रखा भारतीय ट्राइबल पार्टी. 

2018 के जून में डूंगरपुर से आदिवासी भील परिवार का शिष्ट मंडल भारतीय ट्राइबल पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष छोटूभाई वासवा से मिलने गुजरात गया. वेलाराम घोघरा, कांतिलाल रोत, मणिलाल गरासिया, चंदू बरंडा, प्रवीण परमार और उमेश डामोर इस शिष्ट मंडल के सदस्य हुआ करते थे. गुजरात में इनकी छोटू वसावा से जो बात हुई उसे याद करते हुए कांतिलाल रोत कहते हैं, "छोटुभाई वसावा ने हमसे कहा कि यह आपका घर है और भारतीय ट्राइबल पार्टी आपके घर की पार्टी है. आप जैसे इसे चलाना चाहो चलाओ. हमारी तरफ से राजस्थान के मामलों में कोई भी हस्तक्षेप नहीं होगा. कोई भी पैराशूट उम्मीदवार नहीं उतारा जाएगा. वहां से हम पार्टी लेकर राजस्थान आए. हमने यहां एक ढांचा पहले से खड़ा कर रखा था. सबसे ऊपर आदिवासी परिवार था. उसके बाद भील प्रदेश संघर्ष मोर्चा, छात्र मोर्चा, भील ऑटोनोमस काउंसिल आदि संगठन थे. भारतीय ट्राइबल पार्टी हमारे ढांचे में सबसे निचले पायदान पर थी. किसी उम्मीदवार का टिकट फाइनल करने के लिए आदिवासी परिवार के दूसरे संगठनों की सहमति जरुरी होगी, ऐसा हमने तय किया." 

लेकिन आदिवासी भील परिवार के अलावा एक और राजनीतिक दल को भीलों की अलग राजनीतिक पार्टी की जरूरत महसूस हो रही थी. सत्ताधारी पार्टी बीजेपी. इस इलाके में भील परंपरागत तौर पर कांग्रेस का वोटर माना जाता है. 2013 में विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस के खिलाफ खड़े हुए भीलों के आंदोलन मिशन-73 ने बीजेपी को बहुत फायदा पहुंचाया था. इस इलाके की 14 आदिवासी सीटों में से 12 बीजेपी के खाते में गई थीं. मिशन-73 का हिस्सा रहे और बाद में बीजेपी की टिकट पर डूंगरपुर के विधायक बने देवेंद्र कटारा कहते हैं , "उस समय स्थानीय नेतृत्व में कई लोगों की समझ थी कि आदिवासी भील परिवार कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाएगा. गैर-आदिवासी वोटर में बीजेपी की पकड़ पहले से बहुत मजबूत थी. आदिवासी वोट में बंटवारा हमारे ही पक्ष में जा रहा था. लिहाजा हमारी ही पार्टी के कई लोग आदिवासी परिवार के नेतृत्व को अलग पार्टी बनाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे."

2018 में भारतीय ट्राइबल पार्टी ने ऑटो रिक्शा के निशान के साथ कुल 11 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा. पार्टी के राजकुमार रोत चौरासी से और सागवाड़ा सीट से रामप्रसाद चुनाव जीतने में कामयाब रहे. आसपुर से बीटीपी उम्मीदवार उमेश डामोर दूसरे नंबर पर रहे. शेष आठ उम्मीदवार अपनी जमानत नहीं बचा पाए. लेकिन इस इलाके में बीटीपी की एंट्री ने कांग्रेस का खेल खराब कर दिया. भील बाहुल्य वाली 15 में से महज 4 सीटें कांग्रेस के हिस्से में आई. दो सीटें बीटीपी जीतने में कामयाब रही. नौ सीट बीजेपी ने जीत ली थी.

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दिल्ली से मुंबई को जोड़ने वाले नेशनल हाईवे नंबर-8 को छोड़कर हम लोग खैरवाड़ा तहसील के देहात की तरफ जैसे ही मुड़ रहे थे. अरावली की पहाड़ियों की तराई में बसे एक गांव से दूसरे गांव की तरफ जाते हुए कुछ भी अप्रत्याशित नहीं था. भील लड़कियां बकरियों को हांकते हुए घर की तरफ बढ़ रही थीं. हर 3-4 किलोमीटर पर 'प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना' के जंग खाए बोर्ड मिल रहे थे. 

तभी एक मोड़ पर तड़ीपार कर दिए गए अकेले सीवर पाइप पर नजर पड़ती है. इस पाइप पर पीले बैकग्राउंड पर लाल रंग में लिखी दो अक्षर की इबारत कौतुहल पैदा करने के लिए काफी थी. 'जय जोहार'. झारखण्ड के आदिवासियों का यह संबोधन दक्षिणी राजस्थान के एक छोटे से गांव में कैसे पहुंचा? आपको पहेली का दूसरा सिरा मिलता है वनवासी कल्याण परिषद के मुख्यपत्र 'बाप्पा रावल' के नवंबर के अंक में. इस पत्रिका में 'राम चरित मानस में जोहार और आज का जोहार' शीर्षक से हनुमान सिंह राठौड़ का एक लेख छपा है. राठौड़ लिखते हैं कि "जोहार का प्रचलन राजस्थान के जनजाति क्षेत्र में नहीं रहा है. यहां इसके लिए अभियान सदायशता से नहीं, अलगाववादी नक्सली विचार प्रवाह के प्रस्फुटन,पोषण, संवर्धन के लिए किया जा रहा है. इस विषबेल को अंकुरण से पूर्व ही नष्ट करना आवश्यक है. अन्यथा यहां भी रक्त से सना नक्सली लाल गलियारा बनने में देर नहीं लगेगी."

यह दिलचस्प संयोग है कि संघ परिवार के संगठन वनवासी कल्याण परिषद और सूबे के इंटेलिजेंस डिपार्टमेंट इस आंदोलन को समझने के लिए एक ही प्रमेय का इस्तेमाल कर रहे हैं. कांकरी डूंगरी में हुए छात्रों के हिंसक प्रदर्शन के बाद इंटेलिजेंस डिपार्टमेंट की तरफ से तैयार रिपोर्ट का शीर्षक था, "उदयपुर संभाग में झारखण्ड राज्य की तर्ज पर युवाओं में बढ़ रही अतिवादी वामपंथी विचारधारा."  रिपोर्ट में लिखा गया है :

"उदयपुर संभाग के जिला उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ और चित्तौड़ आदि जिलों में आदिवासियों द्वारा पृथक राज्य (भील प्रदेश) की मांग को लेकर लंबे समय से आंदोलन  किए जाते रहे हैं. तथा भील प्रदेश की राजधानी मानगढ़ को बनाने की बात करते हैं. वर्तमान में आदिवासियों के द्वारा स्वयं को हिंदू के स्थान पर आदिवासी तथा हिंदू देवी-देवताओं के स्थान पर पेड़, पर्वत, चांद, तारे इत्यादि अपने देवता मनाने का प्रचार करते रहे हैं." 

लेकिन जोहार मध्य भारत के आदिवासी समुदायों में अभिवादन से जुड़ा हुआ शब्द है. मगर इसका दक्षिण राजस्थान से राब्ता कैसे कायम हुआ? इस कहानी को समझने के लिए हमें 2017 की तरफ जाना होगा. भंवर परमार के नेतृत्व में डूंगरपुर से आदिवासी परिवार का एक शिष्ठमंडल 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस के समारोह के सिलसिले में झारखण्ड के जमशेदपुर गया था. इस समारोह का आयोजन आदिवासी महासभा के बैनर तले हुआ था. विजय कुजूर उस समय आदिवासी महासभा के कार्यकारी अध्यक्ष हुआ करते थे और वो इस कार्यक्रम के मुख्य आयोजनकर्ता थे. भंवर परमार ने इस मौके पर जो भाषण दिया था उसको डूंगरपुर के श्री भोगीलाल पंड्या कॉलेज के सैंकड़ो छात्रों ने लाइव सुना था. इस भाषण में भंवर परमार विजय कुजूर को अपना 'वैचारिक गुरु' बताते हैं. 

झारखण्ड में हुए पत्थलगड़ी के मामलों में विजय कुजूर का नाम खास तौर पर उछला था. विजय कुजूर शिपिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया में जनरल मैनेजर की पोस्ट पर कार्यरत थे. बाद में उनका जुड़ाव आदिवासी महासभा के साथ हुआ था. इस संगठन की बुनियाद जयपाल सिंह मुंडा ने रखी थी. 2008 में कुछ आदिवासी कार्यकर्ताओं ने इसे फिर से जिन्दा किया था. विजय कुजूर इसी संगठन के कार्यकारी अध्यक्ष थे. राजस्थान के इंटेलिजेंस डिपार्टमेंट की रिपोर्ट में विजय कुजूर को आदिवासी परिवार के चिंतन शिविर का मास्टरमाइंड बताया गया है. रिपोर्ट में दर्ज किया गया है : 

"पत्थलगड़ी के मास्टर माइंड विजय कुजूर का नाम वर्ष 2018 में सामने आया था, जोकि अपने संगठन आदिवासी महासभा के मार्फत राजस्थान के जिला डूंगरपुर के आदिवासियों के लगातार संपर्क में रहा है तथा डूंगरपुर में चिंतन शिविर आयोजित करवाने का प्रणेता रहा है." 

फॉरवर्ड प्रेस की एक खबर के मुताबिक विजय कुजुर को झारखण्ड में पत्थलगड़ी करने का आइडिया गुजरात के सती-पति समुदाय से मिला था. यह वही सती-पति समुदाय है जिसका जिक्र बीटीपी नेता कांतिभाई रोत ने भी किया था. इस सती-पति समुदाय की कहानी भी बेहद दिलचस्प है. 

सती-पति समुदाय की स्थापना करने वाले शख्स का नाम कुंवर केश्री सिंह है. इंटरनेट पर जो जानकारी उपलब्ध है उसके हिसाब से कुंवर केश्री सिंह का जन्म गुजरात के तापी जिले के गांव कटास्वान में हुआ. उनकी मां का नाम जमाना और पिता का नाम टेटिया कानजी था. उनके अनुयायी बताते हैं कि उन्होंने बैरिस्टर की पढ़ाई पढ़ी थी और बड़ोदा के सयाजीराव गायकवाड़ उनके क्लासमेट थे. यह सूचना गलत है क्योंकि उनके अनुयायियों का दावा है कि केश्री सिंह ने 1930 में अपनी पढ़ाई खत्म की. उस समय तक सयाजीराव को बड़ौदा पर राज करते हुए 55 साल का वक्त गुज़र चुका था. 16 जुलाई 1997 को आउटलुक मैग्जीन में छपे लेख के अनुसार कुंवर केश्री सिंह की पढ़ाई बीए तक हुई थी. 

तमाम विरोधाभासी तथ्यों के बावजूद एक बात निश्चित तौर पर कही जा सकती है कि केश्री सिंह आदिवासियों के एक संप्रदाय ‘सती-पति’ के प्रवर्तक हैं. उनके अनुयायी उन्हें भारत की असली सरकार, भारत के खजाने का मालिक मानते हैं. सती-पति संप्रदाय के लोग किसी भी हिंदू देवी-देवता को नहीं मानते. ये लोग अभिवादन के लिए ‘स्वकर्ता पितु की जय’ का इस्तेमाल करते हैं. पहचान के लिए किसी भी किस्म का सरकारी दस्तावेज इन लोगों के पास नहीं है. ये लोग न तो वोट डालते हैं और न ही किसी किस्म की सरकारी योजना का हिस्सा बनते हैं. ये लोग खुद को भारत के किसी भी कानून का हिस्सा नहीं मानते. बस एक आभासी सरकार है जो इन्हें आपस में जोड़े हुए है. 

इस समुदाय का मुख्य तर्क है कि अंग्रेजों के साथ आदिवासियों का 1870 में एक करार हुआ था. इसके पक्ष में वे लैंड रेवन्यू एक्ट 1921 के पेज नंबर 221 को संदर्भ के तौर पर पेश करते हैं. इस संप्रदाय के लोगों के अनुसार अंग्रेजों ने 1870 में उनकी जमीन 99 साल के लिए लीज पर ली थी. यह लीज 4 फरवरी 1969 को खत्म हो गई थी. इसके बाद लीज के इस करार को आगे नहीं बढ़ाया गया. ऐसे में इस देश के आदिवासी जोकि इस जमीन के असल मालिक हैं, उनका इस देश की जमीन पर अपने आप मालिकाना हक़ कायम हो गया. 

ये लोग खुद के नाम के आगे एसी लिखते हैं. एसी का माने हैं 'एंटे क्राइस्ट' या धर्मपूर्वी. यानी आदिवासी धर्म किसी भी प्रचलित धर्म से पहले वजूद में थे. ये लोग खुद को नॉन ज्युडिशियल कहते हैं. मतलब की प्रकृति के अलावा ये किसी कायदे को नहीं मानते. इस समुदाय के लोग अपने गांव में एक खास किस्म का शिलालेख गाड़ते आए हैं. इस पर अशोक स्तंभ के साथ-साथ 'एसी भारत सरकार' और 'हेवंस लाइट आवर गाइड' लिखा होता है. विजय कुजूर ने गुजरात में मौजूद सती-पति समुदाय के इस रिवाज को झारखण्ड की परंपरागत पत्थलगड़ी के साथ ब्लेंड कर दिया. उन्होंने झारखण्ड में जो पत्थलगड़ी की, उसका खाका गुजरात जैसा ही था लेकिन उनका मजमून बदलकर संविधान की पांचवी अनुसूची के इर्द-गिर्द कर दिया गया. 

सती-पति समुदाय का असर गुजरात के भील बाहुल्य वाले इलाकों में दशकों से रहा है. गुजरात से सटे होने के बावजूद राजस्थान के भीलों में इसका प्रभाव न के बराबर रहा है. इस समुदाय ने फरवरी 2018 में राजस्थान में पहली दफा अपनी उपस्थिति पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज करवाई थी. 25 फरवरी 2018 को सिरोही जिले के पिण्डवाडा में सोनाराम और जमताराम गरासिया ने वारला ओडा नाम के गांव के सामुदायिक सभा भवन पर कब्ज़ा कर लिया और खुद को स्वयंभू भारत सरकार बताते हुए सामुदायिक सभा भवन पर 'हेवन्स लाइट आवर गाइड' लिख दिया. इन दोनों के खिलाफ स्थानीय पुलिस ने मुकदमा दर्ज कर लिया. इसके अलावा सूबे में सती-पति समुदाय से जुडी कोई बड़ी घटना देखने को नहीं मिली है और ना ही कहीं गुजरात की तर्ज पर पत्थलगड़ी करने की कोई खबर सामने आई है. 

झारखण्ड में पत्थलगड़ी आंदोलन के केंद्र में रहे संगठन आदिवासी महासभा से वैचारिक समानता होने के बावजूद राजस्थान में आदिवासी परिवार ने इस किस्म का कोई आंदोलन नहीं चलाया. हालांकि झारखण्ड की तर्ज पर कई गांवों में शांति सभा बनाई गई. ये शांतिसभा आदिवासी भील परिवार के सहयोगी संगठन भील ऑटोनोमस काउंसिल का हिस्सा हैं. इनका उद्देश्य गांवों में परंपरागत या रूढ़िगत ग्राम सभाओं को जिंदा करना था. लेकिन इंटेलिजेंस रिपोर्ट में इस इलाके में पत्थलगड़ी का होना दर्ज है. रिपोर्ट कहती है कि "विगत दो वर्षों में उदयपुर संभाग में आदिवासियों द्वारा अवांछनीय गतिविधि में बढ़ोतरी हुई है. दिनांक 22.02.18 को जिला डूंगरपुर के गांव गरडा में गांव गणराज्य शिलालेख (पत्थलगड़ी) की स्थापना की गई. दिनांक 15.04.2018 को लेहणा ग्राम पंचायत के असियावाव व नवलश्याम के गांव छोटा ओडा ग्राम में गांव गणराज्य की स्थापना के तहत शिलालेख की स्थापना एवं  एक गांव सभा का गठन कारूलाल कोटेड के आतिथ्य में संपन्न हुआ."

आदिवासी परिवार किसी किस्म की पत्थलगड़ी नहीं कर रहा था. सती-पति समुदाय की उपस्थिति भी न के बराबर है. तो इंटेलिजेंस की रिपोर्ट में दर्ज ये पत्थलगड़ी कर कौन रहा था? इस पेंच को समझने के लिए हमें 1998 के साल में चलना पड़ेगा.

6 दिसंबर 1998 में डूंगरपुर के बिछीवाडा के कोडियागण गांव से शुरू हुई पैदल यात्रा को करीब पचास किलोमीटर दूर तलैया नाम के एक गांव में खत्म होना था. इस पैदल यात्रा में इलाके के करीब 500 लोगों के अलावा दिल्ली से आए कुछ मेहमान भी शामिल थे. ये मेहमान थे बीडी शर्मा और दिलीपचंद भूरिया. ये दो शख्स जिन्होंने 1996 में पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम 1996 या पेसा कानून लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. राजस्थान इस कानून को लागू करने वाले शुरुआती राज्यों में से एक था. कहानी की शुरुआत कोडियागण से हुई, जहां एक बांध बनने वाला था. इस बांध की वजह से आस-पास के कई गांव डूब में आ जाते. इस दौरान दिल्ली से आए सामाजिक कार्यकर्ताओं ने स्थानीय लोगों को समझाया कि पेसा कानून के तहत अब प्राकृतिक संसाधनों पर ग्राम सभा का अधिकार है. लोगों को बांध का निर्माण रोकने का जरिया मिल गया. कोडियागण का बांध पेसा के कारगर होने का लिटमस टेस्ट था. लिहाजा बीडी शर्मा और दिलीपचंद भूरिया भी इस पद यात्रा में शामिल होने आए थे. 

तलैया गांव में हुए जलसे में बीडी शर्मा ने लोगों को पेसा कानून के बारे में जानकारी दी. इस मौके पर पत्थर का एक शिलालेख भी लगाया गया. इस शिलालेख पर पेसा कानून के तहत ग्राम सभा को मिले अधिकारों को उकेरा गया था. इस कार्यक्रम के बाद पुलिस शिलालेख लगाने वाले सोम जी भगत को गिरफ्तार करके ले गई थी. सोमजी के छूटने के बाद इस इलाके कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने एक एनजीओ बनाया 'वागड़ किसान मजदूर संगठन'. वागड़ संगठन का मुख्य उद्देश्य पेसा कानून के तहत मिले अधिकारों के बारे में लोगों को जागरूक करना है. यह संगठन 1998 से गांव-गांव में पेसा कानून के प्रावधानों वाले शिलालेख लगा रहा है. अब तक करीब 400 गांवों में इस किस्म के शिलालेख लग चुके हैं. कारूलाल कोटेड का जुड़ाव भी वागड़ संगठन के साथ रहा है. इनका पत्थलगड़ी या किसी दूसरे राजनीतिक आंदोलन से कोई साबका नहीं रहा है. कारूलाल कोटेड कहते हैं, "हम संविधान में भरोसा रखने वाले लोग हैं. हम जो शिलालेख लगाते हैं उसमें पेसा कानून के तहत ग्राम सभा को मिली शक्तियों के बारे जानकारी लिखी होती है. यह झारखण्ड या छत्तीसगढ़ के पत्थलगड़ी जैसा नहीं है. हम उनकी तरह नहीं लिखते कि इस गांव में बाहरी आदमी का प्रवेश वर्जित है. सरकार ने डूंगरपुर में पेसा एक्ट को कायदे से लागू करने के लिए जिले पर एक कॉर्डिनेटर नियुक्त किया है. जिले के सभी 10 ब्लॉक में ब्लॉक कॉर्डिनेटर हैं. हम उनके साथ मिलकर काम करते हैं. सरकार के कई मंत्री और विधायक इन शिलालेखों का उद्घाटन करने आ चुके हैं. सरकार सबको एक लाठी से कैसे हांक सकती है?"

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29 सितंबर 2020 को पूर्व राज्य मंत्री मदन दिलावर, चित्तौड़ के सांसद सीपी जोशी, उदयपुर सांसद अर्जुन मीणा और प्रदेश बीजेपी उपाध्यक्ष हेमराज मीणा डूंगरपुर में थे. चार नेताओं की यह कमेटी डूंगरपुर में कांकरी डूंगरी पर चल रहे छात्र आंदोलन के हिंसक हो जाने के बाद हालात का जायजा लेने आई थी. सर्किट हाउस में पत्रकारों को संबोधित करते हुए बीजेपी नेता मदन दिलावर ने आंदोलन के तार नक्सलियों से जुड़े होने का दावा किया. उन्होंने कहा, "दक्षिण राजस्थान के आदिवासी 'लेकर रहेंगे आजादी' जैसी भाषा नहीं बोल सकते. इस क्षेत्र में चिंतन शिविर के नाम पर आदिवासियों का ब्रेनवॉश किया जा रहा है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इसमें से कई आदिवासी नक्सली ट्रेनिंग लेकर आए हैं." 

दक्षिण राजस्थान का नक्सल शब्द से पहला सबका 1970 के दशक में पड़ा था. 1978 के साल में श्रीलता स्वामीनाथन का ध्यान बांसवाड़ा के आदिवासी इलाकों में गया. श्रीलता दक्षिण भारत की रसूखदार कांग्रेसी परिवार से ताल्लुक रखती थीं. लेकिन उन्होंने अपने लिए अलग राजनीतिक राह चुनी. वह उस समय भारत में प्रतिबंधित संगठन सीपीआई (एमएल) की सदस्य हुआ करती थीं. लेकिन इस इलाके में उनका जुड़ाव कभी भी हथियारबंद संघर्ष से नहीं रहा. वरिष्ठ पत्रकार नारायण बारेठ कहते हैं, "श्रीलता संभ्रांत राजनीतिक परिवार से आती थीं. उनका परिवार गांधी परिवार के करीबी दोस्तों में से था. श्रीलता का राजनीतिक रुझान भले ही अल्ट्रा लेफ्ट रहा हो लेकिन सत्ता प्रतिष्ठानों में उनकी छवि एक जिद्दी सामाजिक कार्यकर्ता की थी. वह बड़े-बड़े आईएएस अफसरों से भिड़ जातीं. सचिवालय में उनकी मौजूदगी कई अधिकारियों को असहज कर देती." 

दक्षिण राजस्थान नक्सल शब्द से दूसरा साबका 2010 में पड़ा. दैनिक भास्कर में छपी रिपोर्ट के मुताबिक डूंगरपुर के सलुम्बर में तैनात सीआईडी (स्पेशल ब्रांच) के सब इंस्पेक्टर रमेश कटारा ने इस्तीफा दे दिया. कटारा का आरोप था कि उन्होंने सलुंबर के इलाके में माओवादी संगठन रेवोलुशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट की गतिविधि की एक रिपोर्ट बनाकर जयपुर भेजी थी. इस खुफिया रिपोर्ट को उदयपुर के जोन ऑफिस से लीक कर दिया गया और अब माओवादी उन्हें जान से मारने की धमकी दे रहे हैं. रमेश कटारा के इस्तीफे की पेशकश के बाद उनका तबादला जयपुर कर दिया गया. 

लेकिन उस समय वहां कार्यरत एक आईपीएस अधिकारी इन दावों को खोखला बताते हैं. वह कहते हैं : 

"2008-09 के आसपास उदयपुर संभाग में नक्सलियों के होने की खबरें अखबारों में प्रकाशित होनी शुरू हुई. पहला मामला झाड़ोल-फलासिया में आया. स्थानीय अखबारों में एक तस्वीर छपी. इस तस्वीर में कुछ लोग तीर-कमान लिए हुए दिखाई दे रहे थे. अखबारों में दावा था कि ये लोग बाहर से आए हुए नक्सली हैं. हमने जब ग्राउंड पर जाकर पता किया तो पता लगा कि ये स्थानीय आदिवासी थे और बीएड की सीट बढाने को लेकर चल रहे आंदोलन के पक्ष में पारंपरिक हथियारों के साथ प्रदर्शन कर रहे थे. तीर-कमान आदिवासियों की पहचान का हिस्सा है. लेकिन स्थानीय मीडिया ने नक्सली बता दिया. इसके बाद भी एक-दो मामले सामने आए. यह अखबारों के भ्रामक कवरेज का नतीजा था."

तो फिर मदन दिलावर कांकरी डूंगरी की हिंसा को माओवाद से क्यों जोड़ रहे थे? इसको समझने के लिए कांकरी डूंगरी आंदोलन को समझना होगा.

कहानी की शुरुआत साल 2018 में हुई थी. ट्राइबल सब प्लान एरिया होने की वजह से इस इलाके में आदिवासियों को 45 फीसदी आरक्षण हासिल है. 2013 में अशोक गहलोत सरकार ने समानता मंच के आंदोलन के बाद 50 फीसदी आरक्षित सीटों में स्थानीय अभ्यर्थियों को वरीयता देने का प्रावधान कर दिया. 2018 के अप्रैल में राजस्थान सरकार ने ट्राइबल सब प्लान एरिया में स्कूल टीचर के 5431 पदों के लिए भर्ती निकाली. इसमें जनरल के लिए 60 फीसदी और ट्राइबल के लिए 36 फीसदी का कट ऑफ रखा गया. जून 2018 में रिक्रूटमेंट की प्रक्रिया समाप्त हो गई. इसके बावजूद टीएसपी एरिया में जनरल कैटेगरी के 1167 पद बचे रहे गए.

कई आदिवासी युवाओं की मांग थी कि जनरल कैटेगरी के बचे हुए 1167 पदों पर आदिवासी युवाओं को नौकरी दी जाए. इसके पीछे तर्क यह था कि 2011 की जनगणना के मुताबिक इस इलाके में आदिवासियों की तादाद 70 फीसदी से ज्यादा है. ऐसे में जनसंख्या के अनुपात में उन्हें नौकरी में हिस्सेदारी मिलनी चाहिए. इस आंदोलन को चलने के लिए 'भील प्रदेश आरक्षण संघर्ष समिति' नाम का एक फौरी संगठन खड़ा किया गया. मार्च 2019 में कमलेश कलसुआ नाम के एक आदिवासी छात्र ने जोधपुर हाईकोर्ट में पिटीशन दाखिल की. कोर्ट की सिंगल बैंच ने एक महीने के भीतर ही फैसला आदिवासी छात्रों के पक्ष में सुना दिया. लेकिन सितंबर 2019 में जोधपुर हाई कोर्ट की डबल बैंच ने इस फैसले को पलट दिया.

अक्टूबर 2019 से छात्रों इस मुद्दे को लेकर आंदोलन शुरू कर दिया. छात्रों को भरोसा था कि अगर सरकार मामले में हस्तक्षेप करती है तो उन्हें रोजगार मिल जाएगा. नवंबर 2019 में छात्रों का एक प्रतिनिधि मंडल मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से मिला. इसके बाद छात्रों की मांग पर विचार करने के लिए एक कमेटी बना दी गई. लेकिन नौ महीने तक इस सिलसिले में कोई प्रगति नहीं हुई.

आखिरकार 7 सितंबर 2020 को छात्रों ने कांकरी डूंगरी नाम की एक पहाड़ी पर महापड़ाव डालने की घोषणा कर दी. 27 सितंबर को छात्रों के प्रतिनिधि मंडल को जयपुर में फिर से मुख्यमंत्री से मिलना था. लेकिन बिना कोई कारण बताए यह मीटिंग निरस्त कर दी गई. जवाब में छात्रों ने पहाड़ी से उतर कर नेशनल हाईवे-8 जाम कर दिया. जाम खुलवाने के लिए पहुंची पुलिस के साथ छात्रों की झड़प हुई जोकि देखते ही देखते हिंसक हो गई. हाईवे के किनारे के दर्जनों होटल आग के हवाले कर दिए गए. घटना के विजुअल बेहद डरावने थे. आंदोलनकारियों की तरफ से हो रहे पथराव के चलते पुलिस को मौके से जान बचाकर भागना पड़ा.

मदन सिंह डूंगरपुर के खैरवाड़ा के रहने वाले हैं और हाईवे पर 'अतिथि' नाम का एक होटल चलाते हैं. लॉकडाउन के दौरान मदन सिंह ने अपने होटल को रीनोवेट किया था. होटल के लिए नया किचन बनवाया था. रूम और डाइनिंग के लिए नया फर्नीचर मंगवाया था. रंग-रोगन किया था. रूम और डाइनिंग हॉल में नए एसी और एलईडी लगवाए थे. प्रदर्शनकारियों ने उनका सामान लूट लिया और उनके होटल में आग लगा दी. मदन सिंह कहते हैं, "पहले से ही बिजनेस ठप पड़ा था. लॉकडाउन के दौरान जमा पूंजी इनवेस्ट करके होटल को नए सिरे से तैयार किया था ताकि बिजनेस बढ़ सके. लेकिन सब खाक हो गया. जब यहां आंदोलन हो रहा था तो पुलिस की टीम मेरे होटल में चाय-पानी को रुकी थी. मेरी होटल से कुछ आगे जाकर पुलिस ने बैरिकेट लगा रखे थे. एसपी साहब भी यहीं थे. लेकिन जैसे ही भीड़ आई सब यहां से भाग गए. मैं खुद बाहर था. पुलिस के साथ-साथ होटल में जो गेस्ट ठहरे हुए थे उनकी गाड़ियां जला दीं. भीड़ में जिसे जो हाथ लगा लूट लिया. जो चीज लेकर नहीं जा सकते थे उसे जला दिया."

हाईवे पर ऐसा कई होटल के साथ हुआ. एक दर्जन से ज्यादा होटल में लूट-पाट और तोड़-फोड़ हुई. खैरवाड़ा में कई सारी निजी बसों को जला दिया गया जो आज भी सड़क किनारे खड़े उस हिंसा का सबूत दे रही हैं. लेकिन पुलिस ने इसका जवाब उससे ज्यादा बर्बरता से दिया. हाईवे से सटे भीलों के गांव निशाना बनाए गए. घरों में जाकर लोगों को पीटा गया और गिरफ्तार किया गया. मोरडी भैरूजी के रहने वाले बसंत की कहानी कुछ ऐसी ही है.

25 साल के बसंत ने नर्सिंग की पढ़ाई की है. वह परिवार के मदद के लिए चितरी में एक मेडिकल स्टोर पर हेल्पर के तौर पर काम करते हैं. राजस्थान सरकार ने हेल्थ ऑफिसर की भर्ती निकाल रखी थी. 24 सितंबर 2020 की शाम मेडिकल स्टोर पर अपनी शिफ्ट खत्म करने के बाद बसंत प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी के लिए किताब लेने अपनी मोटरसाईकिल से उदयपुर के लिए रवाना हुए. उसके साथ उनके दोस्त और सहपाठी रहे विनोद भी थे.

दोनों लोग जब डूंगरपुर पहुंचे तो उन्हें पता लगा कि हाईवे पर जाम लगा हुआ है. डूंगरपुर से हाईवे को जोड़ने वाले मोतली मोड़ के पास एक कार का एक्सीडेंट भी उसी समय हो गया था. दोनों लोग मौके पर पहुंचे. पैरामेडिक होने नाते उन्होंने घायल हुए लोगों को फर्स्ट ऐड दिया और एम्बुलेंस बुलाकर अस्पताल की तरफ रवाना किया. इस सबमें अंधेरा हो गया. आगे जो हुआ उसे बसंत इस तरह से याद करते हैं कि "हम जाम में जैसे-तैसे करके मोतली मोड़ पहुंचे. यहां हमें पुलिस ने रोक लिया. एक पुलिस वाले ने मेरा नाम पूछा. फिर जाति. जैसे ही पुलिस को मेरे नाम के पीछे सरनेम पता चला तो उन्होंने मुझे पीटना शुरू कर दिया. मुझे कम से कम 20 पुलिस वालों ने घेरकर लाठियों से पशुओं से भी बदतर तरीके से पीटा. कुछ लोगों ने इसका वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डाल दिया. इसके बाद मुझे गाड़ी में डालकर सदर थाने ले जाया गया. यहां हमें दो दिन और पीटा गया. मेरे हाथ में तीन जगह फ्रेक्चर हुआ था. इस भयंकर दर्द में मैं पुलिस वालों के सामने गिड़गिड़ाता रहा लेकिन दवाई तो दूर पहले चौबीस घंटे हमें पानी तक नहीं दिया. आखिर में चोट लगने के सात दिन बाद मुझे इलाज के लिए सागवाड़ा के हॉस्पिटल ले जाया गया. यहां मेरे दो ऑपरेशन हुए. मेरी हाथ की हड्डी में रॉड डाली गई. दो अंगुली फ्रेक्चर थीं. उनका इलाज हुआ. कमर में जो चोट लगी हैं वो अब भी सही नहीं हुई हैं. मैं बेकसूर था. मेरा आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं था. मुझे सिर्फ मेरी जाति की वजह से पीटा गया."

नर्सिंग के छात्र बसंत फोटो : विनय सुल्तान

अपना चेहरा बचाने के लिए पुलिस ने अंधाधुन एफआईआर की. पुलिस के द्वारा दर्ज की गई कुल 26 एफआईआर में 6000 लोगों के खिलाफ मुकदमे कायम किए गए हैं. इनमें से 1600 से ज्यादा लोगों को नामजद किया गया है. किसी एक आंदोलन में इतने लोगों के खिलाफ नामजद मुकदमे दायर करना असामान्य है. एफआईआर में नाम दर्ज करने में पुलिस की लापरवाही साफ दिखाई देती है.

इस मामले में मुजरिम बनाए गए कई लोग ऐसे हैं जो उस दिन डूंगरपुर में थे ही नहीं. मन्नालाल ननोमा 24 सितंबर 2020 को उदयपुर के माणिक्य लाल वर्मा श्रमजीवी कॉलेज में परीक्षा दे रहे थे. लेकिन उनका नाम एफआईआर में दर्ज है. इसी तरह से लाल शंकर भी उस दिन डूंगरपुर में एग्जाम लिख रहे थे. उन्हें भी इस मामले में मुजरिम बनाया गया है. हद तो यह है कि शंकर नाम एक शख्स को भी मुजरिम बनाया गया है जिनकी इस घटना के एक महीने पहले मौत हो गई थी.

इस एफआईआर में बीटीपी नेता और कार्यकर्ता खास तौर पर निशाने पर लिए गए. कांतिलाल आदिवासी, विधायक राजकुमार रोत, विधायक रामप्रसाद डिंडोर सहित बीटीपी के लगभग हर बड़े नेता को इस मामले में मुजरिम बनाया गया है. कांतिलाल रोत कहते हैं, "हमें सूचना मिली है कि पुलिस ने हर पंचायत में फोन करके बीटीपी कार्यकर्ताओं के नाम मंगवाए हैं. जिसका भी थोड़ा सा झुकाव बीटीपी तरफ है उसके खिलाफ मुकदमा दायर किया जा रहा है." यह तथ्य कांकरी डूंगरी के बहाने राजनीतिक स्कोर बराबर करने शक पैदा करती है.

छात्रों के हिंसक प्रदर्शन को नक्सलवाद से कैसे जोड़ा? कांकरी डूंगरी की घटना के बाद मीडिया में एक इंटेलिजेंस रिपोर्ट का हवाला देकर खबर चली कि कांकरी डूंगरी के उपद्रव में झारखण्ड और छत्तीसगढ़ से आए हुए बाहरी लोग शामिल थे. पत्रिका में छपी खबर की हैडिंग थी, "डूंगरपुर बवाल में झारखंड का नक्सल कनेक्शन, जाने क्यों हो रही इंटेलिजेंस फेल्योर की बात". देखते ही देखते भारतीय जनता पार्टी ने इस नैरेटिव को पकड़ लिया. बीजेपी की फैक्ट फाइंडिंग टीम का हिस्सा रहे पूर्व मंत्री और विधायक मदन दिलावर ने मीडिया में बयान देकर इस नैरेटिव को हवा देने का काम किया. पूर्व गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया ने सूबे के पुलिस महानिदेशक को पत्र लिखकर कांकरी डूंगरी उपद्रव में नक्सलियों की भूमिका की जांच की मांग की.

तो क्या इस आंदोलन में सच कोई नक्सलवादी संगठन अंदरूनी तौर पर सक्रिय था? राजस्थान सरकार ने कांकरी डूंगरी मामले में कानून व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए तीन सीनियर आईपीएस अधिकारियों को एक दल जयपुर से उदयपुर भेजा गया. एमएल लाठर, दिनेश एमएन और आनंद श्रीवास्तव. तीनों आईपीएस अधिकारियों को इस इलाके में काम करने का अनुभव रहा है. जब हमने दिनेश एमएन से नक्सल एंगल पर सवाल किया तो उनका जवाब था, "दक्षिण राजस्थान में हिंसक प्रदर्शन कोई नई बात नहीं रही है. 2007, 2010 और 2013 में भी हम इससे ज्यादा हिंसक प्रदर्शन देख चुके हैं. अगर आप एक हिंसक प्रदर्शन से इस नतीजे पर पहुंच रहे हैं कि वहां माओवादी या नक्सल सक्रिय हैं तो यह गलत होगा. कम से कम हमारे पास तो ऐसी कोई जानकारी नहीं है."

दिनेश एम. एन. यह भी कहते हैं कि आदिवासी युवाओं का आंदोलन सामान्य सीटों पर उन्हें भर्ती किए जाने का था. इसका मतलब साफ है कि राजस्थान का आदिवासी समुदाय मुख्यधारा के समाज का हिस्सा है और उसी में बना रहना चाहता है. 

तो इस प्रदर्शन में नक्सल एंगल क्यों दिखाया जा रहा है? बीटीपी नेता कांतिलाल रोत इस सवाल का जवाब देते हुए कहते हैं, "कई दशकों से यहां का आदिवासी बीजेपी और कांग्रेस के बीच फंसा हुआ था. लेकिन चुनाव के बाद आदिवासियों के मुद्दों पर कोई भी काम नहीं करता था. अब यहां आदिवासियों के सामने बीटीपी के तौर पर नया विकल्प है. यह कांग्रेस और बीजेपी से सहन नहीं हो रहा है. हम अपने हक की बात करते हैं तो कांग्रेस की सरकार हमारे ऊपर गोली चला रही है और विपक्ष में बैठी बीजेपी हमें नक्सली कह रही है. हमारे खिलाफ दोनों बड़ी पार्टी एकजुट हो गई हैं."

कांतिलाल के इस राजनीतिक दावे की दूसरी कड़ी हमें जयपुर के सिविल लाइंस के 383 नंबर बंगले में मिलती है. 5 दिसंबर 2020 की शाम को पंचायत चुनाव के थकाऊ प्रचार अभियान से लौटे बीजेपी के वरिष्ठ नेता और विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता गुलाब चंद कटारिया अपने सरकारी आवास पर थे. बातचीत के दौरान वे लंबे पॉज के बाद दबी हुई आवाज में कहते हैं, "प्रतापगढ़ और बांसवाड़ा में हमारी पकड़ ठीक है. डूंगरपुर में हम कभी भी बहुत मजबूत नहीं रहे. हम चाहते हैं कि हम वहां भी जीतें. अगर ऐसा नहीं होता है तो भले ही कांग्रेस जीत जाए लेकिन बीटीपी नहीं जीतनी चाहिए."

यह महज इत्तेफाक नहीं है कि पंचायत चुनाव में नतीजों में गुलाबचंद कटारिया का कहा हुआ सच होता हुआ दिखाई दे रहा था. डूंगरपुर में हुए जिला परिषद के चुनाव में बीटीपी को 13 कांग्रेस 6 और बीजेपी को आठ सीट हासिल हुई थी. कुल 27 सदस्यों वाले जिला परिषद में बीटीपी बहुमत से महज एक वोट दूर थी. बीटीपी ने जिला प्रमुख के लिए पार्वती डोडा को मैदान में उतारा था. राजस्थान कांग्रेस में सचिन पायलट और अशोक गहलोत की वजह से पैदा हुए राजनीतिक संकट के दौरान बीटीपी के दो विधायकों ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को अपना समर्थन दिया था. उम्मीद की जा रही थी कि कांग्रेस जिला प्रमुख चुनाव में बीटीपी का समर्थन करेगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. उम्मीद से उलट कांग्रेस ने बीजेपी की उम्मीदवार सूर्या आहरी का समर्थन कर दिया.

राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में अरावली और सतपुड़ा के जोड़ पर भील आदिवासी एक पट्टी में बसे हुए हैं. अंग्रेज अपने खत-ओ-किताब में इस इलाके को 'भील कंट्री' लिखते थे. अब इस इलाके में भीलों की पहचान से जुड़ा यह राजनीतिक आंदोलन तेजी से पकड़ कायम कर रहा है. मध्य प्रदेश, गुजरात और राजस्थान का सियासी ताना-बाना दो राष्ट्रीय दलों कांग्रेस और बीजेपी पर टिका हुआ है. बीटीपी के उभार ने इस समीकरण को तिकोना बना दिया है. यह तिकोनापन परंपरागत प्रतिद्वंदी रही दोनों पार्टियों को असहज कर रहा है.