बिहार में ओबीसी मतदाताओं को आकर्षित करने में जुटी बीजेपी

18 April, 2019

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15 फरवरी के दिन पटना के बापू सभागार में भारतीय जनता पार्टी के ओबीसी कार्यकर्ताओं का दो दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन शुरू होना था. सम्मेलन का आयोजन 2015 में गठित बीजेपी ओबीसी मोर्चा ने किया था. ओबीसी मतदाताओं को आकर्षित करने के लक्ष्य के साथ, देशभर के हजारों पार्टी कार्यकर्ता सम्मेलन में भाग ले रहे थे. जानकारों का मानना है कि पिछले लोकसभा चुनावों में बीजेपी की जीत में ओबीसी मतदाताओं की बढ़ी भूमिका थी.

सम्मेलन के पहले दिन सहभागी, सभागार के बाजू वाले हॉल में सुबह एकत्र हुए. सभी सहभागियों को स्वागत किट के रूप में एक जूट का बैग, एक कॉपी और पेन एवं कमल के फूल वाला स्कार्फ दिया गया. किट में ओबीसी जनता के लिए नरेन्द्र मोदी की सरकार के प्रयासों की जानकारी देने वाला साहित्य भी था. इसके बावजूद कार्यक्रम पूरी तरह नहीं चल सका. दोपहर के भोजन का वक्त आते-आते सहभागियों को परिसर के आसपास टहलते देखा जा सकता था. इसके एक दिन पहले आतंकवादियों ने कश्मीर में 40 अर्धसैनिक जवानों को मार दिया था और पूरे देश की नजर वहीं थी. कोई नहीं बता सकता था कि गृहमंत्री राजनाथ सिंह, जो सम्मेलन का उद्घाटन करने वाले थे, आ पाएंगे. दोपहर 3 बजे मोर्चे के नेता सभागार में पहुंच गए. बिहार में बीजेपी का प्रचार कार्य देख रहे राज्यसभा सांसद भूपेन्द्र यादव ने घोषणा की कि कश्मीर में हुई घटना के चलते सम्मेलन को स्थगित किया जा रहा है.

लेकिन यह जमावड़ा बरबाद नहीं हुआ. पटना के एक टीवी पत्रकार ने मुझे बताया कि सम्मेलन का आयोजन कर पार्टी ने दिखा दिया है कि वह ओबीसी जनता के कल्याण के प्रति गंभीर है. उसने कहा, “जो मैसेज संगठन का था, वह तो चला गया.”

2011 में हुए सामाजिक-आर्थिक और जाति सर्वेक्षण को आज तक पूरी तरह से जारी नहीं किया गया है. यह सर्वेक्षण 80 साल में भारत की जातियों की स्थिति जानने का पहला प्रयास था. भरोसेमंद आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि बिहार में ओबीसी की जनसंख्या लगभग 50 प्रतिशत है. राज्य की आबादी में मुस्लिम, अनुसूचित जाति और अगड़ी जातियां का हिस्सा 15-15 प्रतिशत है. राज्य में चुनावी सफलता के लिए राजनीतिक दलों और गठबंधनों को बड़ी संख्या में ओबीसी वोट हासिल करना पड़ता है. साथ ही उन्हें गैर ओबीसी मतदाताओं का भी समर्थन जुटाना होता है. बिहार में ओबीसी की कई उपजातियां हैं. इनमें सबसे ज्यादा संख्या यादवों, निषादों, कुर्मियों और कोरियों की है. यादवों के बारे में माना जाता है कि वे राज्य की आबादी का 15 फीसदी हैं और पारंपरिक रूप से लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनता दल को समर्थन देते रहे हैं.

जनता दल यूनाइटेड के नेता और वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को गैर यादव ओबीसी मतदाताओं का समर्थन हासिल है जिसमें कुर्मी जाति के समर्थक भी शामिल है. इसी प्रकार राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समता पार्टी के नेता उपेंद्र कुशवाहा का कोरी जाति के बीच अच्छा आधार है. 2014 से बीजेपी ने निषादों के बीच अपना समर्थन मजबूत बनाया है जो राज्य की आबादी का 10 फीसदी हैं. अति पिछड़ा वर्ग में शामिल जातियों में यह सबसे बड़ा जातीय समूह है.

2014 के आम चुनावों में बीजेपी ने बिहार की 40 में से 22 सीटें जीती थीं और उसके गठबंधन सहयोगियों ने 9 सीटें. इस सफलता का मुख्य कारण गैर यादव ओबीसी से मिला मजबूत समर्थन था. निषादों ने बीजेपी का समर्थन किया था और एनडीए की घटक पार्टी, कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक जनता पार्टी, को अन्य ओबीसी जाति का समर्थन मिला था. फिलहाल बीजेपी को उम्मीद है कि उसे मिला निषादों का समर्थन इस चुनाव में भी जारी रहेगा. लेकिन राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समता पार्टी को समर्थन देने वाले ओबीसी मतदाता पार्टी से दूरी बना सकते हैं. यह पार्टी पिछले साल के अंत में एनडीए से अलग हो गई थी और वह कांग्रेस और आरजेडी वाले विपक्षी गठबंधन के साथ है. (हालांकि कई प्रमुख पार्टी नेताओं ने एनडीए के साथ बने रहने की घोषणा की है.)

एनडीए को जेडीयू के समर्थकों का साथ मिलने की आशा है. 2014 में नीतीश कुमार ने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा था लेकिन उनकी पार्टी पराजित हुई थी. इसके बाद, राज्य विधानसभा चुनाव में पार्टी ने आरजेडी के साथ गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा और सरकार बना ली. ऐसा माना जाता है कि विधानसभा चुनाव में, ओबीसी वोटरों का समर्थन आरजेडी और जेडीयू गठबंधन को मिला था. लेकिन बाद में जेडीयू ने आरजेडी से संबंध तोड़ कर बीजेपी के समर्थन से सरकार बना ली. बीजेपी और जेडीयू के बीच गठबंधन जारी है.

बीजेपी को निषादों और अन्य अति पिछड़ा वर्ग के समर्थन के साथ अगड़ी जातियों के समर्थन का भरोसा है. अगड़ी जातियों ने लंबे अर्से से बीजेपी का समर्थन करती रहीं हैं. साथ ही बीजेपी को अनुसूचित जाति के एक हिस्से का समर्थन मिलने की भी उम्मीद है. रामविलास पासवान के नेतृत्व वाली लोक जनशक्ति पार्टी एनडीए की घटक है और उसके जरिए बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन को पासवानों का समर्थन मिलने की उम्मीद है. पासवान बिहार की अनुसूचित जाति का एक तिहाई हिस्सा है लेकिन ऐतिहासिक तौर पर इस पार्टी को बहुत ज्यादा सफलता नहीं मिली है. आरजेडी के मजबूत समर्थक यादवों को तोड़कर बीजेपी अधिक ओबीसी वोट पाने का प्रयास करती दिख रही है.

सम्मेलन के एक दिन पहले बीजेपी के ओबीसी मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष दारा सिंह चौहान, जो उत्तर प्रदेश कैबिनेट में मंत्री भी हैं, ने कहा था कि इस सम्मेलन के जरिए पार्टी के कार्यकर्ताओं को बताया जाएगा कि बीजेपी के शासन में ओबीसी लोगों के लिए क्या काम किया गया है ताकि वे लोग अपने निर्वाचन क्षेत्रों में आम चुनावों के समय प्रचार कर सकें. सम्मेलन में जो साहित्य बांटा गया उसमें ओबीसी के कल्याण के लिए मोदी सरकार के इन निर्णयों के बारे में जानकारी है. निर्णयों में सबसे ऊपर, राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देना है. अब इस आयोग को ओबीसी से संबंधित शिकायतों की सुनवाई करने और कार्रवाई करने का अधिकार है तथा इसे मजिस्ट्रेट कोर्ट के बराबर की शक्ति दी गई है. दूसरा काम, 2019 मई तक न्यायिक आयोग बनाना है. साथ ही, ओबीसी के लिए केंद्र सरकार की नौकरियों और शिक्षा में पहले से ही आरक्षित सीटों में अति पिछड़ा वर्ग के लिए विशेष कोटा निर्धारित करना है. अन्य निर्णयों में ओबीसी आरक्षण पात्रता के लिए वार्षिक आय की सीमा को 600000 से बढ़ाकर 800000 करना, ओबीसी के लिए ऐसी योजनाओं की शुरुआत करना जिससे वे अन्य कमजोर समूहों की तरह व्यापार कर्ज हासिल कर सकें.

मैंने जो सुना और देखा उससे लगता है कि उपरोक्त बातें पार्टी के ओबीसी समर्थकों को प्रोत्साहित करने के लिए काफी नहीं है. सभागार के बाहर मैंने बिहार के भागलपुर जिले के पार्टी के 35 वर्षीय कार्यकर्ता दिलीप भारती से बात की. उसने मुझे बताया कि उसे आशा है कि जब मोदी दुबारा चुन कर आएंगे तो वह केंद्र सरकार की संस्थाओं में ओबीसी वर्ग के लिए आरक्षित सीटों को 27 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 कर देंगे. हालांकि यह आरजेडी के चुनावी वादों में मुख्य है लेकिन इसे बीजेपी के कार्यक्रम में शामिल नहीं किया गया है. मैंने सम्मेलन में चौहान से पूछा कि क्या ओबीसी कोटे को बढ़ाने के बारे में बात हुई है. उनका कहना था कि ओबीसी से संबंधित सभी मामलों पर विस्तार से चर्चा की जाएगी. भारती को उम्मीद है कि मोदी ओबीसी जनसंख्या की गणना वाले 2011 के सेंसस को जारी करेंगे. 1931 के सेंसस में ओबीसी का प्रतिशत 27 था. इसके बाद 2011 में आकर सामाजिक-आर्थिक सेंसस में ओबीसी की गणना की गई है.

भारती को इसकी परवाह नहीं है कि मोदी ओबीसी आरक्षण को बढ़ा देंगे. उन्होंने बताया कि उन्होंने बीजेपी को इसलिए मत दिया था क्योंकि उन्हें एहसास था कि मोदी आतंकवाद के खिलाफ सख्त हैं और उन्होंने मजबूत नेतृत्व का प्रदर्शन किया है. उन्होंने कहा कि “मोदी में कुछ खास है और यदि इस वक्त कोई और सत्ता में आया तो देश गर्त में चला जाएगा”. थोड़ा रुक कर भारती ने कहा, “यह जो थोड़ा टाइट है, सरकार टाइट है यह”.

सत्येंद्र पाल सिंह गया जिले के ओबीसी मोर्चा के अध्यक्ष हैं. उन्होंने बीजेपी को इसलिए वोट दिया था क्योंकि उन्हें लगा था कि मोदी देश के लिए अच्छे हैं और उन्होंने मजबूत नेतृत्व क्षमता दिखाई है. सिंह को भी इस बात की चिंता नहीं है कि मोदी ओबीसी कोटा बढ़ाए या न बढ़ाए.

जब मैंने यह बात दूसरे राज्यों के कार्यकर्ताओं और नेताओं से पूछी तो उन्होंने भी ऐसे ही जवाब दिए. उनके जवाबों में बार बार यह बात होती थी कि मोदी एक मजबूत नेता हैं, राष्ट्रवादी हैं और हिंदुओं के रक्षक हैं जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर देश का गौरव बढ़ाया है. यह सारी बातें मुख्यधारा के गोदी मीडिया द्वारा प्रधानमंत्री की गढ़ी छवि है. ओबीसी पार्टी कार्यकर्ताओं ने स्थानीय शिकायतें या मांग, जिनका वह संबोधन चाहते हैं और ओबीसी की मुख्य समस्याएं, जैसे रोजगार और शिक्षा अवसरों का न होना, के बारे में कुछ नहीं कहा.

मार्च की शुरुआत में मोदी ने पटना के गांधी मैदान में एक रैली को संबोधित किया था. उन्होंने ओबीसी के संबंध में अपनी सफलताओं के बारे में कुछ नहीं कहा और न ही उन्होंने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने के बारे में भी कुछ कहा. उन्होंने ओबीसी के कोटा को बढ़ाने के बारे में भी कुछ नहीं कहा. हालांकि उन्होंने यह दावा जरूर किया कि उनकी सरकार ऐसी पहली सरकार है जो अगड़ी जातियों के गरीबों के बारे में सोचती है. मोदी ने यह भी बताया कि उन्होंने केंद्रीय संस्थाओं में उन लोगों के लिए दूसरे समुदायों के आरक्षण पर चोट पहुंचाए बिना 10 प्रतिशत आरक्षण लागू किया है. फरवरी में बिहार विधानसभा ने भी राज्य सरकार के अंतर्गत आने वाली संस्थाओं में ऐसे ही आरक्षण संबंधी कानून को पारित कर दिया. माना जाता है कि ऐसा बीजेपी के ऊपरी जाति के समर्थकों को शांत करने के लिए किया गया था जो अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार (रोकथाम) कानून को दुबारा लागू किए जाने से नाराज थे.

मोदी की रैली के कुछ दिनों बाद बीजेपी ने पटना में ओबीसी की सभा की. यह सभा राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष भगवान लाल साहनी को सम्मानित करने के लिए थी. भगवान लाल साहनी की नियुक्ति एक सप्ताह पहले हुई थी और वह इस पद के लिए पार्टी की पसंद थे. साहनी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बड़े नेता माने जाते हैं और मत्स्य पालक समुदाय, निषाद से आते हैं. निषाद 20 जातियों से मिल कर बना समूह है जो अधिकतर अपनी जीविका के लिए गंगा के किनारे निवास करते हैं. गंगा नदी पश्चिम से पूर्व तक बिहार के मध्य से होकर गुजरती है. उस कार्यक्रम में बीजेपी के नेता और बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी ने घोषणा की कि सरकार ने मछुआ समुदाय के कल्याण के लिए बहुत सी योजनाएं बनाईं है जिनमें से उनके लिए 1000 नए आवासों का निर्माण करना भी है. उन्होंने यह भी बताया कि बीजेपी ने कई निषाद नेताओं को प्रमुख पदों पर नियुक्त किया है. पार्टी ने निषाद नेताओं को संसद और राज्य विधानसभा में स्थान दिया है. उन्होंने जयनारायण प्रसाद निषाद का नाम भी लिया जो लोकसभा और राज्यसभा के सदस्य रह चुके हैं. उनके बेटे अजय निषाद मुजफ्फरपुर सीट से सांसद हैं. लेकिन सुशील मोदी ने यह बात नहीं बताई कि 2008 में दल-बदल कानून के तहत बीजेपी ने जयनारायण को राज्यसभा से अयोग्य ठहराया था.

बीजेपी निषादों के लिए चाहे जो वादे करें लेकिन लगता है कि इस समुदाय से उसको चुनौती मिलने वाली है. 2014 में निषादों ने बीजेपी का समर्थन इसलिए किया था क्योंकि युवा नेता मुकेश साहनी ने समुदाय को एक करने के लिए अभियान चलाया था और बीजेपी को समर्थन दिलाया था. लेकिन बाद में मुकेश ने पार्टी के प्रति अपनी निराशा व्यक्त की. खासकर इस बात के लिए कि पार्टी ने निषादों को अनुसूचित जाति और जनजाति की सूची में डालवाने की मांग पर कोई काम नहीं किया. मुकेश ने पार्टी से अपने संबंध पूरी तरह तोड़ लिए हैं. पिछले साल मुकेश ने नई पार्टी की घोषणा की जिसका नाम है- विकासशील इंसान पार्टी. 2019 के चुनावों में यह पार्टी, विपक्षी गठबंधन के साथ है.

बीजेपी को व्यापक ओबीसी आधार की आवश्यकता है. उसे यादवों का समर्थन चाहिए. 2015 के विधानसभा चुनावों में उसे यह बात तब साफ हो गई. जेडीयू और आरजेडी ने उस चुनाव में ओबीसी के मजबूत समर्थन की बदौलत बीजेपी को हरा दिया था. बीजेपी को शायद अपनी हार की भनक लग गई थी इसलिए जेडीयू-आरजेडी गठबंधन की घोषणा के तुरंत बाद बीजेपी ने ओबीसी मोर्चा बनाया था. उसने यह तब किया था जब उसे यह साफ हो गया था कि ओबीसी को अपने पक्ष में करने के लिए नई रणनीति की आवश्यकता है और वह उनका समर्थन पाने के लिए अपने 10 साल के सहयोगी जेडीयू पर निर्भर नहीं रह सकती.

मोर्चा के काम के अलावा बीजेपी ने ओबीसी नेताओं को पार्टी में पदोन्नत करने की रणनीति बनाई है. 2016 में, बीजेपी ने उजियारपुर के सांसद और यादव नेता नित्यानंद राय को बिहार बीजेपी का अध्यक्ष बनाया. ऐसा बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के आदेश अनुसार किया गया था. बावजूद इसके कि पार्टी के ऊपरी जाति के नेता इस बात से खफा थे. एक दशक बाद इस पद पर पहुंचने वाले राय पहले ओबीसी नेता हैं. राय के अध्यक्ष बनने के बाद बीजेपी के बिहार नेतृत्व में ओबीसी और अति पिछड़ा वर्ग की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ. पिछले साल जुलाई में पार्टी ने 4 नए उपाध्यक्ष की नियुक्ति की. जिनके नाम हैं : कोरी जाति के सम्राट चौधरी, कुर्मी जाति के अनिल वर्मा, ब्राह्मण जाति के नीतीश मिश्रा और राजपूत जाति के पुतिल सिंह.

पिछले साल उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी के गठबंधन से बाहर हो जाने के बाद चौधरी को कोरी वोटों में सेंध लगाने वाले कुशवाहा के विकल्प के रूप में देखा जा रहा है. पिछले साल अगस्त में पटना में आयोजित एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कुशवाहा ने यादवों के प्रभुत्व वाली आरजेडी के साथ गठबंधन बनाने की ओर इशारा किया था. उन्होंने कहा था, “यदि यादवों का दूध, कुशवाहों के चावल से मिल जाए तो बहुत अच्छी खीर बनेगी”. उनकी यह बात यादव के पारंपरिक काम पशुपालन और कोरियों के पारंपरिक कृषि की ओर इशारा था. उसी महीने चौधरी ने टिप्पणी की थी, “यदि इस खीर में लालटेन का मिट्टीतेल पड़ गया तो इससे बदबू आएगी”. आरजेडी का चुनाव चिन्ह लालटेन है.

पिछले आम निर्वाचन में बिहार में बीजेपी का मजबूत प्रदर्शन कुशवाहा की राष्ट्रीय समता लोकतांत्रिक पार्टी के साथ उसके गठबंधन का नतीजा है. इस बार जबकि उसके पास यह समर्थन नहीं है उसने जेडीयू के साथ अपनी साझेदारी को बहुत सतर्कता से मजबूत बनाया है. दो पार्टियों के बीच सीटों के बंटवारे में बीजेपी ने बहुत सी ऐसी सीटें छोड़ दी हैं जिसमें वह अच्छी स्थिति में थी. 2014 में उसने 22 सीटें जीती थी लेकिन इस बार वह 17 सीटों पर चुनाव लड़ रही है जबकि मात्र 2 सीट जीतने वाली जेडीयू भी इतनी ही सीटों पर चुनाव लड़ रही है. बिहार की बाकी सीटों में घटक के तीसरे साझेदार रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी चुनाव लड़ रही है.

जेडीयू के प्रति बीजेपी की उदारता इसलिए है क्योंकि वह जानती है कि उसके पास राज्य में सभी समुदायों के बीच प्रचार करने के लिए कोई चेहरा नहीं है. एक वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार ने मुझे बताया, “बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार ही ऐसा चेहरा है जिसे सामने किया जा सकता है और बीजेपी को पता है कि उसके पास कोई दूसरा चेहरा नहीं है.” उन्होंने कहा, “सुशील मोदी जी अपने ही निर्वाचन क्षेत्र भागलपुर में लोकप्रिय नहीं हैं. बिहार की तो बात ही छोड़िए.”

अपने हिस्से की 17 सीटों में बीजेपी ने ऊंची जाति के 5 उम्मीदवार खड़े किए हैं. 3 यादव और 2 अति पिछड़ा वर्ग के नेताओं को टिकट मिला है. बाकी सीटें ऊंची जातियों के उम्मीदवारों को मिली हैं- जिनमें 5 राजपूतों को, 2 ब्राह्मणों को, 2 वैश्यों को, 1 कायस्थ और 1 भूमिहार को. सिर्फ एक सीट में, जो अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है, वहां से आरक्षित जाति के उम्मीदवार को टिकट दिया है. पार्टी में अगड़ी जातियों का वर्चस्व कोई नई बात नहीं है लेकिन यहां भी एक बदलाव देखा जा सकता है. बीजेपी के उम्मीदवारों की सूची में ब्राह्मणों के मुकाबले यादवों की संख्या ज्यादा है. बीजेपी के समर्थक और बड़ी संख्या वाले भूमिहारों को सिर्फ एक सीट दी गई है. ओबीसी मतदाताओं को राजपूत के बराबर सीटें दी गई हैं. यह मिश्रण बिहार में बीजेपी की विकसित होती रणनीति का संकेत है और बताता है कि पार्टी के चुनाव की रणनीति में ओबीसी की केंद्रीय भूमिका होगी चाहे चुनाव परिणाम जो भी आए.