फॉल्ट लाइन कास्ट : यूपी में गैर यादव ओबीसी मतदाताओं को कैसे साध रही बीजेपी

19 जनवरी 2022 को दिल्ली स्थित बीजेपी मुख्यालय में अपना दल और निषाद पार्टी यूपी विधानसभा चुनाव में सीटों के बटवारे पर सहमत हुए. सोनू मेहता / हिंदुस्तान टाइम्स
04 February, 2022

19 जनवरी 2022 को दिल्ली स्थित बीजेपी मुख्यालय में अपना दल और निषाद पार्टी के साथ यूपी विधानसभा चुनाव में सीटों के बटवारे पर सहमति बन जाने के बाद बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने बैठक की एक तस्वीर ट्वीट कर उसके साथ लिखा, “उत्तर प्रदेश में फिर एक बार, NDA 300 पार.”

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी अपने ट्विटर हैंडिल से ऐसा ही दावा करते हुए ट्वीट किया. उन्होंने कहा कि “बीजेपी ने आज यूपी के अपने दो महत्वपूर्ण सहयोगी अपना दल और निषाद पार्टी के साथ यूपी चुनाव का गठबंधन किया है.” आदित्यनाथ ने विश्वास व्यक्त किया कि 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी गठबंधन दो-तिहाई से अधिक सीटें जीत कर प्रचंड बहुमत की सरकार बनाएगी.

बैठक के बाद आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग राज्य मंत्री और अपना दल पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष अनुप्रिया पटेल ने कहा कि “अपना दल बहुत लंबे समय से एनडीए गठबंधन का हिस्सा है. यूपी को सामाजिक न्याय और विकास दोनों की जरूरत है और हमारा गठबंधन सामाजिक न्याय और विकास पर खरा उतरा है.

यूपी चुनाव में सामाजिक न्याय हमेशा से ही बड़ा मुद्दा रहा है. बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने सामाजिक न्याय के मुद्दे को आधार बना कर राज्य में अपना विस्तार किया और सरकारें बनाईं.

लंबे समय तक माना जाता रहा कि सामाजिक न्याय का मुद्दा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी के हिंदुत्व के एजेंडे की मुनासिब काट है. इस भरोसे के पीछे की वजह यह थी कि संघ के राम जन्मभूमि आंदोलन का केंद्र होने के बावजूद उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय की विचारधारा से प्रेरित निचली जातियों के ध्रुवीकरण के चलते बीजेपी साल 2002 से निरंतर कमजोर होती गई. लेकिन 2014 में उसने अपना दल और अन्य गैर-यादव ओबीसी पार्टियों के साथ गठबंधन बना कर चुनाव लड़ा और उसे अभूतपूर्व जीत हासिल हुई. उसके नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन ने लोक सभा की 80 सीटों में से 73 सीटें जीती. मोदी समर्थक दक्षिणपंथी विश्लेषक 2014 के लोक सभा चुनाव और फिर 2017 के प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी की जीत को “मोदी लहर” का कमाल भले बताते रहे हैं लेकिन वे जीतें तथाकथिक मोदी लहर से अधिक ओबीसी जातीयों के विकेंद्रीकरण का परिणाम थीं.

उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलितों को सफलता के साथ अपने पाले में किया है. इस बार के यूपी विधान सभा के लिए अब तक जारी उम्मीदवारों की सूची पर गौर करें तो बीजेपी ने चौथी सूची तक 60 प्रतिशत टिकट ओबीसी उम्मीदवारों को दिए हैं. हिंदू वर्ण व्यवस्था में निचले पायदान में होने के बावजूद, ब्राह्मणवादी पार्टी के प्रति गैर-यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों का आकर्षण पहचान की राजनीति के फॉल्ट लाइन की ओर इशारा करता है.

उत्तर प्रदेश में गैर-यादव ओबीसी जातियां संख्या बल के हिसाब से निर्णायक हैं. बीबीसी में प्रकाशित एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि उत्तर प्रदेश में गैर-यादव ओबीसी मतदाता 35 प्रतिशत से अधिक हैं. पिछले एक दशक में बीजेपी ने इन जातियों के बीच गहरी पैठ बनाई है. बीजेपी ने अपना दल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और निषाद पार्टी जैसे क्षेत्रीय दलों से गठबंधन बनाया जो मुख्य रूप से ओबीसी पार्टियां हैं.

मैंने आगामी यूपी विधानसभा चुनावों से पहले उस फॉल्ट लाइन को समझने की कोशिश की जिसने बीजेपी के साथ गैर-यादव ओबीसी जातियों के सहकार्य को संभव किया है. मैंने कुर्मी, मौर्य, कश्यप, गडेरिया, राजभर, चौहान, जायसवाल, निषाद और पटेल समुदाय के नेताओं और बुद्धीजीवियों से बात की और जानना चाहा कि वे कौन से कारण हैं जो इन जातियों को बीजेपी के करीब करते हैं. 

उत्तर प्रदेश में गैर-यादव ओबीसी जातियां मुख्यतः दस्तकार हैं. उत्तर प्रदेश में इन जातियों में राजनीतिक और सामाजिक चेतना के निर्माण में बहुजन समाज पार्टी के उभार की बड़ी भूमिका रही है. इस उभार के बाद इन जातियों ने भी अपने नायकों की तलाश शुरू की.

जहां प्रदेश के यादवों ने हिंदू भगवान कृष्ण में अपने नायक को पाया और ऐसा करते हुए कृष्ण के स्वाभाव को अपनाया, वहीं कुर्मियों ने (जो अपने नाम के साथ पटेल, गंगवार, सचान, कटियार, निरंजन, कनौजिया आदि लगाते हैं) 17वीं शताब्दी के मराठा राजा शिवाजी और शाहु को अपना नायक माना और ओबीसी मल्लाह जाति ने रामायण की कथा में राम को सरयू पार कराने वाले केवट में अपना नायक खोज लिया.

यह बात दिलचस्प है कि ओबीसी मौर्य और कुशवाहा ने पौराणिक पात्रों में नहीं बल्कि ऐतिहासिक पात्रों में अपने-अपने नायक खोजे. इन्होंने अपनी पहचान पहले बुद्ध, चंद्रगुप्त मौर्य और अशोक से मिलाई और फिर अपनी परंपरा के तार 19वीं शताब्दी के सामज सुधारक ज्योति राव फुले से जोड़े.

हालांकि इन जातियों की सामाजिक चेतना बहुत तेजी से विकसित हुई है लेकिन नायकों का विभाजन उनकी राजनीतिक समझदारी पर भी पड़ा है जो मतदान करने के पैटर्न में भी प्रतिबिंबित होता है. अब तक तमाम कोशिशों के बावजूद ये ओबीसी जातियां एकसाथ नहीं आ सकी हैं और इनमें अनेक राजनीतिक और सामाजिक असहमतियां विद्यमान हैं.

मौर्य बुद्ध को आदर्श मानते हैं और इसके चलते इनमें शिक्षा और चेतना का विकास हुआ है और ये मांस या मदिरा के कारोबार में भी नहीं लगे. परिणाम यह हुआ की मौर्य स्वयं को राजनीतिक रूप से हाशिए पर महसूस करने लगे. वंचित होने की इसी भावना ने इन्हें पहले बसपा के आंदोलन के साथ ला दिया और फिर 2012 में इन्होंने समाजवादी पार्टी का साथ दिया. 2017 के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी में केशव प्रसाद मौर्य की मजबूत साख के चलते न केवल मौर्यों को बल्कि प्रदेश की लगभग सभी गैर-यादव ओबीसी जातियों को लगा कि उनके पास गैर यादव ओबीसी मुख्यमंत्री देखने का बड़ा मौका है और इसलिए सबने बीजेपी को वोट दिया.

2017 और फिर 2019 में, दोनों चुनावों में मौर्य समाज बीजेपी के साथ रहा है. यादव तथा मौर्य जातियां दो विपरीत धुरी हैं. राजनीतिक तौर पर यादव हिंदुत्व और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ नजर तो आते हैं लेकिन उनमें हिंदू होने की भावना मौर्यों से कहीं अधिक है. तो भी यादवों के पास अच्छा-खासा राजनीतिक दल है जबकि मौर्य इस हद तक अपने को संगठित नहीं कर पाए हैं.

गैर-यादव ओबीसी जाति में मौर्य जितना आरएसएस और ब्राह्मणवाद विरोधी और कोई नहीं है लेकिन राजनीतिक भागेदारी की चाहत ने इन्हें 2017 और 2019 में बीजेपी और संघ के करीब ला दिया.

इसी तरह का काम बीजेपी ने पटेल जाति के बीच किया. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के नेता और देश के पहले गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल के साथ कांग्रेस पार्टी की एक काल्पनिक नाइंसाफी की कहानी पटेल समाज को बीजेपी से जोड़ती है. इलाहाबाद के सामाजिक कार्यकर्ता दिनेश पटेल ने मुझे बताया कि गुजरात में जब पटेल की मूर्ति लगवाई जा रही थी तब बीजेपी और अपना दल के कार्यकर्ताओं ने पटेल बहुल गांवों में प्रतिमा में लगाने के लिए लोहा मांगने का अभियान चलाया था. फिलहाल इन गांवों में बीजेपी और अपना दल पटेल की जयंती धूमधाम से मनाते हैं.

पटेल समाज का धार्मिक और शुद्धतावादी व्यवहार भी बीजेपी की विचारधार से मेल खाता है. ये लोग मांसाहार और शराब से दूर रहते हैं और विवाहों में अखंड रामायण और कृष्ण कीर्तन जैसे अनुष्ठान करते हैं.

पटेल समाज की राजनीतिक किंवदंतियों में उसके प्रति राजनीतिक नाइंसाफी की एक और कहानी बार-बार दोहराई जाती है. उत्तर प्रदेश के फूलपुर में 1980 के दशक में रामपूजन पटेल एक कद्दावर नेता थे. वी.पी. सिंह की सरकार में वह खाद्य आपूर्ति राज्य मंत्री भी बने. सिंह ने उन्हें राज्य में जनता दल का प्रदेश अध्यक्ष भी बनाया. बाद में अपना दल और बीजेपी ने यह प्रचार करना शुरू किया कि मुलायम सिंह और कांशीराम के एक साथ आने के बाद रामपूजन के साथ भेदभाव किया गया. इस किंवदंती के अनुसार, मुलायम सिंह रामपूजन को पार्टी कार्यालय में घुसने तक नहीं देते थे.

उत्तर प्रदेश में पटेल समाज की अलग राजनीतिक दावेदारी में अपना दल के संस्थापक सोने लाल पटेल की भूमिका बड़ी है. अपना दल की स्थापना करने से पहले सोने लाल पटेल बसपा में थे और तब रंग बहादुर पटेल बसपा के प्रदेश अध्यक्ष हुआ करते थे. सोने लाल ने पटेल समाज में जातिगत चेतना का विकास किया. अपना दल का जबसे बीजेपी के साथ गठबंधन हुआ है सोने लाल पटेल की बेटी अनुप्रिया केंद्रीय मंत्री बनी रही हैं. पटेलों के भीतर यह बात गहराई से बैठ गई है कि बीजेपी की बदौलत ही उसे एक मजबूत हैसियत प्राप्त हुई है.

कश्यप, निषाद, गडेरिया, राजभर, चौहान और जायसवाल जैसी जातियों को बीजेपी ने रामायण और अन्य हिंदू कथाओं की छद्म परंपराओं के साथ गूंथ कर एक ऐसी माला तैयार की है जो सामाजिक न्याय की उसी मांग को ध्वस्त कर देती है जिसका पहला ही लक्ष्य ब्राह्मणवादी ऊंच-नीच से मुक्त होकर बराबरी वाले समाज का निर्माण करना है. 

चौरसिया समाज दो भागों में विभाजित हैं. यदि पूर्वांचल के चौरसिया राजनीतिक रूप से सक्रिय हैं तो कानपुर-बुंदेलखंड के चौरसिया आर्थिक रूप से मजबूत हैं. ये तमौली होते हैं और पहले अपने आप के साथ नाग लिखते थे तथा खुद को नागवंशी मानते हैं और हिंदू भगवान शिव के उपासक हैं. इनके घरों में एक छोटा ही सही पर शंकर का एक मंदिर जरूर होगा. पूर्वांचल में इनके पास जमीन कम है लेकिन कानपुर व अन्य इलाकों में इनके नाम जमीनें हैं.

हाल के सालों में चौरसियाओं में भी अन्य जातियों की देखा-सीखी नायक और आइकन खोजना शुरू हुआ है. अब नागपंचमी जैसे त्योहारों को बढ़-चढ़ कर मनाया जाता है. अन्य जातियों की तरह की छुआछूत की समस्या का सामना इस जाति को नहीं करना पड़ा है और इनका ब्राह्मणों के घरों में आना-जाना होता है. साथ ही हिंदू रीति-रिवाजों में पान के पत्तों का बहुत महत्व है और इनका इस पेशे में एकाधिकार इन्हें वृहद हिंदू पहचान के करीब ले जाता है. और इसी ने इन्हें स्वाभाविक रूप से बीजेपी के करीब किया है. इसके अलावा चौरसियाओं की सबसे ज्यादा आबादी बनारस में है जहां ये मोदी और चौरसिया उपनामों का प्रयोग करते हैं. मोदी उपनाम के चलते नरेन्द्र मोदी को अपनी जाति का समझते हैं.

उत्तर प्रदेश की गडेरिया जातियों को आकर्षित करने के लिए बीजेपी ने इस समाज की कुलदेवी महारानी अहिल्याबाई होलकर की प्रतिमा को काशी विश्वनाथ धाम में जगह देकर इस समाज के लोगों का दिल जीतने का काम किया है. इससे पहले तक किसी राजनीतिक पार्टी ने गडेरिया समाज को यह प्रतिष्ठा और सम्मान नहीं दिया था. गडेरिया समाज पाल, बघेल, धनगर उपनामों का इस्तेमाल करता है और प्रदेश की ओबीसी जातियों में इनका प्रतिशत करीब चाढ़े चार है. प्रदेश के पश्चिम, मध्य दक्षिण और उत्तर में गडेरिया जाति की अच्छी खासी जनसंख्या है.

लंबे समय तक गडेरिया समाज को बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी का वोटर माना जाता था. लेकिन हाल के सालों में गडेरिया समाज के कई नेता बीजेपी में शामिल हो गए हैं. आगरा से बीजेपी के सांसद और केंद्रीय मंत्री एसपी सिंह बघेल पहले तीन बार समाजवादी पार्टी के लोकसभा सांसद रह चुके हैं. 2010 से 2014 तक वह बीएसपी के राज्यसभा सांसद थे. सारिका सिंह बघेल ने राष्ट्रीय लोक दल के टिकट पर हाथरस से लोकसभा पहुंचने के बाद 2019 में बीजेपी का हाथ थाम लिया.

गडेरिया समाज की तरह ही चौहानों को पाले में करने के लिए बीजेपी ने ऐतिहासिक नायक पृथ्वीराज चौहान का दामन थामा. 12वीं शताब्दी के अफगान शासक मोहम्मद गौरी और पृथ्वीराज चौहान के राजनीतिक संघर्ष की ऐतिहासिक और लोक गाथाओं को बीजेपी ने उत्तर प्रदेश के चौहानों को अपने हिंदुत्व के उद्देश्यों के साथ जोड़ने के लिए इस्तेमाल किया है. 

उत्तर प्रदेश में कश्यप धीवर जाति है. राज्य की ओबीसी जातियों में इनका हिस्सा लगभग साढ़े तीन प्रतिशत है. पश्चिम उत्तर प्रदेश में कहार, धीवर, कश्यप सहित 17 अति पिछड़ी जातियां धीवर जातियां हैं. कश्यप समाज का पश्चिम उत्तर प्रदेश में खांडसारी अथवा कोल्हू का कारोबार है. लेकिन खांडसारी उद्योग में पूंजी की लागत अधिक होने से इस काम में प्रभुत्वशाली जातियों का विस्तार हुआ है और कश्यप समाज के लोग उसी उद्योग में मजदूर बन कर रह गए हैं. खांडसारी उद्योग कुटीर है लेकिन यह हमेशा सरकारी उपेक्षा का शिकार रहा. आर्थिक पिछड़ेपन के कारण कश्यप समाज के युवा शैक्षिक रूप से भी पिछड़े हुए हैं और जब से उत्तर प्रदेश में कुछ प्रमुख जातियों को पिछड़ी जाति में शामिल किया गया है तब से यह समाज राजनीतिक रूप से भी पिछड़ गया है.

कश्यप समाज की एक मांग जो एक लंबे समय से उठती रही है वह है कि उसे अनुसूचित जाति में शामिल किया जाए क्योंकि वर्तमान में पिछड़ी जाति में रहते हुए कश्यप समाज को शैक्षिक अवसर तथा रोजगार प्राप्त नहीं हो रहे हैं. राजनीतिक क्षेत्र में भी यही हाल इस समाज का है और कई दशकों से समाज आरक्षण की मांग उठा रहा है. कश्यप समाज की 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने के लिए राज्य सरकारों ने कई बार प्रयास तो किए लेकिन केंद्र सरकार ने मंजूरी नहीं दी. मुलायम सिंह यादव ने इन जातियों को 2004-2005 में उत्तर प्रदेश में आरक्षण दिया लेकिन उस पर हाई कोर्ट ने रोक लगा दी. इसके बाद अखिलेश सरकार ने भी 2016 में इन 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का आदेश दिया लेकिन फिर एक बार हाई कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी. तब यह बात चलने लगी कि 17 पिछड़ी जातियों का आरक्षण तभी हो सकता है जब केंद्र सरकार और राज्य सरकार में एक ही पार्टी की सरकार बने. 2014 में केंद्र में नरेन्द्र मोदी सरकार बनी तो कश्यप समाज की जातियों में चर्चा होने लगी कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार बनने से उनकी मांग पूरी हो सकती है. 2017 के चुनाव में धीवर जातियों ने बीजेपी का साथ दिया. 2019 में योगी सरकार ने भी इन जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल किया लेकिन फिर से हाई कोर्ट ने रोक लगा दी. कुछ दिनों पहले लखनऊ में कश्यप-निषाद जातियों ने आरक्षण की मांग को लेकर सम्मेलन भी किया था. उत्तर प्रदेश में कश्यप समाज की अच्छी-खासी आबादी है. प्रत्येक विधानसभा सीट पर 20000 से 50000 और कइयों में 60000 तक वोट हैं. प्रदेश में माना जाता है कि आज तक कश्यप समाज की जातियों का रुख जिस भी पार्टी की तरफ हुआ है वह पार्टी सत्ता में पहुंची है. 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी यही जातियां हार व जीत तय करने में निर्णायक साबित होंगी.

इसी प्रकार राजभर समाज को भी बीजेपी से उम्मीद है कि वह उसे अनुसूचित जाति की सूची में स्थान दिलाएगी. प्रदेश की तकरीबन 80 सीटें ऐसी हैं जिसमें इस समाज की भूमिका निर्णायक होगी. बीते 2017 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने इस समाज का प्रतिनिधित्व करने वाली सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ गठबंधन किया था. सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर हैं. बीते पांच दशकों में केंद्र में कांग्रेस की सरकार रही हो या राज्य में मायावती, मुलायम एवं अखिलेश की सरकार रही हों, उत्तर प्रदेश के राजभर समाज के भीतर इन दलों द्वारा खुद को ठगे जाने का विचार हावी है. भारतीय जनता पार्टी ने समाज के इस एहसास का लाभ अपनी राजनीतिक जरूरत को समझते हुए राजभर समाज में अपने प्रतिनिधित्व को तैयार करने में उठाया है. 2014 के लोकसभा टिकट पर घोसी से हरिनारायण राजभर को सांसद बनाया, वहीं सबसे महत्वपूर्ण 2017 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने राजभर समाज में मजबूत पकड़ रखने वाले अनिल राजभर को बनारस की शिवपुर विधानसभा से टिकट दिया. आगे सरकार बनने पर उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार में पिछड़ा वर्ग एवं दिव्यांग जन कल्याण मंत्री बनाया गया. बाद में सकलदीप राजभर को राज्यसभा सांसद व 2019 के उपचुनाव में घोसी विधानसभा से विजय राजभर को विधायक बना कर राजभर समाज को उसकी निष्ठा का बदला दिया.

राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने के साथ-साथ भारतीय जनता पार्टी ने महाराजा सुहेलदेव राजभर के नाम पर ट्रेन चलाई और डाक टिकट जारी किया. साथ ही बहराइच में सुहेलदेव राजभर की युद्धस्थली में सुहेलदेव का मंदिर और कुठला  झील को इस योद्धा के शौर्य और पराक्रम की स्मृतियों के तौर पर संजोने का कार्य शुरू किया. भारतीय जनता पार्टी के साथ इनकी 2014 के बाद नजदीकी को राजभर समाज अपने सम्मान और अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी मानता है. 

बीजेपी ने निषाद, प्रजापति और जायसवाल जैसी गैर-ओबीसी जातियों को भी सामाजिक और राजनीतिक प्रतिनिधित्व देकर वृहद ओबीसी एकता से दूर रखा है.

निषाद समाज ने सबसे पहले 2014 के लोकसभा चुनावों में अपनी राजनीतिक सक्रियता का प्रदर्शन किया और बीजेपी का साथ दिया. साथ देने की वजह इस समाज का समाजवादी पार्टी और बसपा से मोहभंग रहा जो तेजी से एक जाति विशेष की पार्टियां हो कर रह गईं. दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी ने अपने राम वाले मुद्दे पर निषाद समाज को निषादराज गुह की याद दिलाई. हिंदू धार्मिक मान्यता के अनुसार निषादराज ने राम, लक्ष्मण और सीता के वनवास के समय उन्हें गंगा पार कराई थी. साथ ही इस समाज के नए लोगों को पार्टी में सम्मिलित कर पदाधिकारी और चुनाव प्रत्याशी भी बनाया. जिन पदों पर सपा, बसपा और कांग्रेस पार्टियों में सालों के बाद भी पहुंचना मुश्किल था, उन पर बीजेपी निषाद नेताओं को सीधे पदाधिकारी बना रही है. आज पिछड़ा वर्ग वित्त निगम का चैयरमैन से लेकर पिछड़ा वर्ग आयोग का अध्यक्ष निषाद समाज से है.

धर्मिक रूप से हिंदूवादी विचारधारा के करीब माने जाने वाले प्रजापति समाज के बीच भी बीजेपी ने व्यापक काम किया है. राज्य में करीब दो प्रतिशत आबादी वाली प्रजापति जाति पारंपरिक तौर पर मिट्टी के सामान बनाने का काम करती है. इस समाज को बीजेपी सरकार की नीतियों का लाभ मिल रहा है. मिट्टी कला बोर्ड ने इनके लिए तीन लाख रुपए के कर्ज की योजना चालू की है जिसके बाद इस समाज के उन लोगों ने जिन्होंने मिट्टी के पारंपरिक काम को छोड़ दिया था, उन्होंने भी चाक और इलेक्ट्रॉनिक भट्टी लगाई हैं.

पंचायत और अन्य चुनावों में टिकट देने के साथ ही बीजेपी ने सरकारी बोर्डों और आयोगों में प्रजापति समाज के नेता-कार्यकर्ताओं को स्थान दिया है. पार्टी ने लोकेश प्रजापति को पिछड़ा आयोग का उपाध्यक्ष बनाया है और धर्म सिंह प्रजापति को मट्टी कला बोर्ड का अध्यक्ष.

गैर-यादव अन्य पिछड़ा जातियों में एक जायसवाल जाति ऐसी है जिसके साथ बीजेपी का संबंध अन्य ओबीसी जातियों के मुकाबले अधिक पुराना है. इस समाज के लिए सामाजिक न्याय मुद्दा नहीं है. इस ओबीसी जाति के साहू, गुप्ता, तेली, हलवाई, कलवार, कलार और अन्य का शहर की व्यापार मंडलियों पर कब्जा है. शराब के व्यवसाय से जुड़े होने के कारण पूंजी की ताकत भी इसे हासिल है जो इसे बीजेपी की नीतियों के करीब ले जाती है. कारोबारी होने के साथ ही यह समाज बहुत धार्मिक है और अर्जुन देव को अपना कुल देवता मानता है. हालांकि बीजेपी की नोटबंदी और बाद में जीएसटी से इसे नुकसान हुआ लेकिन बीजेपी से इसका मोहभंग नहीं हुआ. 

उत्तर प्रदेश लोकसभा चुनाव के संबंध में लोकनीति-सीएसडीएस के 2009 और 2014 आंकड़ों पर नजर डालने से प्रदेश की गैर-यादव ओबीसी जातियों का बीजेपी की तरफ तेजी से जाने का पता चला है. 2009 में 20 प्रतिशत कुर्मी मतदाताओं ने बीजेपी को वोट दिया था जबकि कांग्रेस, बसपा और सपा को क्रमशः 28, 18 और 18 फीसदी कुर्मी वोट प्राप्त हुए थे. 2014 में बीजेपी को 53 प्रतिशत और कांग्रेस, बसपा और सपा को क्रमशः 16, 4 और 17 प्रतिश कुर्मी वोट मिले थे. वहीं, कुर्मी के अलाव की अन्य ओबीसी जातियों के 60 प्रतिशत मतदाताओं ने 2014 में बीजेपी का साथ दिया था.

इस चुनाव में भी गैर-यादव ओबीसी जातियों का बीजेपी के साथ बने रहना तय है. और क्या ऐसा रहते हुए भी बीजेपी को सत्ता से बाहर किया जा सकता है, यह एक बड़ा सवाल है.