पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की जीत अप्रत्याशित रूप से एक बड़ी जीत थी. टीएमसी की जीत से पहले आ रहे लेखों में दावा किया जा रहा था कि पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी और तृणमूल कांग्रेस की कांटे की टक्कर है. भारतीय जनता पार्टी ने राज्य में जबरदस्त होहल्ले वाला चुनाव अभियान चलाया था. टीएमसी की जीत के बाद लेखकों ने दावा किया कि बंगाली गर्व की भवना और असाधारणता या इक्सेप्शनलिज्म ने हिंदुत्व के रथ को रोक दिया.
लेकिन चुनाव अभियान और परिणाम की समीक्षा करने से पता चलता है कि राज्य में वह ताकतें मजबूत हो रही हैं जिन्होंने हिंदी पट्टी की राजनीति को आकार दिया है. हमें केवल राज्य के राजनीतिक इतिहास तक सीमित रह कर समीक्षा नहीं करनी चाहिए बल्कि इन परिणामों को देश में जो घटित हो रहा है उसके संदर्भ में समझने की कोशिश करनी चाहिए.
बीजेपी की बुनियादी रणनीति वही थी जो उसने अन्य राज्यों और लोक सभा चुनावों में इस्तेमाल की है यानी ऊंची जाति की लामबंदी. बंगाल में पार्टी ने हिंदू राष्ट्रवाद की भाषणबाजी का इस्तेमाल किया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आदिवासी, दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग का ध्रुवीकरण किया. इसके बावजूद भी यदि पश्चिम बंगाल का चुनाव हिंदी पट्टी से अलग रहा है तो इसके पीछे उसकी डेमोग्राफी या आबादी का स्वरूप है. इस राज्य में अन्य राज्यों की तुलना में मुस्लिम आबादी अच्छी-खासी है.
राज्य की आबादी के स्वरूप ने देश में आम हो चुके परिदृश्य को और घना बना दिया है यानी यहां मुस्लिम और गैर मुस्लिम वोटों में ठोस बटवारा है. मुस्लिम बहुसंख्यक वोट, जो कि राज्य का तकरीबन 30 प्रतिशत है, टीएमसी के हिस्से में आया. ऐसे में दो गैर मुसलमान उम्मीदवारों के बीच किसी भी कड़ी टक्कर में टीएमसी की जीत तय थी. यदि पश्चिम बंगाल की मुस्लिम आबादी उत्तर प्रदेश या बिहार की तरह होती, जहां यह क्रमशः 19 प्रतिशत और 16 प्रतिशत है, तो यहां का परिणाम भी अलग आता.
चुनाव में टीएमसी को बीजेपी से तकरीबन 10 प्रतिशत अधिक वोट मिला है. टीएमसी को 47.9 प्रतिशत और बीजेपी को 38.1 प्रतिशत वोट प्राप्त हुआ. लेकिन यह बड़ा अंतर गैर मुस्लिम मतदाताओं के चयन की सही तस्वीर को उजागर नहीं करता. टीएमसी को मिले वोट का 20 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा मुसलमानों का है और मुसलमान मतदाताओं के 2 प्रतिशत से भी कम ने बीजेपी को वोट दिया है. तो इससे स्पष्ट होता है कि गैर मुस्लिम मतदाताओं में बीजेपी को टीएमसी से 8 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिला है.
चुनाव के बाद प्राप्त डेटा से यह संकेत मिलता है कि सभी गैर मुस्लिम श्रेणियों में बीजेपी टीएमसी से आगे थी. बीजेपी द्वारा ममता बनर्जी के प्रशासन की खामियों के प्रचार का कोई खास असर नहीं था, बल्कि अधिकतर ऊंची जाति और ओबीसी हिंदू समर्थकों और साथ ही दलित और आदिवासियों ने, जिन्होंने बीजेपी को वोट दिया, जाति और धर्म के नाम पर वोट दिया है. ममता बनर्जी ने जो हाल के सालों में विकास योजनाएं शुरू की थीं उसने ओबीसी और आदिवासी मतदाताओं को टीएमसी के पाले में लाने में मदद तो की लेकिन यह तथ्य भी है कि अधिकतर गैर मुसलमान और मुस्लिम मतदाताओं ने पहचान की राजनीति को चुनाव में प्राथमिकता दी.
परिणाम के बाद आए विश्लेषणों में चुनावी गणित पर विस्तार से लिखा जा चुका है. सीएसडीएस द्वारा संकलित जाति और धार्मिक अंतर का अध्ययन मुख्यतः मतदान के बाद के आंकड़ों पर आधारित है. जिसका असल वोटिंग से अलग होना लाजमी है. इसलिए व्यापक ट्रेंड पर बात करना सही होगा, न की सीटों की संख्या पर. सभी जाति समूह के हिंदुओं ने मुख्य रूप से बीजेपी को वोट दिया. तो भी यह समर्थन 2019 के लोकसभा चुनावों में प्राप्त समर्थन से कम था और यह नाटकीय गिरावट आदिवासी और ओबीसी मतदाताओं के टीएमसी की ओर खिसकने से आई है जबकि दलित और ऊंची जाति के लोग अपनी पूर्व की स्थिति में कायम रहे.
आंकड़े दर्शाते हैं कि ऊंची जाति का 42 प्रतिशत वोट टीएमसी को गया, जो 2019 के लोकसभा चुनावों में उसे प्राप्त वोटों से 4 प्रतिशत ज्यादा है. और इस विधानसभा चुनाव में ऊंची जाति का 46 प्रतिशत बीजेपी को मिला जबकि 2019 के चुनाव में उसे ऊंची जाति का 50 प्रतिशत वोट मिला था. इसके बरअक्स 37 प्रतिशत दलितों ने टीएमसी को वोट दिया और 52 प्रतिशत ने बीजेपी को. वहीं 36 प्रतिशत ओबीसी मतदाताओं ने टीएमसी को वोट दिया और कुल 50 प्रतिशत मतदाताओं ने बीजेपी को. 2019 में ओबीसी मतदाताओं के 68 प्रतिशत ने बीजेपी को वोट दिया था.
बंगाल के रिजल्ट का विश्लेषण ज्यादातर इस प्रकार किया गया है गोया बंगाली भाषा और पहचान का मुद्दा बीजेपी की चुनावी रणनीति पर भारी पड़ा लेकिन इन आकलनों में उच्च और मध्यम वर्गीय हिंदू का 2019 के मुकाबले बीजेपी को ज्यादा वोट देना नजरअंदाज कर दिया गया. बंगाली भद्रलोक, जो जाति और वर्ग श्रेणी में ऊंची जाति और उच्च और मध्यम वर्गीय हिंदुओं का समूह है, वह एकमात्र ऐसा गैर मुस्लिम मतदाता वर्ग है जिसमें 2019 के मुकाबले इस बार बीजेपी को ज्यादा समर्थन दिया है. और यह उस पेटर्न से हूबहू मिलता है जो हिंदी बेल्ट में जारी है. चुनाव दर चुनाव बाद ऊंची जाति का समर्थन आधार बीजेपी के पक्ष में ठोस हुआ है. ऊंची जात वाले लोगों द्वारा बीजेपी को वोट देने का कारण एकदम सहज है और यही वह कोर है जिसके इर्द-गिर्द बीजेपी विकास करती है. पश्चिम बंगाल में बीजेपी के विकास के लिए जिस एक शब्द का इस्तेमाल किया जाता है वह है : सबाल्टर्न हिंदुत्व. लेकिन यह भ्रामक है. यहां यह बात नजरअंदाज हो जाती है कि हिंदुओं की यह लामबंदी ऊंची जाति के नेतृत्व द्वारा सत्ता में अपनी पकड़ को मजबूत करने के लिए लिए गैर मुसलमान वर्ग को आकर्षित करने पर आधारित है. हिंदी बेल्ट में बीजेपी इसी तरह काम करती है.
2017 में जब उत्तर प्रदेश में बीजेपी सत्ता में आई थी तब और अपने चुनाव अभियान में उसने दो तत्व को शामिल किया था : हिंदू राष्ट्रवाद के पक्ष में आक्रामक अपील और गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों में घुसपैठ. गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों के बीच आरएसएस ने उपजातियों को अपने पाले में करने के काम पर जोर दिया. इन कामों में उन जातियों के आदर्शों को स्थापित करना और उन्हें हिंदुत्व के फ्रेमवर्क में रख कर पेश करना शामिल था. इसके साथ ही उसने यह भी सुनिश्चित किया कि यादवों और जाटों की कीमत पर इनको ज्यादा प्रतिनिधित्व दिया जाए. राजनीतिक विज्ञानी जिल वर्निअर तब लिखते हैं, “उत्तर प्रदेश की नई विधानसभा में 44.3 प्रतिशत ऊंची जाति के एमएलए हैं यह संख्या 2012 के मुकाबले 12 प्रतिशत अधिक है और यह 1980 से अब तक की सबसे बड़ी संख्या है. बीजेपी में ऊंची जाति के विधायकों का प्रतिशत 40.2 है और गैर यादव ओबीसी का प्रतिशत 23 है.”
2019 के लोकसभा चुनाव में हिंदी पट्टी के 199 में से 88 उम्मीदवार ऊंची जाति के थे (67 उम्मीदवार ब्राह्मण या राजपूत थे). आज जो सत्ता में विराजमान हैं उनका अध्ययन करने से पता चलता है कि प्रतिनिधित्व की गैर बराबरी कितनी विकराल है. 2014 की कैबिनेट में 24 में से 11 मंत्री ऊंची जाति के थे और 2019 में यह संख्या बढ़कर 16 हो गई. पिछले 40 सालों में पहली दफा केंद्रीय मंत्रिमंडल में ऊंची जाति का प्रतिनिधित्व इतना बड़ा हुआ है.
पश्चिम बंगाल में बीजेपी ने जो रणनीति अपनाई वह हूबहू इससे मिलती थी. चुनावों में बीजेपी के 52 प्रतिशत उम्मीदवार ऊंची जाति के थे जबकि पश्चिम बंगाल की जनसंख्या में ऊंची जाति के लोग 20 प्रतिशत से भी कम हैं. वास्तव में जीतने वालों में यह गिरकर केवल 33 प्रतिशत रहा, क्योंकि तुलनात्मक रूप से पार्टी ने आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में बेहतर प्रदर्शन किया. गैर मुसलमान वोटों की लामबंदी वाली ऐसी मिसाल मध्यप्रदेश और राजस्थान में देखी जा सकती है. वहां कांग्रेस ने टीएमसी की तरह ही ऊंची जाति के नेताओं को बीजेपी का विकल्प दिया. टीएमसी के 45 प्रतिशत उम्मीदवार ऊंची जाति के थे और निर्वाचित हुए उम्मीदवारों में ऊंची जाति के उम्मीदवारों का प्रतिशत 53 है. यह प्रतिशत 2011 के समान है जब टीएमसी पहली बार सत्ता में आई थी. उन चुनावों में उसने दलितों और आदिवासियों को अधिक प्रतिनिधित्व देने की बात की थी. टीएमसी से पहले वामपंथी सरकार के समय में भी सत्ता में ऊंची जाति का प्रतिशत ऐसा ही था. वामपंथी दलों द्वारा जाति और पहचान के सवाल को राजनीतिक और बौद्धिक रूप से नजरअंदाज करने के चलते ऊंची जाति का राजनीतिक प्रभुत्व कायम रहा है.
आरंभ में टीएमसी ने डेमोग्राफिक अंतर को संबोधित करने की कोशिश की. क्रिस्तोफ जाफ्रलो ने हाल के अपने एक लेख में बताया है :
2005, 2012 के एनएसएसओ एंप्लॉयमेंट-अनइंप्लॉयमेंट सर्वे और 2018 के पीएलएएएस के अनुसार, 2006 में मुसलमानों का सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र में प्रतिनिधित्व 6.7 प्रतिशत था जो 2012 में बढ़कर 9 प्रतिशत हो गया और 2018 में 17 प्रतिशत. यह बढ़ोतरी ऊंची जाति के हिंदुओं के हिस्से से आई है जिनका हिस्सा 2006 में प्रतिनिधित्व 63 प्रतिशत था लेकिन 2012 में घटकर 53 हो गया और 2018 में 47 प्रतिशत रह गया. दलितों के प्रतिनिधित्व के प्रतिशत में कोई परिवर्तन नहीं हुआ और वह 20 प्रतिशत बना रहा और आदिवासी का प्रतिशत जो 3.5 था वह 2018 में बढ़कर 6.9 प्रतिशत हो गया.
इस साल मार्च-अप्रैल में पश्चिम बंगाल में रहते हुए मैंने देखा कि मुसलमानों के खिलाफ लोगों में गुस्सा है. यह गुस्सा उन लोगों के अंदर भी था जिन्होंने दावा किया कि वह बीजेपी का समर्थन नहीं करते. धार्मिक कट्टरता को नजाकत की चादर से ढकते हुए, यह कला हिंदी पट्टी में पहले ही अपने उत्कृष्ट रूप में मौजूद है, लोग मुझे बताते थे कि उनको मुसलमानों से कोई समस्या नहीं है लेकिन टीएमसी द्वारा उनका तुष्टीकरण करना सही नहीं है. ममता बनर्जी सरकार ने राज्य के 27 प्रतिशत मुसलमानों को 17 प्रतिशत प्रतिनिधित्व दिया है और उसे ही यह लोग मुसलमानों का तुष्टिकरण कहते हैं. जब भी मैं उनसे तुष्टीकरण की मिसाल देने को कहता तो वह अबूझ कहानियां सुनाते थे और बताते कि “हम हिंदुओं को हेलमेट न पहनने पर चालान भरना पड़ता है लेकिन मुसलमानों को पुलिस जाने देती है.”
जब इस तरह की आस्था केंद्रित अपील से चुनाव होते हैं तब जमीनी स्तर पर काम कर रहे पत्रकार या सीएसडीएस के सर्वे को एकदम सही मान कर विश्लेषण करना जोखिम भरा होता है. हालांकि यह संभव है कि आदमी किसे वोट देगा उसका पता उससे बातचीत से चल जाए लेकिन वह क्यों किसी पार्टी को वोट देगा यह समझने में चूक हो सकती है. और यही बात सरकारी कार्यक्रमों के असर को लेकर भी कही जा सकती है.
तथाकथित विकास की बात करते हुए लिबरल पत्रकार पहचान और आस्था के सवाल को नजरअंदाज करते हैं. मेरा अनुभव है कि उच्च जाति का मतदाता गैर बीजेपी सरकारों के काम को उसी हद तक मान्यता देता है जिस हद तक वह सरकारें हिंदुत्व के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का प्रदर्शन करती हैं. इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि कामकाज को भद्रलोक उतनी मान्यता नहीं देता जितनी कि आदिवासी या दलित देते हैं या ग्रामीण और शहरी क्षेत्र के गरीब. इन लोगों को सभी सरकारों ने सरकारी प्रतिनिधित्व और नौकरियों में पीछे रखा है और इसलिए इन मतदाताओं ने संघ द्वारा उन्हें प्रतीकात्मक पहचान देने के चलते उसे स्वीकार किया है. मठुवा जैसी जातियों की पहचान और उनके आदर्शों की राजनीति को पहली बार टीएमसी ने जगह दी थी जिसे बाद में बीजेपी ने और मजबूती से आगे बढ़ाया. संघ इस काम के जरिए हिंदू पहचान को ठोस करता है. साथ ही दैनिक जीवन में सरकारी योजनाओं तक की पहुंच का बहुत असर पड़ता है. और इसीलिए ममता बनर्जी की “द्वारे सरकार” योजना का टीएमसी को फायदा हुआ.
2019 के लोकसभा चुनावों में झटका लगने के बाद टीएमसी ने यह कार्यक्रम शुरू किया था. हालांकि, उसके पास इसे आगे बढ़ाने के लिए बहुत कम समय था लेकिन इस कार्यक्रम ने उसे लोगों की नजरों में ला दिया. 2019 के चुनाव के बाद प्रशांत किशोर की कंपनी इंडियन पॉलीटिकल एक्शन कमिटी (आईपेक) ने इस कार्यक्रम को तैयार किया था. आरएसएस-बीजेपी के दीर्घकालिक काम का जवाब आईपेक अल्पकालिक समाधान से देती है. आईपेक ने जो किया उसके कई आयाम थे मसलन, मुस्लिम उम्मीदवारों को कम टिकट देना, हिंदू धर्म से जुड़े प्रतीकात्मक काम करना और आदिवासियों और दलितों के बीच सरकार को पहुंचाना. आईपेक ने जमीनी स्तर पर लोगों का फीडबैक लिया जो टीएमसी के अपने फीडबैक से अलग था. इसके बाद बहुत सारे निवर्तमान विधायकों को टीएमसी ने टिकट नहीं दिया. इनमें से बहुत सारे लोग बीजेपी में शामिल होने के बावजूद हार गए.
लेकिन तब भी ममता बनर्जी को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. ममता बनर्जी के पास नेता वाली जबरदस्त खूबी है. महिला मतदाताओं के साथ उनका संबंध इस कदर था कि बीजेपी इस मतदाता श्रेणी में घुसपैठ नहीं कर पाई. ममता बनर्जी का करिश्मा और प्रशांत किशोर की कंपनी ने एक अच्छी अल्पकालिक रणनीति तैयार की जिसे विंध्य पहाड़ों के उत्तर के विपक्षी दल भी आगे इस्तेमाल कर सकते हैं. टीएमसी इंदिरा गांधी की कांग्रेस की तरह है जिसमें एक करिशमाई नेता ऊंची जाति के प्रभुत्व वाली राजनीति करता है. वह बीजेपी के खिलाफ इसलिए सफल हो सकीं क्योंकि बंगाल में मुसलमानों के वोट हिंदुओं की लामबंदी को तोड़ने के लिए काफी थे.
टीएमसी की जीत एक ऐसे प्रशासन के लिए जीवनदान है जिसने पिछले दो कार्यकालों में पुराने दौर की कांग्रेस सरकारों की तरह ही राजनीति में बहुत ज्यादा सुधार नहीं लाया है. इस जीत का अर्थ है कि ऊंची जात के नियंत्रण वाली लेकिन अधिक उदार और समावेशी विचारधारा ने बीजेपी को मात दी है लेकिन इससे कोई वास्तविक सामाजिक परिवर्तन नहीं होने जा रहा है. यह मुसलमानों, दलितों, आदिवासियों को उसी तरह की सुरक्षा देगी जो मिलने के बावजूद उन्हें सत्ता के हाशिए पर ही बनाए रखती है.
1990 का राजनीतिक आशावाद, जो ओबीसी आंदोलन और कांशीराम की बहुजन लामबंदी से पैदा हुआ था, वह उत्तर प्रदेश और बिहार में एक जात की पार्टियों वाली सच्चाई में बदल चुका है. अब सिर्फ टीएमसी का मॉडल ही बीजेपी को टक्कर देने के लिए उपलब्ध है. और यही हमारे आज की विडंबना भी है. इस विडंबना में बीजेपी को क्षण भर के लिए चुनावी टक्कर उसी ताकत से मिलती है जो बीजेपी की मजबूती का कारण भी है.