पुरोला हिंसा: आरएसएस की देवभूमि में मुसलमानों को नहीं स्थान

भगवा रंग में सराबोर देहरादून का बाजार. संघ परिवार की कल्पना में, उत्तराखंड एक पवित्र हिंदू भूमि, देवभूमि, है जिसमें मुसलमानों की आवाजाही और बसना प्रतिबंधित होगा.
फोटो : अलीशान जाफरी
भगवा रंग में सराबोर देहरादून का बाजार. संघ परिवार की कल्पना में, उत्तराखंड एक पवित्र हिंदू भूमि, देवभूमि, है जिसमें मुसलमानों की आवाजाही और बसना प्रतिबंधित होगा.
फोटो : अलीशान जाफरी

{एक}

उस रात उत्तराखंड की वादियां शांत थीं और पुरोला का छोटा सा शहर सो रहा था. लेकिन मोहम्मद अशरफ जाग रहा था. वह अपने घर के चारों ओर घूमता, बार-बार खिड़की से बाहर देखता. क्या लोग बाहर घूम रहे थे? क्या कोई हमला होने वाला था? वह पूरी रात निगरानी करता रहा और सोचता रहा कि क्या उस शहर से भाग जाना चाहिए जो लगभग 40 सालों से उसका घर रहा है. अशरफ ने हमें बताया, "मैं बहुत डर गया था. मेरे बच्चे रो रहे थे."

पुरोला में मुसलमानों की दुकानों पर पोस्टर लगा दिए गए थे जिसमें "सभी लव जिहादियों" को शहर छोड़ने की चेतावनी दी गई थी. इन पोस्टरों पर देवभूमि रक्षा अभियान नामक एक हिंदू संगठन का पता था. इसके तुरंत बाद हिंदू संगठनों ने एक विशाल रैली निकाली और दावा किया कि क्षेत्र में "लव जिहाद" का मामले बढ़ रहे हैं. उबेद खान और जीतेंद्र सैनी दो लड़कों पर पुरोला में एक नाबालिग हिंदू लड़की के अपहरण की कोशिश का आरोप लगाया गया. दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन यह मुसलमानों के खिलाफ लामबंदी का आधार बन गया.

29 मई को सैकड़ों लोग हिंदू जुलूस के लिए जुटे थे. उन्होंने “जय श्री राम” के नारे लगाते हुए पूरे शहर में जुलूस निकाला. शहर के बाजार बंद कर दिए गए थे. अशरफ का तीन पीढ़ी पुराना कपड़े का कारोबार भी बंद था. अशरफ ने कहा कि रैली जानबूझ कर उनके घर के पास से गुजरी. उनका परिवार पुरोला में सबसे पुराने और सबसे अच्छी तरह से बसे मुस्लिम परिवारों में से एक है. उनके पिता 1978 में यहां बस गए थे और अशरफ का जन्म भी यहीं हुआ. उन्होंने कहा, “वे मेरे गेट के सामने आए और गालियां देने लगे.” उन्होंने बताया कि रैली के दौरान भीड़ नारे लगा रही थी- “लव जिहादियों को भगाओ. मुसलमानों को भगाओ. मुस्लिम शासन बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.” लेकिन एक नारा उभरकर सामने आया, “मुस्लिम मुक्त उत्तराखंड चाहिए.” अशरफ के तीन छोटे बच्चों ने अपनी खिड़की से इस रैली को देखा. “उनके जाने के बाद मेरे बच्चे मुझसे पूछ रहे थे, ‘पापा, वे हमें गाली क्यों दे रहे थे?’ मेरे पास कोई जवाब नहीं था. मेरे 9 साल के बच्चे ने मुझसे पूछा, 'पापा, क्या आपने कुछ किया है?’”

तनाव बढ़ने पर करीब चालीस मुस्लिम परिवार शहर छोड़ कर चले गए. लेकिन अशरफ ने यहीं रुकने का फैसला किया. “मैं भला क्यों जाऊं?” वह कहते हैं. “मेरे पास जो कुछ भी है वह यहीं है. यह मेरा घर है. मैं और कहां जाऊंगा?” उन्होंने आगे कहा, "मैंने सोचा कि यह मेरी जन्मभूमि और कर्मभूमि है. अब यहां से मैं कफन में लिपटा ही जाऊंगा. चाहे वे मेरा घर जला दें या मेरी दुकान जला दें, या मुझे मार डालें, मैं यहीं रहूंगा.”

तुशा मित्तल कोडा-कारवां फेलो हैं. आपने राजनीति, विकास, महिला और सामाजिक न्याय पर लिखा है. आब का काम तहलका, अल जज़ीरा और वॉशिंगटन पोस्ट सहित अन्य प्रकाशनों में प्रकाशित है.

अलीशान जाफ़री स्वतंत्र पत्रकार हैं और नई दिल्ली में रहते हैं. आप विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता मंचों में योगदान करते हैं. आप मानवाधिकार, मीडिया, गलत सूचना और भारत में चरमपंथी राजनीति के उदय पर लिखते हैं.

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