जी20 सम्मेलन के प्रचार के लिए देश भर में लगे बिलबोर्डों में मोदी की तस्वीर को बड़ा हिस्सा दिया गया था. एक अनुमान के मुताबिक, दिल्ली हवाई अड्डे से सम्मेलन के मेहमानों के होटलों तक लगे हजारों विज्ञापनों के एक चौथाई विज्ञापनों में प्रधानमंत्री मुस्कुरा रहे हैं. मोदी के लिए स्वयं का इस तरह का प्रचार बिल्कुल नई बात नहीं है, बल्कि उनकी फोटों हमने ऐसी चीजों में भी देखी हैं जिनसे उनका कोई लेना-देना नहीं होता. मसलन, कोविड-19 के टीकों के सर्टिफिकेटों में और बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान की प्रचार सामग्री में भी, जिसने अपने बजट का 56 फीसदी तो विज्ञापन पर ही खर्च कर डाला.
लेकिन अन्य दृश्यसामग्री और पदावलियां भी सम्मेलन के प्रचार में दिखाई दीं, जैसे भारतीय जनता पार्टी का चुनाव चिन्ह कमल का निशान, ऐतिहासिक धरोहरों में जी20 के लोगो का प्रोजेक्शन, छह लाख से अधिक गमले लगाना और बंदरों को भगाने के लिए जगह-जगह लंगूरों के कट आउट्स लटकाना. इसके अलावा, आयोजन से पहले भारत की विशाल गरीबी को छिपाने के लिए झुग्गियों को ग्रीनशीट से ढक दिया गया.
जी20 सम्मेलन से जुड़े 200 से अधिक आयोजन हुए और दिसंबर 2022 से लेकर इस साल अप्रैल तक इसके विज्ञापन पर 50 करोड़ 60 लख रुपए खर्च हुए, जो दिखता है कि यह ब्रांडिंग की कितनी बड़ी एक्सरसाइज थी. साड़ियों और "सांस्कृतिक धरोहर" के विज्ञापनों, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन के लिए शैंपेन के आयात और ब्राजील के राष्ट्रपति लूला डा सिल्वा की पत्नी को उपहार में पशमीना शॉल दिए जाने को भारतीय मीडिया ने देश के "सॉफ्ट पावर" की झांकी करार दिया. यहां तक कि स्कूलों में जी20 विषय पर पोस्टर प्रतियोगिताएं भी आयोजित की गईं.
बस स्टॉपों, पेट्रोल पंपों और शहर में हर कहीं लगीं होर्डिंगें पर्यावरण की चिंता में चींख-चींख कर दावा कर रही थीं कि यह आयोजन "धरती को प्यार करने वालों द्वारा धरती की खुशहाली के लिए है." इस बीच लोगों को उनके घरों से उजाड़ा जा रहा था. मार्च में जी20 के लिए शहर के सौंदर्यीकरण के मकसद से गरीबों के घरों पर बुलडोजर चला दिए गए जिसके बाद जुलाई की बाढ़ में उनको भयानक स्थिति का सामना करना पड़ा. आजकल ग्रीनवॉशिंग का बड़ा चलन है. यह शब्द ब्रेनवॉशिंग से आया है जिसका इस्तेमाल पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले कारपोरेटों के ऐसे कृत्यों के लिए होता है जिसमें वे दिखाते हैं कि वे पर्यावरण को बचाने के लिए कितना काम कर रहे हैं. इस साल विश्व पर्यावरण दिवस पर माइनिंग कंपनी वेदांता, जिसके कामों का पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के लिए जबरदस्त विरोध होता रहा है, ने स्कूलों में दस हजार पौधे लगाने की घोषणा की. ग्रीनवाशिंग अब इतना चलन में आ गया है या कहें कि इतना बदनाम हो चुका है कि अंतरराष्ट्रीय निगरानी संस्थाएं कारपोरेट कंपनियों को "नेचर पॉजिटिव" या "पर्यावरण अनुकूल" जैसे शब्दों के बेजा इस्तामल के लिए चेतावनियां देने लगी हैं.
लेकिन तब क्या होता है जब राष्ट्र ऐसा करते हैं? रविंदर कौर की 2020 में आई किताब "ब्रांड न्यू नेशन" इस बात की पड़ताल करती है कि कैसे 21वीं शताब्दी में राष्ट्र खुद को कंपनियों की तरह प्रचारित कर रहे हैं. कौर 2012 में डोभास में आयोजित विश्व आर्थिक मंच के उल्लेख से शुरू करती हैं कि अब ऐसे आयोजन "राष्ट्र ब्रांड" की प्रदर्शनियों की तरह हो गए हैं. इनमें राष्ट्र खुद को वैश्विक बाजार के लिए आकर्षक निवेश गंतव्य की तरह पेश और प्रस्तुत करते हैं. पिछले दो दशक में विज्ञापनों, बिलबोर्डों, भित्तिचित्रों, प्रचार वीडियो, लोगो, कॉफी टेबल किताबों और ब्रोशरों का हवाला देते हुए, कौर बताती हैं कि आज राष्ट्रों का रुख राष्ट्र निर्माण से राष्ट्र की ब्रांडिंग की तरफ हो गया है और उग्र राष्ट्रवाद और प्रचार के बीच मजबूत नाता बन गया है.
कौर की किताब राष्ट्रों के कारपोरेटीकरण के लंबे इतिहास पर है जिसकी शुरुआती झलक 1850 के दशक में आयोजित होने वाली प्रदर्शनियों में मिलती है जब उत्पाद पर "मेड इन" स्टांप लगाए जाने की शुरुआत हुई. इससे उत्पाद कहां बना है, पता चलता था. इसी तरह भारत की आजादी के बाद के कालखंड में और उदारीकरण के बाद के दौर में भारत को नई तरह से पेश करने के प्रयास शुरू हुए या कहें कि विश्व मंच पर उसके उभार का प्रचार शुरू हुआ. लेकिन कौर इन दोनों ही चरणों के अंतरों को स्पष्ट करती हैं और बताती हैं कि 19वीं शताब्दी का मुक्त व्यापार साम्राज्यवाद या 20वीं शताब्दी का भूमंडलीकरण, जिसमें राष्ट्र की सीमाओं को मिटाने की बात होती थी, उससे विपरीत 21वीं शताब्दी में राष्ट्र की सीमा अधिक गाढ़ी हुई है और देश के प्राकृतिक और सांस्कृतिक संसाधनों और उसकी जनता को "एक्सक्लूसिव ब्रांड" के रूप में पेश किया जा रहा है. यहां हम देख सकते हैं कि राष्ट्रवादी तर्क वैश्विक पूंजी के खिलाफ हो ऐसा जरूरी नहीं होता.
कौर की किताब में उल्लेखित बातों के साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर योग के प्रचार, थाईलैंड के सैन्य शासकों द्वारा आसियान की अध्यक्षता करते हुए तानाशाही की रीब्रांडिंग और दक्षिण अफ्रीका द्वारा रंगभेदी शासन के अंत के बाद अंतरराष्ट्रीय छवि सुधारने के प्रयासों के तहत की गई ब्रांडिंग तथा पेरू, अमेरिका, ब्राजील, मिस्र, न्यूजीलैंड और जापान जैसे देशों द्वारा अपने अनूठेपन और संस्कृतिक पहचान की निरंतर ब्रांडिंग का भी उध्ययन किया जाना चाहिए.
हालांकि इसे विडंबना ही कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण की आंधी में राष्ट्र की सामाएं आप्रासंगिक हो जाने की संभावना और 1990 के दशक में राष्ट्रों द्वारा खुद को बड़े पैमाने पर स्वप्निल पूंजी गंतव्यों के रूप में पेश करने के साथ ही इन देशों ने पुराने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को पुनर्जीवित कर उसे बाजार में लेन-देन की वस्तु बना दिया है.
कौर की किताब ब्रांड इंडिया से लेकर इंडिया ब्रांड इक्विटी फंड की शुरुआत का अध्ययन करती है जिसके लिए तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम में 1996 में 50 करोड रुपए आवंटित किए थे. 2003 में इसमें सुधार कर इसे इंडिया ब्रांड इक्विटी फाउंडेशन बना दिया गया और इसका लक्ष्य तब भारत के उत्पादकों का प्रमोशन करना नहीं, बल्कि भारत को ही एक उत्पाद के रूप में ब्रांड करना बन गया. इन सुधारों के अध्ययन से कई अटपटी बातें सामने आती हैं. उदाहरण के लिए 2004 में भारत के वित्त मंत्रालय ने इंडिया शाइनिंग कैंपेन शुरू किया जो भारत के आर्थिक सुधारों के विज्ञापन का एक तरह का पहला बड़ा प्रयास था. लेकिन वह विज्ञापन पूरी तरह से फ्लॉप साबित हुआ. उस विज्ञापन की टैगलाइन थी, "पिछली बार ऐसा आशावाद कोलंबस द्वारा अमेरिका की खोज के वक्त दिखा था." इस टैगलाइन के साथ कोलंबस की अमेरिका में कदम रखने की एक तस्वीर भी लगाई गई थी.
अपनी किताब में कौर इन ब्रांडिंग प्रयासों के पीछे जिन रचनाकारों का हाथ है, जो अपने काम को राष्ट्र की सेवा की तरह देखते हैं और अक्सर अपने काम को “निम्नस्तरीय” सरकारी विज्ञापनों से बेहतर बताते हैं, के बारे में भी लिखती हैं. 2002 के इंक्रेडिबल इंडिया अभियान (अतुल्य भारत) से जुड़े एक विज्ञापनकर्मी कौर को बताता है कि अपने आइडिया को समझाने के लिए उसने एक ग्लोब का टॉपशॉट लिया ताकि लोगों की कल्पना में यह बात घर कर जाए कि ईश्वर ने जब भारत की रचना की थी तो उसे अपनी रचना पर ही विस्मय हुआ. इसलिए अंग्रेजी अक्षर "आई" को विस्मयबोधक चिन्ह की तरह उलटा लिखा गया है. वह विज्ञानकर्मी बताता है कि आइडिया फाइनल होने से पहले तत्कालीन पर्यटन मंत्री ने जिस टैगलाइन का सुझाव दिया था वह थी, "द वंडर दैट इज इंडिया." यह टैगलाइ ब्रिटिश इंडोलॉजिस्ट ए. एल. बाशम की किताब "द वंडर दैट वॉज इंडिया" से उठाई गई थी.
इन प्रचार अभियानों में कई तरह की निरंतरताएं दिखती हैं, जैसे राष्ट्र को कालातीत के साथ-साथ आधुनिक बताना. इसके अलावा ऐसे अभियानों की विशेषता होती है कि वे राष्ट्र के महान, हिंदू इतिहास को पेश करते हुए मुसलमानों और दलितों को राष्ट्र की इस नई छवि से मिटा देते हैं. अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के बाद राज्य की तरक्की और समृद्धि के लिए जम्मू-कश्मीर में निवेश शिखर सम्मेलन का वादा किया गया और इस साल वहां आयोजित जी20 की मीटिंग में राज्य में सामान्य स्थिति होने का स्वांग रचा गया. इसके बाद कौर वाइब्रेंट गुजरात, मेक इन इंडिया और 2014 के बीजेपी के चुनाव अभियान के बारे में लिखती हैं. वह बताती हैं कि कैसे भारत 2014 से रेड टेप की जगह रेड कारपेट पदावली का इस्तेमाल कर रहा है.
जी20 सम्मेलन में नवउदारीकरण की वैश्विक भाषा को घुसेड़ा गया और बार-बार दोहराया गया कि भारत निवेश फ्रेंडली देश है. बड़ी सफाई से रचे गए ब्रांड मोदी का आधार विचार विकास और समृद्धि है और इसने विदेशी सरकारों के लिए 2002 की हिंसा को नजरअंदाज कर मोदी को स्वीकारना सहज बनाया है.
कौर की किताब इस बात को भी समझाती है कि इस रणनीति ने कैसे मोदी के साथ डील करना सहज बना दिया है. लेकिन उनकी किताब का कमजोर पक्ष यह है कि वह कारपोरेट समूह और हिंदू राष्ट्रवाद के गठजोड़ की बात नहीं करती. उदाहरण के लिए, अडानी का इस किताब में कहीं जिक्र नहीं है. फिर भी यदि इस तरह की पब्लिसिटी से राष्ट्र का विचार बदल रहा है, तो कौर की यह किताब जी20 शिखर सम्मेलन की पृष्ठभूमि में नेशन ब्रांडिंग के तर्क और इतिहास पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालती है.