26 दिसंबर को उत्तर प्रदेश पुलिस ने मेरठ में नागरिकता (संशोधन) कानून (2019) के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के बीच एक सीसीटीवी फुटेज जारी किया. इसमें एक अनजान व्यक्ति रिवॉल्वर की तरह दिखने वाले हाथियार को लहरा रहा था और गोली चला रहा था. पुलिस ने दावा किया कि यह वीडियो पिछले शुक्रवार का है, जिस दिन शहर में सीएए का विरोध प्रदर्शन हिंसक हो गया था. 20 दिसंबर प्रदर्शन के दौरान कम से कम पांच लोग मारे गए थे और उन सभी की मौत बंदूक की गोली के घावों से हुई थी. विरोध प्रदर्शन के अगले दिन, राज्य पुलिस प्रमुख ओपी सिंह ने कहा कि "प्रदर्शनकारियों पर एक भी गोली नहीं चलाई गई" और "प्रदर्शनकारी आपस की गोलीबारी में मारे गए." फुटेज इस बात को सही साबित करने के लिए अपलोड की गई थी कि प्रदर्शनकारियों के खिलाफ अत्यधिक बल प्रयोग करने की पुलिसिया कार्रवाई न्यायसंगत थी.
राज्य भर में अब तक हुई कम से कम 19 लोगों की हत्याओं के तर्क में उत्तर प्रदेश पुलिस लगातार इसी तर्क का इस्तेमाल कर रही है और 21 जिलों में प्रदर्शनकारियों पर की गई क्रूर कार्रवाई को सही ठहरा रही है. लेकिन वकील, कार्यकर्ता, मानवाधिकार समूह, फैक्ट फाइडिंग टीमें, नागरिक समूह और जमीनी रिपोर्टें इन बातों को धता बताती हैं. इन रोपोर्टों ने सीएए के विरोध में हुए प्रदर्शनों में पुलिस द्वारा अत्यधिक और अंधाधुंध बल प्रयोग और मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों को खास तौर पर निशाना बनाए जाने पर रोशनी डाली हैं.
20 दिसंबर को पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा शहर मेरठ, जिसका सांप्रदायिक टकराव को विचित्र इतिहास रहा है, पुलिस और सीएए के विरोध में खड़े प्रदर्शनकारियों के बीच संघर्ष का केंद्र बना. उस शुक्रवार को दोपहर की नमाज के बाद, शहर के बीचों-बीच बसे सभी मुस्लिम इलाकों, फिरोज नगर, ट्यूबवेल तिराहा और कोतवाली में सीएए के विरोध में मार्च शुरू हुआ. मार्च करने वाले भुमिया का पुल क्षेत्र से प्रह्लाद नगर की ओर जा रहे थे. ये क्षेत्र दो किलोमीटर के दायरे में हैं. प्रह्लाद नगर के लिसाड़ी गेट पुलिस स्टेशन में दर्ज प्राथमिकी के अनुसार, लगभग बारह सौ प्रदर्शनकारियों की भीड़, "सीएए के खिलाफ नारेबाजी कर रही थी, अपमानजनक व्यवहार कर रही थी" साथ हिंसा की धमकी दे रही थी. इस पर कोई एक राय नहीं है कि किसने या क्यों झड़प शुरू हुई. लेकिन करीब 2.30 बजे पुलिस ने विरोध प्रदर्शनों को दबाने के लिए क्रूर कार्रवाई की जो दो घंटे तक चली.
इन दो घंटों में पांच लोग मारे गए और एक अन्य व्यक्ति की गोली लगने के बाद 26 दिसंबर को मौत हो गई. आधिकारिक तौर पर मेरठ में कुल छह लोगों की मौत हुई. लेकिन जब मैंने वहां जाकर स्थानीय लोगों से बात की तो कई लोगों ने आधिकारिक आंकड़े को खारिज करते हुए मुझे बताया कि मरने वालों की असली संख्या बहुत अधिक है. उन्होंने बताया कि लोग अभी भी लापता हैं या अस्पतालों और पुलिस स्टेशनों में संपर्क करने से डरते हैं. जिले में इंटरनेट बंद होने से संचार व्यवस्था बहुत कठिन हो गई थी और मीडिया के प्रति नागरिकों का भरोसा बहुत ज्यादा घटा है. मैं मारे गए पांच लोगों के परिवारों, दोस्तों और पड़ोसियों से मिला. मारे गए सभी लोग बेहद गरीब परिवारों से थे और परिवार के एकमात्र कमाने वाले थे. वे विरोध प्रदर्शनों में शामिल नहीं थे और सुरक्षा के लिहास से जल्द घर लौट रहे थे.
मारे गए लोगों के परिवारों और इन क्षेत्रों के निवासियों ने मीडिया से मोहभंग और गुस्सा जाहिर किया. पत्थरबाजों के इलाकों की निशानदेही कर रहे पुलिसिया जासूसों के बारे में स्थानीय अखबारों की रिपोर्ट ने उनके भय और उन्माद में और इजाफा किया. स्थानीय हिंदी रिपोर्टों के प्रति लोगों की अविश्वसनीयता प्रत्येक मृतक के परिवार के साथ बातचीत में साफ जाहिर थी. "अगर आप हमारी बात को लिखेंगे ही नहीं, तो हमसे बात करने की परेशानी भी क्यों उठाते हो?" हमने जिन परिवारों से बात की, उन्होंने हमें बताया कि कई हिंदी अखबारों के रिपोर्टर उनसे मिले थे और उनकी बातें अच्छी तरह से सुनीं थीं. लेकिन किसी भी अखबार ने उनकी बात को कभी नहीं छापा.
पिछले हफ्ते से कई स्थानीय हिंदी अखबार मेरठ पुलिस के दावों को तोते की तरह रट रहे हैं. समाचार पत्रों ने पुलिस की भूमिका की गंभीर जांच करने के बजाए उसके बचाव में उसे उद्धारक, 'बलवाइयों और उपद्रवियों' से स्थानीय लोगों की रक्षा करने वाली के रूप में पेश किया. स्थानीय हिंदी अखबारों की मानें तो हिंसक ठगों की भीड़ ने कई पुलिसकर्मियों को घायल किया जबकि प्रदर्शनकारियों ने खुद को मारा. किसी भी अखबार ने पीड़ितों या उनके परिवारों की बात पर ध्यान नहीं दिया.
प्रहलाद नगर के एक भीतरी इलाके लिसाड़ी गेट पर, हम पीड़ितों में से एक मोहम्मद जहीर के घर गए. लिसाड़ी गेट सांप्रदायिक रूप से एक संवेदनशील क्षेत्र है और पिछले सप्ताह के विरोध और पुलिस कार्रवाई का केंद्र बिंदु रहा है. 46 वर्षीय जहीर की 20 दिसंबर को एक दुकान के बाहर हत्या कर दी गई थी. मैं उनके पड़ोसियों से मिला. उन्होंने हमें जो बताया वह पुलिस की उस कहानी से एकदम उलट था जिसे स्थानीय मीडिया ने पूरी विश्वसनीयता के साथ प्रकाशित किया था. उन्होंने स्थानीय पुलिस के खौफ से अपना नाम जाहिर करने या वीडियोग्राफी करने से इनकार कर दिया, लेकिन ऑडियो रिकॉर्डिंग के लिए वह सहमत हो गए.
पड़ोसियों में से एक ने हमें बताया कि झड़प वाले दिन से पहले ही इन इलाकों में स्थिति तनावपूर्ण थी. उन्होंने कहा, "लोगों के भीतर डर था जिसकी वजह से सुबह से ही बाजार बंद थे." एक अन्य बुजुर्ग ने मुझे बताया कि उस दिन लिसाड़ी गेट से आधा किलोमीटर दूर शाही जामा मस्जिद में कुछ लोग सीएए और एनआरसी के विरोध में काली पट्टी बांध रहे थे. उन्होंने कहा, "नमाज के बाद जब मैं मस्जिद से बाहर आ रहा था, रैपिड एक्शन फोर्स के जवान दो लड़कों को काली पट्टी पहनने के लिए गिरफ्तार करने वाले थे." उनके अनुसार, लड़कों की "काली पट्टियां सिर्फ इसलिए छीन ली गई थी क्योंकि वे काली पट्टी बांधकर अपना विरोध दर्ज करा रहे थे. जब आरएएफ ने लोगों को इस तरह से चुन-चुन कर उठाना शुरू किया, तो लोग हंगामा करेंगे ही. यह पुलिस ही थी जो गलत काम कर रही थी." उन्होंने कहा," हमें अपनी आपत्ति दर्ज कराने के लिए काली पट्टी पहनने के चलते दोषी नहीं ठहराया जा सकता."
पहले पड़ोसी ने उस दिन की पुलिस की मनमानी कार्रवाई के बारे में भी बताया. उनके अनुसार, “हालांकि बाजार बंद थे, अगर यहां से दो या तीन बच्चे सड़क पर जाकर खड़े हो जाते, तो लिसाड़ी गेट और ब्रह्मपुरी, इन दोनों पुलिस थानों के एसएचओ उन्हें लाठियों से पीटते और उन्हें थप्पड़ मारते." ब्रह्मपुरी लिसाड़ी गेट से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर है. उन्होंने कहा कि एक या एक घंटे से थोड़ा ज्यादा देर तक यह चलता रहा जब तक कि पुलिसकर्मियों ने आखिरकार एक बूढ़े व्यक्ति पर इसी तरह से हमला नहीं कर दिया. "जब एसएचओ ने एक बूढ़े आदमी पर हमला करना शुरू किया तो लड़के इसे और बर्दाश्त नहीं कर सके और फिर उन्होंने झगड़ा शुरू कर दिया." उन्होंने जोर देकर कहा कि वे जो बोल रहे हैं वह सच है. उन्होंने कहा, "आखिर कितनी देर तक हम पिटते रहेंगे?"
जहीर का घर लिसाड़ी गेट की जाली वाली गली में है. वह दुधारु पशुओं का चारा बेचते थे. उस दिन, उन्होंने किसी शादी में जाने की तैयारी में अपने बालों पर खिजाब लगाया था. उनकी पत्नी और बेटी पहले से ही शादी वाली जगह पहुंच गईं थीं. जबकि उनके कुछ पड़ोसियों ने बताया कि चारों तरफ झड़पों की खबरों के बाद जहीर अपनी दुकान बंद कर घर जाने लगे. कुछ लोगों ने कहा कि काम से कुछ देर छुट्टी लेकर वह बाहर गए थे. उन्होंने कहा कि शाम 4.30 बजे, जब जहीर एक प्रोविजन स्टोर के बाहर खड़े होकर बीड़ी पी रहे थे, पुलिस ने सरेआम उन्हें गोली मार दी.
जब वह जिंदगी और मौत से लड़ रहे थे तो उनके पड़ोसी चप्पे-चप्पे पर तैनात पुलिस के बीच से लिसाड़ी गेट से अस्पताल तक पहुंचने का जरिया खोज रहे थे. कहीं से उन्हें एक ठेला मिल गया. उनके पड़ोसियों ने जब जहीर को ठेला-गाड़ी में डाला तब तक उनकी सांसें चल रही थीं. लिसाड़ी गेट से श्याम नगर होते हुए, जो तंग गलियों वाली एक भूलभुलैया जैसी कॉलोनी है, आगे बढ़े. जहीर के साथ मौजूद एक पड़ोसी ने मुझे बताया कि अस्पताल ले जाते हुए रास्ते में ही उनकी मौत हो गई. “अगर हम उसे पास के अस्पताल में ले जा पाते तो वह बच गया होता. लेकिन पुलिस की वजह से हम उसे ले नहीं जा सके. अस्पताल ले जाते हुए आधे रास्ते में ही उसने दम तोड़ दिया. ”
मैंने जहीर के भाई मोहम्मद शाहिद से बात की, जो अपने घर के एक कोने में चुपचाप खड़े थे, उनके बोझिल कंधों पर एक शॉल लिपटी हुई थी. "मेरा भाई नहीं रहा, यही हमारी किस्मत है," उन्होंने कहा. शाहिद ने जानना चाहा कि पुलिस ने जहीर पर गोली क्यों चलाई? उन्होंने कहा, "मुझे अब इंसाफ चाहिए...उन्होंने उसे क्यों मारा? पुलिस का कोई भी आदमी सामने नहीं आया है, कोई भी यहां जांच करने नहीं आया है.”
26 साल के मोहसिन गुलजार-ए-इब्राहिम नामक इलाके में रहते थे, जो जहीर के घर से एक किलोमीटर से भी कम दूरी पर है. 20 दिसंबर को उनकी भी मौत हो गई थी. एक मंद रोशनी वाली गली में, मैं और मेरे साथ गए वीडियो पत्रकार ने देर रात मोहसिन के घर जाने का रास्ता ढूंढा. कड़ाके की सर्दी में पारा 8.1 डिग्री तक लुड़क आया था. कुछ आदमी उनके घर के बाहर अलाव जलाए बैठे थे. ये लोग पहरेदारी में बैठे थे, ताकि पुलिस और आरएएफ उस दिन की झड़प के बहाने लोगों को गिरफ्तार न कर सके. उन लोगों ने हमें बताया कि पुलिस इस इलाके में व्यापक रूप से दबिश दे रही थी और अपने साथ लाई सीढ़ियों के जरिए बालकनी के रास्ते घरों में घुसकर युवकों को उठा रही थी. इसके जवाब में, इन क्षेत्रों के पुरुषों ने घरों, गली-मोहल्लों और क्रॉसिंग के बाहर छोटे समूहों में इकट्ठा होना शुरू कर दिया था. झड़प वाले दिन के बाद से वे हर रात ऐसा कर रहे थे. उनमें से एक ने हमें बताया कि उन सभी को अपनी दिहाड़ी गंवानी पड़ रही है क्योंकि उनकी रातें अपने इलाकों की रखवाली में बीत रही हैं.
एक स्वायत्त अनुसंधान और वकालत समूह से जुड़े एक युवा, जो अपनी पहचान जाहिर नहीं करना चाहते थे, ने हमें बताया कि पुलिस और आरएएफ से मुठभेड़ होने पर ऐसे समूह बहुत कुछ कर सकने की हालत में नहीं होते लेकिन उनके लिए यह एक भरोसे की तरह था कि वे अपने परिवार की हिफाजत में जितना मुमकिन है, कर रहे हैं.
मोहसिन चार भाइयों में सबसे छोटे थे. उनकी दो बहनें भी हैं. वह अपनी बीमार मां, पत्नी और अपने दो छोटे बच्चों के साथ रहते थे. उनका एक चार साल का और एक छह महीने का बच्चा है. घर का सारा खर्च उन्हीं के जिम्मे था. मोहसिन दूध बेचने और कबाड़ी का काम करते थे और मौसमी तौर पर हाथ ठेले पर छोटा-मोटा सामान बेचा करते थे. “जिस समय उसे गोली मारी गई, वह गायों के लिए चारा लेने गया था. दुकान पर पहुंचने से पहले ही, पुलिस ने उस पर गोलियां चला दी”, उनकी बहन मोहसिना ने मुझे बताया. मोहसिना को यह याद नहीं था मोहसिन को गोली मारे जाने की खबर किसने उनके परिवार को दी थी, "लेकिन जब हमें पता चला तो मेरी मां चिल्ला पड़ी, 'मेरे बेटे को बचाओ, मेरे बेटे को बचाओ.’” मोहसिना ने कहा, “जब हमारे इलाके के लोग मदद करने के लिए दौड़े तो पुलिस ने उन्हें धमकाया और पीटा."
मैंने मोहसिन के भाई मोहम्मद इमरान से भी बात की. उनकी बात मोहसिना से कुछ अलग थी, लेकिन पुलिस की मनमानी और संस्थागत उदासीनता के बारे में दोनों ने एक जैसी बातें कहीं. इमरान ने यह भी कहा कि लगभग 3 बजे मोहसिन चारा लाने के लिए जा रहे थे. शाम 4 बजे, इमरान को फोन आया कि उसके भाई का शव उसके घर के पास एक गली में रिक्शे पर पड़ा है. समुदाय के ही किसी लड़के ने इस उम्मीद में कि शव को उसके परिवार तक पहुंचा सके मोहसिन के शव को सड़क से उठाया था. इमरान गली में पहुंचे, उन्होंने अपने भाई को पाया और अपने घर से लगभग चार किलोमीटर दूर हापुड़ रोड पर स्थित संतोष अस्पताल ले गए. इमरान ने कहा कि अस्पताल ने उन्हें भर्ती करने से इनकार कर दिया. शाम 5 बजे इमरान मोहसिन को सरकारी अस्पताल लाला लाजपत राय मेमोरियल मेडिकल कॉलेज में ले जा सके. यह अस्पताल लिसाड़ी गेट से लगभग पांच किलोमीटर दूर है. वहां पहुंचने पर डॉक्टरों ने मोहसिन को मृत घोषित कर दिया गया.
गुलाबी रंग की पपड़ाई दीवारों वाले एक तंग कमरे में चारपाई पर बैठी मोहसिना ने अपने एक भाई को बुलाकर हमें एक वीडियो दिखाने को कहा, जिसे मोहसिन को कथित तौर पर गोली मारने के बाद रिकॉर्ड किया गया था. “यहां इस पर एक नजर रखना. सीने के ठीक बीच में गोली लगी है. गोली उसके शरीर को पार नहीं कर पाई,” उसने कहा. "हमें बताओ, उसका अपराध क्या है? क्या वह आतंकवादी था? यह किस तरह का न्याय है?” मोहसिना ने कहा कि स्थानीय पुलिस स्टेशन ने उनकी शिकायत दर्ज करने से इनकार कर दिया. "उन्होंने भुमिया के पुल से हमें लाठियां मार कर वापस भगा दिया ... उन्होंने कहा कि 'अगर गोली खाना चाहते हो तो यहां आ जाओ,' हम वैसे भी तुम्हारी शिकायत दर्ज नहीं करेंगे.” भूमिया का पुल ब्रह्मपुरी इलाके में है जो प्रहलाद नगर के ठीक बगल में स्थित है.
इमरान ने मुझे बताया कि अस्पताल से, घंटे भर के भीतर वे मोहसिन के शरीर को वापस घर ले आए थे. स्थानीय लोगों ने तय किया कि पोस्टमार्टम कराया जाए. इमरान के अनुसार, पुलिस को कई बार फोन करने के बाद, लगभग 11 बजे एक पुलिस वैन पोस्टमार्टम के लिए मोहसिन के शरीर को अस्पताल ले जाने के लिए पहुंची.
मोहसिना ने यह भी कहा कि लगभग सुबह के 2 बजे, पुलिस ने उनके दो चाचाओं को स्थानीय कब्रिस्तान की देखरेख करने वाले व्यक्ति के घर का पता लगाने के लिए जाने को मजबूर किया. पुलिसकर्मी चाहते थे कि कब्रिस्तान की देखरेख करने वाला उसी वक्त एक कब्र खोद कर शव को दफना दे.
इमरान ने बताया कि करीब 4 बजे पोस्टमार्टम हुआ और पुलिस ने खुद ही कुछ कब्र खोदने वालों की व्यवस्था कर ली और कफन का भी इंतजाम कर लिया. "इस दौरान पुलिस पूरी हबड़-तबड़ में रही और जब उसे दफना दिया गया तो पुलिस गायब हो गई थी." मोहसिना ने मुझसे कहा कि वह और उसकी मां "भाई की मौत का गम भी नहीं मना सके. हम आखिरी बार उसका चेहरा भी नहीं देख पाए.''
मोहसिना ने कहा, “हमारी गलती क्या है? क्या हम मुसलमान पैदा हुए, ये हमारी गलती है? चाहे कोई हिंदू पैदा हो या मुसलमान सब भगवान के हाथ में है.” वह मोहसिन के बच्चों और अपनी मां के बारे में चिंतित है : “भविष्य में, उसके बच्चे हमसे पूछेंगे, अपनी मां से अपने पिता के बारे में पूछेंगे. हम उन्हें क्या बताएंगे? पुलिस ने उसके बच्चों की जिंदगी तबाह कर दी. बताइए, उनकी सुरक्षा का ख्याल कौन रखेगा? उनकी पढ़ाई-लिखाई का क्या होगा? उनके भविष्य का क्या होगा? उनकी नौकरी और काम-काज का क्या होगा? कौन उनकी देखभाल के लिए आगे आएगा?” मोहसिना ने कहा, “मेरी मां बूढ़ी है. कल उसके साथ कुछ हो जाए, तो क्या होगा? हमने कम उम्र में ही अपने पिता को खो दिया था और अब मेरे भतीजे उसी दुर्भाग्य को झेल रहे हैं.'' उनके परिवार ने हमें बताया कि उन्हें मोहसिन की पोस्टमार्टम रिपोर्ट अभी तक नहीं मिली है.
मोहसिन के घर से थोड़ी दूरी पर फिरोज नगर की घंटे वाली गली है. यह भी एक मुस्लिम बहुल इलाका है. 20 दिसंबर की दोपहर, 33 वर्षीय मोहम्मद आसिफ, घंटे वाली गली में अपने घर के पास बैठे थे. उनके साथ उनके चचेरे भाई मोहम्मद राशिद और उनके बहनोई मोहम्मद इमरान भी थे. राशिद और मोहम्मद इमरान ने कहा कि उन्होंने अचानक अपने इलाके की तंग गलियों से करीब पचास से साठ पुलिस कर्मियों को घबराए हुए लोगों का पीछा करते हुए देखा. भीड़ में से कई लोग आसिफ की गली में भी पहुंचे. इस समय तक, पुलिस कर्मियों ने भाग रहे लोगों पर अंधाधुंध तरीके से गोली चलाना शुरू कर दिया.
तीनों जान बचाने के लिए वहां से भागे. राशिद और इमरान को तो सुरक्षित ठिकाना मिल गया, लेकिन आसिफ गोली की चपेट में आ गए. पांच मिनट बाद, जैसे ही पुलिस की टुकड़ी आगे बढ़ी, आसिफ के परिजन वापस लौटे, उन्हें उठाया, रिक्शा पर बिठाया और पास के फलाह-ए-आम अस्पताल ले गए. अस्पताल ने उन्हें इस आधार पर भर्ती करने से इनकार कर दिया कि उसके पास ऐसे गंभीर मामालों में देखभाल की बेहतर सुविधाएं नहीं थीं. अगले आधे घंटे में, राशिद और मोहम्मद इमरान ने आसिफ को लाला लाजपत राय मेमोरियल मेडिकल कॉलेज ले जाने की कोशिश की. अस्पताल पहुंचने पर उन्हें मालूम पड़ा कि आसिफ को खून की जरूरत है. राशिद और इमरान रक्तदान करने के लिए फिरोज नगर वापस आ गए. वह आधा रास्ता भी नहीं पहुंचे होंगे कि उन्हें आसिफ की मौत की खबर मिली.
पेशे से मैकेनिक आसिफ के परिवार में पांच लोग हैं, उनकी पत्नी, दस और तीन साल की दो बेटियां और छह साल का एक बेटा. वह परिवार में अकेले कमाने वाले थे. राशिद और मोहम्मद इमरान ने मुझे बताया कि आसिफ की मौत के बारे में अभी बच्चों को सूचित नहीं किया है. "जब आसिफ को अस्पताल से घर लाने के बाद दफनाने के लिए ले जाया जा रहा था, बच्चे गहरी नींद में सो रहे थे," मोहम्मद इमरान ने बताया. “उन्हें लगता है कि उनके पापा काम के लिए बाहर गए हैं. आज तक, हमने उन्हें नहीं बताया. हम उन्हें कैसे बता सकते हैं? हम उन्हें बताते हैं कि उनके पापा काम के लिए दिल्ली गए हैं. हम बच्चों से पूछते हैं कि हमें बताओ कि पापा को क्या बोलना है तुम्हारे लिए लाने को? उनकी तीन साल की बेटी रोती रहती है. कहती है पापा से बात करनी है. हम किससे उसकी बात करवाएं? ”
मीडिया और पुलिस जिस तरह से एक 'बलवाई' के रूप में आसिफ को पेश कर रही थी उससे राशिद और मोहम्मद इमरान बहुत गुस्से में थे. मोहम्मद इमरान ने कहा, "दरअसल, लोगों को यह समझने की जरूरत है कि बलवाई कौन है. एक आदमी जो अपने परिवार का अकेला कमाने वाला है और पांच लोग खाने वाले हों वह बलवाई कैसे हो सकता है? क्या ऐसा आदमी बलवाई हो सकता है?” मोहम्मद इमरान ने यह भी कहा कि पुलिस की कार्रवाई पूर्व-निर्धारित थी. उन्होंने मुझे बताया कि पुलिस ने पहले लोगों के साथ मारपीट की और फिर सीसीटीवी कैमरे तोड़ दिए. उन्होंने कहा कि सीसीटीवी कैमरे तोड़ देने के बाद उन्होंने बंदूकें निकालीं. अन्य मृतकों के परिवारों की तरह, इस परिवार को भी अभी तक पोस्टमार्टम रिपोर्ट नहीं मिली है.
लिसाड़ी गेट थाने से महज एक किलोमीटर की दूरी पर अहमद नगर है, जिसमें अच्छी-खासी मुस्लिम आबादी रहती है. 20 दिसंबर को मारे गए पांच में से दो अहमद नगर में रहते थे. उनमें से एक 20 वर्षीय ई-रिक्शा चालक मोहम्मद आसिफ थे. वह घर के एकमात्र कामकाजी सदस्य थे पांच लोगों के परिवार में उनके पिता ईद उल हसन, उनकी मां और दो छोटे भाई-बहन हैं. पिता हसन फेफड़े के संक्रमण से पीड़ित हैं और अब काम नहीं कर सकते. उस दिन, आसिफ अपना रिक्शा चला रहे थे कि उनके परिवार ने रैली के हिंसक हो जाने के बारे में खबर सुनी. हसन बेहद चिंतित थे, उन्होंने आसिफ को फोन किया. आसिफ ने जवाब दिया कि वह घर आ रहे हैं. एक घंटे बाद भी जब आसिफ नहीं आए तो हसन ने याद किया कि उन्होंने बदहवास होकर अपने बेटे को फोन करना शुरू कर दिया था, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला.
कुछ घंटों बाद, हसन ने एक अफवाह सुनी कि इलाके के दो लड़के मर गए थे. हसन को बताया गया कि लड़कों में से एक के पास दिल्ली का पहचान पत्र था. पहले से ही परेशान हसन अब और घबरा गए. आसिफ कुछ साल पहले दिल्ली के शाहदरा इलाके में रहते थे और उनके पहचान पत्र में दिल्ली का पता था. इस बीच, दो युवकों की तस्वीरें, जिनके शव को पास के अस्पताल में लाया गया था, शेयरइट पर स्थानीय समुदाय के भीतर व्यापक रूप से साझा होने लगी. हसन के पड़ोस में रहने वाले किशोर लड़के ने शेयरइट पर आई इन तस्वीरों में आसिफ की पहचान की और उसी रात लगभग 10 बजे आसिफ के परिवार को इसके बारे में बताया.
पोस्टमार्टम करवाने के बाद शाम को 5.30 बजे परिजनों को शव सौंप दिया गया. शाम 7.30 बजे तक आसिफ को स्थानीय अंसार कब्रिस्तान में दफनाया दिया गया क्योंकि पुलिस ने आसिफ के परिवार को जल्द से जल्द कफन-दफन करने का निर्देश दिया था. इतनी जल्दबाजी में कफन-दफन करना, जनाजे के जुलूस को रोकना और पोस्टमार्टम रिपोर्ट देने में देरी करना, ये सभी पुलिस निर्देशों में एक सामान्य सूत्र था.
अगले दिन, हिंदी राष्ट्रीय समाचार पत्र अमर उजाला के स्थानीय परिशिष्ट- माई सिटी- ने पुलिस के हवाले से एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें कहा गया था कि दिल्ली के झिलमिल कॉलोनी के रहने वाले आसिफ ने दिल्ली से लगभग पच्चीस लोगों को इकट्ठा किया और क्षेत्र में दंगे भड़काने के लिए उन्हें मेरठ लाया. अखबार से कोई भी रिपोर्टर आसिफ के परिवार या हसन से मिला तक नहीं. हसन अनपढ़ हैं. उन्हें उनके पड़ोसियों ने अखबार में छपी इस खबर के बारे में बताया.
अपने आंसुओं को रोकने की कोशिश करते हुए हसन ने कहा, "प्रशासन मेरी मदद करता है या नहीं, मेरा बच्चा न्याय का हकदार है. मेरे बच्चे का आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है. मेरा कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है. मेरे भाइयों का आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है. मेरे घर में किसी का भी आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है.” हसन परेशान थे कि उनके बच्चे को बदनाम किया जा रहा है. उन्होंने कहा कि 25 दंगाइयों की कहानी पुलिस की कार्रवाई से ध्यान हटने के लिए की गई है. “पुलिस कहती है कि उन्होंने एक भी गोली नहीं चलाई है. कल चार लड़के मुझसे मिलने आए, जो इस पूरी घटना के गवाह थे.” हसन ने कहा कि लड़कों ने उन्हें बताया : “पुलिस शहर में एक स्टील के गोदाम की छत पर चढ़ गई थी, जहां से वह गोलियां चला रही थी और तब तक चलाती रही जब तक कि गोलियां खत्म नहीं हो गईं. जब गोलियां खत्म हो गईं तो पुलिस नजर बचा कर वहां से भाग निकली. जब गोलीबारी खत्म हो गई उसके बाद पथराव शुरू हुआ.” हसन से कहा गया है कि उसे आठ दिनों के भीतर अपने बेटे की पोस्टमार्टम रिपोर्ट मिल जाएगी.
आसिफ के घर के ठीक सामने वाली गली में 23 साल के अलीम अंसारी रहते थे. उस रात अहमद नगर में मरने वाले दूसरे व्यक्ति अलीम थे. वह गली नंबर 9 में रहते थे और पास के कोतवाली के एक रेस्तरां में रसोइया थे. अलीम के भाई सलाउद्दीन अंसारी ने हमें बताया कि दोपहर 2 बजे, जब झड़पें हुईं, तो समुदाय के वरिष्ठ सदस्यों ने दुकानें बंद करने के लिए एक संदेश भेजा. इसके बाद, अलीम जिस रेस्तरां में काम करते थे उसे भी बंद कर दिया गया. कुछ स्थानीय लोगों ने सलाहुद्दीन को बताया कि उन्होंने अलीम को दुकान बंद करते और घर के लिए निकलते देखा था. हालांकि, वह कभी घर नहीं पहुंचे. लगभग 4 बजे सलाउद्दीन की एक चाची ने उन्हें फोन किया और कहा कि हो सकता है कि अलीम की मौत हो गई हो, लेकिन इस बात की तस्दीक करने का कोई तरीका नहीं था. सलाउद्दीन अलीम को फोन करने की कोशिश में वापस चले गए लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. इस बीच, पुलिस की बर्बरता की खबर से शहर भर में दहशत फैल गई थी. सलाउद्दीन और एक अन्य रिश्तेदार अलीम या उसके शरीर की खोज करने के बजाये घर पर रहने के लिए मजबूर थे. रात करीब 10.30 बजे अहमद नगर निवासी ने उन्हें शेयरइट पर एक वीडियो दिखाया. वीडियो में अलीम का शव जमीन पर पड़ा था, सिर पर गोली लगने से कनपटी का मांस फट गया था. हालांकि, परिवार के लोग अभी भी अपने घर में रहे क्योंकि उनके भीतर खौफ इस कदर बैठ गया था कि लगा कि अगर वह घर से बाहर निकले तो उन्हें भी गोली मार दी जाएगी.
आधी रात के कुछ बाद, सलाउद्दीन, जो अपंग हैं, अब और सहन नहीं कर सके और अस्पताल जाने के लिए निकल गए. अस्पताल में सलाहुद्दीन और एक रिश्तेदार को शवगृह जाने को कहा गया. मुर्दाघर प्रशासन ने उन्हें अलीम की जगह आसिफ की लाश दिखाई और कहा कि मुर्दाघर में कोई और लाश नहीं है. हालांकि, यह बात झूठ निकली. अगले छह से आठ घंटे तक, अस्पताल प्रशासन और स्थानीय पुलिस ने सलाहुद्दीन की मदद करने से इनकार कर दिया.
सलाहुद्दीन और उनके रिश्तेदार शवगृह से वापस अस्पताल गए और तब उन्हें आपातकालीन वार्ड में जाने के लिए कहा गया. वहां भी किसी ने उनकी कोई मदद नहीं की. सलाउद्दीन अस्पताल के रिसेप्शन पर वापस आ गए और सभी कर्मचारियों और पुलिस कर्मियों से मदद की गुहार करने लगे. आखिरकार, उन्हें बताया गया कि अलीम के शव को अस्पताल लाया गया था, लेकिन लिसाड़ी गेट पुलिस स्टेशन के आगे भेज दिया गया. सलाउद्दीन ने कहा, "उन्होंने हमें बताया कि लिसाड़ी गेट एसएचओ से तय कर लो कि क्या शव को मुजफ्फरनगर या दिल्ली भेजा गया है." उन्होंने कहा, "इसके बाद मैंने अपने घर फोन किया और अपने रिश्तेदारों से कहा कि लिसाड़ी गेट एसएचओ से पूछो कि हमें अपने भाई की लाश नहीं मिल पा रही है, क्या उन्होंने इसे किसी दूसरी जगह तो नहीं भेज दिया है," उन्होंने बताया. उन्होंने मुझे बताया कि पुलिस ने परिवार को स्टेशन से बाहर धकेल दिया और ''वे हमारे ऊपर अपनी लाठियां लहरा रहे थे. क्या कानून ऐसे हमारी मदद करता है? ”
परेशान और घबराए हुए सलाहुद्दीन ने आखिरकार समाजवादी पार्टी के स्थानीय विधायक रफीक अंसारी को फोन किया. विधायक के हस्तक्षेप के बाद, शवगृह ने स्वीकार किया कि उनके पास अलीम का शरीर है. "मेरे भाई का पोस्टमार्टम रात में ही हो गया था और उसके शरीर को लावारिस के रूप में चिह्नित किया गया था लेकिन उन्होंने हमें नहीं बताया," सलाउद्दीन ने मुझे बताया. आखिरकार, 21 दिसंबर को सुबह 8 बजे, सलाउद्दीन को अपने भाई के शरीर की पहचान करने की इजाजत मिली. उन्होंने कहा, "उन्होंने हमें बताया कि वे हमें 5 बजे अलीम की लाश दे देंगे. हमें वहां रोके रहने का क्या मतलब था?" हम वहीं बैठे रहे ... कभी पंचनामा भरते, कभी ये फॉर्म भरते, कभी वो." सलाहुद्दीन को यकीन हो गया कि पुलिस शव को सौंपना नहीं चाहती. “जिस तरह से मेरे भाई को गोली मारी गई थी, उसे देखो. उसके सिर पर निशाना लगा कर गोली मारी गई थी. उसके दिमाग पर गोली मारी गई थी. वे उसे छिपाना चाहते थे,” उन्होंने कहा.
उस दिन शाम 5 बजे तक अलीम का शव परिवार को सौंप दिया गया और उसे भी अंसार कब्रिस्तान में शाम 7.30 बजे तक जल्दबाजी में दफना दिया गया. लेकिन इससे पहले स्थानीय पुलिस ने परिवार से तय करवा लिया था कि अलीम को उस कब्रिस्तान में नहीं दफनाया जाएगा जहां आमतौर पर दफनाया जाता है. अगर परिवार यह व्यवस्था नहीं कर पाता, तो पुलिस ने आश्वासन लिया कि शव घर ले जाते या अंतिम संस्कार के लिए बाहर जाते वक्त उनके इलाके में कोई गड़बड़ी नहीं होगी. एक कोने में जाकर सलाहुद्दीन ने मुझे बताया कि वह पुलिस की शर्तों से सहमत हो गए और यहां तक कि उन्होंने अलीम के अंतिम संस्कार के दौरान क्षेत्र में किसी भी तरह की कोई गड़बड़ी की स्थिति में पूरी जिम्मेदारी लेने वाले दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए. उसके पास दस्तावेज की कोई प्रति नहीं थी.
सलाहुद्दीन की पत्नी भी अपंग हैं और अलीम अपने भाई, भाई की पत्नी और उनके 12, 10 और 7 साल के तीन छोटे बच्चों वाले घर के अकेले सदस्य थे. सलाउद्दीन अब कठिनाई का सामना कर रहे है. व्यावहारिक रूप से अपना परिवार चलाने के लिए उनके पास कोई साधन नहीं है. उन्होंने यह भी कहा कि परिवार को अभी पोस्टमार्टम रिपोर्ट नहीं मिली है.
मैंने जिन स्थानीय लोगों से बात की, उनमें से कइयों के मुताबिक, पुलिस की कार्रवाई से घायल हुए कई नौजवानों और लड़कों ने पुलिस द्वारा बदला लिए जाने, प्रताड़ित किए जाने या जेल भेज दिए जाने के डर से मेडिकल सहायता लेने या मीडिया से बात करने से परहेज किया. 20 दिसंबर की झड़पों के बाद से चल रही स्थानीय पुलिस की शातिर कार्रवाई ने चिकित्सा या कानूनी मदद लेने की उनकी क्षमता पर बहुत हद तक अंकुश लगा दिया है. मेरठ के मुस्लिम बहुल इलाकों जैसे लिसाड़ी गेट, हापुड़ रोड, कोतवाली, सदर बाजार, राशिद नगर और किदवई नगर में पुलिस की छापेमारी, निवारक निरोधों और अवैध बंदियों की बात ने निवासियों को चुप करा दिया है.