23 साल के मिस्त्री आफताब आलम कानपुर (उत्तर प्रदेश) के मुस्लिम बहुल इलाके मुंशी पुरवा में रहते थे. 20 दिसंबर को दोपहर 2 और शाम 4 के दरमियान जब आलम नागरिकता (संशोधन) कानून (2019) के खिलाफ जारी एक प्रदर्शन के करीब से गुजर रहे थे, कानपुर पुलिस ने उन्हें गोली मार दी. जिस वक्त आलम को गोली लगी, वह ईदगाह मैदान में बनी बड़ी मस्जिद से निकले ही थे. वह शुक्रवार की नमाज पढ़ने आए थे और फिर बाबू पुरवा की ओर चल पड़े थे. आलम ग्रेजुएट थे लेकिन पांच साल पहले अपने पिता की मृत्यु के बाद, पढ़ाई के साथ-साथ घरवालों की मदद करने के लिए काम करने लगे थे. नमाज के बाद, आलम पिछले दिन के काम की मजदूरी लेने जा रहे थे. मैदान के बाहर एक गली में पुलिस की गोली आकर उनके सीने में धंस गई. उनके परिवार के अनुसार, शाम को उनकी मौत हो गई.
पापड़ बेचकर गुजर-बसर करने वाले 30 साल के रईस खान मुस्लिम बहुल इलाके बेगम पुरवा में रहा करते थे. यह इलाका बाबू पुरवा से सटा है और मैदान से लगा है. उस दिन वह भी ईदगाह मैदान में थे. मैदान में उस दिन शादी थी और वह शाम को उस शादी में वेटरिंग करने वाले थे. वह शादी के लिए बने एक टेंट के अंदर थे जब उन्होंने पहली बार मैदान के बाहर हंगामा सुना. उस शुक्रवार को सीएए के विरोध में मुस्लिम इलाकों की सभी दुकानें बंद थीं. सुबह से ही ईदगाह के आसपास और हर इलाके के रास्तों पर पुलिस तैनात थी. दोपहर की नमाज के बाद मैदान और उसके आस-पास भीड़ जमा हो गई थी. मैंने जिन स्थानीय लोगों से यहां बात की उनका कहना था कि इलाके में स्थिति शांत थी तो भी पुलिस ने गोली चलाई. इसके बाद भगदड़ मच गई और रईस खान घर की दौड़ने लगे लेकिन मैदान से थोड़ी दूर उनके पेट में गोली लग गई. उनके परिवारवालों ने बताया कि छह लोगों के उनके परिवार में वही एकमात्र कमाने वाले थे. अगले दिन शाम को रईस खान की मौत हो गई.
25 साल के मजदूर मोहम्मद सैफ भी बाबू पुरवा में रहते थे. वह बड़े भाई मोहम्मद जाकी के साथ बेगम पुरवा के एक चमड़े के कारखाने में काम करते थे. उस दिन वहां पुलिस मौजूद तो थी लेकिन बाकी सब आम शुक्रवार की तरह ही था. इन इलाकों में रहने वालों के लिए पुलिस की भारी मौजूदगी कोई नई बात नहीं है. यहां के लोग अपने हर त्योहार को पुलिस के साये में मनाने के आदी हैं. बड़े भाई जाकी के लिए दोपहर का भोजन लेने सैफ घर आए थे और लौटते वक्त नमाज के लिए मस्जिद में रुक गए. वह मस्जिद से इक्के की ओर जा रहे थे और बमुश्किल सड़क पार ही की थी कि उनको गोली लगी. जाकी के अनुसार, उनकी मौत शाम को हुई. गोलियों की चपेट में आए तीनों लोगों को सरकारी लाला लाजपत राय अस्पताल लाया गया. स्थानीय लोग इस अस्पताल को हल्लेट अस्पताल भी कहते. यह अस्पताल इलाके से लगभग सात किलोमीटर दूर है.
एक घंटे के अंदर तीनों परिवार हल्लेट अस्पताल पहुंच गए. तोनों परिवारों ने मुझे बताया कि उनके रिश्तेदारों की मौत बहुत पहले हो चुकी थी लेकिन अस्पताल प्रशासन इस बात को छुपाए रखी. आलम के भाई मोहम्मद सैफ ने बताया कि वह आखरी वक्त में आलम के साथ थे. "डॉक्टरों ने आलम को आईसीयू (गहन चिकित्सा इकाई) में रखा था लेकिन उसके साथ कोई नहीं था. उसका ऑपरेशन भी नहीं किया.” उन्होंने मुझे बताया कि आलम ने 20 दिसंबर की शाम को ही दम तोड़ दिया था और उनका शरीर बिल्कुल ठंडा हो गया था. “उसने सांस छोड़ दी थी. मैंने डॉक्टरों को बताया कि वह मर चुका है लेकिन उन्होंने मुझे बाहर जाकर इंतजार करने को बोला.” डॉक्टरों ने उन्हें बताया कि आलम का इलाज और जांच हो रही है. परिवार को अगले दिन आलम की मौत की सूचना दी गई.
जाकी ने मुझे बताया कि उन्हें अगले दिन स्थानीय अखबारों से अपने भाई की मौत का पता चला. जबकि डॉक्टर बता रहे थे कि उनके भाई का इलाज चल रहा है. कुछ इसी तरह की बात रईस के पिता शैरीफ खान ने भी बताई. "डॉक्टरों ने कुछ नहीं किया. बस रुई लग दी और टेप लागा दिया था लेकिन कोई इलाज नहीं किया.” रईस के भाई सईद खान ने मुझे बताया कि रईस शनिवार शाम को ही ठंडे पड़ गए थे लेकिन डॉक्टरों ने अगले चौबीस घंटों तक इसकी जानकारी नहीं दी.
किसी भी परिवार को मृत को अस्पताल में भर्ती करने, अस्पताल से छुट्टी होने और मृत्यु प्रमाण-पत्र नहीं मिला है. दो हफ्ते बाद भी किसी को पोस्टमार्टम रिपोर्ट या सरकार की ओर से मुआवजा नहीं मिला है. सभी परिवारों का मानना है कि अस्पताल प्रशासन पुलिस के निर्देशों के तहत ऐसा कर रहा है लेकिन अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक सीएस सिंह ने परिवारों के आरोपों को गलत बताया और कहा कि “मानक प्रोटोकॉल का पालन किया गया है.”
20 दिसंबर को पुलिस ने ईदगाह मैदान और उसके आसपास कम से कम 12 लोगों को गोली मारी. तीन लोग मारे गए और आठ अन्य लोगों का हल्लेट अस्पताल में इलाज चल रहा है. स्थानीय लोगों ने मुझे बताया कि एक और आदमी मर गया था लेकिन उसके परिवारवाले पुलिस के डर से शव को घटनास्थल से पैतृक गांव ले गए. वे लोग उस परिवार की पहचान नहीं बताना चाहते थे. 20 दिसंबर को पूरे उत्तर प्रदेश में सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई में कम से कम 16 लोगों की मौत हुई. अगले दिन, राज्य पुलिस प्रमुख ओपी सिंह ने कहा है कि "प्रदर्शनकारियों पर एक भी गोली नहीं चलाई गई" और "प्रदर्शनकारियों की मौत आपसी गोलीबारी में हुई है.” मुझे अपनी रिपोर्टिंग के दौरान, बिजनौर या कानपुर में, पुलिस प्रमुख की बात की सच्चाई का एक भी सबूत नहीं मिला. मृतकों के परिजनों के मुताबिक किसी ने भी हथियार नहीं चलाया था और न किसी विरोध प्रदर्शन में भाग लिया था. उनका कोई आपराधिक रिकॉर्ड भी नहीं था.
कानपुर में इन परिवारों और यहां रहने वालों ने जो बातें बताईं वह बिजनौर, मेरठ और मुजफ्फरनगर पर कारवां की रिपोर्टों के जैसी ही थीं. यहां भी उन तीनों जगहों की तरह का पुलिसिया पैटर्न दोहराया गया था. यहां के लोगों ने मुझे बताया कि पुलिस ने बिना किसी उकसावे के प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी की, लोगों के घरों में घुसकर महिलाओं के साथ मारपीट की और पुरुषों को गिरफ्तार किया. उन्होंने कहा कि पुलिस लगातार "जिन्ना की औलादों" और "पाकिस्तानी कटुए सालों" जैसे मुस्लिमों के लिए अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल कर रही थी. पुलिस ने इलाके के कई किशोरों को भी उठाया. लोगों के मुताबिक, शनिवार की सुबह किशोरों को पुलिस स्टेशनों में बेरहमी से पीटा गया. राज्य के अन्य स्थानों की तरह, कानपुर पुलिस भी सादे कपड़ों वाले लोगों के साथ आई थी. इन लोगों ने स्थानीय लोगों पर हमला किया, उन पर गोली चलाई और इलाके की महिलाओं के साथ मारपीट की. अन्य शहरों की तरह, मुस्लिम दुकानदारों ने मुझे बताया कि बेगम पुरवा में पुलिस और मिलिशिया ने बर्बरता के साथ लूटपाट की और उनकी दुकानें लूट ली.
इलाके के अधिकांश लोग दलित मुसलमान हैं और बुनकरी, कसाई और छोटे घरेलू उद्योगों में दिहाड़ी करते हैं. फायरिंग की जगह यानी ईदगाह तिराहे पर चमड़े के सामान, पंक्चर फिक्सिंग, बुनाई और कपास की रंगाई की छोटी दुकानें हैं. 28 दिसंबर को जब मैं इलाके में रिपोर्टिंग कर रहा था तो मैंने देखा कि घटना के एक हफ्ते बाद भी जगह-जगह दंगारोधी उपकरणों से लैस पुलिस वाले मौजूद हैं. दीवारों पर पोस्टर लेगे थे जिनमें प्रदर्शनकारियों की पासपोर्ट साइज फोटो थीं. इन पोस्टरों में बनी लगभग हर तस्वीर में लोगों को गोल टोपी और गमछे के साथ दिखा गया था. इन लोगों की दाढ़ी-मूंछें थीं. मतलब यह कि सभी प्रदर्शनकारी मुसलमान थे. लोगों ने मुझे बताया कि उनमें कितने ही ऐसे लोग हैं जो कानपुर में रहते ही नहीं हैं और सालों से शहर के बाहर काम कर रहे हैं. उनके मुताबिक, पुलिस स्थानीय मुखबिरों की मदद से धार्मिक प्रोफाइलिंग की कवायद कर रही है.
20 दिसंबर को पुलिस की गोलीबारी के बाद से इलाके के मुसलमानों का सरकार और पुलिस पर से भरोसा उठ गया है. वे लोग अकेला महसूस कर रहे हैं. बूढ़े-बुजुर्गों को सरकार ने सताया है और अन्य राजनीतिक दलों ने इन लोगों का साथ छोड़ दिया है. यहां के युवा भारतीय जनता पार्टी से नाराज हैं लेकिन हिंसा या "बदला लेने" जैसी कोई बात नहीं है. कानपुर के लोक सभा सांसद बीजेपी के हैं और यह लोक सभा क्षेत्र पांच विधानसभा सीटों से बना है : कानपुर छावनी, सीसामऊ, आर्य नगर, गोविंद नगर और किदवई नगर. बाबू पुरवा और इसके आसपास का इलाका कानपुर छावनी विधानसभा क्षेत्र में आते हैं और वर्तमान में इसका प्रतिनिधित्व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कर रही है. बाकी सभी सीटें बीजेपी और समाजवादी पार्टी में बराबरी से बटी हैं. कानपुर छावनी में 61 प्रतिशत हिंदू और 36 प्रतिशत मुस्लिम हैं.
लोगों का इकबाल इस कदर कम हो चुका है कि मृतकों के परिजन अपने रिश्तेदारों की हत्या की शिकायत दर्ज कराने तक नहीं गए. घटना की जांच जिस टीम को सौंपी गई है उसमें वही पुलिस अधिकारी हैं जो उस घटना में शामिल थे. इस बात ने लोगों के भीतर रहा-सहा भरोसा भी उठा लिया है. समुदाय ने मदद के लिए सरकार की ओर देखना बंद कर दिया है और आस-पड़ोस के लोग भोजन, ईंधन, पैसा, दवा, पानी आपस में साझा कर रहे हैं.
आफताब आलम की मां नजमा बानो ने बताया कि सरकार या पुलिस का कोई भी अधिकारी उनसे मिलने या उनका बयान लेने नहीं आया. उन्हें सरकार से कोई उम्मीद नहीं थी और उन्हें बेटे की हत्या के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराने में भी बहुत डर लग रहा था. उन्होंने मुझे बताया कि आलम ने बाबू पुरवा के सक्सेस स्कूल में पढ़ाई की थी और शहर के मुस्लिम इंटर कॉलेज से कला में स्नातक की डिग्री हासिल की थी. वह सक्सेस स्कूल के बगल में एक निर्माण स्थल पर मजदूरी करता था. वह स्कूल ईदगाह मैदान के पास है और 20 दिसंबर को आलम ने सोचा था कि अगर वह नमाज अता करने जा ही रहा है रास्ते में अपने पैसे भी मांग कर और दोपहर के भोजन के लिए परिवार के पास वापस आ जाएगा. नजमा ने अपने बेटे को अस्पताल में खून से लथपथ देखा. वह बेटे से पूछने लगी, "बेटा, किसने मारिस है तुमको?" नजमा ने बताया कि आलम ने उनसे कहा, ''अम्मी, पुलिस वाले मारिन हैं. अब अनसे हमरी कौन सी दुशमनी है? गोली चला रहे हैं. आलम की मौत के बाद, नजमा बानो ने बताया कि वह अपने छोटे बेटे के लिए चिंतित है. उनको लगता है कि जब तक वह पुलिस से दूर रहेंगी, तब तक सुरक्षित रहेंगी.
पुलिस ने जो किया उससे रईस के पिता मोहम्मद शरीफ सकते में हैं. 65 साल के पिता बेटे के बारे में बताते-बताते बड़बड़ाने लगते थे. “पुलिस ने गोली मार दी.... हमरा बच्चा पापड़ बेचता था.” उनको होश में लाने के लिए उन्हें कोई हाथ से पकड़कर हिला देता. शरीफ को अस्थमा है और रईस उनकी दवा-दारू करते थे. साथ ही वह उस एक कमरे के मकान का किराया भी देते थे.
रईस का छोटा भाई सईद दिहाड़ी करता है. उसने बताया कि उसे हर दिन काम नहीं मिलता इसलिए रईस ही परिवार की देखभाल करते थे. सईद ने मुझे बताया कि रईस 700 रुपए के पापड़ बाजार से लाते थे और दिनभर बेच कर जो कमाई होती थी उसका एक हिस्सा लेनदारों को चुका कर बाकी परिवार को दे देते थे. उस दिन की तरह जब भी मैदान में कोई शादी का कार्यक्रम होता, रईस वेटर का काम पकड़ लेते. उससे लगभग उतनी कमाई हो जाती जितनी दिनभर पापड़ बेचने से होती थी. जब मैंने पिता शरीफ से पूछा कि क्या वे प्रशासन के पास जाएंगे, तो उन्होंने कहा, "पुलिस ने ही गोली मारी तो इंसाफ किससे मांगे. हमारे दरवाजे भी कोई नहीं आया अब तक.”
मोहम्मद सैफ के बड़े भाई मोहम्मद जाकी ने भी बताया कि सैफ ने उन्हें अस्पताल में बताया कि पुलिस ने उन्हें गोली मारी है. जाकी ने पुलिस के समक्ष अपना बयान दर्ज नहीं कराया क्योंकि उन्हें डर है कि पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर लेगी या उनके परिवार को परेशान करेगी. जाकी ने मुझे बताया कि उन्हें सरकार से किसी तरह की मदद की उम्मीद नहीं है क्योंकि उनका मानना है कि सरकार उनके भाई की मौत के लिए खुद जिम्मेदार है.
केवल मृतकों के परिवार ही नहीं बल्कि यहां हर स्थानीय व्यक्ति महसूस करता है कि सरकार जानबूझकर मुसलमानों को निशाना बना रही है और विरोध तो बस एक बहाना है उन पर जुल्म करने का. मैं बेगम पुरवा के एक चाय स्टॉल पर आधा दर्जन बुजुर्गों से मिला. शकील अब्बा, जो बाबू पुरवा में एक सामाजिक संगठन चलाते हैं और समुदाय के लोकप्रिय व्यक्ति हैं, ने मुझे मुख्यमंत्री अजय सिंह बिष्ट का बयान दिखाया जिसमें उन्होंने कहा कि राज्य सरकार प्रदर्शनकारियों की संपत्ति जब्त कर उनसे "बदला" लेगी. अब्बा ने कहा, "किस चीज का बदला ले रहे हैं, बताइए?" बीजेपी की हर हां में हां तो मिला रहे हैं मुसलामान. उन्होंने कहा गोश्त खाना छोड़ दो, हमने कहा चलो नहीं खाएंगे भैंसा.”
अब्बा ने कुछ देर सोचा और फिर कहा, “मुसल्मानों ने कहा हम सुप्रीम कोर्ट का फैसला मानेंगे. उन्होंने फैसला गलत दिया मगर मुसलमनों ने कुछ नहीं बोला. तो फिर किस बात का बदला ले रहे हैं हमसे?”
दूसरे इलाके में 5-6 लड़कों से मिला. उन लोगों ने मुझे उस दिन के वीडियो दिखाए जिनमें पुलिस प्रदर्शनकारियों पर सीधे निशाना लगा रही है. इस सभी ने बताया कि प्रदर्शनकारियों की ओर से कोई फायरिंग नहीं हुई. मैंने वीडियो का टाइम नोट किया और गोलीबाजी की जगह भी देखी. वहां मौजूद निशान वीडियो की सच्चाई बयां कर रहे थे. एक नौजवान ने नाम न छापने पर जोर देते हुए कहा कि उसका सरकार और पुलिस पर भरोसा नहीं रहा. उसने कहा, “आप देखिए, हर दिन कुछ न कुछ आ जाता है. उस घटना के बाद भी कानपुर से वीडियो वाइरल हुए हैं जिनमें दुकानों और लोगों की गाड़ियां तोड़ रहे हैं.”
मोहम्मद अनीस, जिनकी दुकान में गोलियों के निशान लगे हैं, ने कहा कि सरकार मुसलमानों को आर्थिक रूप से कमजोर करना चाहती है और वह यह व्यवस्थित तरीके से कर रही है. उनका कहना था, “पुलिसवाले गलियों में घुस-घुस कर लड़कों की गाड़ियां चैक कर रहे हैं, उनका चालान बना रहे हैं. और तो और जब्त भी कर रहे हैं. और यह सिर्फ मुस्लिम मोहल्लों में हो रहा है.”
अजीतगंज की मस्जिद मोहम्मदिया के इमाम अंसर अहमद ने मुझे बताया कि पुलिस को एक हजार से भी कम लोगों की जमात में गोलियां चलाने का कोई हक नहीं हैं, वह भी उन लोगों पर जो नमाज अता करने के मकसद से जमा हुए थे. “हमने तो उसके पिछले जुमे को कॉल दी थी, 13 तारीख को, जो कॉल जमाते उलेमा-ए-हिंद का था पूरे मुल्क में. उसमें हमने मेमोरेंडम दिया था और वो शांतिपूर्ण खत्म हो गया था. मगर 20 को तो ऐसी कोई कॉल भी नहीं थी, लोग बस नमाज पढ़के निकले थे. उन पर गोलियां चलाने की जरूरत नहीं थी.” अहमत ने बताया कि उस दिन कानपुर के यातिम खान जैसे अन्य इलाकों में बड़े प्रदर्शन हुए लेकिन वहां कुछ नहीं हुआ. उन्होंने भी समुदाय का सरकार और पुलिस से भरोसा उठ जाने की बात दोहराई.
बाबू पुरवा में मेरी मुलाकात 17 साल के उस लड़के से हुई जिसे 20 दिसंबर को पुलिस ने बड़ी मस्जिद से उठा लिया था और बेरहमी से पीटा था और बाद में लॉकर में भी उसके साथ मार-पिटाई हुई. उस लड़के और उस दो अन्य नाबालिग दोस्तों को बर्रा मस्जिद में रातभर बंद रखा गया. जब मैं उसे देखने घर गया तो वह पलंग पर लेटा हुआ था और मदद के बगैर उससे बैठा भी नहीं जा रहा था. उसके पैरों में सूजन थी और और पीठ पर मार के जख्म थे. उसका जबड़ा हिला हुआ था और वह बड़ी मुश्किल से फुसफुसा कर बात कर पा रहा था. उसने बताया कि वह मस्जिद में नमाज पढ़ने गया था और वजु कर था जब उसने पुलिस को अपनी ओर आते देखा. उसने बताया कि उसने दरवाजा बंद कर लिया लेकिन पुलिस ने उससे और उसके दोस्तों को कहा कि मस्जिद से भाग जाएं. जैसे ही वह मस्जिद से निकला, पुलिस ने उसे पकड़ लिया और बुरी तरह से पीटा. उसने बताया, “बहुत मारा. हर जगह मारा. तीन-चार लोग थे, सब एकसाथ मार रहे थे. मैं खड़ा भी नहीं हो पा रहा था. फिर थाने ले गए, वहां भी मारा, रात भर हवालात में बंद रखे.”
उसने बताया कि थाने में पुलिसवालों ने उससे “जय श्रीराम” के नारे लगवाए. उसने कहा, “जय श्रीराम के नारे लगवाए. बोले बोलो तो हमने बोल दिया था. क्योंकि जैसे हमारा अल्लाह वैसे वो भी भगवान हैं. हमने लगा दिया. नारे लगवा रहे थे, मारे जा रहे थे.” उसकी मां ने बताया कि जब वह अपने बेटे को देखने पुलिस स्टेशन गई, तो पुलिसवाले ने उन्हें गालियां दीं और कहा, “तुमलोग 50-50 बच्चे पैदा करती हो, पत्थर फेंकने के लिए. आओ तुम्हारी गर्मी निकालते हैं.” लड़के को दूसरे दिन आधार कार्ड दिखाने के बाद छोड़ा गया क्योंकि उससे पता चल रहा था कि वह नाबालिग है.
बेगम पुरवा में मैं तीन और परिवारों से मिला जिनके 17 से 20 साल के बेटों को पुलिस ने घर से उठाया था. मजदूरी करने वाले अबिल हुसैन ने मुझे बताया कि उनके 20 साल के बेटे मोहम्मद आदिल को उनके घर से गिरफ्तार किया था. उन्होंने बताया, “यहीं घर पे था, दरवाजा तोड़ के ले गए. इतना मारा, इतना मारा, उसके हाथ-पैर सब बेकार.” हुसैन ने बताया कि पिटाई के कारण आदिल के सिर पर चोट आई है. आदिल ने अपनी 10वीं की परीक्षा पिछले साल पास की थी और अभी पढ़ रहा था. आदिल अभी भी जेल में है क्योंकि पुलिस ने उसे न्यायिक हिरासत में भेज दिया है लेकिन हुसैन को नहीं बताया गया है कि आदिल पर कौन सी धाराएं लगाई गईं हैं.
19 साल के मोहम्मद मुश्ताक को भी इसी तरह गिरफ्तार किया गया था. उसके चाचा मोहम्मद अबैद ने मुझे बताया कि उनके भतीजी की शादी पिछली रात हुई थी और परिवार उस दिन आराम कर रहा था जब पुलिस उनके घर में घुस आई और मुश्ताक को गिरफ्तार कर लिया. अबैद को नहीं पता कि पुलिस ने उनके भतीजे को किस आरोप में गिरफ्तार किया है क्योंकि पुलिस ने उनको इसकी जानकारी नहीं दी है और न ही एफआईआर सौंपी है. मैंने एक अन्य नाबालिग के भाई से भी मुलाकात की जिसे घर से गिरफ्तार किया गया था और बाद में छोड़ा गया. भाई ने बताया कि उसके नाबालिग भाई को इतने बुरे तरीके से पीटा गया कि उसे लगभग एक हफ्ते तक अस्पताल में भर्ती करना पड़ा. ईमाम अंसर अहमद के मुताबिक 20 दिसंबर को कुल 39 लोगों को पकड़ा गया था जिनमें से 35 लोगों को दूसरे दिन रिहा कर दिया गया और अन्य चार को विभिन्न धाराओं में हिरासत में रखा गया है.
स्थानीय लोगों ने बताया कि पुलिस ने महिलाओं तक को नहीं बख्शा. पुलिसवालों ने औरतों को गालियां दीं और शारीरिक अभद्रता की. हालांकि औरतें अपने साथ हुई बसलूखी के खिलाफ कुछ बोलना नहीं चाहतीं. उन्हें इस बात का डर है कि अगर वह कुछ बोलेंगी तो पुलिस उनसे बदला लेगी या उनके परिवारवालों को जो अभी बंद हैं उनको सजा देगी. इन लोगों ने भी कहा कि पुलिस के साथ सादे कपड़ों में ऐसे लोग भी थे जिनको उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था.
उन सभी प्रत्यक्षदर्शियों और स्थानीय लोगों ने जिनसे मैंने बातें की ने बताया कि 20 दिसंबर को “नीली जींस और जैकिट” में बाहरी लोग पुलिस के साथ आए थे. स्थानीय लोगों ने बताया कि उनमें से कोई भी आदमी स्थानीय नहीं था और उन्हें इलाके में पहले नहीं देखा गया था. पुलिस ने जहां कहीं भी दमनात्मक कार्रवाई की है वहां ऐसे मिलीशिया समूहों की रिपोर्टें मिली हैं. मिसाल के लिए बिजनौर के पुलिस एसपी ने माना था कि सादे कपड़ों में लोग उसके साथ थे और उनकी भर्ती “पुलिस मित्र” नीति के तहत हुई है.
हालांकि कानपुर प्रशासन ने फिलहाल इसे आधिकारिक तौर पर स्वीकार नहीं किया है. शकील अब्बा ने बताया कि पुलिस मित्र स्थानीय लोग होते हैं जिन्हें समुदाय और स्थानीय लोग पहचानते हैं लेकिन पसंद नहीं करते. लेकिन उस दिन “वो सिर्फ पुलिस मित्र नहीं थे. वो तो क्षेत्रीय ही होते हैं. उनको तो हम लोग पहचानते हैं. उनके अलावा उस दिन कई लोग थे जो लोकल नहीं थे. वो कौन थे हम नहीं जानते, मगर वो पुलिस मित्र नहीं थे.” स्थानीय लोगों का कहना है कि पुलिस मित्र के अलावा, वहां बजरंग दल और हिंदू युवा वाहिनी लोग थे.
बेगम पुरवा में मैंने कई ऐसे दुकानदारों से भी मुलाकात की जिनकी संपत्ति से पुलिस ने 20 दिसंबर को तोड़-फोड़ की थी. किसी दुकानदार ने तोड़-फोड़ की शिकायत दर्ज नहीं कराई हैं क्योंकि उनको डर है कि सरकार उनसे बदला लेगी. संपत्ति कुर्क हो जाने का डर सभी को था. मैंने दो मिठाई की दुकानें, एक बिजली की दुकान, एक चाय का ठेला और छोटे होटलों को देखा जिन्हें पुलिस ने तोड़ा था. मठीई की दुकान चलाने वाले शकील अहमद ने मुझे बताया कि पुलिस ने “एक बड़े पत्थर से काउंटर का शीशा तोड़ दिया”. उन्होंने कहा कि उनकी दुकान बंद थी लेकिन पुलिस ने जब प्रदर्शनकारियों को चारो ओर से घेरना शुरू किया और घरों में घुसने लगी उसी वक्त उनकी दुकान भी तोड़ी. अन्य दुकानदारों ने भी मुझे टूटी हुई दुकानें दिखाईं. मैंने शहर के वरिष्ठ पुलिस महानिरीक्षक अनंत देव के कई बार संपर्क करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने जवाब नहीं दिया.
शाम को मैं यतीम खाना भी गया जो परादे चौराहे के समीप है. यह कानपूर के सबसे बड़े मुस्लिम इलाकों में से एक है. 20 दिसंबर को यहां भी प्रदर्शन हुआ था. इधर ईद मैदान से बड़ा प्रदर्शन हुआ था लेकिन कोई फायरिंग नहीं हुई. यहां रहने वालों ने बताया कि भीड़ अनुशासित थी. उसके हाथों में तिरंगा था और कोई धार्मिक नारा नहीं लगा रहा था. यतीम खाना के लोगों ने बताया कि पुलिस उन्हें तब तक परेशान नहीं करती जब तक यहां के मुसलमान इलाके की हद में रहते हैं. इलाके की “हद” गैर-मुसलमानों की दुकानों के साथ खत्म हो जाती है. उन लोगों को नहीं पता कि बाबू पुरवा को पुलिस ने निशाना क्यों बनाया. हालांकि 21 दिसंबर को पुलिस ने यतीम खाना को भी नहीं बख्शा. यहां किसी को गोली तो नहीं मारी गई लेकिन इतनी पुलिस थी कि लग रहा कि जंग होने को है. स्थानीय लोगों ने बताया कि पुलिस ने लोगों की कारें, मोटरसाइकलें, दरवाजे और जो कुछ भी उनके हाथ आया तोड़ डाला.
यतीम खाना में रहने वाले मोहसिन नवाज ने मुझे बताया, “यह प्रदर्शन सिर्फ नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ नहीं था. लगता है कि लोग लंबे वक्त से खुद को अभिव्यक्त करना चाह रहे थे.” नवाज ने बताया कि बीजेपी सरकार में नेताओं की मिलीभगत में व्यवस्थित रूप से मुसलमानों को लिंच किया गया. “इसके बाद उन लोगों ने लव जिहाद के नाम पर हमलोगों की जलील किया. फिर बाबरी मस्जिद का फैसला आया और फिर 370.” नवाज ने बताया कि समुदाय खामोश रहा क्योंकि उनको बहुसंख्यक हिंदुओं को साबित करना था कि उनका आंदोलन धार्मिक नहीं है. “हमने अपने जज्बात मार दिए, मगर ऐसे मुद्दों पर नहीं उठे जहां लगा कि बात मजहब की हो जाएगी.” नवाज ने आगे कहा, “फाइनली सीएए हुआ और अब हम कह सकते थे कि ये लड़ाई धर्म की नहीं है, संविधान की है. अब किसी की नजर में ये न हो कि हम धर्म के लिए उठ रहे हैं.”