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सीबीआई प्रमुख आलोक वर्मा और उनके डिप्टी राकेश अस्थाना को रातोरात हटाए जाने और इस संस्थान के राजनीतिकरण के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है. इस तख्तापलट पर जारी कानूनी उठापटक में चौंका देने वाले खुलासे हुए हैं. अभी हाल में सीबीआई के डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल मनीष सिन्हा ने खुलासा किया था कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल सहित अन्य लोगों ने अस्थाना के खिलाफ जांच में दखल दिया था. सीबीआई के अक्सर राजनीतिक प्रभाव में आकर काम करने की बात को स्वीकारते हुए 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे पिंजरे का तोता कहा था. लेकिन फिलहाल जो चल रहा है, वैसा विवाद सार्वजनिक रूप में शायद ही अब से पहले देखने को मिला है. मीडिया में प्रकाशित सीबीआई के निदेशक की जासूसी करने वाले चार अधिकारियों को गिरफ्तार करते सुरक्षाकर्मियों की फोटो, संस्थान में आई अभूतपूर्व गिरावट को दर्शाता है.
इस विवाद के केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के पिछले कामों का साया है- दागदार छवि वाले उनके चहते अधिकारी, नौकरशाह और कानूनी अधिकारियों को दिल्ली के बड़े ओहदो पर रखा गया है. मोदी और अस्थाना का रिश्ता उस वक्त से है जब अस्थाना ने 2002 में गोधरा रेलवे स्टेशन में जलाई गई रेल की छानबीन की थी. उस हादसे में मारे गए 59 लोगों में ज्यादातर कारसेवक थे. अस्थाना ने पड़ताल के नतीजे में कहा था कि रेल को मुस्लिम भीड़ ने सुनियोजित षडयंत्र के तहत जलाया था. परिणामस्वरूप मार्च 2011 में आए एक फैसले में 31 लोगों को दोषी करार दिया गया. हालांकि कई मीडिया रिपोर्टों में इस आधिकारिक दावे पर प्रश्न चिन्ह लगाए गए हैं और रेल के जलने को दुर्घटना बताया गया है.
मोदी के करियर में ऐसे बहुत से राज़ हैं जो उनके विश्वस्त सहयोगियों की मदद से दफन कर दिए गए. राजनीतिक दखल का यह संकट अब व्यापक बन गया है. यह संकट, सीबीआई, गुप्तचर विभाग और सॉलिसिटर जनरल सहित अन्य संवैधानिक पदों में नियुक्तियों के जरिए कानून और न्यायिक संस्थाओं में फैल चुका है. खबरों के मुताबिक वर्मा को पद से हटाए जाने की वजह फ्रांस सरकार के साथ 36 राफेल विमानों की खरीद वाले विवादास्पद करार की पड़ताल करने की उनकी इच्छा को बताया जा रहा है. ऊंचे ओहदो में नियुक्त बहुत से लोग ने मोदी और अमित शाह के विवादास्पद इतिहास को छिपाने का काम किया है और इस लिहाज से ताज़ा विवाद के मद्देनजर इन नियुक्तियों पर सवाल उठाया जाना चाहिए.
2013 में, आम चुनावों के एक साल पहले, मोदी और शाह, गुजरात के आला पुलिस अधिकारी, नौकरशाहों, विधि अधिकारी और सरकार के मंत्रियों के साथ विवादों में फंसे हुए थे. एक चौंकाने वाले स्टिंग ऑपरेशन में गुजरात सरकार के वरिष्ठ अधिकारी और आला पुलिस अधिकारी - इशरत जहां, जावेद शेख, अमजद अली राणा और ज़ीशान जोहर - की कथित फर्जी मुठभेड़ के बारे में सीबीआई की पड़ताल को भटकाने की कोशिशों के बारे में चर्चा करते पाए गए थे. उस मीटिंग का मकसद, सीबीआई जांच को प्रभावित करना, अदालत को धोखे में रखना और आरोपी पुलिस अधिकारियों और मंत्रियों को कानून के शिकंजे से बचाना था.
15 जून 2004 को अहमदाबाद के बाहरी भाग में गुजरात पुलिस की अपराध शाखा के अफसरों ने इन चार लोगों की, यह कह कर हत्या कर दी थी कि ये लोग लश्कर-ए- तैयबा के सदस्य थे और तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या की साजिश रच रहे थे. सितंबर 2009 में अहमदाबाद मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट एसपी तमांग, ने इस घटना को “फर्जी मुठभेड़” करार दिया था. दो साल बाद मुठभेड़ की जांच कर रही विशेष जांच टीम ने भी इस मुठभेड़ को “फर्जी” करार दिया था, जिसके बाद गुजरात उच्च न्यायालय ने दिसंबर 2011 को यह मामला सीबीआई के सुपुर्द कर दिया था.
सीबीआई को मामला सौंपने के एक महिना पहले, उस वक्त अहमदाबाद एंटी टेररिज्म स्क्वाड के प्रमुख, जीएल सिंघल ने एक स्टिंग किया था जिसमें मोदी के शीर्ष अधिकारी, मामले की आंच मुख्यमंत्री कार्यालय तक पहुंचने न देने के लिए इसे उलझाने की योजना बनाते रिकॉर्ड किए गए थे. अधिकारियों द्वारा मंत्रियों के साथ होने वाली अपनी बातचीत को रिकॉर्ड करना और एक दूसरे की जासूसी करना आम बात है. चूंकि गजरात सरकार मनमाफिक तरीके से अधिकारियों को इस्तेमाल करने और हटाने के लिए बदनाम थी, इसलिए अधिकारी अक्सर किसी जांच से खुद को बचाने के लिए ऐसी रिकॉर्डिंग किया करते थे.
अगस्त 2013 में इन स्टिंग रिकॉर्डिंगों की कॉपी मेरे हाथ लग गई और मैंने तहलका में पूरी ट्रांस्क्रिप्ट के साथ रिपोर्ट प्रकाशित की. वरिष्ठ अधिकारी और आला पुलिस अफसर इसमें शामिल थे - राज्य के गृह राज्य मंत्री प्रफुल पटेल, राज्य के महाधिवक्ता कमल त्रिवेदी, मोदी के विश्वसनीय माने जाने वरिष्ठ आईएएस अधिकारी जी सी मुर्मू, तत्कालीन कानून राज्य मंत्री प्रदीप सिंह जडेजा, अहमदाबाद के तत्कालीन संयुक्त पुलिस आयुक्त एके शर्मा, तत्कालीन अतिरिक्त महाधिवक्ता तुषार मेहता और अन्य. इनमें से अधिकांश लोगों का करियर हाल के दिनों में चमक गया है.
उन ऑडियो टेपों में महाधिवक्ता त्रिवेदी कहते हैं कि उन्होंने इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ मामले की जांच कर रही विशेष जांच टीम के एक अधिकारी को, जी सी मुर्मू की उपस्थिति में अपने केबिन में बुला कर जांच टीम से अलग हो जाने को कहा है. यहां जिस अधिकारी की बात हो रही थी, वह गुजरात काडर के मोहन झा हैं. त्रिवेदी आगे कहते हैं कि गुजरात सरकार आरोपियों की मदद करने की इच्छुक है, और वो मोदी और शाह, जो इस मामलें पर करीब से नजर रखे हुए हैं, के संपर्क में हैं. इस बातचीत के दौरान, ऐसा लगता है, मुर्मू और त्रिवेदी मोदी को कॉल करते हैं जो उस समय दिल्ली जा रहे थे.
तहलका में रिपोर्ट प्रकाशित होने के एक महीने के भीतर, सीबीई के पुलिस निरीक्षक संदीप तामगड़े के नेतृत्व में फर्जी मुठभेड़ की जांच कर रही सीबीआई टीम ने मुर्मू, शर्मा, त्रिवेदी और मेहता से पूछताछ की. छह महीने बाद सीबीआई के वरिष्ठ पदों में बदली की गई. जो अधिकारी इस मामले की जांच और निगरानी कर रहे थे उनके खिलाफ जांच आरंभ हो गई, स्थानांतरण कर दिया गया या रिटायर हो गए. यही वो वक्त है जब स्टिंग में सुनाई दे रहे अधिकारियों को, जो छानबीन को भटकाने और प्रोफेशनल मिसकंडक्ट (पेशे के वितरीत काम) में शामिल थे, केन्द्र की मोदी सरकार ने व्यवस्थित तरीके से अलग अलग पदों में नियुक्त किया.
ताजा मामला तुषार मेहता का है. रिकॉर्डिंग के अनुसार मेहता ने नवंबर 2011 वाली मीटिंग कराई थी. इस साल 10 अक्टूबर को मेहता को भारतीय सॉलिसिटर जनरल बना दिया गया है. ऐसा नहीं है कि मेहता विवादों से बचे हुए हैं. अक्टूबर 2015 को सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका में ऐसे ढेरों ईमेलों को नत्थी किया गया है, जिनमें 2002 के गुजरात दंगों के मामले में मेहता और आरएसएस के विचारक एस गुरुमर्ति के बीच बातचीत है. दंगों के मामले को गुजरात से बाहर हस्तांतरित करने की मांग करने वाली याचिका को अदालत ने खारिज कर दिया.
सरकार के प्रमुख विधि सलाहकार के रूप में मेहता की नियुक्ति से पहले अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल पीएस नरसिम्हा और मनिंदर सिंह, और पूर्व सॉलिसिटर जनरल रंजीत कुमार सहित कई कानूनी अधिकारियों ने इस्तीफा दिया. सरकार के भीतर ही अलोकप्रिय रहे मेहता की नियुक्ति अमित शाह की स्वीकृति से जबरदस्ती की गई. पहचान न बताने की शर्त पर कई वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने बताया कि मेहता की नियुक्ति के खिलाफ अरुण जेटली के करीबी माने जाने वाले अतिरिक्त सॉलिसीटर जनरल की खुली बगावत को आखिरी वक्त में दबा दिया गया. लेकिन पिछले एक साल में हुए इस्तीफों की संख्या बहुत कुछ बताती है.
अप्रैल 2015 में मुर्मू को दिल्ली बुलाकर व्यय विभाग का अतिरिक्त सचिव बना दिया गया. मुर्मू 2014 तक गुजरात में मोदी के मुख्य सचिव रहे थे. उनकी नियुक्ति को प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली नियुक्तियों के लिए मंत्रीमंडलीय समिति ने मंजूरी दी थी. 2017 में मुर्मू को राजस्व विभाग में विशेष सचिव नियुक्ति कर दिया गया. जिस महीने मुर्मू को राजस्व विभाग में विशेष सचिव बनाया गया उसी महीने स्टिंग ऑपरेशन में पकड़े गए एक अन्य अधिकारी, एके शर्मा को, जो अहमदाबाद में सिटी अपराध शाखा में विशेष पुलिस आयुक्त थे, दिल्ली लाकर सीबीआई का विशेष निदेशक बना दिया गया. ये नियुक्ति इस बात के बावजूद की गई कि इशरत जहां मामले में चार फर्जी मुठभेड़ों पर सीबीआई जांच और सुनवाई कर रही थी. सीबीआई की जांच अभी भी जारी है.
एक वरिष्ठ अधिवक्ता ने मुझे बताया कि 2017 में अमित शाह के करीबी माने जाने वाले और स्टिंग ऑपरेशन में सबसे संदिग्ध भूमिका वाले कमल त्रिवेदी को अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल बनाया जाना था, लेकिन तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपनी पसंद के आदमी के पक्ष में दखल कर इस नियुक्ति को रोक दिया. त्रिवेदी अभी भी गुजरात के महाधिवक्ता हैं.
एक हैरान करने वाली बात यह है कि नागालैंड काडर के अधिकारी संदीप तामगड़े को जिन्होंने स्टिंग ऑपरेशन में पकड़े गए अधिकारियों और मंत्रियों से पूछताछ की थी, फर्जी मुठभेड़ मामले से हटा दिया गया, और उन्हें अपने काडर में वापस भेज दिया गया है. तामगड़े ने ही गैंगस्टर सोहराबुद्दीन शेख के साथी, तुलसी प्रजापति की मौत की जांच में अमित शाह को मुख्य आरोपी और किंगपिन बताया था. सोहराबुद्दीन और तुलसी की हत्या गुजरात पुलिस की फर्जी मुठभेड़ में की गई थी. दोनों मामलों में तामगड़े ने पूरक चार्जशीटें भी दायर की थी, जिनमें दोनों मृत्कों की अपहरण, हत्या और फिरौती में अमित शाह की भूमिका को विस्तार से बताया गया था. अपने काडर में भेज दिए जाने के बाद सीबीआई ने तामगड़े के खिलाफ ढेरों जांच बिठा दी और उनकी वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट (एसीआर) में बेहद कम अंक दिए - जिससे भविष्य में प्रमोशनों के अवसरों से उन्हें प्रभावशाली रूप में वंचित कर दिया गया.
जीएल सिंघल का स्टिंग ऑपरेशन आज मोदी सरकार और सीबीआई में रसूखदार पदों पर बैठे बहुत से अधिकारियों के भविष्य को तय कर सकता था, लेकिन जांच टीम के अधिकारी के अनुसार फरवरी 2014 में दाखिल इशरत जहां मामले की दूसरी चार्जशीट में इस ऑडियो को सबूत के रूप में शामिल नहीं किया गया. वरिष्ठ सीबीआई अधिकारी के अनुसार जिस तरह से दूसरी चार्जशीट दाखिल की गई और उसमें मुख्य नामों को शामिल न करने से कुछ समय के लिए सीबीआई के विशेष निदेशक अनिल सिन्हा और निदेशक रंजीत सिन्हा के बीच टकराव की स्थिति बन गई थी. 2014 में अनिल सिन्हा सीबीआई के निदेशक बन गए.
बहुत सी नियुक्तियों ने सीबीआई की विश्वसनीयता को खत्म कर दिया है. लेकिन मोदी और शाह के लिए इन नियुक्तियों ने उनकी राजनीतिक यात्रा के दौरान उन पर लगे बहुत से दागों को धो दिया है. सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले में दायर आरोपपत्र में अमित शाह को हत्या, हत्या का षडयंत्र रचने, फिरौती और आपराधिक धमकी के आरोपी के रूप में पहचाना गया था. दिसंबर 2014 में अमित शाह को बरी कर दिया गया. इस साल अक्टूबर के आरंभ में, बॉम्बे हाई कोर्ट में दायर जनहित याचिका की सुनवाई में सीबीआई ने अमित शाह को बरी किए जाने के फैसले को चुनौती न देने का बचाव यह कह कर किया कि यह “सचेत” और “तार्किक” निर्णय है. इस महीने अदालत ने यह जनहित याचिका खारिज कर दी. इस बीच इशरत जहां मामले में जांच एजेंसियां आरोपी अधिकारियों पर मामला चलाने की अनुमति का इंतजार कर रही हैं, जो अहमदाबाद की विशेष सीबीआई अदालत में लंबित है.
जब हम आलोक वर्मा मामले को सीबीआई-बनाम-सीबीआई की तरह पेश करते हैं, तो हम भी निजी हितों के लिए सीबीआई की छवि खराब करने वालों के एजेंडे को ही पुख्ता करने लगते हैं. सीबीआई के आज के संकट का कारण अपने हितों के लिए पीएमओ द्वारा इसका निरंतर राजनीतिकरण करना है. कांग्रेस और बीजेपी दोनों ने ही पूर्व में सीबीआई का इस्तेमाल किया है लेकिन आज की तरह के हालात पहले कभी नहीं रहे. जब वर्तमान सरकार ने संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन करते हुए ऐसे लोगों की नियुक्ति की जिन्होंने राष्ट्रीय भूमिका में रहते हुए अपने पहले के पदों को बदनाम किया था तो ऐसे में न्याय और सत्यनिष्ठा के पदों का देर सवेर दागदार हो जाना लाजमी ही है.
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