“हमारा लोकतंत्र एक ढोंग है”, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के संस्थापक जगदीप छोकर से बातचीत

शैलेश रावल/इंडिया टुडे ग्रुप/गैटी इमेजिस

एजाज अशरफ : किसी लोकतंत्र की गुणवत्ता को मापने का आधार क्या है?

जगदीप एस. छोकर : एक अच्छा लोकतंत्र उसके प्रतिनिधित्व से जाना जाता है. जब प्रत्येक नागरिक को एहसास होता है कि समाज को जिस ढंग से चलाया जा रहा है उसमें उसकी इच्छा शामिल है. यदि लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से कोई उम्मीदवार 15 प्रतिशत से अधिक मत हासिल कर जीतता है तो क्या उसे जनता का वास्तविक प्रतिनिधि माना जा सकता है? इसीलिए भारतीय विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में अनुशंसा की थी कि जब तक किसी उम्मीदवार को डाले गए कुल वोटों तब 51 प्रतिशत मत प्राप्त न हो उसे निर्वाचित नहीं माना जाना चाहिए. लेकिन एक अच्छे लोकतंत्र में उम्मीदवार को कुल पंजीकृत वोटों का 50 फीसदी से अधिक मत मिलना चाहिए. मैं यहां एक बार-बार कही जाने वाली बात दोहराना चाहता हूं कि लोकतंत्र एक निरंतर चलने वाली यात्रा है जिसका गंतव्य नहीं होता. इसलिए हमें लोकतंत्रीकरण के स्तर पर गौर करना चाहिए. कई देशों में लोकतंत्रीकरण अन्य देशों के मुकाबले अधिक हुआ है.

एए : एडीआर के आपके साथी त्रिलोचन शास्त्री ने 2014 के चुनावों का विश्लेषण कर दिखाया था कि सभी पार्टियों में गंभीर आपराधिक रिकॉर्ड वाले उम्मीदवारों ने बिना आपराधिक रिकॉर्ड वाले उम्मीदवारों से अधिक संख्या में जीत दर्ज की है. ऐसा क्यों?

जेएससी : अपराधी उम्मीदवारों को लोग वोट क्यों देते हैं? इसका एक कारण यह है कि ये लोग “रोबिन हुड” की तरह होते हैं जो अमीरों को लूट कर गरीबों को देते हैं. साथ ही, ये लोग राज्य की रिक्ती को भरते हैं. यदि मुझे आपके खिलाफ कोई शिकायत है तो मैं कोर्ट जा सकता हूं. लेकिन इसमें बहुत वक्त लग जाएगा. किंतु यदि मैं किसी स्थानीय बाहुबली के पास जाकर शिकायत करता हूं तो वह मेरी शिकायत का निवारण दो दिनों में कर देगा. यहां बाहुबली को शिकायत करने वाला, सेवा देने वाला के रूप में देखता है. यह सेवा राज्य को देनी चाहिए थी.

पिछले साल अक्टूबर और दिसंबर के बीच एडीआर ने मतदाताओं के विचारों को जानने के लिए एक सर्वे किया था. हमने प्रत्येक निर्वाचन सीट से 500 लोगों से बात की और कुल 2 लाख 75 हजार लोगों के नमूने एकत्र किए. 30 प्रतिशत लोगों ने हमें बताया कि वे आपराधिक रिकॉर्ड वाले उम्मीदवार को इसलिए वोट देते हैं क्योंकि वह उनकी जाति या धर्म का होता है.

साथ ही, नेता भी इस तरह से दिखाते हैं कि उन्हें गलत मामलों में फंसाया गया है और वह दावा करते हैं कि उनके खिलाफ चल रहे मामले मामूली हैं. उदाहरण के लिए नेता अक्सर यह दावा करते हैं कि भारतीय दंड संहिता की धारा 144 का उल्लंघन करना गंभीर अपराध नहीं है.

एए - लेकिन क्या यह सच नहीं कि ऐसे भी उदाहरण हैं जिसमें नेताओं को झूठे आपराधिक मामलों में फंसाया गया है. उदाहरण के लिए आम आदमी पार्टी का यह दावा है कि उसके विधायकों को केंद्र सरकार ने झूठे और गैर वाजिब मामलों में फंसाया है क्योंकि केंद्र के अधीन दिल्ली पुलिस है?

जेएससी : सुप्रीम कोर्ट ने अपने केंद्र सरकार बनाम एडीआर मामले में फैसला सुनाया था कि उम्मीदवारों को केवल उन्हीं मामलों का खुलासा करने की आवश्यकता है जो किसी चुनाव के लिए नामांकन भरने के 6 महीने के भीतर दर्ज हुए हैं. उम्मीदवारों को केवल वही मामले सार्वजनिक करने होते हैं जिसकी सजा दो या उससे अधिक सालों की होती है या उन मामलों का खुलासा करना होता है जिनके बार में अदालत में आरोप तय हो चुके हैं. ऐसे मामलों में, जिनमें आरोप तय करने के लिए न्यायिक विवेक का इस्तेमाल हो चुका है, उन्हें मामूली नहीं माना जा सकता. इसलिए आप पार्टी के विधायकों को उन मामलों का खुलासा करने की आवश्यकता नहीं है जिनको अदालत खारिज कर चुकी है या जिनमें अदालत ने आरोप तय नहीं किया हैं.

एए : मुझे लगता है कि अपराधियों का कानून निर्माता बन जाना लोकतंत्र के विचार के खिलाफ है.

जेएससी : यह बहुत निराश करने वाली बात लग सकती है लेकिन लोगों के पास ऐसे उम्मीदवारों, जिन पर आपराधिक मामले चल रहे हैं, को वोट देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. मान लीजिए कि एक निर्वाचन क्षेत्र से 10 उम्मीदवार मुकाबला कर रहे हैं. आपको क्या लगता है कितने लोगों के जीतने की संभावना होगी?

एए : वही उम्मीदवार जो तीन बड़ी पार्टियों ने खड़े किए हैं.

जेएससी : एडीआर की रिपोर्ट में एक श्रेणी होती है जिसे “रेड अलर्ट निर्वाचन क्षेत्र” कहा जाता है. यह ऐसे निर्वाचन क्षेत्र होते हैं जिनमें आपराधिक मामले वाले उम्मीदवारों की संख्या 33 से अधिक होती है. 543 लोकसभा सीटों में से लगभग आधी सीटें रेड अलर्ट श्रेणी में आती हैं. यदि जीतने की सबसे ज्यादा उम्मीद वाले तीन शीर्ष उम्मीदवार 3 मुख्य पार्टियों के हैं तो मतदाताओं के पास क्या विकल्प बचेगा. मेरे पास एक विकल्प तो यह है कि मैं जाकर ऐसे उम्मीदवार को वोट कर दूं जिसके जीतने की संभावना नहीं है या यदि मैं चाहता हूं कि प्रशासन के कामकाज में मेरी हिस्सेदारी रहे तो आपराधिक मामले वाले तीन उम्मीदवारों में से एक को वोट दूंगा.

एए : राजनीति में धन के इस्तेमाल की वजह से लोकतंत्र कमजोर हो रहा है. आप राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे के स्रोतों की बात को कैसे देखते हैं?

जेएससी : राजनीतिक दलों को कितना और किनसे चंदा मिलता है यह जानने के दो तरीके हैं. यदि कोई राजनीतिक दल प्राप्त चंदे पर आयकर कानून की धारा 13(ए) के तहत 100 प्रतिशत आयकर छूट प्राप्त करना चाहता है तो उसे अपनी आय और व्यय का लेखा-जोखा रखना होता है और आयकर रिटर्न फाइल करना होता है. राजनीतिक दलों को 20000 रुपए या उससे अधिक के प्रत्येक चंदे का ब्यौरा निर्वाचन आयोग के समक्ष जमा करना पड़ता है. एडीआर इन दोनों स्रोतों के दस्तावेज जमा करता है.

जब हमने राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे के दस्तावेजों की तुलना की तो हमें पता चला कि आमतौर पर राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे का 20 से 25 प्रतिशत हिस्सा 20000 रुपए से अधिक होता है. इसका अर्थ है कि 75 से 80 प्रतिशत आय अज्ञात स्रोतों से होती है. पिछले कुछ सालों में यह प्रतिशत घटकर 60 से 65 प्रतिशत रह गया है.

इस अज्ञात स्रोत से मिले चंदे का एक नाम “कूपन की बिक्री से आय” कही जाती है. लेकिन इस बारे में कुछ नहीं पता चलता कि कौन लोग ये कूपन खरीदते हैं, किस लिए खरीदते हैं और कितने का खरीदते हैं? यह माना जाता है कि यह 60 से 65 प्रतिशत वाली आय राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले पैसे का बहुत छोटा हिस्सा होती है.

एए : क्या एडीआर ने कभी जानने की कोशिश की है कि अज्ञात स्रोत कौन से हैं?

जेएससी : हमने केंद्रीय सूचना आयुक्त से 6 राष्ट्रीय पार्टियों को सार्वजनिक निकाय घोषित कराया है. हमारा विचार था कि हम सूचना के अधिकार कानून के तहत आवेदन कर राष्ट्रीय पार्टियों को अज्ञात स्रोतों की जानकारी देने को कहेंगे. इन सभी 6 पार्टियों ने केंद्रीय सूचना आयुक्त के फैसले को मानने से इनकार कर दिया है. इससे संबंधित मामला सर्वोच्च अदालत में चल रहा है. सरकार ने इस संबंध में हलफनामा दायर कर कहा है कि आरटीआई कानून के तहत राजनीतिक दलों को सार्वजनिक निकाय नहीं माना जाना चाहिए.

एए : क्या हम उस नियम के तहत जिसके अनुसार 20000 रुपए या उससे अधिक का चंदा देने वाले की पहचान बताना जरूरी है, दाता की पहचान का पता लगा सकते हैं?

जेएससी : समस्या यह है कि ऐसा कोई नियम नहीं है जो यह कहे कि 20000 रुपए से अधिक का चंदा देने वाले को चेक या कैश से भुगतान करना होगा. इसलिए नगद चंदे पर कोई सीमा तय नहीं की गई है. मान लीजिए कि मैं एक राजनीतिक दल हूं और आप मुझे 20001 रुपए का चंदा देना चाहते हैं और मैं आपसे रसीद मांगता हूं. तब मुझे इस आय का खुलासा करना होगा. लेकिन यदि कोई मुझे 200 करोड़ रुपए का चंदा देना चाहता है और मुझसे रसीद नहीं मांगता तो मैं उस रकम को जैसे चाहे वैसा दिखा सकता हूं. 20000 रुपए वाला नियम खुलासे की सीमा तय करता है. यह नियम यह तय नहीं करता कि पार्टी नगद में कितना चंदा ले सकती है.

एए : परंतु सरकार ने 2017 में नगद चंदे की सीमा को 2000 रुपए तय किया है. क्या इस नियम से राजनीतिक दलों को प्राप्त होने वाले चंदे की जानकारी अधिक पारदर्शी बनी है?

जेएससी : समस्या यह है कि यह सीमा तभी लागू हो सकती है जब कोई पार्टी मिले नगद चंदे का खुलासा करना चाहती है. वह 200 करोड़ रुपए का चंदा बिना रसीद के नगद में ले सकती है इसलिए इसका खुलासा करना आवश्यक नहीं है. यह मान लेना कि कोई भी पार्टी 2000 रुपए से अधिक का चंदा नगद में नहीं ले सकती एकदम गलत है. यह झूठ है. यदि कोई पार्टी मिले चंदे को सार्वजनिक करना चाहती है तो वह चेक से चंदा क्यों नहीं देती? मैं यहां किसी का नाम नहीं लेना चाहता लेकिन एक पार्टी है जिसने 800 करोड़ रुपए के चंदे की घोषणा की है लेकिन यह भी कहा है कि उसे 20000 रुपए से अधिक का कोई चंदा नहीं मिला. एक पार्टी कह सकती है कि उसे 39998000000 रुपए का चंदा 20 लाख लोगों ने 1999 रुपए प्रति व्यक्ति चंदा दिया है. इस रकम को वह पार्टी अपनी आय के रूप में दिखा तो सकती है लेकिन उसे देने वालों का नाम बताना जरूरी नहीं होगा.

एए : क्या आपको लगता है कि राजनीतिक चंदे का असर सरकार के निर्णय पर पड़ता है?

जेएससी : जब तक यह पता नहीं चलता कि सत्तारूढ़ पार्टी को किसने और कितना चंदा दिया है तब तक सरकार का हर फैसला शक के दायरे में आएगा. हमें सोचना पड़ता है कि सरकार ने यह फैसला राष्ट्रहित में लिया है या किसी एक्सवाईजेड के. बोफोर्स और राफेल करार ऐसे ही फैसले हैं.

एए : क्या इलेक्टोरल (चुनावी) बॉन्ड योजना से हमारे लोकतंत्र की स्थिति में सुधार होगा?

जेएससी : इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को 2017 के बजट भाषण में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पेश किया था. इसे बजट के “चुनावी चंदे में पारदर्शिता” शीर्षक के अंतर्गत रखा गया था. इलेक्टोरल बॉन्ड ऐसे बैंक नोट (पत्र) होते हैं जिन्हें दाता स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) से खरीदकर राजनीतिक दलों को चंदे के रूप में दे सकता है. (पार्टियों को बॉन्ड प्राप्त होने के 15 दिनों के भीतर भुनाना होता है.) बजट पेश करने के कुछ घंटे बाद वित्त मंत्री ने मीडिया को बताया कि “यह बॉन्ड धारक प्रवृत्ति के होंगे ताकि दाता के नाम को गुप्त रखा जा सके.” यह विरोधाभासी बात है. जब तक दाता की पहचान प्रकट नहीं होती पारदर्शिता मुमकिन ही नहीं है.

एए : लेकिन जैसे ही दाता बॉन्ड खरीदता है उसकी पहचान प्रकट हो जाएगी?

जेएससी : योजना कहती है कि स्टेट बैंक की वे शाखाएं हैं जिन्हें इलेक्टोरल बॉन्ड बेचने का अधिकार है वे खरीदकर्ता की केवाईसी जानकारी लेंगी. यह भी नियम में है कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया खरीदकर्ता की पहचान का खुलासा तब तक नहीं कर सकता जब तक अदालत आपराधिक मामलों में खरीदकर्ता की पहचान की मांग नहीं करती. अदालत से इस प्रकार का आदेश हासिल करना असंभव बात है.

हां लेकिन एसबीआई को खरीदकर्ता की पहचान मालूम होती है. खरीदने वाला इलेक्टोरल बॉन्ड को पार्टी के कोष इंचार्ज को भेज सकता है या जाकर चंदा बॉक्स में डाल सकता है. लेकिन आप यह बताइए कि नागरिकों को कैसे पता चलेगा कि किसने इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से चंदा दिया है. मान लीजिए चंदा लेने वाली पार्टी सरकार चला रही है और वह किसी एक्सवाईजेड को कोई ठेका देती है. हो सकता है कि एक्सवाईजेड वही दाता है जिसने इलेक्टोरल बॉन्ड पार्टी को दिया था. लेकिन यह मुझे कैसे पता चलेगा?

एए : चलिए मैं इस सवाल को थोड़ा घुमा कर पूछता हूं. मान लीजिए मैं एक राजनीतिक दल हूं और मुझे 200 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड मिलते हैं. जिस तरह हमारा सिस्टम काम करता है तो सरकार को पता चल ही जाएगा कि मुझे 200 करोड़ रुपए किसने दिए हैं…

जेएससी : इसमें कोई शक नहीं है की यह संभावना रहेगी कि इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम के जरिए सभी पार्टियों को प्राप्त होने वाले चंदे के स्रोत सूख जाएं. हो सकता है कि आप 100 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड खरीद कर अपनी कार से जा रहे हैं और तभी आपको सत्तारूढ़ पार्टी के किसी व्यक्ति का फोन आ जाए. संभावना है कि आपको रास्ता बदलकर सत्तारूढ़ दल के कार्यालय जाना पड़े. 2017-18 के आंकड़ों से पता चलता है कि 220 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड में से 210 करोड रुपए बीजेपी को मिले थे, 5 करोड़ के बॉन्ड कांग्रेस को और बाकी पांच करोड़ के बॉन्ड इनकैश नहीं कराए गए. इस मामले में यह नियम है कि यदि आप 15 दिन के भीतर इलेक्टोरल बॉन्ड को इनकैश नहीं कराते तो यह रकम प्रधानमंत्री राहत कोष को चली जाती है.

एए : क्या आपको मालूम है कि उन 5 करोड़ के बॉन्ड को इनकैश क्यों नहीं कराया गया?

जेएससी : हो सकता है कि प्राप्त करने वाली पार्टी को पता चल गया हो कि सत्तारूढ़ पार्टी को देने वाले की पहचान का पता चल जाएगा और वह पार्टी उस व्यक्ति से पैसा लेते नहीं दिखना चाहती हो.

एए : क्या फंडिंग की वजह से भारत में राजनीतिक पार्टियों की संख्या बढ़ रही है?

जेएससी : कुछ साल पहले भारत में राजनीतिक दलों की संख्या 1500 थी. उस समय भारत के मुख्य निर्वाचन आयुक्त ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर बताया था कि इन 1500 पार्टियों में से केवल 200 पार्टियां ही चुनाव लड़ती हैं और बाकी पार्टियों का अता-पता तक नहीं है. उन्हें शक था कि इन पार्टियों का गठन आयकर छूट प्राप्त करने और काले धन को सफेद बनाने के लिए हो रहा है. आज भारत में पार्टियों की संख्या तकरीबन 2600 है.

एए : राजनीतिक पार्टियों का इस्तेमाल कर काले धन को सफेद कैसे किया जाता है?

जेएससी : मान लीजिए आपके पास 2 करोड रुपए हैं. आप इस दो करोड़ रुपए को एक राजनीतिक दल को देते हैं. लेने वाली राजनीतिक पार्टी दावा करती है कि उसे उसके समर्थकों ने 1999 रुपए प्रति समर्थक की दर से चंदा दिया है. यह पार्टी इस पैसे को बैंक में रखती है और आपको चेक के जरिए यह कहकर पैसा लौटा देती है कि यह आपके द्वारा उसे प्राप्त सेवा के एवज में दिया जा रहा है.

एए : उम्मीदवारों को अपनी संपत्ति का खुलासा करते हुए हलफनामा दायर करने को कहने के पीछे का क्या कारण था?

जेएससी : यह सुनिश्चित करना था कि बेहिसाब पैसा चुनाव जीतने के लिए इस्तेमाल न हो. मिसाल के लिए, कोई उम्मीदवार नारकोटिक्स के व्यापार से अर्जित आय को चुनाव जीतने के लिए इस्तेमाल न करें, हां यह हो सकता है कि ऐसे उम्मीदवार हों जो इस तरह पैसा कमा रहे हैं. इसके पीछे दूसरा कारण यह सुनिश्चित करना था कि विजेता उम्मीदवार की संपत्ति में बेहिसाब बढ़ोतरी न हो. यह दोनों उद्देश्य पूरे नहीं हुए. हमारे पास ऐसे तथ्य हैं जो बताते हैं की एक चुनाव हारने के बाद दूसरा चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार की संपत्ति में इतनी बढ़ोतरी हुई. लेकिन इसी अवधि में विधायक या सांसद बने उम्मीदवार की संपत्ति में दो गुना बढ़ोतरी हुई और ऐसे उम्मीदवार जो जीतकर मंत्री बन जाते हैं उनकी आय में 3 या 5 गुना बढ़ोतरी हुई है.

एए : ऐसा भी तो हो सकता है कि उम्मीदवारों की संपत्ति में जो विकास हुआ है वह प्राकृतिक हो यानी बाजारू कारणों से हो?

जेएससी : ऐसे में प्रत्येक नागरिक की संपत्ति में भी इसी अनुपात में बढ़ोतरी होनी चाहिए. लेकिन जीतने वाले उम्मीदवार के मामले में यह नियम लागू नहीं होता. जैसे-जैसे नेता लोकतांत्रिक पायदान पर ऊपर चढ़ता जाता है उसकी संपत्ति बढ़ती जाती है.

एए : जब उम्मीदवार चुनाव से पहले हलफनामा दायर करते हैं तो मीडिया ऐसी हेडलाइन लगाकर खबर छपता है कि इतने सारे करोड़पति उम्मीदवार हैं. आपको नहीं लगता कि एक करोड़ रुपए की संपत्ति वाले उम्मीदवार को धनी कहना अन्याय है?

जेएससी : यहां संख्या महत्वपूर्ण नहीं है. पूछा जाना चाहिए कि क्या एक व्यक्ति जिसकी संपत्ति सौ करोड़ रुपए है वह दिहाड़ी करने वालों की समस्या और उनको होने वाली परेशानियों को समझ सकता है. मुझे नहीं लगता कि वह समझ सकता है.

एए : क्या हम पैसे वालों का लोकतंत्र बन गए हैं?

जेएससी : पैसे वालों की बात क्या, अभी तो हम लोकतंत्र ही नहीं बन पाए हैं. हमारे सामने जो है वह चुनावों का ढोंग है. हर 5 साल में हम खुद को समझाते हैं कि यह लोकतंत्र है. मैं आपको एक कहानी सुनाता हूं. गवर्नमेंट ऑफ इंडिया कानून-1935 लागू होने के बाद प्रांतीय चुनाव करवाए गए. मुंबई के वैकुंठभाई मेहता ने सहकारी सोसायटियों के लिए बहुत काम किया था इसलिए उन पर चुनाव लड़ने का दबाव था. हालांकि वह चुनाव लड़ने के इच्छुक नहीं थे. वैकुंठभाई ने महात्मा गांधी को पोस्टकार्ड लिख कर अपनी दुविधा बताई. महात्मा गांधी ने उनसे कहा कि उन्हें चुनाव दो शर्तों पर लड़ना चाहिए, एक यह कि वह किसी आदमी से वोट नहीं मांगेंगे और दूसरा यह कि अपने चुनाव पर एक पैसा भी खर्च नहीं करेंगे. वैकुंठभाई गांधीजी के सच्चे अनुयायी थे. उन्होंने अपना नामांकन भरा और घर बैठ गए. वह भारी मतों से जीते. अब आप मुझे यह बताइए कि सरकार कैसे बनती है?

एए : सांसद सरकार चुनते हैं.

जेएससी : यही सवाल जब मैं लोगों से पूछता हूं तो वे कहते हैं कि हम लोग सरकार बनाते हैं. मैं उनसे पूछता हूं कैसे? वे बताते हैं कि वे मतदान केंद्र जाते हैं और उम्मीदवार को वोट देते हैं. लेकिन आप बताइए कि जिस उम्मीदवार के जीतने की संभावना है वह कहां से आता है?

एए : राजनीतिक दल उसे खड़ा करते हैं.

जेएससी : आप सही कह रहे हैं. मतदाताओं का चुनाव राजनीतिक दलों के चयन द्वारा संकुचित कर दिया जाता है. जब मतदाता के पास विकल्प नहीं हैं तो क्या आप इसे लोकतंत्र कह सकते हैं. मान लीजिए कि आप एक उम्मीदवार हैं, आप चुनाव जीत कर सांसद बन जाते हैं और लोकसभा में पारित होने के लिए एक बिल आता है. क्या आपके पास इसका समर्थन या विरोध करने का विकल्प होगा?

एए : नहीं, यदि मैं ऐसा करता हूं तो पार्टी सचेतक की नाफरमानी के लिए मेरी सीट भी छीनी जा सकती है.

जेएससी : तो वोटर के पास दलों द्वारा दिए गए विकल्पों से बाहर चुनने का कोई रास्ता नहीं है. सांसदों के क्रियाकलापों को पार्टियां पूरी तरह से नियंत्रित करती हैं. सरकार कैसे बनती है? राजनीतिक पार्टियां सरकार बनाती हैं. क्या ये पार्टियां लोकतांत्रिक होती हैं?

एए : नहीं, राजनीतिक दल लोकतांत्रिक नहीं हैं.

जेएससी : अगर सरकार उन इकाइयों का समुच्चय है जो पूरी तरह से अलोकतांत्रिक हैं तो आप इसे लोकतंत्र कैसे मानेंगे. हमारा लोकतंत्र खोखला है. हम लोकतंत्र नहीं हैं क्योंकि हमारी पार्टियां अलोकतांत्रिक हैं. इसका असर हर चीज पर पड़ता है. हमारे लोकतंत्र में प्रतिनिधित्व के सवाल पर भी इसका असर पड़ता है.

एए : 84 साल पहले वैकुंठभाई जैसे लोग थे जो बिना प्रचार और बिना एक ढेला खर्च किए चुनाव जीत जाते थे.

जेएससी : अब यह संभव नहीं है क्योंकि आज की पार्टियां लोकतांत्रिक नहीं हैं. मतदाता और प्रतिनिधियों के बीच किसी भी प्रकार का रिश्ता नहीं रह गया है. केवल उम्मीदवार को मतदाता से मतलब होता है. लेकिन कोई व्यक्ति तब तक उम्मीदवार नहीं बन सकता जब तक कि उसके सिर पर किसी पार्टी का हाथ न हो. जब किसी व्यक्ति को टिकट मिल जाता है तो वह मतदाता से अधिक टिकट देने वाली पार्टी के प्रति वफादार होता है. मतदाता और प्रतिनिधि के बीच रिश्ते का न होना हमारे लोकतंत्र की मुख्य समस्या है. उम्मीदवार का चयन पार्टी के सदस्यों में से ही होना चाहिए. यदि ऐसा होता है तो आज जिस तरह का पैसा बहाया जाता है वैसा पैसा नहीं बहाना पड़ेगा.