दाग़-दाग़ इतिहास

हिंदू और सिख कट्टरवाद को हवा देती खालिस्तान की कोरी कल्पना

'ऑपरेशन ब्लूस्टार' के दौरान अमृतसर के स्वर्ण मंदिर परिसर में स्थित अकाल तख्त बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था, जिसे 7 जून 1984 की इस तस्वीर में देखा जा सकता है. 'ऑपरेशन ब्लूस्टार' के बाद पंजाब में अभूतपूर्व हिंसा भड़क उठी थी. (संदीप शंकर / गैटी इमेजिस)
'ऑपरेशन ब्लूस्टार' के दौरान अमृतसर के स्वर्ण मंदिर परिसर में स्थित अकाल तख्त बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था, जिसे 7 जून 1984 की इस तस्वीर में देखा जा सकता है. 'ऑपरेशन ब्लूस्टार' के बाद पंजाब में अभूतपूर्व हिंसा भड़क उठी थी. (संदीप शंकर / गैटी इमेजिस)

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1940 में लाहौर में आयोजित मुस्लिम लीग के अधिवेशन में मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने अध्यक्षीय भाषण के दौरान दो-राष्ट्र सिद्धांत (टू-नेशन थ्योरी) की अवधारणा प्रस्तुत की और एक अलग मुस्लिम राज्य की वकालत की. हिंदुत्व के समर्थक अक्सर यह दावा करते हैं कि जिन्ना इस सिद्धांत को लाने वाले पहले व्यक्ति थे, लेकिन यह तथ्यात्मक रूप से सच नहीं है. जिन्ना के पैरोकार बनने से कहीं पहले लाला लाजपत राय और वी. डी. सावरकर जैसे कई नाम समान विचार व्यक्त करते रहे थे. जिन्ना ने हालांकि जब अपना मत ज़ाहिर किया, उस समय उनके पास हिंदुत्व समर्थकों की तुलना में विशाल राजनीतिक समर्थन मौजूद था. इस विचार के सजीव होने का सबसे अधिक प्रभाव सिख समुदाय पर पड़ा, जो पाकिस्तान बनने जा रहे क्षेत्र में बड़ी संख्या में बसा हुआ था. अपनी पुस्तक सिख नेशनलिज़्म: फ्रॉम ए डोमिनेंट माइनॉरिटी टू एन एथनो-रिलीजियस डायस्पोरा में शिक्षाविद गुरहरपाल सिंह और जियोर्जियो शानी लिखते हैं:

“सिख राजनीति के हर वर्ग ने पाकिस्तान की मांग की निंदा की, और चंद लोगों ने पटियाला के महाराज के अधीन ‘खालसा राज’ और ‘खालिस्तान’ की भी मांग रखी. डॉ. वी. एस. भट्टी ने एक संक्षिप्त पैम्फलेट के माध्यम से ‘खालिस्तान’ को भारत और पाकिस्तान के बीच एक मध्यवर्ती (बफर) राज्य के रूप में बनाने करने का प्रस्ताव रखा...‘खालिस्तान’ नाम की व्युत्पत्ति ‘खालसा’ से हुई है, जिसका तात्पर्य है ‘शुद्ध भूमि’.

यह मांग सिख समुदाय में अपनी जड़ें नहीं जमा सकी और ‘खालिस्तान’ को शुरुआत से ही पाकिस्तान के ख़िलाफ़ उपजी एक प्रतिक्रिया भर माना गया, जिसे किसी ने गंभीरता से नहीं लिया. 1947 से पहले पाकिस्तान पर होने वाली बहसों के दौरान गाहे-बगाहे इसका ज़िक्र होता था, लेकिन जल्द ही यह राजनीतिक विमर्श से लगभग पूरी तरह गायब हो गया. उसके बाद यह 1980 की शुरुआत में फिर से चर्चा में आने लगा. 

1970 के दशक के अंत में भारतीय पुलिस सेवा अधिकारी (1964 बैच) जी. बी. एस. सिद्धू, जिन्होंने सिक्किम के भारत विलय में अहम भूमिका निभाई थी, ने कनाडा में भारतीय उच्चायोग में तीन साल तक प्रथम सचिव के रूप में कार्यकाल संभाला. अपनी हालिया पुस्तक द खालिस्तान कॉन्सपिरेसी: ए फॉर्मर रॉ ऑफ़िसर अनरेवल्स द पाथ टू 1984 में वह लिखते हैं: “1979 के अंत तक कनाडा के सभी गुरुद्वारों में दो बातें आम थी: वे खालिस्तान के मुद्दे से पूरी तरह अंजान थे और भिंडरांवाले का तब कोई वजूद नहीं था.”