कश्मीर के संवैधानिक दर्जे में हाल में किए गए बदलाव के बाद कश्मीरी जनता की प्रतिक्रियाएं दो तरह की रही हैं. एक, पारंपरिक जिसका इतिहास दशकों पुराना है. इसमें लोगों के हुजूम गलियों में आजादी के नारे लगा रहे हैं और सुरक्षा बलों पर पथराव कर रहे हैं. दूसरी, प्रतिक्रिया में कश्मीरी अवाम ने स्वयं को अपने घरों में बंद कर लिया है. यह तब है जब अगस्त के शुरुआत में शैक्षिक संस्थाओं और कार्यालयों को बंद करने एवं संचार पर रोक लगाने और धारा 144 लगाने के आदेशों में क्रमशः ढील दी जा रही है. 5 अगस्त को उपरोक्त पाबंदियां लागू की गईं थीं. उस दिन सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत कश्मीर को प्राप्त विशेष दर्जे और अनुच्छेद 35ए को खत्म कर दिया था. अनुच्छेद 35ए के तहत राज्य में कश्मीरियों के अतिरिक्त कोई और जमीन नहीं खरीद सकता था. साथ ही, सरकार ने राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में भी बांट दिया.
अपने घरों से बाहर न आने के कश्मीरियों के फैसले से टीवी और प्रिंट में कश्मीर की तस्वीर एक उजाड़-बियाबान सी दिखाई पड़ती है. मीडिया समाचारों के अनुसार कश्मीरियों ने अपने फैसलों को “सिविल कर्फ्यू” कह कर परिभाषित किया है. यह घाटी में जारी सरकारी लॉकडाउन के खिलाफ विद्रोह है. यह कहना मुश्किल है कि स्वघोषित सिविल कर्फ्यू के पीछे का कारण कश्मीरियों के भीतर व्याप्त डर, गुस्सा या ये दोनों है और यह बताना भी मुश्किल है कि क्या यह फैसला नियोजित है और एक या दो सप्ताह तक जारी रह सकेगा?
लेकिन कश्मीरियों का यह जवाब महत्वपूर्ण है. भारतीय राज्य के दावों पर इसका असर पड़ेगा. 5 अगस्त को धारा 370 के तहत राज्य को मिले विशेष दर्जे को हटाने की घोषणा के बाद से ही सरकार यह दावा कर रही है कि कश्मीर में हालात “सामान्य” है. सिविल कर्फ्यू सामान्य होने के सरकारी दावे को कड़ी चुनौती है.
कश्मीर में हालात के सामान्य होने का अर्थ है कि लोग बाजार में जमा हों, कॉलेज, स्कूल और कार्यालय चालू हों, भारी सैन्य तैनाती और आतंकवादियों और सुरक्षाबलों के बीच गोलीबारी हो, सैन्य जवानों पर लड़के पथराव करें और आजादी के नारों के बीच आतंकियों के जनाजे निकाले जाएं.
कमेंट