कश्मीरी जनता की सिविल नाफरमानी भारतीय राज्य के लिए चुनौती

अपने घरों से बाहर न आने के कश्मीरियों के फैसले से टीवी और प्रिंट में कश्मीर की तस्वीर एक उजाड़-बियाबान सी दिखाई पड़ती है. अदनान अबीदी/रॉयटर्स
02 September, 2019

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कश्मीर के संवैधानिक दर्जे में हाल में किए गए बदलाव के बाद कश्मीरी जनता की प्रतिक्रियाएं दो तरह की रही हैं. एक, पारंपरिक जिसका इतिहास दशकों पुराना है. इसमें लोगों के हुजूम गलियों में आजादी के नारे लगा रहे हैं और सुरक्षा बलों पर पथराव कर रहे हैं. दूसरी, प्रतिक्रिया में कश्मीरी अवाम ने स्वयं को अपने घरों में बंद कर लिया है. यह तब है जब अगस्त के शुरुआत में शैक्षिक संस्थाओं और कार्यालयों को बंद करने एवं संचार पर रोक लगाने और धारा 144 लगाने के आदेशों में क्रमशः ढील दी जा रही है. 5 अगस्त को उपरोक्त पाबंदियां लागू की गईं थीं. उस दिन सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत कश्मीर को प्राप्त विशेष दर्जे और अनुच्छेद 35ए को खत्म कर दिया था. अनुच्छेद 35ए के तहत राज्य में कश्मीरियों के अतिरिक्त कोई और जमीन नहीं खरीद सकता था. साथ ही, सरकार ने राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में भी बांट दिया.

अपने घरों से बाहर न आने के कश्मीरियों के फैसले से टीवी और प्रिंट में कश्मीर की तस्वीर एक उजाड़-बियाबान सी दिखाई पड़ती है. मीडिया समाचारों के अनुसार कश्मीरियों ने अपने फैसलों को “सिविल कर्फ्यू” कह कर परिभाषित किया है. यह घाटी में जारी सरकारी लॉकडाउन के खिलाफ विद्रोह है. यह कहना मुश्किल है कि स्वघोषित सिविल कर्फ्यू के पीछे का कारण कश्मीरियों के भीतर व्याप्त डर, गुस्सा या ये दोनों है और यह बताना भी मुश्किल है कि क्या यह फैसला नियोजित है और एक या दो सप्ताह तक जारी रह सकेगा?

लेकिन कश्मीरियों का यह जवाब महत्वपूर्ण है. भारतीय राज्य के दावों पर इसका असर पड़ेगा. 5 अगस्त को धारा 370 के तहत राज्य को मिले विशेष दर्जे को हटाने की घोषणा के बाद से ही सरकार यह दावा कर रही है कि कश्मीर में हालात “सामान्य” है. सिविल कर्फ्यू सामान्य होने के सरकारी दावे को कड़ी चुनौती है.

कश्मीर में हालात के सामान्य होने का अर्थ है कि लोग बाजार में जमा हों, कॉलेज, स्कूल और कार्यालय चालू हों, भारी सैन्य तैनाती और आतंकवादियों और सुरक्षाबलों के बीच गोलीबारी हो, सैन्य जवानों पर लड़के पथराव करें और आजादी के नारों के बीच आतंकियों के जनाजे निकाले जाएं.

कश्मीर की तथाकथित सामान्य हालत होने को वहां की जनता या आतंकवादी या किसी पड़ोसी देश ने बाधित नहीं किया. यह तो केन्द्र सरकार के 5 अगस्त के फैसला का नतीजा है क्योंकि सरकार को लग रहा था कि उसके कदम के बाद उग्र प्रदर्शन होंगे. यदि ऐसा होता तो सरकार के फैसले पर सवाल खड़ा होता और अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति संचालन करने में परेशानी होती. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने 5 अगस्त के निर्णय को कश्मीर को भारत में मिलाने के लिए सही कदम बताया है, उनका कहना है कि इससे कश्मीर उग्र अलगाववादी आंदोलन से आजाद हो जाएगा और देश के अन्य राज्यों की तरह वहां के लोगों का जीवन आसान हो जाएगा.

भारतीय राज्य बार-बार दावा कर रहा है कि कश्मीर की जनता एक हद तक मानती है कि 5 अगस्त से पहले तक उनकी जो स्थिति थी उसमें यह फैसला बेहतरी और अधिक सुरक्षा लाएगा और उनका जीवन अन्य राज्यों के जीवन की तरह हो जाएगा. मजबूरी थी कि राज्य निषेधाज्ञा में थोड़ी ढील दे ताकि घाटी के लोग अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो जाएं.

इस लिहाज से भारतीय राज्य घाटी में खलल डालने वाला और फिर सामान्य स्थिति बहाल करने वाला, दोनों ही है. स्वेच्छा से खुद को घर में बंद रख कर कश्मीरी लोग, प्राधिकार को अपने पक्ष में, कब्जे में लेने की कोशिश कर रहे हैं. कश्मीर और जहां-तहां स्थिति सामान्य करने के लिए राज्य का चुनिंदा तरीका है कि वह सार्वजनिक स्थानों में कड़ाई से नियंत्रण रखे लेकिन यह तरीका कश्मीर में बेकार कर दिया गया है क्योंकि वहां के लोगों ने घर से बाहर निकलने और दुकानें खोलने से इंकार कर दिया है.

कश्मीरियों का यह तरीका पोलिश जनता के उस तरीके जैसा है जिसे वहां के लोगों ने सैन्य कानून लागू होने के बाद 13 दिसंबर 1981 में अपनाया था. सैन्य कानून लागू करने को न्यायोचित ठहराने के लिए स्विडनिक गांव के एक बाशिंदे ने अपने टीवी को खिड़की पर सजा दिया और शाम 7:30 बजे, जब समाचार प्रसारित होने वाला था, घूमने चला गया.

स्विडनिक के अन्य लोगों ने भी ऐसा ही किया और धीरे-धीरे यह नया ईजाद बड़े शहर लुवलीन तक फैल गया. हजारों लोग शाम को घर से बाहर निकल कर तफरी करने लगे. इस विरोध तफरी के बारे में न्यूयॉर्क टाइम्स ने कुछ यूं लिखा था, “लोग अपने कुत्ते घुमा रहे थे और एक-दूसरे से गपशप लड़ा रहे थे. कुछ लोगों ने अपने टीवी सेटों को खिड़की पर लगा दिया ताकि दूसरों को भी पता चल जाए कि लोग टीवी नहीं देख रहे हैं.” शोधकर्ता एम. फिदोरोविच ने अपने शोधपत्र द वॉर फॉर इन्फोरमेशन : पॉलिश रिस्पांस फॉर मार्शल लॉ में दिखाया है कि अधिकारियों ने प्रदर्शनकारियों की हिम्मत तोड़ने के लिए उपाय किए. बिजली और पानी की आपूर्ति ठप कर दी. जैसे-जैसे तफरी में और ज्यादा लोग शामिल होने लगे तो कर्फ्यू लगा दिया गया. उन लोगों को समाचार के प्रसारण के वक्त बाहर निकलने पर पाबंदी लगा दी गई. राज्य ने तय किया कि वह सार्वजनिक जीवन को नियंत्रित करने के अपने अधिकार का प्रयोग करेगा.

लेकिन कश्मीरी लोगों ने तो सार्वजनिक स्थानों पर जाना ही छोड़ दिया है. इससे राज्य का निगरानी का प्राधिकार कमजोर हो गया है. क्या राज्य कश्मीरियों को घरों से बाहर निकालने के लिए मजबूर कर सकता है? यदि ऐसे होता है तो अभूतपूर्व काम होगा. लेकिन राज्य यह भी तय कर सकता है कि सरकारी अधिकारियों के काम पर न आने को बर्दास्त से बाहर मान ले. तब क्या इन्हें सरकारी सेवाओं से हटा दिया जाएगा? विद्यार्थियों को क्या सजा दी जाएगी यदि उन लोगों ने क्लास में आना छोड़ दिया?

हालांकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध भारतीय जनता पार्टी को शायद ही खबर हो कि अहिंसक आंदोलन का दमन करना मुल्क के इतिहास के साथ गद्दारी होगी क्योंकि आरएसएस स्वतंत्रता आंदोलन से बाहर रहा. आजादी के लिए भारतीय जनता की लड़ाई में मोहनदास गांधी ने निष्क्रिय प्रतिरोध का तरीका अपनाया था ताकि उस राज्य को जिस के पास दबाव देने का प्राधिकार था, जनता की संवेदना पर ध्यान देने को मजबूर किया जा सके.

12 मार्च 1930 को हुए नमक सत्याग्रह के दो दिन पहले गांधी ने प्रतिरोध के इस तरीके के बारे में बताया था. नमक सत्याग्रह, नमक पर ब्रिटिश शासन के एकाधिकार के खिलाफ था. दांडी मार्च के लिए साबरमती आश्रम में एकत्र हुए लोगों से गांधी ने कहा था, “मुझे नहीं लगता कि यदि बंदूक और तोप का सामना करना होता तो आप लोगों में से कोई आज यहां आया होता. लेकिन आप लोगों को बंदूक और बम से डर नहीं लगता? क्यों नहीं लगता? मान लीजिए मैं यह घोषणा कर दूं कि मैं हिंसक आंदोलन शुरू करने वाला हूं (राइफल से सुसज्जित लोगों द्वारा नहीं बल्कि लाठियों और पत्थरों से) तो आपको लगता है कि सरकार मुझे आजाद रहने देती? क्या आप मुझे इतिहास से ऐसा एक भी उदहारण दे सकते हैं, चाहे वह इंग्लैंड, अमेरिका या रूस का हो, जहां राज्य ने अपने प्राधिकार के खिलाफ हिंसा को एक दिन भी बर्दाश्त किया हो.”

गांधी ने समझाया कि ताकतवर औपनिवेशिक शासन को सिविल नाफरमानी से प्राधिकारहीन किया जा सकता है. गांधी समझाते हैं, “भारत में 700000 गांव हैं और मान लीजिए हर गांव से 10 लोग नमक का उत्पादन करने के लिए आगे आएं और नमक कानून की नाफरमानी करें तो सरकार क्या करेगी? बुरी से बुरी तानाशाह सरकार भी शांतिपूर्ण विरोध कर रहे नागरिकों को तोप से उड़ाने की हिम्मत नहीं कर सकती.

कश्मीर का सिविल कर्फ्यू गांधी के निष्क्रिय प्रतिरोध की भावना से मेल खाता है हालांकि इसमें जानबूझकर किसी कानून को तोड़ने की बात नहीं है. यह जनता के अपने घर में बंद रहने के अधिकार और सरकार से उसकी सामान्य स्थिति बहाल करने की ताकत को छीनना है. सिविल कर्फ्यू व्यापक असंतोष का पैमाना नहीं है लेकिन यह उस उग्रवाद से ज्यादा खतरनाक है जो राज्य में पिछले तीन दशकों से जारी है.

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