बजरंग दल पर प्रतिबंध का आह्वान कर कांग्रेस ने दिखाया साहस

बजरंग दल की किसी भी आलोचना को हनुमान पर हमला बताने की बीजेपी की कोशिश एक छलावा है. मोदी का रोड शो जो दिख रहा है, उसके स्वांग को नजरंदाज नहीं किया सकता.
मंजूनाथ किरण/एएफपी/गैटी इमेजिस
बजरंग दल की किसी भी आलोचना को हनुमान पर हमला बताने की बीजेपी की कोशिश एक छलावा है. मोदी का रोड शो जो दिख रहा है, उसके स्वांग को नजरंदाज नहीं किया सकता.
मंजूनाथ किरण/एएफपी/गैटी इमेजिस

यहां सवाल यह नहीं है कि क्या बजरंग दल, जिसका सांप्रदायिक हिंसा करने का इतिहास रहा है, पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए या नहीं, बल्कि सवाल यह है कि क्या कांग्रेस को कर्नाटक विधानसभा चुनाव के लिए अपने घोषणापत्र में संभावित प्रतिबंध लगाने का आह्वान करना चाहिए था? तो जवाब है, हां, करना ही चाहिए था.

गुजरात में 2007 से ही मैंने नागरिक-समाज के प्रतिष्ठित लोगों के साथ निजी बातचीत और बंद कमरे की बैठकों में अक्सर यह सुना है कि विपक्ष को नरेन्द्र मोदी का मुकाबला उस पिच पर नहीं करना चाहिए जहां वह सबसे ज्यादा मजबूत हैं यानी "हिंदू धर्म" के मोर्चे पर. आमतौर पर इससे उनका जो भी मतलब है वह यह कि भारतीय जनता पार्टी को उसके शासन की विफलताओं, जैसे आय की असमानता, धीमी तरक्की, मुद्रास्फीति या नोटबंदी पर घेरना चाहिए.

इस तरह के दावे की दिक्कत एकदम साफ है. अव्वल तो यह एक संवैधानिक लोकतंत्र में सभी नागरिकों की समानता के मौलिक सवाल को शासन के क्षेत्र से बाहर करता है. शासन का कौन सा विचार नागरिकों के समान व्यवहार या कट्टरता और हिंसा से अल्पसंख्यकों की सुरक्षा से संबंधित नहीं है? दूसरा, यह रणनीति कभी काम नहीं आई है. बीजेपी की कट्टरता की खिलाफत करने से कतराना और सभी नागरिकों के अधिकारों के लिए खड़े न हो कर सिर्फ हिंदू बहुसंख्यकों के अधिकारों के लिए बोलना, बमुश्किल ही बीजेपी के खिलाफ कामयाबी का गारंटी बन पाया है. चुनावों को सांप्रदायिक घटनाओं में बदल दिया गया है, इसलिए नहीं कि विपक्ष ने बीजेपी को मौका दिया है, बल्कि इसलिए कि बीजेपी जब चाहे तब कट्टरता को हवा दे सकती है. बीजेपी के साथ मौलिक समस्या का सामना न करने से यह पार्टी हिंदू धर्म को हथियार बना लेती है. जब ऐसा होता है, तो विपक्ष को प्रतिक्रिया करने के लिए मजबूर किया जाता है और इस तरह उसे बेतुकेपन के साथ हिंदुत्व के किसी विचार के प्रति अपनी निष्ठा जाहिर करने पर सिमटा दिया जाता है.

कर्नाटक में स्थिति अलग तरह से काम कर रही है. इस तथ्य के इर्द-गिर्द बहुत सारी रिपोर्टें हैं कि बीजेपी ने हिंदुत्व के अलावा दूसरे मुद्दों पर चुनाव लड़ने की कोशिश की है. लेकिन सबूतों पर गौर कीजिए. पार्टी की लिंगायत समस्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उस वैचारिक यकीन के इर्द-गिर्द केंद्रित है, जो इसे हिंदू समुदाय के अपने विचार के भीतर फूट को मानने से रोकता है. इसने मुस्लिम समुदाय के लिए मौजूद चार फीसदी आरक्षण को खत्म कर मुसलमानों को सत्ता और सार्वजनिक जीवन में हिस्सेदारी से दूर कर दिया है. शैक्षणिक संस्थानों में मुस्लिम महिलाओं के हिजाब के इस्तेमाल पर एक उग्र अभियान चलाने में इसने पिछला साल बिताया है.

यह राज्य इकाई पर आरएसएस के पुराने सहयोगी बीएल संतोष के वर्चस्व की खुली नुमाइश है, जो अब बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव हैं. जैसा कि कारवां की इस माह की कवर स्टोरी स्पष्ट करती है, हम राज्य में एक बदलाव देख रहे हैं जो मोदी युग शुरू होने पर केंद्र में हुआ था. संतोष से पहले की बीजेपी, मोदी से पहले की बीजेपी की तरह ही कट्टरता की राजनीति में लगी थी, जिसने मुसलमानों को निशाना बनाया, लेकिन यह मोदी और अमित शाह ही थे जिनके साथ यह एक ऐसी रणनीति में बदल गई, जहां इसे गहन बूथ-स्तर में लागू किया गया.

हरतोष सिंह बल कारवां के कार्यकारी संपादक और वॉटर्स क्लोज ओवर अस : ए जर्नी अलॉन्ग द नर्मदा के लेखक हैं.

Keywords: Karnataka Hartosh Singh Bal Narendra Modi
कमेंट