नूंह में गायें, गौरक्षक और मेव मुसलमान

15 अगस्त 2023
हरियाणा के मेवात क्षेत्र के नूंह जिले में अपनी गौशाला में काम करता वहां का प्रबंधक आबिद हुसैन.
इंडियन एक्सप्रेस आर्काइव
हरियाणा के मेवात क्षेत्र के नूंह जिले में अपनी गौशाला में काम करता वहां का प्रबंधक आबिद हुसैन.
इंडियन एक्सप्रेस आर्काइव

लगभग छह साल पहले तक हरियाणा के नूंह के ग्रामीण इलाकों में यात्रा करते हुए मैं लगभग हर घर के बाहर गायों को बंधा हुआ देखता था, जो भारत के अधिकांश गांवों में एक आम बात है. हर शाम चरने के बाद घर लौटते गायों के बड़े झुंडों द्वारा उठाई गई धूल ऊपर उठकर आकाश में धूल के बादल बना देती और गाय की घंटियों की आवाज़ से वातावरण गूंज उठता था. लेकिन अब ऐसा नहीं होता. आज पूरे नूंह के घरों से गायें लगभग गायब हो गई हैं.

हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में फैला मेवात सदियों से नहीं तो दशकों से मेव समुदाय का घर रहा है. मेव कृषि करने वाला एक गरीब ग्रामीण समुदाय है, जो इस्लामी और हिंदू दोनों रीति-रिवाजों का पालन करता है. मेव लोगों की सबसे अधिक सघनता नूंह जिले में है जिसे 2016 तक मेवात भी कहा जाता है, जहां 80 प्रतिशत आबादी मुस्लिम हैं.

मेव ऐतिहासिक रूप से गायों की पूजा करते हैं, लेकिन बीते पांच साल से भी कम समय में गाय उनके देहाती जीवन से तेजी से मिटती चली गई है. गौहत्या की अफवाहों के कारण मुसलमानों की भयावह हत्याओं से मेवों के लिए आतंक का माहौल पैदा हो गया है. यह डर एक हिंदू बहुसंख्यक प्रशासन के हाथों निरंतर उत्पीड़न के कारण बना हुआ है, जो नागरिकों पर सामाजिक निगरानी रखने वाले गिरोहों के साथ अटूट रूप से जुड़ा हुआ है, जैसा कि नूंह के मेवों ने पिछले छह महीनों में कारवां ए मोहब्बत नाम से चली बातचीत में मुझे और मेरे सहयोगियों को समझाया है. इसका परिणाम यह हुआ है कि मेव लोग गाय पालना छोड़ रहे हैं. अपनी आजीविका के एकमात्र व्यवहार्य स्रोतों में से एक को खो रहे हैं और इस पशु के साथ उनका घनिष्ठ संबंध भी गायब हो रहे हैं.

नफरती हिंसा से लड़ने के लिए एक नागरिक अभियान कारवां ए मोहब्बत के दौरान हम 2017 में डेयरी किसान पहलू खान की हत्या के बाद से मेवात में काम कर रहे हैं, जिसमें भीड़ द्वारा मारे जाने वाले पीड़ितों के परिवारों की मदद करना, विधवाओं और बच्चों को सहायता प्रदान करना और कानूनी न्याय पाने में उनकी सहायता करना शामिल है. इस काम में हमारे साथ मेव डेयरी किसानों के परिवार से ताल्लुक रखने वाले एक युवा आईटी पेशेवर और सामाजिक कार्यकर्ता सगीर भी शामिल हुए. उन्होंने कहा, "हमें डर है कि हमें किसी भी समय गौहत्या और ऐसे अन्य अपराधों का आरोप लगाकर निशाना बनाया जा सकता है."

सिर्फ डेयरी किसान ही नहीं, नूंह और हरियाणा भर के मुसलमान भी इसी तरह की आशंकाओं से जूझ रहे हैं क्योंकि भारतीय जनता पार्टी के शासन में सांप्रदायिक नफरत का माहौल तेज हो गया है. यह बात 31 जुलाई को फिर स्पष्ट हो गई, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद द्वारा आयोजित जुलूस में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हिंसा भड़क गई, जिसमें तीन लोग मारे गए.

यह हिंसा जल्द ही राज्य के अन्य क्षेत्रों में फैल गई, जिसमें अक्सर हलचल भरे वित्तीय केंद्र के रूप में देखे जाने वाला गुरुग्राम भी शामिल है, जहां भीड़ ने एक मस्जिद को जला दिया और उसके इमाम की हत्या कर दी. हालांकि हिंसा का सटीक कारण पता नहीं चल सका है, बजरंग दल का सदस्य मोहित यादव - जिसे आमतौर पर मोनू मानेसर के नाम से जाना जाता है, जो हरियाणा के सबसे लोकप्रिय गौ रक्षक के रूप में उभरा है - ने एक वीडियो जारी कर घोषणा की थी कि वह रैली में भाग लेगा. यादव ने रैली में शामिल होने से इनकार किया है, लेकिन सोशल मीडिया चलाने वालों ने उसके वीडियो को ज़मीनी स्तर पर बिगड़ती स्थिति से जोड़ा है. इस साल तीन मुसलमानों की हत्याओं में उसका नाम आने के बाद भी उसे गिरफ़्तारी नहीं किया गया है. पिछली बातचीत में सगीर ने मुझे बताया था कि एक विचार उन्हें परेशान कर रहा है: "क्या एक दिन मुझ पर केवल मेरे नाम, मेरी पहचान, मेरे धर्म के कारण हमला किया जाएगा?"

मेव समुदाय हिंदुओं और मुसलमानों को अलग करने वाली कठोर पारंपरिक समझ को चुनौती देता है. मेव खतना, विवाह और दफनाने की इस्लामी रीति-रिवाजों का पालन करते हैं. लेकिन उनके निकाह में हिंदू रिवाज शामिल होते हैं, जैसे दूल्हा घोड़ी पर आता है और उनके "गोत्र" के बारे में बताया जाता है. उनके रीति-रिवाज में शैव और वैष्णव भक्ति परंपराओं दोनों के प्रभाव दिखाई देता हैं.

मेव लोग हिंदू राजपूत थे जिन्होंने लगभग चार शताब्दी पहले इस्लाम धर्म अपना लिया था लेकिन उन्होंने अपने जीवन के तरीके को पूरी तरह से नहीं बदला. मेव के इतिहास और संस्कृति के एक प्रमुख विशेषज्ञ शैल मायाराम के अनुसार वे कुछ सूफी मार्गदर्शकों से प्रभावित थे. मायाराम ने 2017 में इंडियन एक्सप्रेस को बताया, "उच्च जाति के राजपूत वंश और मुख्य रूप से भूमिधारक होने के नाते, वे अपनी हिंदू सांस्कृतिक प्रथाओं को छोड़ना नहीं चाहते थे, तब भी जब उन्होंने धीरे-धीरे इस्लामी तरीकों को अपनाया." कई मेव मानते हैं कि वे पांडवों में से एक, अर्जुन के वंशज हैं.

उनके जीवन का तरीका उनकी विशिष्ट धार्मिक पहचान से उतना निर्धारित नहीं था जितना कि जाति पदानुक्रम में उनके स्थान से था. समुदाय में गाय की पूजा के बारे में इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में एक लेख में, विद्वान मुकेश कुमार ने मेव को हिंदू किसान जातियों (जाट, अहीर, गुज्जर और मीना) के समान स्थिति वाला एक मुस्लिम किसान समुदाय के रूप में परिभाषित किया. मेव ने अन्य हिंदू देहाती-किसान मध्य-जातियों की तरह उन लोगों से समान सामाजिक दूरी बनाई रखी, जिन्हें निचली जाति का माना जाता था.

लेकिन कई रूढ़िवादी मुसलमानों द्वारा उनकी बहु-धार्मिकता को धार्मिक रूप से त्रुटिपूर्ण और अधार्मिक माना गया. 1926 में मुसलमानों से इस्लाम के मूल सिद्धांतों के प्रति निष्ठा का आग्रह करने वाला एक वैश्विक आंदोलन, तब्लीगी जमात मेवात में स्थापित किया गया था. समय के साथ तब्लीगी जमात ने मेवों को धीरे-धीरे हिंदू प्रथाओं से दूर करना शुरू किया.

विभाजन के दौरान मेवात में मेवों के हिंदूकरण ने और गति पकड़ ली. मायाराम के अनुसार हिंदू दक्षिणपंथ के प्रभाव में भरतपुर में अनुमानित तीस हजार मेवों का नरसंहार किया गया था और अलवर में अनगिनत संख्या में लोगों का नरसंहार किया गया था और पूरे मेव गांव जला दिए गए थे.

नव निर्मित पाकिस्तान चले जाने के लिए मेवों पर भारी दबाव डाला गया लेकिन 19 दिसंबर 1947 को अपनी हत्या से 42 दिन पहले महात्मा गांधी ने मेवात के घासेरा गांव की यात्रा की और उनसे भारत में रहने की अपील की. किंवदंती है कि गांधी ने मेवाती लोगों को भारत की रीढ़ बताया था. उनकी ऐतिहासिक अपील ने पाकिस्तान में संकटपूर्ण प्रवासन को रोक दिया और समुदाय द्वारा आज भी अपने लोक गीतों में इसका स्मरण किया जाता है.

मेव लोगों की सांस्कृतिक सीमाएं अस्थिर रहीं. महाभारत की उनकी लोक प्रस्तुति, जिसे पांडुन का कारा कहा जाता है, हिंदू और मुस्लिम घरों में समान रूप से वर्षों से लोकप्रिय थी. कम से कम कुछ साल पहले तक वे ईद के साथ-साथ होली और दिवाली भी मनाते थे. वे आमतौर पर सिंह जैसे उपनामों का इस्तेमाल करते थे, जिन्हें ज्यादातर हिंदू माना जाता था.

उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण और स्थायी हिस्सा गाय रही है. ऐतिहासिक और मानवशास्त्रीय दृष्टि से, भारत में किसान जातियां कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाने वाली गाय से निकटता से जुड़ी हुई हैं. इसलिए, जाटों, अहीरों और गुज्जरों की तरह मेव मुस्लिम किसान गाय को पालते, उनसे लगाव रखते और उनका पालन-पोषण करते थे. शोधकर्ता सिद्दीकी अहमद ने 2017 में इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि मेव "खानसोतिया" नामक त्योहार मनाते हैं, जिसके दौरान "गाय को धोया जाता है, उसके माथे पर टीका लगाया जाता है और उसके सींगों पर तेल लगाया जाता है. हो सकता है कि वास्तविक रूप से उनकी पूजा न की जाती हो, लेकिन उनमें एक निश्चित आस्था है जो समुदाय की आर्थिक आवश्यकताओं में निहित है. कथित तौर पर मेव मुसलमानों के लिए अपनी विवाहित बेटियों और बहनों को गाय उपहार में देने की भी प्रथा थी.”

नूंह के ताइन गांव के एक किसान शाहबुद्दीन के अनुसार, इसलिए मेवात में गौहत्या का चलन कभी नहीं रहा. पीढ़ियों से गाय पालना उनके परिवार की मुख्य आजीविका थी. शाहबुद्दीन ने कहा, ''हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि बहुत कम संख्या में लोगों ने उन गायों को काटा जो बहुत बूढ़ी थीं और दूध नहीं देती थीं, लेकिन मेवात के अधिकांश लोग बीजेपी के सत्ता में आने से पहले ही इसके विरोध में थे. कई पंचायतें हर साल गौहत्या के ख़िलाफ़ सार्वजनिक अपील करती थीं.” ऐसी गाय को पालना आर्थिक रूप से भी अलाभकारी था जो अब दूध नहीं देती थी. शाहबुद्दीन ने मुझे बताया, "एक बूढ़ी गाय को खिलाने और उसकी देखभाल करने में प्रति वर्ष लगभग 70,000 रुपए का खर्च आता है. मेवात के किसान ऐसा नहीं करना चाहेंगे क्योंकि वे अपनी गायों से प्यार करते हैं लेकिन वे इतने गरीब हैं कि इसे वहन नहीं कर सकते. इसलिए, उनके पास दो विकल्पों में से केवल एक ही बचा था. या तो वे इन्हें गौशालाओं को दान कर दें या वे इन्हें उन लोगों को बेच दें जो गायों का व्यापार करते हैं. लेकिन आज यह दूसरा विकल्प लगभग पूरी तरह ख़त्म हो चुका है.”

मेव के सदियों से गाय के साथ जो घनिष्ठ संबंध रहे हैं, उनकी वास्तविकता आज मुख्यधारा में फैलाए गए मुसलमानों को गाय के हत्यारे बताने वाले झूठ से पूरी तरह से विपरीत है. लेकिन, कुमार बताते हैं, "धर्म का प्रतीक मानी जाने वाली गाय ऐतिहासिक रूप से अन्य धर्मों के अनुयायियों के बीच भी पूजनीय रही है." ऐसा प्रतीत होता है कि गाय को विशेष रूप से हिंदू धार्मिक प्रतीक और काफी हद तक हिंदू आस्था के रूप में भी जानबूझकर गढ़ा गया है ताकि मुस्लिमों को गाय के दुश्मन के रूप में चित्रित किया जा सके.

हर्ष मंदर लेखक, मानवाधिकार कार्यकर्ता और स्तंभकार हैं.

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