लगभग छह साल पहले तक हरियाणा के नूंह के ग्रामीण इलाकों में यात्रा करते हुए मैं लगभग हर घर के बाहर गायों को बंधा हुआ देखता था, जो भारत के अधिकांश गांवों में एक आम बात है. हर शाम चरने के बाद घर लौटते गायों के बड़े झुंडों द्वारा उठाई गई धूल ऊपर उठकर आकाश में धूल के बादल बना देती और गाय की घंटियों की आवाज़ से वातावरण गूंज उठता था. लेकिन अब ऐसा नहीं होता. आज पूरे नूंह के घरों से गायें लगभग गायब हो गई हैं.
हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में फैला मेवात सदियों से नहीं तो दशकों से मेव समुदाय का घर रहा है. मेव कृषि करने वाला एक गरीब ग्रामीण समुदाय है, जो इस्लामी और हिंदू दोनों रीति-रिवाजों का पालन करता है. मेव लोगों की सबसे अधिक सघनता नूंह जिले में है जिसे 2016 तक मेवात भी कहा जाता है, जहां 80 प्रतिशत आबादी मुस्लिम हैं.
मेव ऐतिहासिक रूप से गायों की पूजा करते हैं, लेकिन बीते पांच साल से भी कम समय में गाय उनके देहाती जीवन से तेजी से मिटती चली गई है. गौहत्या की अफवाहों के कारण मुसलमानों की भयावह हत्याओं से मेवों के लिए आतंक का माहौल पैदा हो गया है. यह डर एक हिंदू बहुसंख्यक प्रशासन के हाथों निरंतर उत्पीड़न के कारण बना हुआ है, जो नागरिकों पर सामाजिक निगरानी रखने वाले गिरोहों के साथ अटूट रूप से जुड़ा हुआ है, जैसा कि नूंह के मेवों ने पिछले छह महीनों में कारवां ए मोहब्बत नाम से चली बातचीत में मुझे और मेरे सहयोगियों को समझाया है. इसका परिणाम यह हुआ है कि मेव लोग गाय पालना छोड़ रहे हैं. अपनी आजीविका के एकमात्र व्यवहार्य स्रोतों में से एक को खो रहे हैं और इस पशु के साथ उनका घनिष्ठ संबंध भी गायब हो रहे हैं.
नफरती हिंसा से लड़ने के लिए एक नागरिक अभियान कारवां ए मोहब्बत के दौरान हम 2017 में डेयरी किसान पहलू खान की हत्या के बाद से मेवात में काम कर रहे हैं, जिसमें भीड़ द्वारा मारे जाने वाले पीड़ितों के परिवारों की मदद करना, विधवाओं और बच्चों को सहायता प्रदान करना और कानूनी न्याय पाने में उनकी सहायता करना शामिल है. इस काम में हमारे साथ मेव डेयरी किसानों के परिवार से ताल्लुक रखने वाले एक युवा आईटी पेशेवर और सामाजिक कार्यकर्ता सगीर भी शामिल हुए. उन्होंने कहा, "हमें डर है कि हमें किसी भी समय गौहत्या और ऐसे अन्य अपराधों का आरोप लगाकर निशाना बनाया जा सकता है."
सिर्फ डेयरी किसान ही नहीं, नूंह और हरियाणा भर के मुसलमान भी इसी तरह की आशंकाओं से जूझ रहे हैं क्योंकि भारतीय जनता पार्टी के शासन में सांप्रदायिक नफरत का माहौल तेज हो गया है. यह बात 31 जुलाई को फिर स्पष्ट हो गई, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद द्वारा आयोजित जुलूस में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हिंसा भड़क गई, जिसमें तीन लोग मारे गए.
यह हिंसा जल्द ही राज्य के अन्य क्षेत्रों में फैल गई, जिसमें अक्सर हलचल भरे वित्तीय केंद्र के रूप में देखे जाने वाला गुरुग्राम भी शामिल है, जहां भीड़ ने एक मस्जिद को जला दिया और उसके इमाम की हत्या कर दी. हालांकि हिंसा का सटीक कारण पता नहीं चल सका है, बजरंग दल का सदस्य मोहित यादव - जिसे आमतौर पर मोनू मानेसर के नाम से जाना जाता है, जो हरियाणा के सबसे लोकप्रिय गौ रक्षक के रूप में उभरा है - ने एक वीडियो जारी कर घोषणा की थी कि वह रैली में भाग लेगा. यादव ने रैली में शामिल होने से इनकार किया है, लेकिन सोशल मीडिया चलाने वालों ने उसके वीडियो को ज़मीनी स्तर पर बिगड़ती स्थिति से जोड़ा है. इस साल तीन मुसलमानों की हत्याओं में उसका नाम आने के बाद भी उसे गिरफ़्तारी नहीं किया गया है. पिछली बातचीत में सगीर ने मुझे बताया था कि एक विचार उन्हें परेशान कर रहा है: "क्या एक दिन मुझ पर केवल मेरे नाम, मेरी पहचान, मेरे धर्म के कारण हमला किया जाएगा?"
मेव समुदाय हिंदुओं और मुसलमानों को अलग करने वाली कठोर पारंपरिक समझ को चुनौती देता है. मेव खतना, विवाह और दफनाने की इस्लामी रीति-रिवाजों का पालन करते हैं. लेकिन उनके निकाह में हिंदू रिवाज शामिल होते हैं, जैसे दूल्हा घोड़ी पर आता है और उनके "गोत्र" के बारे में बताया जाता है. उनके रीति-रिवाज में शैव और वैष्णव भक्ति परंपराओं दोनों के प्रभाव दिखाई देता हैं.
मेव लोग हिंदू राजपूत थे जिन्होंने लगभग चार शताब्दी पहले इस्लाम धर्म अपना लिया था लेकिन उन्होंने अपने जीवन के तरीके को पूरी तरह से नहीं बदला. मेव के इतिहास और संस्कृति के एक प्रमुख विशेषज्ञ शैल मायाराम के अनुसार वे कुछ सूफी मार्गदर्शकों से प्रभावित थे. मायाराम ने 2017 में इंडियन एक्सप्रेस को बताया, "उच्च जाति के राजपूत वंश और मुख्य रूप से भूमिधारक होने के नाते, वे अपनी हिंदू सांस्कृतिक प्रथाओं को छोड़ना नहीं चाहते थे, तब भी जब उन्होंने धीरे-धीरे इस्लामी तरीकों को अपनाया." कई मेव मानते हैं कि वे पांडवों में से एक, अर्जुन के वंशज हैं.
उनके जीवन का तरीका उनकी विशिष्ट धार्मिक पहचान से उतना निर्धारित नहीं था जितना कि जाति पदानुक्रम में उनके स्थान से था. समुदाय में गाय की पूजा के बारे में इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में एक लेख में, विद्वान मुकेश कुमार ने मेव को हिंदू किसान जातियों (जाट, अहीर, गुज्जर और मीना) के समान स्थिति वाला एक मुस्लिम किसान समुदाय के रूप में परिभाषित किया. मेव ने अन्य हिंदू देहाती-किसान मध्य-जातियों की तरह उन लोगों से समान सामाजिक दूरी बनाई रखी, जिन्हें निचली जाति का माना जाता था.
लेकिन कई रूढ़िवादी मुसलमानों द्वारा उनकी बहु-धार्मिकता को धार्मिक रूप से त्रुटिपूर्ण और अधार्मिक माना गया. 1926 में मुसलमानों से इस्लाम के मूल सिद्धांतों के प्रति निष्ठा का आग्रह करने वाला एक वैश्विक आंदोलन, तब्लीगी जमात मेवात में स्थापित किया गया था. समय के साथ तब्लीगी जमात ने मेवों को धीरे-धीरे हिंदू प्रथाओं से दूर करना शुरू किया.
विभाजन के दौरान मेवात में मेवों के हिंदूकरण ने और गति पकड़ ली. मायाराम के अनुसार हिंदू दक्षिणपंथ के प्रभाव में भरतपुर में अनुमानित तीस हजार मेवों का नरसंहार किया गया था और अलवर में अनगिनत संख्या में लोगों का नरसंहार किया गया था और पूरे मेव गांव जला दिए गए थे.
नव निर्मित पाकिस्तान चले जाने के लिए मेवों पर भारी दबाव डाला गया लेकिन 19 दिसंबर 1947 को अपनी हत्या से 42 दिन पहले महात्मा गांधी ने मेवात के घासेरा गांव की यात्रा की और उनसे भारत में रहने की अपील की. किंवदंती है कि गांधी ने मेवाती लोगों को भारत की रीढ़ बताया था. उनकी ऐतिहासिक अपील ने पाकिस्तान में संकटपूर्ण प्रवासन को रोक दिया और समुदाय द्वारा आज भी अपने लोक गीतों में इसका स्मरण किया जाता है.
मेव लोगों की सांस्कृतिक सीमाएं अस्थिर रहीं. महाभारत की उनकी लोक प्रस्तुति, जिसे पांडुन का कारा कहा जाता है, हिंदू और मुस्लिम घरों में समान रूप से वर्षों से लोकप्रिय थी. कम से कम कुछ साल पहले तक वे ईद के साथ-साथ होली और दिवाली भी मनाते थे. वे आमतौर पर सिंह जैसे उपनामों का इस्तेमाल करते थे, जिन्हें ज्यादातर हिंदू माना जाता था.
उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण और स्थायी हिस्सा गाय रही है. ऐतिहासिक और मानवशास्त्रीय दृष्टि से, भारत में किसान जातियां कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाने वाली गाय से निकटता से जुड़ी हुई हैं. इसलिए, जाटों, अहीरों और गुज्जरों की तरह मेव मुस्लिम किसान गाय को पालते, उनसे लगाव रखते और उनका पालन-पोषण करते थे. शोधकर्ता सिद्दीकी अहमद ने 2017 में इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि मेव "खानसोतिया" नामक त्योहार मनाते हैं, जिसके दौरान "गाय को धोया जाता है, उसके माथे पर टीका लगाया जाता है और उसके सींगों पर तेल लगाया जाता है. हो सकता है कि वास्तविक रूप से उनकी पूजा न की जाती हो, लेकिन उनमें एक निश्चित आस्था है जो समुदाय की आर्थिक आवश्यकताओं में निहित है. कथित तौर पर मेव मुसलमानों के लिए अपनी विवाहित बेटियों और बहनों को गाय उपहार में देने की भी प्रथा थी.”
नूंह के ताइन गांव के एक किसान शाहबुद्दीन के अनुसार, इसलिए मेवात में गौहत्या का चलन कभी नहीं रहा. पीढ़ियों से गाय पालना उनके परिवार की मुख्य आजीविका थी. शाहबुद्दीन ने कहा, ''हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि बहुत कम संख्या में लोगों ने उन गायों को काटा जो बहुत बूढ़ी थीं और दूध नहीं देती थीं, लेकिन मेवात के अधिकांश लोग बीजेपी के सत्ता में आने से पहले ही इसके विरोध में थे. कई पंचायतें हर साल गौहत्या के ख़िलाफ़ सार्वजनिक अपील करती थीं.” ऐसी गाय को पालना आर्थिक रूप से भी अलाभकारी था जो अब दूध नहीं देती थी. शाहबुद्दीन ने मुझे बताया, "एक बूढ़ी गाय को खिलाने और उसकी देखभाल करने में प्रति वर्ष लगभग 70,000 रुपए का खर्च आता है. मेवात के किसान ऐसा नहीं करना चाहेंगे क्योंकि वे अपनी गायों से प्यार करते हैं लेकिन वे इतने गरीब हैं कि इसे वहन नहीं कर सकते. इसलिए, उनके पास दो विकल्पों में से केवल एक ही बचा था. या तो वे इन्हें गौशालाओं को दान कर दें या वे इन्हें उन लोगों को बेच दें जो गायों का व्यापार करते हैं. लेकिन आज यह दूसरा विकल्प लगभग पूरी तरह ख़त्म हो चुका है.”
मेव के सदियों से गाय के साथ जो घनिष्ठ संबंध रहे हैं, उनकी वास्तविकता आज मुख्यधारा में फैलाए गए मुसलमानों को गाय के हत्यारे बताने वाले झूठ से पूरी तरह से विपरीत है. लेकिन, कुमार बताते हैं, "धर्म का प्रतीक मानी जाने वाली गाय ऐतिहासिक रूप से अन्य धर्मों के अनुयायियों के बीच भी पूजनीय रही है." ऐसा प्रतीत होता है कि गाय को विशेष रूप से हिंदू धार्मिक प्रतीक और काफी हद तक हिंदू आस्था के रूप में भी जानबूझकर गढ़ा गया है ताकि मुस्लिमों को गाय के दुश्मन के रूप में चित्रित किया जा सके.
अप्रैल 2017 में नूंह का एक डेयरी किसान, पहलू खान जयपुर से गायों, जिनमें से कुछ गर्भवती थीं और एक पशु मेले से खरीदे गए बछड़ों को लेकर लौट रहा था. चूंकि पहलू दुधारू मवेशियों को ले जा रहा था, इसलिए कायदे से यह नहीं माना जा सकता था कि उन्हें मारने के लिए लाया गया था. लेकिन हिंसक भीड़ ने पत्थरों और लाठियों से पीट-पीटकर पहलू खान की हत्या करने से खुद को नहीं रोक सकी. न ही यह सच्चाई बीजेपी के एक राज्य मंत्री को पहलू खान को गौ तस्कर करार देने से रोक सकी और न ही स्थानीय पुलिस को उस पर हत्या के इरादे से गौ तस्करी का आरोप लगाने से. इसके बाद गौ हत्या का आरोप लगाते हुए नवंबर 2017 में उमर खान की और जुलाई 2018 में रकबर खान की हत्याएं हुईं, गौरक्षकों पर इन दोनों मेव पुरुषों की हत्या का आरोप लगाया गया था.
मेव मुस्लिम किसानों ने हमें बताया कि इन हत्याओं के साथ-साथ पक्षपातपूर्ण पुलिस और पुलिस के साथ जुड़े हिंसक गिरोहों ने मिलकर गाय पालन को एक खतरनाक व्यवसाय में बदल दिया है, जिसके लिए उन्हें अपनी जान तक गंवानी पड़ सकती है. हिंसक समूहों और पुलिस द्वारा उन्हें कैसे परेशान किया गया, इसके बारे में उनके विवरण समान थे, छोटे बदलावों को छोड़ दें तो इससे एक पैटर्न का संकेत मिलता है.
मेवों के लिए इस माहौल को बनाने में राज्य की नीतियों ने प्रमुख भूमिका निभाई है. 2013 में कांग्रेस के भूपिंदर सिंह हुडा के नेतृत्व वाली हरियाणा सरकार ने गौहत्या को रोकने के लिए, वास्तव में बहुसंख्यक समुदाय के पूर्वाग्रह को खुश करने के लिए, पशु मेलों को बंद कर दिया था. चूंकि हरियाणा में कोई पशु मेला नहीं लगता है, इसलिए नूंह में डेयरी किसानों के पास राजस्थान जैसे पड़ोसी राज्यों से मवेशी खरीदने और वहां से ट्रक में लाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है. अगर पहलू खान नूंह के मेले से मवेशी खरीद पाते तो शायद आज भी जिंदा होते.
2014 में राज्य में बीजेपी की मनोहर लाल खट्टर सरकार के सत्ता में आने के बाद, इसने हरियाणा गौवंश संरक्षण और गौसंवर्धन अधिनियम लागू किया. इस कानून में गौहत्या के दोषियों के लिए तीन से दस साल तक की कठोर कैद और हत्या के उद्देश्य से गायों का निर्यात करने वालों के लिए तीन से सात साल तक की कठोर कैद का प्रावधान था. दोनों अपराधों और यहां तक कि सभी प्रकार के गौमांस की बिक्री को गैर-जमानती अपराध बना दिया गया. कांग्रेस और इंडियन नेशनल लोक दल-दोनों विपक्षी दलों-ने कानून का समर्थन किया, हुडा ने यहां तक घोषणा की कि इस कदम के लिए बीजेपी "पीठ थपथपाने" की हकदार है.
अगले छह वर्षों में गाय संरक्षण के प्रयासों में बढ़ोतरी हुई. गौरक्षा के लिए समर्पित पुलिस चौकियां बनाई गईं. इनके साथ ही डेयरी किसानों ने हमें बताया कि खुद को गौरक्षक कहलाने वाले कुछ हिंसक सशस्त्र गिरोह, जिनमें अधिकतर युवा पुरुष होते हैं, अक्सर राजमार्गों पर पुलिस चौकियों के बाहर सीधे काम करते हैं. जुलाई 2021 तक हरियाणा सरकार ने गौ संरक्षण के लिए एक विशेष टास्क फोर्स अधिसूचित की थी, जिसमें न केवल पुलिस और सिविल सेवाओं के वरिष्ठ अधिकारी बल्कि गौ रक्षक भी शामिल थे. इस समिति के तहत इसी उद्देश्य के लिए जिला-स्तरीय टास्क फोर्स का गठन किया गया था.
45 वर्षीय डेयरी किसान मोहब्बत ने बताया, "पुलिस से भी ज्यादा हम गौरक्षकों से डरते हैं." जिस तरह की सजाएं ये निगरानी समूह देते हैं इससे उनको लेकर डर पैदा होता है. एक अन्य 45 वर्षीय किसान ज़खर ने कहा, "हम ऐसे कई लोगों को जानते हैं जिन्हें इन गिरोह ने मौत के घाट उतार दिया था." शाहबुद्दीन और ज़खर ने बताया कि गायों को ले जाते समय डेयरी किसानों को अक्सर गौरक्षकों द्वारा रोका जाता है. किसानों ने हमें बताया कि ये लोग अक्सर डंडों और कभी-कभी खंजर और बंदूकों से लैस होते हैं. शाहबुद्दीन ने कहा, "यह मेरे साथ भी हुआ है, वे आपकी गायों को जब्त कर लेते हैं और उन्हें गौशाला में भेज देते हैं."
चूंकि उनकी आजीविका गायों पर निर्भर थी, इसलिए शाहबुद्दीन फिर भी गौशाला गए. उन्होंने कहा, "लेकिन गौशाला प्रबंधन ने मुझसे गाय की असल कीमत से भी ज्यादा बड़ी रकम की मांग की." उन्होंने बताया कि यह गौशाला में गाय के रखरखाव की भरपाई की कीमत थी. और उस समय मेरी गायें इतनी कमजोर हालत में थीं कि वे डेयरी के लिए बेकार थीं. इसलिए, भारी मन से मैंने उन्हें वहीं छोड़ दिया.” उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने गौरक्षकों द्वारा पुलिस में पीड़ित किसानों के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने के बारे में भी सुना है. किसानों ने कहा कि उन्होंने ऐसी कई घटनाओं के बारे में सुना है जहां गौरक्षकों ने चरने के लिए निकली गायों को बेतरतीब ढंग से जब्त कर लिया. शाहबुद्दीन ने विस्तार से बताया, “यह एक सूखा इलाका है यहां बहुत कम सिंचित भूमि है. इसलिए, हमारे गांव में गायों को खिलाने के लिए कोई घास या चारा नहीं है. चरागाह भूमि की खोज के लिए, हम हमेशा झुंडों को लंबी दूरी तक ले जाते हैं. लेकिन अब अगर हम ऐसा करते हैं, तो गिरोह अवैध रूप से गायों को जब्त कर लेंगे, उन्हें गौशाला में भर्ती करा देंगे और हमारे खिलाफ आपराधिक शिकायत दर्ज करा देंगे.
किसानों ने कहा कि यदि फिर भी कोई बहादुरी दिखाते हुए गाय पालता है तो पुलिस और राज्य अधिकारियों द्वारा बार-बार निरीक्षण करके आपको परेशान किया जाता है. जाखड़ ने बताया, “यदि आप एक भी गाय रखते हैं, शायद ही कोई दिन ऐसा गुजरता हो जब पुलिस या अन्य अधिकारी निरीक्षण करने, गाय को टैग करने, गाय की तस्वीर लेने, गायों की गिनती करने के लिए न आते हों और यह सब चलता रहता है. उन्होंने आगे कहा, "अगर जानवर बीमारी या प्राकृतिक कारणों से मर जाता है, तो यह गाय पालने वाले मेव के लिए एक संकट की तरह है, इस डर से कि अगली बार जब वे गिनती करने आएंगे, तो संख्या कम होगी और आप पर जानवर को मारकर उसका मांस बेचने का आरोप लगाया जाएगा."
डेयरी किसान इस बात पर एकमत थे कि हरियाणा में बीजेपी के शासन के साथ उनका उत्पीड़न शुरू हुआ. शाहबुद्दीन ने याद करते हुए कहा, “कांग्रेस के समय में हम अपनी गायों को पलवल तक (नूंह के बाहर) चराने के लिए राजमार्गों का उपयोग करके ले जाते थे और कोई भी हमें रोकता या सवाल नहीं करता था. अब हम उन्हें दो मील तक पैदल नहीं ले जा सकते.” जाखड़ ने कहा, “पहले के समय में हम बिना किसी परेशानी के गाय पालते थे. चाहे हम 50 गायें पालें या 70 गायें, इससे किसी को कोई सरोकार नहीं था.” उन लोगों को यह भी डर है कि गांव में जिस किसी से उनकी दुश्मनी है, वह उनके बारे में झूठी शिकायत दर्ज करा सकता है.
2023 में जनवरी के अंत में गौरक्षकों पर नूंह के वारिस खान और फरवरी के मध्य में भरतपुर के नजीब और जुनैद की हत्या का आरोप लगाया गया था. दोनों मामलों में एक गौरक्षक का नाम सामने आया: मोहित यादव, जिसे मोनू मानेसर के नाम से जाना जाता है. मानेसर का रहने वाला यादव बजरंग दल का एक प्रमुख नेता और गुरुग्राम प्रशासन की विशेष गाय संरक्षण टास्क फोर्स का सदस्य है. हालांकि यादव ने मीडिया के सामने अपने खिलाफ लगे आरोपों से इनकार किया, उसे कथित तौर पर एक फेसबुक लाइव में अपने सहयोगियों के साथ वारिस पर हमला करते हुए दिखाया गया था. यादव के फेसबुक पेज पर उसे कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के साथ फोटो खिंचवाते और घूमते हुए भी दिखाया गया है.
यादव की गिरफ्तारी का दबाव बढ़ने पर हरियाणा में दो महापंचायतें हुईं. दोनों महापंचायतों में जुटी भीड़ ने गौरक्षकों के प्रति जोरदार समर्थन जताया. गुरुग्राम में सार्वजनिक रूप से नमाज अदा करने के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाले कुलभूषण भारद्वाज ने एक सभा को संबोधित करते हुए कहा, "अगर राजस्थान पुलिस मोनू को गिरफ्तार करने के लिए मानेसर में कदम रखने की हिम्मत करती है, तो वह उस रास्ते से वापस नहीं लौटेगी." उसने आरोपियों को न केवल गाय का, बल्कि हिंदू आस्था और हिंदू राष्ट्र का धर्मी और बहादुर रक्षक बताया. इसके बाद से यादव को अभी भी गिरफ्तार नहीं किया गया है. नूंह में
गाय की घंटियों को खामोश करने के साथ, हिंदू राष्ट्रवाद ने पहले से ही हाशिए पर मौजूद समुदाय को और पीछे धकेल दिया है. गाय डेयरी नूंह में मेव के लिए उपलब्ध कुछ व्यवहार्य आजीविकाओं में से एक थी. इसे नीति आयोग ने 2018 में भारत के सबसे कम विकसित जिले के रूप में पहचाना था. अधिकांश खेत असिंचित हैं, जिला पानी की कमी से जूझ रहा है और यहां बड़े पैमाने पर भूजल खारा है. 52 वर्षीय डेयरी किसान उबैर के अनुसार, भैंसें केवल अमीर किसानों के एक छोटे समूह के लिए एक व्यवहार्य विकल्प हैं. उन पर खर्चा अधिक होता है और उन्हें गायों की तुलना में अधिक चारे और देखभाल की आवश्यकता होती है.
इस तरह के विचारों के कारण आजीविका के अन्य विकल्पों का भी विनाश हुआ है. 2016 में मैंने लिखा था कि कैसे जिले को विभाजित करने वाले राजमार्गों पर सड़क के किनारे अनुमानित तीन हजार छोटे ठेले बिरयानी बेचते थे. इससे कम से कम पंद्रह हजार लोगों को रोजगार मिलता था. लेकिन बिरयानी में मांस गाय का था या नहीं, इसकी जांच करने के लिए पुलिस और गौरक्षकों ने इन स्टालों पर छापा मारना शुरू कर दिया. यह तय करना असंभव था कि मांस गाय का है या नहीं और गौमांस बेचने के आरोप के डर के कारण यह व्यवसाय भी लगभग पूरी तरह से बंद हो गया.
पूर्व बिरयानी विक्रेताओं ने कहा कि सात साल बाद भी केवल चिकन बिरयानी बेचना सुरक्षित है क्योंकि हड्डियों को गौमांस समझने की गलती नहीं की जा सकती है. लेकिन चिकन का मांस भैंस के मांस से कहीं अधिक महंगा है, भैंस के मांस की बिरयानी की एक प्लेट 15 रुपए में बिकती है, जबकि चिकन बिरयानी 35 रुपए में बिकती है. इसलिए, राजमार्ग से बिरयानी की दुकानें लगभग पूरी तरह से गायब हो गई हैं.
अपने 2016 के लेख में मैंने यह भी उल्लेख किया कि कैसे अन्य जानवरों, यहां तक कि ऊंटों को भी लाने ले जाने से उन पर हमले का खतरा रहता है. इस वर्ष मैंने जिन किसानों से बात की, उन्होंने कहा कि वे बकरियों और भेड़ों को ले जाते समय भी असुरक्षित महसूस करते हैं, जबकि उन्हें मारने पर कोई कानूनी रोक नहीं है. सगीर ने कहा, "आज हकीकत यह है कि अगर आप मुस्लिम हैं और किसी भी जानवर को खरीदने या बेचने के लिए अपने जिले से बाहर जा रहे हैं तो आप सुरक्षित नहीं हैं."
ट्रक चलाना एक अन्य पेशा है जिसे युवा मेव लोग अपनाते थे. लेकिन नियमों में बदलाव किया गया है और कहा गया है कि नए लाइसेंस के लिए ड्राइवरों को कम से कम दसवीं पास होना चाहिए, जिसका व्यापक प्रभाव पड़ेगा. सतपुड़िया गांव के 35 वर्षीय नौमान ने कहा, "युवा मेव पुरुषों के लिए कोई आजीविका नहीं बची है. हममें से कुछ लोगों ने छोटे व्यवसायों के साथ छोटे ठेले लगाए हैं, लेकिन अब हम पहले की कमाई के मुकाबले बेहद कम कमा पाते हैं. मेवात के युवाओं ने खाड़ी में मजदूर के रूप में पलायन करने के अवसरों की तलाश शुरू कर दी है.”
शाहबुद्दीन ने मुझसे कहा कि उन्हें अभी भी उम्मीद है कि ये अंधकारमय समय बीत जाएगा. उन्होंने कहा, “अगर सरकार बदलती है, तो हमें विश्वास है कि हम डेयरी किसानों के रूप में अपना काम फिर से शुरू कर सकेंगे. अल्लाह वह दिन लाए! लेकिन फिलहाल, हिंसा की ताज़ा स्थिति को देखें तो व्यापक आतंक और खौफ ने इस क्षेत्र को अपनी चपेट में ले लिया है.”
मैं सगीर के शांत निराशा शब्दों से डरा हुआ हूं. “जब हम अपने जिले से बाहर गुड़गांव या पलवल भी जाते हैं तो एक डर हमें घेरे रहता है कि क्या हम सुरक्षित हैं या नहीं? सिर्फ मैं ही नहीं, मुझे लगता है कि मेवात का हर मुसलमान ऐसा ही महसूस करता है. डर सिर्फ अपनी सुरक्षा का नहीं बल्कि अपने समुदाय, अपने देश के लिए भी है.” सगीर ने कहा, "गौरक्षा हमारे खिलाफ हिंसा का कारण नहीं है." यह तो एक बहाना है. अगर ऐसा नहीं होता तो उन्हें कोई और कारण मिल जाता. हमें अक्सर आश्चर्य होता है कि सरकार क्या चाहती है, क्या वह हमें निशाना बनाकर नरसंहार देखना चाहती है?”