राजस्थान चुनावों में बीजेपी को भारी पड़ सकता है दलित आक्रोश

सुप्रीम कोर्ट के अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार रोकथाम) कानून पर आए फैसले के खिलाफ 2 अप्रैल 2018 को आयोजित भारत बंद के दौरान 10 लोग मारे गए और सैकड़ों घायल हुए. हिमांशु व्यास/हिंदुस्तान टाइम्स/गैटी इमेजिस
10 November, 2018

We’re glad this article found its way to you. If you’re not a subscriber, we’d love for you to consider subscribing—your support helps make this journalism possible. Either way, we hope you enjoy the read. Click to subscribe: subscribing

14 मई 2015 को नागौर जिले के डांगावास गांव में दलित मेघवालों और जाटों के बीच पांच दशक पुराने जमीन के एक विवाद ने जातीय हिंसा का रूप ले लिया. उस दिन सुबह सैकड़ों की संख्या में जाटों ने 15 एकड़ की उस विवादित जमीन तक मार्च किया जहां डांगावास गांव के रतना राम परिवार के 16 मेघवाल पहरा दे रहे थे. इस जमीन पर इस परिवार का दावा है. झगड़े में गोली चल गई और वहां पर खड़ा एक आदमी मारा गया. पुलिस का दावा है कि गोली दलितों की ओर से चली थी. मेघवाल इस आरोप को खारिज करते हैं. भीड़ ने मेघवालों पर हिंसक हमला किया. उन लोगों को ट्रेक्टर से रौंध दिया. रतना राम मेघवाल और उनके भाई पांचा राम मेघवाल की उस दिन मौत हो गई और घायल पोकर राम, गणेश राम और गणपत राम ने बाद में दम तोड़ा.

इस घटना पर पुलिस ने दो एफआईआर दर्ज की. एक एफआईआर रतना राम के परिवार की ओर से दर्ज की गई जिसमें 70 लोगों को आरोपी बनाया गया है और दूसरी मेघवालों के ऊपर है जो वहां खड़े आदमी, रामपाल गोस्वामी की मौत के लिए है, जो न मेघवाल था और न ही जाट. जब मैंने डांगावास में रतना राम के भतीजे गोविंद राम मेघवाल से मुलाकात की तो उनका कहना था कि स्थानीय प्रशासन डांगावास के दलितों के प्रति संवेदनहीन है. उन्होंने यह भी कहा कि वसुंधरा राजे सरकार ने सहयोग नहीं किया और डांगावास से भारतीय जनता पार्टी के विधायक सुखाराम मेघवाल ने जाटों का साथ दिया.

डांगावास के बाहरी इलाके में स्थित मेघवाल बस्ती के अपने घर में गोविंद राम ने मुझे बताया, “हमने अनुसूचित जाति-जनजाति कानून के तहत एफआईआर दर्ज कराई. जाटों के राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव के बावजूद पुलिस को एफआईआर दर्ज करनी पड़ी.” झगड़े को नियंत्रण करने के लिए घर के बाहर तने पुलिस के अस्थाई टेंट की ओर देखते हुए गोविंद ने कहा, “आने वाले चुनावों में हम लोग कांग्रेस को वोट दे सकते हैं लेकिन बीजेपी को कतई वोट नहीं देंगे.” राजस्थान में बीते दिनों दलित अत्याचार की घटनाएं लगातार हुईं हैं. ये घटनाएं आगामी विधान सभा चुनावों में दलितों का समर्थन प्राप्त करने के लिए बीजेपी के आगे चुनौती खड़ी करेंगी.

2013 के विधान सभा चुनावों में बीजेपी ने 200 में से 163 सीटें जीती थी. राजस्थान में इससे पहले हुए किसी भी चुनावों में यह उसका सबसे अच्छा प्रदर्शन था. इस जीत में मुख्य बात थी अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सीटों में उसने अच्छा प्रदर्शन किया था. आरक्षित 34 सीटों में से बीजेपी ने 32 सीटें जीती जबकि कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी को यहां एक भी सीट नहीं मिली. राजस्थान में कांग्रेस को 21 सीटें मिली और बहुजन समाज पार्टी ने 195 सीटों में, जिस पर उसने उम्मीदवार खड़े किए थे, केवल 3 सीटों में जीत हासिल की. बीजेपी की जीत का यह ट्रेंड 2014 के लोक सभा चुनावों में भी दिखाई दिया. इस पार्टी ने राजस्थान की सभी 25 संसदीय सीटें अपने नाम कर ली. विकासशील समाजों के लिए शोध केन्द्र- लोकनीति के तथ्यांको के अनुसार 2009 के लोक सभा चुनावों से 2014 के लोक सभा चुनावों तक राजस्थान में दलितों के बीच बीजेपी का मत प्रतिशत 26 प्रतिशत बढ़ा था. राजस्थान में 7 दिसंबर को चुनाव होने हैं और लगता है कि राज्य के दलितों का गुस्सा बीजेपी के चुनावी गणित को बिगाड़ सकता है. 

राजस्थान की कुल आबादी का 17.2 प्रतिशत दलित है यानी राज्य की 7 करोड़ आबादी का 1.25 करोड़. और कुल दलितों का 50 प्रतिशत हिस्सा मेघवालों का है. मेघवाल में उप जातियां है- सालवी, बुनकर, बलाई और मेघवंशी- जो राज्य के मध्य और पश्चिमी भागों में फैले हुए हैं. बाकी के आधे दलित जिनमें जाटव जैसी उपजातियां भी हैं- जो उत्तर प्रदेश से सटे पूर्वी जिलों में बसे हैं- बैरवा और रैगर हैं. इसके अतिरिक्त 20 प्रतिशत दलित की बसावट शहरों में है- जिसमें वाल्मीकि और जिंगर उपजातियों सहित व्यवसायी खटीक समुदाय भी हैं.

डांगावास में हुए अत्याचार ने सत्तारूढ़ बीजेपी के खिलाफ गुस्से को हवा दी तो 20 मार्च 2018 को एसीएसटी अत्याचार रोकथाम कानून को कमजोर बनाने वाले सर्वोच्च अदालत के फैसले ने गुस्से को बगावत की शक्ल दे दी. उस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी कर्मचारी और आम लोगों के खिलाफ इस कानून के तहत एफआईआर दर्ज करने से पहले आरंभिक पड़ताल किए जाने की बात कही है और अंतरिम जमानत का प्रावधान- जिसका प्रावधान पहले नहीं था- अब इस प्रक्रिया का हिस्सा बन गया है.

जयपुर के वकील ताराचंद वर्मा ने मुझे बताया कि इस फैसले ने दलितों के भीतर जबरदस्त गुस्सा भर दिया. वर्मा ने कहा, “जिस जज ने यह फैसला सुनाया उसे राष्ट्रीय हरित अधिकरण में पदोन्नत कर दिया गया. फेसबुक और व्हाट्एस के जरिए दलित मोबलाइज हुए और 2 अप्रैल को हजारों दलितों ने भारत भर में प्रदर्शन किया. भारी संख्या में दलित सड़कों पर उतरे और पुलिस और करणी सेना ने प्रदर्शनकारी दलितों पर हिंसक हमले किए. करणी सेना राजपूत जैसी उच्च जातियों की सेना है जो अपने हिंसक प्रदर्शनों के लिए जानी जाती है. 

डांगावास अत्याचार ने समुदाय के भीतर बड़े पैमाने पर गुस्सा भर दिया. राज्य में दलितों के खिलाफ जातीय अपमान की घटनाओं और हिंसक हमलों ने सत्तारूढ़ पार्टी के साथ समुदाय के संबंध को तोड़ना शुरू कर दिया. 2 अप्रैल का विरोध प्रदर्शन दलित-बीजेपी संबंधों के लिए अशुभ संकेत है. राज्य के भीलवाड़ा जिले के पत्रकार और विश्लेषक भंवर मेघवंशी ने कहा, “डांगावास और 2 अप्रैल का विरोध प्रदर्शन राजस्थान के दलितों के लिए महत्वपूर्ण मोड़ है.” पहली घटना की वजह से बीजेपी उप-चुनाव हार गई और दूसरी घटना यह तय करेगी कि 2018 के विधान सभा चुनावों में दलित कैसे वोट करते हैं क्योंकि मुख्य सवाल है कि 2 अप्रैल को हमारे साथ क्या हुआ?

2 अप्रैल के विरोध प्रदर्शन के बाद पुलिस ने एफआईआर दर्ज की और राज्य भर में दलितों को गिरफ्तार किया. हालांकि राज्य द्वारा दायर की गई शिकायतों की कोई आधिकारिक जानकारी नहीं है लेकिन वर्मा का दावा है कि राजस्थान में दलितों और अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ 311 एफआईआर दर्ज की गई थी और उनमें से कोई भी वापस नहीं ली गई है.

उस दिन सड़कों पर विरोध करने वाले वर्मा ने दावा किया कि पुलिस ने कई झूठे मामले दायर किए हैं. उदाहरण के लिए, जयपुर के गांधीनगर पुलिस स्टेशन ने सार्वजनिक संपत्ति को बर्बाद करने के लिए राजस्थान विश्वविद्यालय के छात्र नेता रोशन मंडोथिया के खिलाफ एफआईआर दर्ज की. जयपुर से 200 किलोमीटर दूर, सीकर जिले के नीम का थाना में उसी दिन, उसी आरोप के लिए मंडोथिया पर एक और एफआईआर दर्ज है. मंडोथिया के अनुसार, “उस दिन मैं इन दोनों ही जगहों पर नहीं था.”

“मैं राजस्थान में एकमात्र व्यक्ति हूं जिसके खिलाफ दो अलग-अलग स्थानों पर दो अलग-अलग एफआईआर दर्ज की गईं. इन दोनों स्थानों पर मैं मौजूद नहीं था. मैं शांतिपूर्ण प्रर्दशन में गया था जो जयपुर के मालवीय नगर से अलवर टोल प्लाजा तक के लिए था.” जब मैं राजस्थान विश्वविद्यालय में छात्र संघ के कार्यालय में मंडोथिया से मिला तो उन्होंने बताया, “दबंग जातियां पुलिस के साथ साठगांठ कर आवाज उठाने वाले दलितों को सबक सिखाना चाहती थीं और इसलिए हमारे खिलाफ झूठी एफआईआर दर्ज कराई गईं.”

डांगावास पीड़ितों में से एक के भतीजे गोविंद राम ने भी इस राय से सहमति व्यक्त की कि डांगावास की घटना और सुप्रीम कोर्ट का फैसला बीजेपी के खिलाफ जा सकता है. गोविंद ने कहा, “हम लोग अधिनियम में कड़े प्रावधानों के कारण ही एफआईआर दर्ज कराने में सक्षम थे. सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय दलितों के साथ अन्याय है. भविष्य में हाने वाले अत्याचारों के मामलों में हम लोगों को न्याय कैसे मिलेगा?”

6 अक्टूबर को देश भर के आठ राज्यों के दलित नेताओं, बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं ने जयपुर में एक गोलमेज में भाग लिया जो राजस्थान में दलितों के बीच चल रहा मंथन दिखाता है. उच्च न्यायपालिका और शिक्षा में दलितों के कम प्रतिनिधित्व, समुदाय के भीतर जातीय बंटवारा और भविष्य में दलित आंदोलन के बारे में चर्चा की गई. गुजरात के वडगाम के निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवानी इस कार्यक्रम के मुख्य आकर्षण थे. शाम को औपचारिक मंथन समाप्त होने के बाद लोगों ने राजस्थान और मध्य प्रदेश के चुनावों के लिए टिकट हासिल करने की उम्मीद में मेवानी को घेर लिया. राजस्थान के एक दलित कार्यकर्ता ने मुझसे कहा कि यहां आम धारणा है कि कांग्रेस ने मेवानी के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा न कर उन्हें जिताया था इसलिए वे राहुल गांधी के साथ “सीधे संपर्क” में हैं. 

पत्रकार मेघवंशी के मुताबिक मेघवाल समुदाय बीजेपी की खिलाफत में मुखर है और उसके कांग्रेस को वोट देने की संभावना है. उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश में उनके समकक्षों की तरह जाटव बसपा को वोट दे सकते हैं, जबकि बैरवा जाति कांग्रेस और बीजेपी के बीच विभाजित हैं. शहरी दलित समुदायों का झुकाव बीजेपी की तरफ है लेकिन वे राजस्थान की जनसंख्या का मात्र 2.4 प्रतिशत हैं.

बीएसपी की राजस्थान इकाई के पूर्व महासचिव धर्मेंद्र जाटव ने बताया कि बीजेपी ने 2013 और 2014 में अनुसूचित जाति निर्वाचन क्षेत्रों में नरेन्द्र मोदी के वादों और कांग्रेस के खिलाफ गुस्से के चलते जीत हासिल की थी. जाटव ने कहा, “रोजगार के वादे, भ्रष्टाचार से लड़ने और अच्छे दिन जैसे नारों ने अधिकांश दलितों को बीजेपी को वोट देने के लिए प्रेरित किया था.” पांच साल बाद समर्थन नाराजगी में तब्दील हो गया है. “2 अप्रैल का विरोध प्रदर्शन सोशल मीडिया के कारण हुआ था. यह गुस्सा बेरोजगारी के खिलाफ भी था क्योंकि दलित युवाओं के बीच जबरदस्त बेरोजगारी है.”

गोविंद के मुताबिक, बीजेपी के 32 दलित विधायकों में से 16 मेघवाल हैं लेकिन दलित समुदाय के साथ इनमें से कोई खड़ा नहीं हुआ. उन्होंने कहा, “डांगावास की घटना के बाद स्थानीय विधायक सुखाराम मेघवाल ने समुदाय के लिए कुछ नहीं किया.” जब मैंने सुखाराम को फोन किया तो यह पता चलने पर कि मैं एक पत्रकार हूं उन्होंने फोन काट दिया. जब मैंने दोबारा फोन किया तो फोन बंद था. 

डांगावास के निवासी खेमराज चौधरी ने मुझे बताया कि सुखाराम जाटों के “कब्जे” में है. डांगावास जनसंख्या का 60 प्रतिशत जाट हैं जो नागौर जिले में फैले हुए हैं. चौधरी ने कहा, “चूंकि जाटों ने उन्हें वोट दिया था इसलिए सम्मान प्रकट करने के लिए वह उनके सामने जमीन पर बैठते हैं.”

खबरों के मुताबिक कोटा जिले के रामगंज मंडी के बीजेपी विधायक चंद्रकांत मेघवाल एकमात्र ऐसे विधायक थे जिन्होंने डांगावास के बाद अपने समुदाय के पक्ष में बात की थी. चंद्रकांत ने मुझे बताया, “दलित बीजेपी से नाराज नहीं हैं. सरकार समुदाय को उनके लिए लागू की गईं विभिन्न योजनाओं के बारे में बताने की कोशिश कर रही है और मैं कह सकता हूं कि हम अगले 2 महीनों में दलित वोटरों को लुभाने के लिए बहुत मेहनत करेंगे.”

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की अनुसूचित जाति सेल के अध्यक्ष नितिन राउत बताते हैं कि राजस्थान में दलित समुदाय का समर्थन पाने के लिए कांग्रेस अपने घोषणापत्र में कई वादों को शामिल करने का मन बना रही है. अनुसूचित जातियों के लिए विशेष रूप से तैयार वादों में पार्टी समुदाय के भीतर विशिष्ट व्यवसायों जैसे बुनकर और मैला ढोने वालों के लिए योजना शामिल करेगी. उन्होंने कहा कि कांग्रेस 2 अप्रैल को दलितों के खिलाफ दायर मामलों को वापस लेने की जिम्मेदारी लेगी. जब मैंने उनसे पूछा कि डांगावास के दलित कांग्रेस से क्या उम्मीद कर सकते हैं तो राउत ने जवाब दिया, “हमें डांगावास पीड़ितों के लिए जो कुछ भी करना पड़ेगा करेंगे. मारे गए दलितों को मुआवजा जिंदा नहीं कर सकता इसलिए उनकी जो भी मांग है हम उन्हें न्याय दिलाएंगे.”

दलितों का समर्थन हासिल करना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा. आरक्षित क्षेत्रों में दलितों की जनसंख्या अधिक से अधिक 20 प्रतिशत है इसलिए सीट जीतने के लिए राजनीतिक दलों को जाटों और अन्य समुदायों के अलगाव से बचना पड़ेगा. कांग्रेस के लिए यह विशेष रूप से मुश्किल होगा क्योंकि बीएसपी स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ रही है और कांग्रेस के वोट काट सकती है.

जाटव ने मुझे बताया कि बीएसपी ने आगामी चुनावों के लिए कांग्रेस के साथ गठबंधन न करने का फैसला किया है क्योंकि कांग्रेस ने प्रस्तावित सीट वितरण को खारिज कर दिया था. उन्होंने कहा, “बसपा ने 25 सीटों की मांग की थी लेकिन कांग्रेस इतनी सीटें नहीं देनी चाहती थी.” हालांकि, राउत ने कांग्रेस-बसपा गठबंधन की विफलता और कांग्रेस की संभावनाओं पर उपरोक्त बातों का असर पड़ने की बात से इनकार किया.

बीजेपी ने भी दलित वोटरों को अपने पक्ष में बनाए रखने का प्रयास शुरू कर दिया है. अपने आउटरीच कार्यक्रम के भाग के रूप में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने 114 करोड़ रुपए के उन ऋणों को माफ कर दिया जिन्हें राजस्थान अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति सहकारी विकास लिमिटेड ने मंजूरी दी थी. बीजेपी के विश्वास निर्माण उपायों में उसके नेताओं का दलितों के घरों में भोजन करने वाला कार्यक्रम शामिल है जैसा अमित शाह ने किया था. और आरएसएस ने राज्य भर में दलित जोड़ों के लिए सामूहिक विवाह आयोजित किए हैं. बीजेपी ने भीम प्रतिनिधि नाम के दलित कार्यकर्ताओं की टीम गठित की है जो दलितों के लिए कल्याणकारी कार्यक्रमों के बारे में आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों और अन्य अनुसूचित जाति की आबादी वाले क्षेत्रों में दलितों को जागरूक करने का काम करेगी.

भंवर मेघवंशी का कहना है कि चुनाव के दिन राजस्थान के दलित अपने भाग्य का फैसला करेंगे. “लखनऊ, दिल्ली या अहमदाबाद में बैठे भैयाजी, भाईसाब या बुआजी हमारी ओर से सौदेबाजी नहीं कर सकते. राजस्थान के दलितों को पता है कि 2 अप्रैल को नीले झंडे के साथ कौन खड़ा था और कौन इसके खिलाफ था. दलित इस बात को ध्यान में रख कर मतदान करेंगे.”

Thanks for reading till the end. If you valued this piece, and you're already a subscriber, consider contributing to keep us afloat—so more readers can access work like this. Click to make a contribution: Contribute