दानिश आजाद अंसारी याद करते हैं कि जब वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्य थे तब उनसे यह सवाल अक्सर पूछा जाता कि "तुम मुसलमान हो फिर भगवा ब्रिगेड में क्या कर रहे हो?" अंसारी जवाब देते कि वह इसलिए एबीवीपी में शामिल हुए क्योंकि यह एक राष्ट्रवादी संगठन है.
34 साल के अंसारी ने मुझे इसी तरह की प्रतिक्रिया इस साल अप्रैल में दी थी, जब मैंने उनसे उत्तर प्रदेश की भारतीय जनता पार्टी की सरकार में एकमात्र मुस्लिम मंत्री बनने के बारे में पूछा था. उन्होंने कहा, "जो मैंने विद्यार्थी परिषद में सीखा था, वह बीजेपी ने मुझे सिखाया कि मुख्यधारा में कैसे लागू किया जाए."
मेरी उनके साथ उक्त बातचीत से कुछ हफ्ते पहले अंसारी को अल्पसंख्यक कल्याण राज्य मंत्री बनाया गया था. यह बात हैरान करने वाली थी. हालांकि वह एबीवीपी और बीजेपी के साथ-साथ राज्य सरकार की उर्दू कमेटी में भी पदाधिकारी रहे थे लेकिन उन्हें विधानसभा चुनाव का टिकट नहीं मिला और जून में जाकर उन्हें विधान परिषद के लिए चुना गया. अंसारी उत्पीड़ित पसमांदा समुदाय से ताल्लुक रखते हैं जबकि ऐतिहासिक रूप से देंखे तो यूपी में बीजेपी शिया मौलवियों पर फोकस करती है.
बीजेपी से जुड़े लोग अंसारी को मंत्री बनाए जाने को को पार्टी के समतावाद और पसमांदा को लेकर चिंता के संकेत के रूप में चित्रित करते हैं. इस नजरिए को 3 जुलाई को हैदराबाद में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा बढ़ावा भी दिया गया फिर भले ही उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के साथ बीजेपी के पिछले जुड़ाव पर एक सरसरी नजर इस दावे की कलई खोल कर रख देती हो. चूंकि राज्य में सभी राजनीतिक दलों द्वारा पसमांदा की ऐतिहासिक रूप से उपेक्षा की गई है इसलिए समुदाय के प्रति बीजेपी का हाथ बढ़ाना बीजेपी को फायदा पहुंचा सकता है. लेकिन किसी भी संकेत से ऐसा नहीं लगता कि पसमांदा को खुद बीजेपी की पहुंच से फायदा होगा. यहां तक कि बुनकरों के समुदाय अंसारी को भी नहीं, जिससे नए मंत्री दानिश अंसारी आते हैं.
जब मैंने उनसे पूछा कि अल्पसंख्यक समुदाय के मंत्री के रूप में उनकी क्या जिम्मेदारियां हैं, तो अंसारी ने कहा कि उनकी सोच "इस सब से परे" है क्योंकि वह अपने काम को एक मुस्लिम के बजाए "एक युवा के नजरिए से" करना पसंद करते हैं. उन्होंने कहा, "जब हम अल्पसंख्यक के बारे में सोचते हैं, तो हम खुद ब खुद मुसलमानों के बारे में ही सोचते हैं. लेकिन एक बड़ा वर्ग सिख, ईसाई, जैनियों का भी है और हमें उन सभी के बारे में सोचना होगा."
अंसारी ने लखनऊ के एक सरकारी गेस्ट हाउस में, जो उनके समुदाय के साथी सदस्यों से घिरा हुआ था, मुझसे लगभग एक घंटे तक बात की. वह सत्तारूढ़ दल की एक आदर्श मुस्लिम की छवि को मूर्त रूप देते हुए दिखाई दिए. सभी सवालों के जवाब बीजेपी के किसी सदस्य की रटी-रटाई भाषा में दिए. बीजेपी के मुस्लिम विरोधी रुख के बावजूद, खासकर उत्तर प्रदेश में, उन्होंने दावा किया कि "एक मिथक फैलाया गया था कि बीजेपी मुसलमानों के खिलाफ है, याकि उन्हें जीने नहीं दिया जाएगा."
अंसारी की कहानी इसकी एक बानगी नजर आती है कि कैसे एबीवीपी ने एक गैर-राजनीतिक मुस्लिम को तैयार किया. "यह उनकी वजह से है कि मैंने सीखा कि समाज में कैसे काम किया जाता है," उन्होंने मुझे बताया. बिहार की सीमा से लगे जिला बलिया में पैदा हुए अंसारी ने एक कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ाई की. उनकी मां एक स्कूल प्रिंसिपल हैं और उनके पिता कुछ साल पहले बीमार होने तक एक छोटा सा कारोबार चलाते थे. 2006 में वह स्नातक की पढ़ाई के लिए लखनऊ विश्वविद्यालय गए. उन्होंने मुझे बताया कि एक छोटे से शहर में पले-बढ़े व्यक्ति के रूप में, वह बस "शांति से पढ़ाई" करना चाहते थे और उन्होंने पाया कि अन्य छात्र संगठन "उत्तेजक" राजनीति करते हैं, जो जाति और सांप्रदायिक पहचान पर केंद्रित होती है. फिर भी उन्होंने 2007 में छात्र संघ चुनावों पर बहुजन समाज पार्टी सरकार के प्रतिबंध के खिलाफ विरोध में भाग लिया, जो एक साल से ज्यादा समय तक चला. "मैंने देखा कि छात्रों की आवाज पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है," उन्होंने कहा. अंसारी ने कहा कि यही वह समय था जब वह एबीवीपी की सामाजिक गतिविधियों- जैसे पक्षियों को खाना खिलाना या कला और निबंध प्रतियोगिताएं आयोजित करना- की ओर आकर्षित हुए.
1949 में, सरकार द्वारा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर लगाए गए प्रतिबंध को हटाए जाने के दो दिन पहले, स्थापित एबीवीपी ने संघ के राज जन्मभूमि सहित अधिकांश आंदोलनों में भाग लिया है. इसका कैडर अक्सर परिसरों में हिंसा में लिप्त रहा है. अंसारी के कॉलेज के प्रथम वर्ष के दौरान मध्य प्रदेश में एबीवीपी के छह सदस्यों पर एक प्रोफेसर की हत्या का आरोप लगाया गया था. (बाद में उन्हें सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया था.)
अंसारी मास्टर डिग्री हासिल करने के दौरान 2011 में औपचारिक रूप से एबीवीपी में शामिल हुए और उस साल लखनऊ विश्वविद्यालय इकाई के महासचिव भी बने. उन्होंने मुझसे कहा, "मुझे विश्वविद्यालय में अपने दिन याद हैं. हमने छात्रों के मुद्दों पर ध्यान दिया और जाति और धर्म से कोई लेना-देना नहीं रखा." उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम को अपना आदर्श बताया. कलाम, जिन्हें बीजेपी ने राष्ट्रपति बनाया था, उन कुछ मुसलमानों में से एक हैं जिनकी हिंदू दक्षिणपंथियों ने सालों से प्रशंसा की है. अंसारी ने आगे कहा, "और फिर एबीवीपी में मैंने स्वामी विवेकानंद और उनके लेखन के बारे में जाना. यह प्रेरक प्रसंग था." उन्होंने स्वीकार किया कि जहां तक उन्हें याद है, वह कैंपस में एबीवीपी में शामिल होने वाले एकमात्र मुस्लिम छात्र थे. "ईमानदारी से कहूं तो मैंने अपनी भागीदारी को इस तरह से नहीं देखा," उन्होंने दावा किया.
भारतीय जनता युवा मोर्चा की अवध इकाई के वर्तमान उपाध्यक्ष विवेक सिंह उस समय लखनऊ विश्वविद्यालय में एबीवीपी के सदस्य थे. उन्होंने मुझे बताया कि अन्य छात्र संगठनों और "धर्मनिरपेक्ष विचारधारा वाले लोगों" ने कभी-कभी अंसारी को निशाना बनाने की कोशिश की. उन्होंने कहा कि जब भी ऐसा कुछ होता वह और नितिन मित्तल, जो अब भाजयुमो की अवध इकाई के अध्यक्ष हैं, अंसारी को एबीवीपी की राजनीति के बारे में बताते "जो जाति और धर्म से ऊपर है और केवल राष्ट्रीय हित पर ध्यान केंद्रित रखती है". उन्होंने याद किया कि जब वे विश्वविद्यालय के पास एक हनुमान मंदिर जाते थे तो अंसारी अक्सर उनके साथ होते थे. "हम भी उनके साथ दरगाहों और मजारों पर गए." बजरंगी सिंह, जो अंसारी को तब से जानते हैं जब दोनों छात्र नेता थे, ने उन्हें "बहुत ही सरल और मासूम" छात्र बताया.
अंसारी ने मुझे बताया कि कॉलेज में उनका अनुभव किसी अन्य छात्र की तरह ही था. उन्होंने कहा,"हमारे पास पैसे नहीं थे इसलिए हम आपस में पनीर खरीदने के लिए पैसे जमा करते." उन्होंने कहा कि वह पनीर और दही को हर चीज से ज्यादा पसंद करते हैं. "मैं एक मुसलमान हूं इसलिए मैं मांसाहारी खाना खाता हूं लेकिन केवल वही खाता हूं जिसकी इजाजत है." कॉलेज के बाद वह संघ से जुड़े रहे. अक्टूबर 2015 में दादरी में गोहत्या के संदेह में एक मुस्लिम की पीट-पीटकर हत्या किए जाने के एक महीने बाद अंसारी ने "गाय का दूध पार्टी" में भाग लिया. विवेक ने कहा कि उस समय बढ़ती असहिष्णुता के विरोध में आयोजित की जा रही बीफ पार्टियों के जवाब में इस कार्यक्रम का आयोजन किया गया था. अंसारी ने इस आयोजन को याद सांप्रदायिक सौहार्द को बढ़ावा देने के लिए "हिंदू-मुस्लिम एकता" की पार्टी के रूप में किया.
बजरंगी सिंह, जो अब बीजेपी की गोरखपुर इकाई के महासचिव हैं, ने मुझे बताया कि अंसारी ने उन्हें इस साल मार्च में बुलाया था जब आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली सरकार फिर से चुनी गई थी. अंसारी को विधानसभा चुनाव में टिकट नहीं दिया गया था लेकिन वह जानना चाहते थे कि क्या वह नई सरकार का हिस्सा बन सकते हैं. "हमारी बातचीत के कुछ ही घंटों के भीतर उनके नाम की घोषणा कर दी गई." अंसारी को अल्पसंख्यक कल्याण राज्य मंत्री के रूप में शिया जमींदार परिवार के वंशज और पूर्व क्रिकेटर, मॉडल और अभिनेता मोहसिन रजा का स्थान लेना था. सिंह ने कहा, ''हम हैरान थे कि उनकी नियुक्ति कई अन्य नामों को किनारे कर हुई थी जिनमें वकील, डॉक्टर भी हैं, जो सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध हैं."
लखनऊ में बीजेपी की अल्पसंख्यक शाखा के प्रमुख असरार अहमद ने मुझे बताया कि "अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री का काम यह सुनिश्चित करना है कि कोई गलत सूचना न हो और मुसलमानों को बीजेपी की राजनीति के बारे में बेहतर जानकारी हो." उन्होंने कहा, “रजा को बदल दिया गया क्योंकि वह "मुसलमानों को नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के पीछे के वास्तविक विचार को बताने में सफल नहीं रहे. उन्हें यह समझाना था कि रोहिंग्या हमारी जमीन ले लेंगे और कि वे हमारे दुश्मन हैं, ये बातें रजा नहीं समझा सके.” रजा अब राज्य की हज कमेटी के अध्यक्ष हैं.
हालांकि मैंने जिन कई विशेषज्ञों से बात की उन्होंने अनुमान लगाया कि अंसारी की नियुक्ति मुसलमानों के बीच सामाजिक स्तरीकरण का लाभ उठाने के लिए बीजेपी की चाल है जैसा कि उसने हिंदुओं के साथ किया है. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आधुनिक भारतीय इतिहास के प्रोफेसर मोहम्मद सज्जाद ने कहा, "अब यह अनुमान लगाया जा सकता है कि एक पसमांदा नेता को चुनने से बीजेपी को बड़े क्षेत्र से अधिक वोट मिलेंगे, बजाए इसके कि कम संख्या वाले किसी संप्रदाय के किसी व्यक्ति को चुनने के. इस तरह पहचान की राजनीति खेली जाती है.
भारत में मुस्लिम समाज मोटे तौर पर दो वर्गों में बंटा हुआ है. पहला वह जिसे अशरफ कहा जाता है. अशरफ शब्द का तर्जुमा होता है "अभिजात". इसमें वे मुसलमान आते हैं जो अपने पुरखों को विदेशी मूल का मानते हैं, साथ ही जो हिंदू जाति व्यवस्था के ऊपरी पायदानों से धर्मांतरित हुए है (जिनमें से कुछ ने सामाजिक गतिशीलता की तलाश में अपने लिए विदेशी पूर्वजों का आविष्कार किया). पसमांदा का शाब्दिक अर्थ है "जो पीछे छूट गए.” यह शब्द गैर-अशरफों का जिक्र करने के लिए इस्तेमाल होता है, इन्हें अक्सर उत्पीड़ित जातियों और अन्य पिछड़ा वर्गों से परिवर्तित के रूप में वर्गीकृत किया जाता था. सेवानिवृत्त नौकरशाह पीएस कृष्णन, जिन्होंने ओबीसी के लिए अफरमेटिव एक्शन या सकारात्मक विभेद की मंडल आयोग की सिफारिशों को सरकार द्वारा लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, लिखते हैं कि स्वतंत्र भारत में पसमांदाओं की संख्या निर्धारित करने के लिए कोई जनगणना नहीं की गई है लेकिन मुमकिन है कि उनकी संख्या उत्तरी राज्यों में मुस्लिम आबादी के अस्सी फीसदी से ज्यादा हो.
भारतीय मुसलमानों की सामाजिक आर्थिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए 2005 में गठित सच्चर समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि, "हालांकि हिंदू ओबीसी समाज भारत व्यापी स्तर पर अपेक्षाकृत रूप से पिछड़ा हुआ है, मुस्लिम समुदाय हिंदू-ओबीसी से पिछड़ रहा है. जबकि मुस्लिम-ओबीसी की स्थिति मुस्लिम-सामान्य की तुलना में खराब है. मुस्लिम-ओबीसी के बेहद कम प्रतिनिधित्व से पता चलता है कि पिछड़े वर्गों के अधिकारों का लाभ अभी तक उन तक नहीं पहुंचा है.''
राजनीतिक दलों से मुसलमानों को मिला संरक्षण, जैसे कि विधायिकाओं और समितियों में प्रतिनिधित्व, ज्यादातर अशरफों के पास गया है. कोलकाता के अलिया विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के सहायक प्रोफेसर मोहम्मद रेयाज ने मुझे बताया, "कांग्रेस और अधिकांश क्षेत्रीय दलों ने" विभिन्न समुदायों और संप्रदायों के मुट्ठी भर नेताओं को संरक्षण दिया और उनके जरिए समुदाय को मैनेज किया." उन्होंने कहा, इन नेताओं में से ज्यादातर "बहुत कम जमीनी आधार वाले होते हैं.”
बिहार इस प्रवृत्ति का अपवाद है. 1998 में पत्रकार और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व सदस्य अली अनवर ने मुस्लिम राजनीति और नागरिक समाज पर अशरफों के एकाधिकार का विरोध करने के लिए पटना में पसमांदा मुस्लिम महाज (पीएमएम) की स्थापना की. पीएमएम पसमांदाओं को लामबंद करने और अन्यायपूर्ण सामाजिक ढांचे का विरोध करने वाले पहले संगठनों में से एक था.
उस समय बिहार के मुसलमानों का राज्य में राष्ट्रीय जनता दल सरकार से मोहभंग हो रहा था. रियाज ने मुझे बताया कि पीएमएम ने जनता दल (यूनाइटेड) के पक्ष में लामबंद करना शुरू किया जो 2005 में बीजेपी के साथ गठबंधन में सत्ता में आई थी. प्रोफेसर रेयाज कहा कि अगले साल अनवर को "इनाम बतौर राज्य सभा में भेजा गया था." रेयाज कहते हैं, "यह पसमांदा आंदोलन को सीधे तौर पर सहयोजित करने का प्रयास था." 2017 में जद (यू) के कांग्रेस-राजद गठबंधन से अलग होने के बाद एक बार फिर से बीजेपी के साथ गठबंधन करने के फैसले की आलोचना करने पर अनवर को पार्टी से निलंबित कर दिया गया. रेयाज कहते हैं कि यह ऐसा फैसला था जो इस तरह का सहयोजन "मुसलमानों को निशाना बनाने वाले हिंदुत्व के बीच" दारारों का संकेत था. बाद में अनवर जद (यू) के पूर्व अध्यक्ष शरद यादव के नेतृत्व वाले लोकतांत्रिक जनता दल में शामिल हो गए.
रेयाज ने कहा कि उत्तर प्रदेश में पसमांदा समुदायों के प्रति ऐसी कोई पहुंच नहीं थी, "यहां तक कि बसपा ने भी ऐसा नहीं किया, जो अन्यथा बहुजन अधिकारों की बात करती है." बसपा और समाजवादी पार्टी, जो दो दशकों से ज्यादा समय तक सत्ता में रही, ने बड़े पैमाने पर अपने मुख्य निर्वाचन क्षेत्रों यानी जाटवों और यादवों से अपील की, जिससे अन्य समूहों में निराशा की भावना पैदा हुई. अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर खालिद अनीस अंसारी ने मुझे बताया कि "बीजेपी ने कुशलता से "इस भावना और व्यापक हिंदू-मुस्लिम बाइनरी को राज्य में मजबूत वोट शेयर और आसान बहुमत के लिए जुटाया.” उन्होंने कहा, "इसने सोशल इंजीनियरिंग की प्रतीक वाली राजनीति को गहरा और धारदार बनाया." उन्होंने कहा कि गैर-जाटव और गैर-यादव जातियों के बीच पार्टी की पहुंच पसमांदा मुसलमानों तक फैली हुई है. उन्होंने 2013 में स्थापित बीजेपी के बुनकर प्रकोष्ठ और केंद्र सरकार के हुनर हाट योजना जैसी पहलों का हवाला दिया, जो पसमांदाओं द्वारा प्रचलित कई पारंपरिक व्यवसायों को भी समर्थन देती है.
आदित्यनाथ सरकार ने पसमांदा मुसलमानों को कई प्रमुख पद दिए हैं. अशफाकी सैफी को जून 2021 में राज्य के अल्पसंख्यक आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया. तीन महीने बाद बीजेपी की अल्पसंख्यक शाखा के राष्ट्रीय सचिव इफ्तिखार अहमद जावेद को राज्य मदरसा शिक्षा बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया, जबकि चौधरी कैफ-उल-वारा को उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी का अध्यक्ष नियुक्त किया गया. कैफ-उल-वारा, जो एक प्रमुख अंसारी परिवार से ताल्लुक रखते हैं, का लंबे समय से गोरखनाथ मंदिर-जिसके प्रधान पुजारी आदित्यनाथ हैं- से संबंध रहा है. उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने 2017 में मुख्यमंत्री से मुलाकात की और राज्य के सबसे बड़े मुस्लिम समूह अंसारी समुदाय की वकालत की. उन्होंने "उदार प्रतिनिधित्व" की सराहना की कि बीजेपी ने पसमांदा को दिया है . उन्होंने कहा, "इस तरह का प्रतिनिधित्व देने और हमारी राजनीतिक और सामाजिक आकांक्षाओं के दोहन में अन्य दल पिछड़ गए."
अमील शम्सी राज्य की बीजेपी अल्पसंख्यक इकाई के उपाध्यक्ष हैं. इसके महासचिव दानिश अंसारी हैं. शम्सी ने मुझे बताया कि आदित्यनाथ के दूसरे कार्यकाल में बीजेपी ने पसमांदा को अधिक महत्व दिया है. उन्होंने कहा कि अल्पसंख्यक शाखा के 28 सदस्यों में से 11 पसमांदा समुदायों के थे, जो पहले के वर्षों में पांच या छह होते थे. उन्होंने कहा कि पसमांदा को लंबे समय से बिरयानी में पड़ने वाले तेज पत्ते की तरह माना जाता था. “एक बार जब पकवान तैयार हो जाता है, तो पत्ते को फेंक दिया जाता है. लेकिन अब वे चावल की तरह ही अपनी संख्यात्मक ताकत का दावा कर रहे हैं.”
द टेलीग्राफ में 2013 में प्रकाशित एक कॉलम में इतिहासकार मुकुल केसवन ने नोट किया है कि कांग्रेस, “एक प्रकार की ऐतिहासिक डिफॉल्ट के चलते बहुलवादी पार्टी है जो अवसरवादिता के कारण सांप्रदायिक है, जबकि बीजेपी वैचारिक रूप से सांप्रदायिक (या बहुसंख्यकवादी) पार्टी है जो अवसरवादिता के चलते 'धर्मनिरपेक्ष' है." हालांकि बीजेपी राष्ट्रीय स्तर पर स्पष्ट रूप से इस्लामोफोबिक राम जन्मभूमि आंदोलन के माध्यम से बढ़ी, उसने 1990 के दशक के दौरान मुसलमानों के प्रति कुछ बदलाव किए. 1996 के आम चुनाव से पहले, जिसने इसे राष्ट्रीय सत्ता के शिखर पर पहुंचाया, इसने अल्पसंख्यक मोर्चा का गठन किया, जिसके सदस्य मुख्यतः मुस्लिम थे. 2004 में अपनी हार से पहले प्रमुख मुसलमानों के एक समूह ने पार्टी के लिए प्रचार करने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी हिमायत कमेटी का गठन किया. हालांकि मुसलमानों के साथ बीजेपी के जुड़ाव को समझने के लिए किसी को भी इस समुदाय के बारे में आरएसएस के नजरिए पर गौर करना चाहिए.
2002 में गुजरात में मुस्लिम विरोधी दंगों के बाद आरएसएस ने मुस्लिम राष्ट्रीय मंच बनाया. एमआरएम की वेबसाइट उस वर्ष दिसंबर में दिल्ली में आयोजित एक बैठक का जिक्र करती है, जिसमें आरएसएस के पदाधिकारियों और "राष्ट्रवादी मुसलमानों के एक समूह" ने भाग लिया था. बैठक में आरएसएस के सरसंघचालक केएस सुदर्शन ने कहा कि दुनिया ने इस्लाम का केवल हिंसक चेहरा देखा है लेकिन “इसका दूसरा चेहरा भी है : शांति का. क्या इस्लाम के इस दूसरे चेहरे को दुनिया को दिखाने की कोई कोशिश होगी?” मुसलमानों को दिए गए अल्पसंख्यक टैग के संघ के विरोध को दर्शाते हुए, जो औपनिवेशिक काल से इसकी राजनीति की विशेषता है, उन्होंने पूछा, "भारत में मुसलमानों ने अल्पसंख्यक का दर्जा क्यों स्वीकार किया, जब वे जन्म से इस भूमि के थे और हिंदुओं के समान ही उनकी साझा संस्कृति, नस्ल और पूर्वज थे."
चर्चा के बाद एमआरएम का नेतृत्व करने वाले आरएसएस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी इंद्रेश कुमार ने निष्कर्ष निकाला कि गांधी और हिंदू महासभा दोनों हिंदू-मुस्लिम विभाजन को पाटने में विफल रहे क्योंकि उन दोनों का नजरिया एकतरफा था. उन्होंने कहा, "गांधी ने मुसलमानों को शांत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और हिंदू महासभा ने नफरत और अलगाववाद के मुद्दे को बढ़ाया, जिसके चलते दोनों नजरिए विफल हो गए. कुमार ने एक ऐसे राष्ट्रवाद का प्रस्ताव रखा जिसने दोनों समुदायों के बीच के मतभेदों को दूर कर दिया : "जब हम एक ही पूर्वजों, संस्कृति और मातृभूमि को साझा करते हैं, तो टकराव की गुंजाइश कहां रहती है?" इस सोच की गूंज आज भी सुनी जा सकती है. सितंबर 2021 में सरसंघचालक के रूप में सुदर्शन के उत्तराधिकारी मोहन भागवत ने कहा था :
हमारे लिए हिंदू शब्द मातृभूमि, पूर्वजों और भारतीय संस्कृति की विरासत का पर्याय है. हिंदू शब्द किसी जाति या भाषाई परिभाषा को नहीं दर्शाता है लेकिन यह एक ऐसी संस्कृति का नाम है जो हर इंसान के विकास और उत्थान का मार्गदर्शन करती है. जो लोग इसे स्वीकार करते हैं, चाहे वे किसी भी जाति, पंथ, धर्म या भाषा के हों, वे हिंदू हैं और इस पृष्ठभूमि में हम प्रत्येक भारतीय को हिंदू मानते हैं.
मोर्चा के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष बासित अली ने इस तर्क का इस्तेमाल बीजेपी के पसमांदा पहुंच को समझाने के लिए किया. उन्होंने मुझे बताया कि विदेशी मूल के अशरफों के उलट पसमांदा असली भारतीय हैं. उन्होंने कहा, "इस देश के मूल निवासी इसी तरह के अनुष्ठानों का पालन करते हैं. भारतीय परंपराओं का सूत्र उनके बीच सामान्य है. हमने बीजेपी के राष्ट्रवादी दृष्टिकोण में मदद करने के लिए इन रस्मों तक पहुंचने और उनकी पहचान करने और हिंदुओं और जाति मुसलमानों के साथ इस समानता पर साथ आने का फैसला किया है.” अली ने कहा कि अल्पसंख्यक मोर्चा को संघ के विचारक दीनदयाल उपाध्याय का "एकात्म मानववाद" का दर्शन मिला जो पसमांदा को बीजेपी के करीब लाने में उपयोगी था. फिर भले ही दीनदयाल उपाध्याय वर्ण व्यवस्था के समर्थन थे और पश्चिमी विचारों के उत्पादों के रूप में "धर्मनिरपेक्षता, व्यक्तिवाद और साम्यवाद की विचारधारा" को स्वीकार नहीं करते थे.
असरार अहमद ने कहा कि वह बीजेपी से इसलिए जुड़े हैं क्योंकि वह नहीं चाहते कि “मैं अपना धर्म छोड़ दूं. उन्होंने दावा किया, “आदित्यनाथ ने एक बार उनसे कहा था कि वह "वसीम रिजवी के बजाए एक गधे का समर्थन करेंगे. 6 दिसंबर 2021 को- बाबरी मस्जिद विध्वंस की सालगिरह पर- उत्तर प्रदेश शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष रिजवी ने विवादास्पद पुजारी यती नरसिंहानंद की मौजूदगी में हिंदू धर्म ले लिया. नरसिंहानंद बार-बार मुसलमानों के खिलाफ नरसंहार हिंसा का आह्वान करता रहा है.
अवध क्षेत्र, जिसमें लखनऊ भी शामिल है, के आरएसएस के प्रचार प्रमुख अशोक दुबे ने मुझे बताया कि वह अंसारी की नियुक्ति को “समावेशी राजनीति” के संकेत के रूप में नहीं देखते हैं क्योंकि वह अंसारी को हिंदू मानते हैं. उन्होंने कहा कि संघ के अनुसार, "ऐसी जातियां हैं जो विशुद्ध रूप से हिंदू हैं जो अलग-अलग परिस्थितियों में अन्य धर्मों में परिवर्तित हो गईं. हम उपनामों में विश्वास नहीं करते हैं. हमारे लिए तो हर कोई हिंदू है. एक हिंदू बीजेपी सरकार का हिस्सा है.”
बीजेपी ने इस साल विधानसभा चुनाव में किसी मुस्लिम (अशरफ या पसमांदा) को टिकट नहीं दिया. खालिद अंसारी ने मुझे बताया, “फिर भी कई पसमांदाओं को प्रमुख पदों पर नियुक्त करने से "एक स्पष्ट प्रतीकात्मक संदेश" दिया गया है. उन्होंने कहा कि दानिश अंसारी की मंत्री के रूप में नियुक्ति "दिलचस्प" थी क्योंकि वह बुनकरों के जुलाहा समुदाय से हैं जो राज्य की मुस्लिम आबादी का लगभग एक चौथाई हिस्सा है. लखनऊ के गेस्ट हाउस में अंसारी ने मुझे बताया कि जब उन्हें मंत्री बनाया गया तो उनके गांव अपेल के लोग खुश हुए थे. उन्होंने कहा, "पिछड़े मुसलमानों को लगा कि उन्हें खुद को यह सम्मान मिला है," उन्होंने कहा कि आदित्यनाथ ने उन्हें "उनके बीच रहने, उन क्षेत्रों का दौरा करने के लिए प्रोत्साहित किया जहां मेरे अपने लोगों की बहुलता है."
हालांकि अंसारी की नियुक्ति वाराणसी, गोरखपुर, मऊ, आजमगढ़, बस्ती और मेरठ में राज्य भर में फैले जुलाहों के सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करने के लिए खास असरदार नहीं रही है. आदित्यनाथ के पहली बार सत्ता में आने के बाद 2006 में समाजवादी पार्टी सरकार द्वारा शुरू की गई बिजली सब्सिडी को वापस ले लिया था. कई बुनकरों ने मुझे बताया कि सब्सिडी बंद होने से प्रत्येक बिजली करघे के लिए मासिक बिजली बिल 71.50 रुपए की फ्लैट दर से बढ़ कर 1500 रुपए कर दी गई है. गोरखपुर के एक बुनकर जुनैद अहमद अंसारी ने मुझे बताया, “राज्य सरकार के साथ अपनी पिछली बैठक में हमने सरकार से 400 रुपए से कम दर रखने का अनुरोध किया था. कोई और बढ़ोतरी हमारे करघों को बंद कर देगी. हमें रोजगार के अपने पारंपरिक स्रोत को छोड़ना होगा."
फैसले ने राज्य में चौथाई मिलियन बिजली करघों को प्रभावित किया और उसके बाद कई हड़तालें और विरोध प्रदर्शन हुए और समुदाय ने राज्य सरकार के साथ बातचीत करने के लिए कई प्रतिनिधिमंडल लखनऊ भेजे. 2020 में कोविड-19 महामारी के जवाब में लगाए गए देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान कई बुनकरों ने दुकान बंद कर अपनी मशीनें बेच दीं. उसी साल 1 सितंबर को वाराणसी और आसपास के जिलों में बुनकर अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले गए जिसे उन्होंने दो दिन बाद सरकार के आश्वासन के बाद निलंबित कर दिया. लेकिन नीति वापस नहीं ली गई.
बीजेपी का बुनकर प्रकोष्ठ इन मुद्दों को लेकर इनकार की मुद्रा में है. जब मैंने प्रकोष्ठ के समन्वयक जावेद अब्बास रिजवी से विरोध प्रदर्शन के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, “जो बिजली की चोरी करते हैं, उन्हें ही रोल बैक चहिए.” रिजवी ने दावा किया कि बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से समुदाय की कामकाजी परिस्थितियों में सुधार हुआ है.
बिजली सब्सिडी वापस लेना समुदाय की एकमात्र शिकायत नहीं थी. गोरखपुर के बुनकरों को हर साल अप्रैल से अगस्त के बीच सबसे ज्यादा काम मिलता था. तब वे स्कूल यूनिफॉर्म बनाते थे. 2021 में राज्य के शिक्षा विभाग ने वर्दी के लिए अपना टेंडर रद्द कर दिया और इसकी जगह प्रति छात्र 600 रुपए का सीधा भुगतान किया. बुनकरों के हितों की वकालत करने वाली बुनकर समिति के सदस्य समर अंसारी ने मुझे बताया कि महामारी के कारण हुए आर्थिक संकट को देखते हुए परिवारों द्वारा इस पैसे को अन्य उपयोगों के लिए इस्तेमाल करने की संभावना है. उन्होंने कहा कि जबकि अंसारी की मंत्री के रूप में नियुक्ति समुदाय के लिए अच्छी बात है “हमारी जीवंत समस्याएं बहुत अलग हैं. मैं व्यक्तिगत लाभ के लिए उनके पास जा सकता हूं लेकिन बिजली शुल्क जैसी समस्या के लिए नहीं.”
जुलाहा एकमात्र समुदाय नहीं हैं जिन्हें आदित्यनाथ के शासन में नुकसान उठाना पड़ा है. अवैध बूचड़खानों पर सरकार की कार्रवाई ने कसाई समुदाय को प्रभावित किया, जो एक पसमांदा समुदाय है. अप्रैल 2020 में, बीजेपी विधायक सुरेश तिवारी का एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें लोगों से मुस्लिम विक्रेताओं से सब्जियां नहीं खरीदने के लिए कहा गया था. तिवारी ने बाद में मीडिया को बताया कि उनकी टिप्पणी एक शिकायत के जवाब में थी कि विक्रेता अपने उत्पादों पर लार डाल रहे थे. एक अन्य पसमांदा समुदाय रईन पारंपरिक रूप से सब्जियां बेचता है.
पीएमएम की उत्तर प्रदेश शाखा के अध्यक्ष वसीम रायनी ने मुझे बताया कि सभी पसमांदा समुदायों के अपने मुद्दे होंगे. उन्होंने कहा, “उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में रईन को अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया है लेकिन खटीक, एक हिंदू समुदाय जिसका पारंपरिक व्यवसाय सब्जियां बेचना भी है, को इस तरह वर्गीकृत किया गया है. लेकिन बड़ा मुद्दा भारतीय राजनीति में पसमांदा मुसलमानों के प्रतिनिधित्व की कमी है." उन्होंने कहा, इस प्रतिनिधित्व को ठीक करने के लिए बीजेपी की पहुंच का उपयोग किया जाना चाहिए.
पसमांदा मुस्लिम समाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष अनीस मंसूरी ने मुझे बताया कि बेहना समुदाय के लोग, जिन्हें नदाफ भी कहा जाता है और जो सूत कातने का काम करते थे, निगमीकरण के कारण सालों से पीड़ित हैं. "मैं मशीनों के खिलाफ नहीं हूं," उन्होंने कहा, "लेकिन कम से कम उन लोगों को किराए पर लें जो तेजी से निगमीकरण के कारण विस्थापित हो रहे हैं." उन्होंने कहा कि सरकारें समुदाय की मदद करने में लगातार विफल रही हैं. उन्होंने कहा कि उन्होंने 2012 में सपा के लिए प्रचार किया था. “लोगों ने तब हेलीकॉप्टर पर एक पसमांदा मुसलमान को देखा था. लेकिन जब सपा सत्ता में आई तो वह हमारी मांगों को भूल गई.''
लोकनीति सर्वेक्षण से पता चलता है कि केवल 8 प्रतिशत मुसलमानों ने बीजेपी को वोट दिया था, जबकि लगभग अस्सी प्रतिशत ने समाजवादी पार्टी को वोट दिया था. खालिद अंसारी ने मुझे बताया कि मुस्लिम वोटों के जातिवार विभाजन के अभाव में, “कोई विश्वास के साथ नहीं कह सकता कि पसमांदा बदलाव कितना हुआ.”
जून में दानिश अंसारी ने आजमगढ़ में लोकसभा उप-चुनाव में बीजेपी उम्मीदवार के लिए सफलतापूर्वक प्रचार किया. यह एक बड़ी पसमांदा आबादी वाला सपा का गढ़ रहा है, जिसका प्रतिनिधित्व पहले पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह और अखिलेश यादव करते थे. इस जीत के जवाब में ही मोदी ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पार्टी से स्नेह यात्रा निकालने का आह्वान किया, जिसमें समाज के सभी वर्ग शामिल हों. "लेकिन हमारे पास इस तर्क को पुष्ट करने के लिए डेटा नहीं है कि मुसलमानों के एक वर्ग ने, वह भी पसमांदा ने उन्हें वोट दिया या नहीं," रेयाज ने कहा. उन्होंने यह भी बताया कि आजमगढ़ में 50 प्रतिशत से भी कम मतदान हुआ. "किसी भी मामले में राज्य मंत्रिमंडल में पसमांदा मुस्लिम मंत्री बनाने के लाभों को प्राप्त करना जल्दबाजी होगी." उन्होंने कहा कि हिंदुत्व की राजनीति के मजबूत होने के साथ उन्हें "निकट भविष्य में यूपी के पसमांदा या कहीं और वोटों में पर्याप्त बदलाव की उम्मीद नहीं है." फिर भी पसमांदाओं के बीच बीजेपी की पहुंच को केवल चुनावी रणनीति के रूप में नहीं देखा जा सकता है.
बीजेपी कुछ मायनों में कांग्रेस की विरासत को आगे बढ़ा रही है. रेयाज ने मुझे बताया कि "कांग्रेस और अन्य धर्मनिरपेक्ष दलों ने अपने नाममात्र के मुस्लिम नेता बनाए, जिन्हें हम मजाक में ''सरकारी मुसलमान'' कहते थे. इन लोगों से "सार्वजनिक रूप से एक धर्मनिरपेक्ष चेहरा बनाए रखने की अपेक्षा की जाती थी, चाहे उनका निजी जीवन कुछ भी हो." उन्होंने कहा कि बीजेपी ने इस प्रक्रिया को "उन्हें आदर्श और संस्कारी मुसलमान में बदलने के लिए" आगे बढ़ाया है यानी आदर्श मुसलमान, जो हिंदू परंपराओं के अनुरूप हों, "जिन्हें सार्वजनिक रूप से न केवल धर्मनिरपेक्ष रहना होगा बल्कि अपने संरक्षकों को खुश करने के लिए जो चाहे करना होगा और अधीनस्थ या दोयम दर्जे की स्थिति को स्वीकार करना होगा."
उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री के रूप में आदित्यनाथ के कार्यकाल के दौरान मुसलमानों के खिलाफ हिंसा की कई घटनाएं, राज्य और हिंदुत्व की भीड़, की गई हैं. हालांकि, मेरे साथ अपनी बातचीत में अंसारी ने इन घटनाओं को नजरअंदाज कर दिया और बीजेपी के लिए अपना प्रबल समर्थन व्यक्त किया.
उदाहरण के लिए, आदित्यनाथ सरकार ने नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के विरोध में क्रूर कार्रवाई की थी जिसमें मुस्लिम समुदाय की बड़ी भागीदारी देखी गई थी. कथित तौर पर पुलिस द्वारा बीस से अधिक लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी, जबकि राज्य सरकार ने एक अध्यादेश जारी किया था जिसने- न्यायिक समीक्षा से मुक्त- दावा ट्रिब्यूनल स्थापित करने की अनुमति दी थी जो उन अभियुक्तों के विरोध के दौरान सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नुकसान की वसूली कर सकता था. (इस अध्यादेश को बाद में विधायिका द्वारा पारित किया गया था और फिर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इसकी संवैधानिकता को चुनौती दी गई है और सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को दिसंबर 2019 में शुरू की गई कार्यवाही में प्रदर्शनकारियों से बरामद किसी भी धन को वापस करने का आदेश दिया है.) सरकार ने "बर्बरता" के आरोपियों के पोस्टर भी जारी किए. मुसलमानों को चुप कराने के प्रयास के रूप में इन कार्रवाइयों की व्यापक रूप से आलोचना की गई लेकिन फिर भी अंसारी ने मुझे बताया कि प्रशासन ने “वह किया जो सही लगा. आम लोगों को परेशानी हुई और हम आम आदमी के लिए काम करते हैं.
अंसारी ने इस साल अप्रैल में जारी दिशा-निर्देशों के लिए आदित्यनाथ की भी प्रशंसा की, जिसमें सभी पूजा स्थलों को लाउडस्पीकर के शोर को नियंत्रित करने और किसी भी सार्वजनिक जुलूस से पहले प्रशासन से पूर्व अनुमति लेने का निर्देश दिया गया था. उन्होंने कहा, "योगी की राजनीति का अनुसरण अन्य राज्यों को करना चाहिए." उन्होंने कहा कि मुस्लिम नेताओं ने भी इस कदम पर अपना समर्थन व्यक्त किया था. उन्होंने उस संदर्भ को नजरअंदाज कर दिया जिसमें दिशा-निर्देश जारी किए गए थे. कुछ दिन पहले, महाराष्ट्र नवनिर्माण शिवसेना प्रमुख राज ठाकरे ने 3 मई तक महाराष्ट्र की सभी मस्जिदों से लाउडस्पीकर हटाने की मांग की थी. अलीगढ़ के बीजेपी विधायक मुक्ता राजा ने तब अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट को पत्र लिखकर मस्जिदों में लगे लाउडस्पीकरों पर विवरण मांगा, जिसके बाद सरकार ने दिशानिर्देशों की घोषणा की और एक सप्ताह में पचास हजार से अधिक लाउडस्पीकर हटा दिए.
अंसारी के तमाम तर्कों के बावजूद आदित्यनाथ शासन के तहत मुसलमानों को निशाना बनान निर्विवाद है, जैसा कि बूचड़खानों पर सरकार की कार्रवाई, अंतरधार्मिक जोड़ों के उत्पीड़न और मुस्लिम कार्यकर्ताओं के घरों के हालिया विध्वंस से स्पष्ट है. हालांकि एएमयू के सज्जाद ने मुझसे कहा, “शासक सत्ताधारी ताकतों के लिए भी लगातार टकराव वांछनीय नहीं होता.” उन्होंने अंसारी की नियुक्ति को वास्तविक राजनीति बताया. “सरकार को किसी प्रकार की वैधता प्राप्त करनी होगी, चाहे वह अलंकारिक और प्रतीकात्मक हो. केवल विश्व जनमत का विश्वास जीतने के लिए भी ऐसी धूर्त बातें करनी पड़ती हैं." रेयाज ने मुझे बताया, इस तरह की नियुक्ति को उत्पीड़ित मुसलमानों के लिए बीजेपी के पीटने-और-सहलाने के दृष्टिकोण का प्रतिबिंब माना जा सकता है, जो "बुलडोजर, नरसंहारों और लिंचिंग के शिकार हैं. "
अंसारी ने मुझे बताया कि एक मंत्री के रूप में वह शिक्षा, रोजगार, महिला सशक्तिकरण, प्रौद्योगिकी और मदरसों के उत्थान पर ध्यान देना चाहते हैं. उन्होंने कहा, "मैं मुसलमानों के लिए बस नहीं कहूंगा लेकिन मैं कहूंगा कि अल्पसंख्यकों के मामले में शिक्षा के मामले में जो किया जाना चाहिए था वह नहीं किया गया." उन्होंने कहा, "चीजें बदल रही हैं और अब मदरसे में का एक बच्चा "राष्ट्र निर्माण” में भूमिका निभा रहा है.” उन्होंने कहा कि वह मदरसे के छात्रों के लिए "राष्ट्र के महापुरुषों" के बारे में जानने के लिए एक पाठ्यक्रम तैयार करने को प्राथमिकता देंगे. मैंने उनसे पूछा कि क्या इनमें हिंदुत्व के विचारक वीडी सावरकर और केबी हेडगेवार शामिल होंगे. उन्होंने जवाब दिया, "किसी को भी अपना दिमाग खुला रखना चाहिए और लोगों को आरएसएस या गैर-आरएसएस के किसी परिभाषित फ्रेम में नहीं देखना चाहिए." हमारी बातचीत के एक महीने बाद, अंसारी ने घोषणा की कि कैबिनेट ने किसी भी नए मदरसों को अनुदान नहीं देने का फैसला किया है. "अभी ऐसा ही है," उन्होंने कहा. “बाद में क्या होगा, बाद में देखा जाएगा."
मोदी के हैदराबाद भाषण के तीन हफ्ते बाद 21 जुलाई को अली अनवर ने प्रधानमंत्री को एक खुला पत्र लिखा. उन्होंने खत में लिखा, “मोदी को पसमांदा समुदायों के बारे में बात करते हुए सुनना "एक सुखद आश्चर्य" है. लेकिन उन्हें जिस चीज की जरूरत है वह स्नेह नहीं है बल्कि सम्मान है क्योंकि स्नेह उनको दिया जाता है जो छोटे होते हैं और जिनको बड़ों के संरक्षण की आवश्यकता होती है. अगर नफरत भरे बयान और बुलडोजर भी चलते रहें तो स्नेह यात्रा निकालने का क्या मतलब है." उन्होंने आगे लिखा. “गोरक्षा, घर-वापसी, लव जिहाद, तब्लीगी जिहाद … या 2014 से चल रहे किसी भी मंदिर-मस्जिद संघर्ष के नाम पर मॉब लिंचिंग के सभी अभियानों में पसमांदा मुसलमान सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं. मारे गए, जलाए गए, अपंग हुए, पुलिस मामलों में फंसाए गए और ऐसी घटनाओं के कारण जेल में बंद ज्यादातर मुसलमान पसमांदा मुसलमान हैं.”
अनवर ने उल्लेख किया कि मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि वह सच्चर समिति की सिफारिशों के बावजूद कई पसमांदा समुदायों को अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं देगी और बीजेपी ने जाति जनगणना कराने या निजी क्षेत्र में आरक्षण देने से इनकार कर दिया है. उन्होंने कोविड-19 महामारी के दौरान देशव्यापी तालाबंदी, नोटबंदी और माल और सेवा कर से कारीगर जातियों की तबाही का भी उल्लेख किया. उन्होंने कहा, "अब तक जहां संसद और विधानसभाओं से मुसलमानों को, खासकर पसमांदा मुसलमानों को बाहर किया जा रहा है लेकिन अब उनके आर्थिक बहिष्कार की प्रक्रिया भी शुरू हो गई है."
अगर एक या दो 'फर्द'(व्यक्तियों) को मंत्री या राज्यपाल बनाया जाता है, तो इससे कुछ बदलने वाला नहीं है. आखिरकार मुसलमान होने और मुसलमानों के नेता होने के बीच एक बड़ा फर्क है. नेता सिर्फ मुसलमानों के साथ सहानुभूति रख सकता है, उनको बचा नहीं सकता."