20 मार्च को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने दत्तात्रेय होसबले को संगठन का नया सरकार्यवाह (कार्यकारी प्रमुख) नियुक्त किया. सार्वजनिक रूप से आरएसएस नेता होसबले की प्रोन्नति को जेनरैशनल बदलाव बता रहे हैं लेकिन निजी स्तर पर कई नेताओं ने माना है कि इसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बहुत बड़ी भूमिका है.
होसबले ने कई चुनावों के प्रबंधन में आरएसएस की मशीनरी का उपयोग मोदी की मदद के लिए किया है. चुनावी अभियानों के लिए आरएसएस की मशीनरी का इस्तेमाल करने की उनकी तत्परता उन्हें ठीक वैसा नेता बनाती है जैसा मोदी को चाहिए. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से संघ के भीतर बढ़ते अपने कद के लिए वह प्रधानमंत्री शुक्रगुजार होंगे. आरएसएस के सूत्रों के अनुसार, बीजेपी नेतृत्व लंबे समय से होसबले को सरकार्यवाह के पद पर नियुक्त करने की कोशिश कर रहा था इसलिए होसबले अब संघ में लिए जाने वाले निर्णयों में प्रधानमंत्री के अधिक दखल स्वीकार्य बनाएंगे. संघ का यह फैसला बीजेपी और आरएसएस के बीच संबंधों का संतुलन बदलने की क्षमता रखता है. जबकि आरएसएस हमेशा से इस रिश्ते में मुख्य भूमिका में रहा है लेकिन होसबले की नियुक्ति इस शक्ति संतुलन को बदल सकती है.
तकनीकी रूप से सरकार्यवाह सरसंघचालक के बाद दूसरे नंबर आता है. फिलहाल मोहन भागवत नंबर एक हैं. चूंकि आरएसएस के संविधान में सरसंघचालक को “मार्गदर्शक और दार्शनिक” माना गया है इसलिए सरकार्यवाह ही वास्तविक में संगठन के कामकाज को नियंत्रित करता है. जहां सरसंघचालक अपने उत्तराधिकारी को मनोनीत कर सकता है वहीं सरकार्यवाह का चयन अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा (एबीपीएस) द्वारा किया जाता है जो निर्णय लेने वाली शीर्ष इकाई है. साल में एक बार एबीपीएस की सभा होती है लेकिन इसके पदाधिकारियों का चुनाव हर तीसरे साल किया जाता है.
कार्यकारी प्रमुख के तौर पर सरकार्यवाह सरसंघचालक से परामर्श लेकर आरएसएस के केंद्रीय पदाधिकारियों को मनोनीत करता है और एबीपीएस, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की केंद्रीय कार्यकारिणी समिति और केंद्रीय कार्यकारी मंडल की बैठकों की अध्यक्षता करता है. सह-सरकार्यवाहों का समूह और विभागों के प्रमुख सरकार्यवाह की संगठन के कार्यों में सहायता करते हैं.
होसबले मूल रूप से कन्नड है जिन्होंने अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर किया है और उन्हें आरएसएस के पूर्व सरकार्यवाह दिवंगत एचवी शेषाद्रि का शागिर्द माना जाता है. वह 1968 में आरएसएस में शामिल हुए. आपातकाल के समय उन्हें एक साल जेल में भी काटा. 1980 के दशक के आखिरी सालों से उन्होंने आरएसएस की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में काम करना शुरू किया. 2009 में उन्हें सह-सरकार्यवाह नियुक्त किया गया.
2014 के आम चुनावों में होसबाले आरएसएस के मतदाता लामबंदी अभियान का संयोजन करने वाले वरिष्ठतम अधिकारियों में से एक थे. उन्होंने विशेष रूप से मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में काम किया. कठिन माने जाने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से लगभग एक साल पहले मार्च 2016 में वह पटना से अपना सामान समेटकर लखनऊ आकर बस गए और बीजेपी के लिए चुनाव प्रबंधन, उम्मीदवारों की पहचान, बूथों का प्रबंधन और जमीनी स्तर के सर्वेक्षण से राज्य में मतदाताओं की लामबंदी के लिए रणनीति तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 2017 विधानसभा चुनावों से पहले बनाई गई बीजेपी की राज्य चुनाव समिति में शामिल एक वरिष्ठ नेता ने मुझे बताया, "वाराणसी संसदीय क्षेत्र की विधानसभा सीटों को छोड़कर, दत्तात्रेय और उनके साथ काम करने वाले प्रचारकों की उनकी टीम ने यूपी की अन्य सभी सीटों पर उम्मीदवारों के चयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी."
होसबले ने भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, हिंदू जागरण मंच, सेवा भारती और सैकड़ों विद्यालयों और कॉलेजों को चलाने वाले विद्या भारती जैसे आरएसएस के संगठनों के साथ क्षेत्रीय समन्वय बैठकों की एक श्रृंखला आयोजित की थी. आरएसएस के पूर्णकालिक प्रचारकों की अपनी टीम के साथ होसबले ने चुनाव में बीजेपी की सहायता करने के लिए पूरे संघ परिवार को तैयार किया.
यह संघ के मूल कार्यों से पूरी तरह से भटकाव था. यद्यपि आरएसएस के कैडर और विचारधारा ने हमेशा बीजेपी के लिए एक संसाधन की तरह काम किया है लेकिन संगठन ने चुनाव प्रबंधन में कभी भी इतनी तसल्ली से हिस्सा नहीं लिया. खुद पूर्व प्रचारक रहे मोदी का संघ के साथ रिश्ता दो दशक पहले गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही पेचीदा रहा है. 2014 में लोक सभा चुनाव में भारी बहुमत से बीजेपी को जीत दिलाने के बाद से ही मोदी आरएसएस और बीजेपी के बीच संबंधों में बदलाव लाने के प्रयास करते रहे हैं. वह सरकार चलाने और परोक्ष रूप से बीजेपी को नियंत्रित करने की स्वतंत्रता चाहते हैं. वह संघ परिवार को चुनावी गतिविधियों में सक्रिय देखना चाहते हैं.
परंपरागत रूप से आरएसएस रिश्ते में बड़े भाई की भूमिका में रहा है. आरएसएस प्रचारक को आमतौर पर पार्टी के संगठन सचिव के तौर पर नियुक्त किया जाता है. इस पद का निर्वहन करने वाले आरएसएस के व्यक्ति को महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि बीजेपी द्वारा लिए जाने वाले सभी महत्वपूर्ण फैसलों में उसकी राय ली जाती है. उसकी राय को आरएसएस की राय माना जाता है और इसलिए पार्टी में उसे ऊंचा स्थान दिया जाता है. समय-समय पर सरसंघचालक, सरकार्यवाह और सह-सरकार्यवाओं सहित आरएसएस के शीर्ष अधिकारियों ने बीजेपी से जुड़े प्रमुख मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त किए हैं. लेकिन पार्टी के रोजमर्रा के कामों की देखरेख का जिम्मा हमेशा उस व्यक्ति का होता है जिसे इस काम की जिम्मेदारी दी जाती है.
हालांकि तकनीकी रूप से यह व्यवस्था अब भी चल रही है लेकिन 2014 के चुनावों के बाद से इस पुरानी व्यवस्था ने पहले की तरह काम करना लगभग बंद कर दिया है. तब से बीजेपी की हर चुनावी सफलता के बाद आरएसएस को बीजेपी के साथ अपने संबंधों में बदलाव लाना पड़ा है और अब वह मोदी द्वारा बड़े पैमाने पर नियंत्रित होने वाली चुनावी व्यवस्था का हिस्सा बन गया है. होसबले से पहले यह पद संभालने वाले सुरेश जोशी, जिन्होंने सरकार्यवाह रहते हुए कभी बीजेपी की गतिविधियों में रुचि नहीं दिखाई, के कार्यकाल में ऐसे बड़े बदलाव संभव नहीं थे. वह आरएसएस के पारंपरिक तरीकों का पालन करने वाले मराठी ब्राह्मण थे. जोशी संघ के सहयोगी संगठनों को निर्देश देते थे लेकिन उनसे लेते नहीं थे. वह उम्र के मामले में आरएसएस के वरिष्ठतम नेता थे और मोहन भागवत से लगभग दो साल बड़े हैं और प्राधिकार के मामले में तकनीकी रूप से संघ में दूसरा स्थान होने के बावजूद बंद कमरों में होने वाली आरएसएस पदाधिकारियों की बैठकों में उनके लिए गए निर्णय को आखिरी माना जाता था.
मार्च 2015 में, मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद एक साल से कम समय के अंदर, होसबले को आरएसएस का कार्यकारी प्रमुख बनाने की पहली महत्वपूर्ण कोशिश की गई थी लेकिन वह कदम आरएसएस के एक हिस्से, खासकर मोदी से डरी हुई मराठी ब्राह्मण लॉबी, के विरोध के कारण विफल हो गई. नतीजतन, जोशी के कार्यकाल को अगले तीन वर्षों के लिए और बढ़ा दिया गया.
हालांकि, 2017 में उत्तर प्रदेश, गुजरात सहित कुछ अन्य राज्यों में विधानसभा चुनावों में बीजेपी के शानदार प्रदर्शन ने आरएसएस के भीतर मोदी की लोकप्रियता और होसबले के लिए संभावनाओं को बढ़ा दिया. मार्च 2018 में नागपुर में हुई एबीपीस की बैठक में मोदी के इस मुख्य व्यक्ति को बिना रोकटोक जोशी के स्थान पर नियुक्ति कराने का दुबारा प्रयास हुआ लेकिन वह प्रयास भी नाकाम रहा. 2 जनवरी 2018 को उज्जैन में हुए आरएसएस के दो दिवसीय सम्मेलन से पहले इसके शीर्ष छह पदाधिकारियों में से एक ने आरएसएस के नए कार्यकारी प्रमुख के चयन की प्रक्रिया को प्रभावित करने के मोदी के निरंतर प्रयासों पर अपनी चिंता जाहिर की थी.
एक वरिष्ठ आरएसएस पदाधिकारी के अनुसार, बैठक में शामिल एक सह-सरकार्यवाह द्वारा उठाए गए इस मुद्दे पर किसी को भी विस्तार से चर्चा करने की अनुमति नहीं दी गई. उन्होंने मुझे बताया, "सुरेश भैयाजी जोशी ने इस विषय को तुरंत बदल दिया और इस पर कोई चर्चा नहीं हुई." आरएसएस के उस पदाधिकारी ने मुझे बताया कि उस बैठक में जोशी सहित मोहन भागवत और सह-सरकार्यवाह होसबले, सुरेश सोनी, कृष्ण गोपाल और वी भगैया शामिल थे.
फिर इस मुद्दे पर आगे चर्चा नहीं हुई लेकिन इसने संघ में जोशी के सबसे वरिष्ठ और प्रभावशाली व्यक्ति बने रहने की संभावना को फिर जिंदा कर दिया. इससे आगे होने वाली एबीपीएस की बैठकों में जोशी के उत्तराधिकारी के रूप में होसबले की नियुक्ति की कोशिशों पर लगाम लग गई. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने मुझे कहा, "अगर हम अब दृढ़ता से नहीं खड़े रहे तो संघ का होना निरर्थक हो जाएगा."
होसबले के आगे बढ़ने की राह में आने वाली सबसे बड़ी अड़चन यह थी कि वह अन्य सरकार्यवाहों की तरह सीधे किसी आरएसएस की शाखा से नहीं बल्कि सहयोगी संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से आए थे और यह बात आरएसएस में बहस का मुद्दा बनी रही थी. जोशी के करीबी माने जाने वाले आरएसएस प्रचारक के अनुसार, होसबले के शीर्ष पद तक पहुंचने के रास्ते में यह बात आड़े आती रही. यहां तक कि होसबले के लिए मोहन भागवत ने नियमों में बदलाव का समर्थन भी किया. 2019 के लोक सभा चुनावों में मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की और भी अधिक प्रभावशाली जीत ने इन सभी रुकावटों को दूर कर दिया. मार्च 2021 में होसबले को सरकार्यवाह बना दिया गया और किसी ने भी इस निर्णय का विरोध नहीं किया. एबीपीएस ने शांति से इस बदलाव को मंजूरी दे दी.
होसबले के सरकार्यवाह का पद संभालने के बाद संघ के लोग आरएसएस के बीजेपी के साथ संबंधों में एक नई दिशा की उम्मीद रख रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों से बीजेपी अपने चुनाव प्रचार में आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों को अपने कार्यकर्ताओं की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश कर रही है. हालांकि अक्सर आरएसएस ने चुनावों में बीजेपी की मदद की है लेकिन उसने समय-समय पर पार्टी पर अपना प्रभुत्व दिखाया है. होसबले की नियुक्ति इस सत्ता संघर्ष में मोदी को महत्वपूर्ण बढ़त दिलाने में दूरगामी होगा.
एबीवीपी से बीजेपी में आए अधिकांश युवा नेता होसबाले का काफी सम्मान करते हैं. एबीवीपी में होसबले के सहयोगी रहे कई लोग आज पार्टी में प्रमुख पदों पर हैं. इससे प्रधानमंत्री का संगठन के भीतर के विरोधियों पर अधिक नियंत्रण हो जाएगा. होसबले के सरकार्यवाह के पद पर रहते हुए मोदी को पार्टी के नियमों से ऊपर उठते हुए अपनी कार्यशैली के अनुरूप काम करने में किसी रुकावट का सामना नहीं करना पड़ेगा.
संघ परिवार में अपने शानदार प्रभाव के चलते मोदी स्वतंत्र रूप से सरकार और बीजेपी दोनों को चलाने में सफल रहे हैं. इससे आखिर में आरएसएस के लिए अपनी पहचान बनाए रखने का संकट पैदा हो सकता है. संघ परिवार में आरएसएस की भूमिका जो पहले एक मुखिया की थी अब धीरे-धीरे मोदी के इशारे पर चलने वाले एक स्वयंसेवी संगठन की बनती जा रही है.