We’re glad this article found its way to you. If you’re not a subscriber, we’d love for you to consider subscribing—your support helps make this journalism possible. Either way, we hope you enjoy the read. Click to subscribe: subscribing
1947 से जम्मू-कश्मीर पर अपना दबदबा बनाए रखने के लिए दिल्ली दो तरह से वहां काम कर रही है : अपने शासन की वैधता के लिए लिए चुनावी लोकतंत्र का इस्तेमाल और तीव्र हो रही असहमति को कुचलने के लिए दशकों से जारी सैन्यीकरण. 5 अगस्त 2019 को केंद्र सरकार ने एकतरफा फैसला करते हुए संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू और कश्मीर को मिले अधिकार को हटा कर सैन्यीकरण की मिसाल सामने रखी है तो वहीं हाल ही में कराए गए जिला विकास परिषद (डीडीसी) चुनाव लोकतंत्र के इस्तेमाल का उदाहरण है. इसके साथ ही राज्य ने एक के बाद एक आई भारतीय सरकारों द्वारा क्षेत्र में बनाए और स्थापित किए गए राजनीतिक संगठनों और नेताओं के एक लंबे इतिहास को देखा है. नतीजतन, डीडीसी चुनावों का यह नाटक और झूठ, जिसमें अपने प्रतिद्वंदी के खिलाफ चुनाव लड़ने का नाटक रचते प्रतिनिधि उम्मीदवार दिल्ली के ही हितों को साध रहे हैं, राज्य में एक बेहद सुपरिचित चीज बन गए हैं. जैसा कि पूर्व मुख्यमंत्री मीर कासिम ने एक बार कहा था, "जब भी दिल्ली को लगा कि कश्मीर का कोई नेता उनसे अधिक प्रभावशाली और मजबूत हो रहा है तो उन्होंने उसके राजनीतिक कद को छोटा करने के लिए मैकियावेलियन विधियों का प्रयोग किया."
डीडीसी चुनाव जम्मू और कश्मीर में चुनावी लोकतंत्र का नया चेहरा बन गया है. केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर के 20 जिलों को 14 क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित किया गया था. बाद में जीतने वाले उम्मीदवारों को डीडीसी के अध्यक्ष का चुनाव करना होता है. चुनावों को 28 नवंबर से 22 दिसंबर 2020 के बीच 8 चरणों में सम्पन्न कराया गया. जिसमें भारतीय जनता पार्टी, पीपुल्स एलायंस फॉर गुपकर डिक्लेरेशन (पीएजीडी), कांग्रेस, जम्मू और कश्मीर अपनी पार्टी सहित अन्य क्षेत्रीय दलों और दर्जनों स्वतंत्र उमीदवारों ने भाग लिया. पीएजीडी को आमतौर पर गुपकर गठबंधन के रूप में जाना जाता है. यह सात राजनीतिक दलों का समूह है जो राज्य के संवैधानिक सुरक्षा उपायों को बहाल करने के लिए मिलकर चुनाव लड़ते हैं. इसका गठन अक्टूबर 2020 में किया गया था, जिसमें क्षेत्र के दो पुराने विरोधी दल, नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी भी शामिल थे. केंद्र सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 को हटाने और कश्मीर के अधिकांश राजनीतिक नेताओं को नजरबंद करने के छह महीने बाद मार्च 2020 में पूर्व पीडीपी मंत्री और विधायक अल्ताफ बुखारी की अगुवाई में अपनी पार्टी का गठन हुआ.
जैसा कि पहले से अपेक्षित था केंद्र सरकार ने खूब जोर-शोर से चुनाव कराया और यहां तक कि विदेशी पत्रकारों और प्रतिनिधियों को भी क्षेत्र में आने का न्योता दिया. हालांकि चुनाव परिणाम आने के बाद 280 सीटों में से 110 सीटें पाकर पीएजीडी ने इसे अपनी सफलता माना, जबकि 75 सीटें पाने पर बीजेपी ने इसे अपने आप में एक जीत घोषित कर दिया क्योंकि वह अकेली बड़ी पार्टी थी जिसे इतनी सीटें मिली थीं. कांग्रेस ने 26, अपनी पार्टी ने 12 और निर्दलीय उम्मीदवारों ने 50 सीटों पर जीत हासिल की. लेकिन जैसा कि ऐतिहासिक रूप से कश्मीर के चुनावों में विशिष्ट रहा है, हकीकत उतनी सीधी नहीं थी जितना कि नतीजे दर्शाए गए थे. जम्मू और कश्मीर प्रशासन ने कई उम्मीदवारों को चुनाव प्रचार करने से रोका और केंद्रीय एजेंसियों ने चुन-चुन कर कश्मीरी नेताओं को निशाने पर लिया. साथी दलों द्वारा स्वतंत्र और प्रतिनिधि उम्मीदारों को नामित करने के कारण पीएजीडी को अंदरूनी कलह का भी सामना करना पड़ा. इस बीच एक विकल्प के रूप में पेश करने के लिए अपनी पार्टी को कथित तौर पर केंद्र द्वारा एक कठपुतली की तरह स्थापित किया गया. पार्टी ने पीएजीडी के विपक्ष के स्थान को उसी तरह भर दिया जिस तरह 1999 में पीडीपी को नेशनल कॉन्फ्रेंस के विपक्ष के तौर पर गठित किया गया था. वास्तव में, अनुच्छेद को निरस्त करने के बाद कराए गए चुनाव का तमाशा पहले होने वाले कई चुनावों की तरह ही हास्यप्रद था लेकिन इन जिला परिषदों की बनावट में यहां की नई शासन व्यवस्था से अधिक कुछ भी नजर नहीं आया. परिषदों ने ऐतिहासिक रूप से भारत सरकार के हितों के लिए काम करने वाले मुख्यधारा के उन कश्मीरी दलों को ही सत्ता में ला दिया जिनका काम जम्मू और कश्मीर के संवैधानिक दर्जे के कम होने की चिंता को छोड़कर सिर्फ राजनीतिक रूप से शक्तिशाली होने का ढोंग करना है.
उन्होंने पीएजीडी का गठन करने वाले पूर्व विधायकों और मुख्यमंत्रियों को चुना जो लोगों के लिए काम करने और कश्मीरी जनता के प्रतिनिधि होने का दावा करते थे. लेकिन वास्तव में यह नगरपालिका, स्थानीय मुद्दों पर को उठाने के अलावा कुछ नहीं था. जैसा की वरिष्ठ पत्रकार मुजम्मिल जलील ने भी इनवर्स जर्नल में लिखा है, "संक्षेप में कहा जाए तो ये जिला परिषदें कश्मीर में भारत सरकार के समर्थन में काम करने वाला राजनीतिक ढांचा बनाने की बड़ी योजना का हिस्सा हैं."
अगर पीएजीडी न सिर्फ चुनाव पूर्व गठबंधन बनाने के लिए बल्कि केंद्र सरकार को चुनौती देने के लिए निष्पक्ष रूप से संवाद में भाग लेती तो केंद्र पर दबाव बनाया जा सकता था. लेकिन सभी दल अपेक्षित रूप से एक ऐसा मोर्चा खड़ा करने में विफल रहे जो केंद्र की बीजेपी सरकार पर रचनात्मक और अर्थपूर्ण दबाव बनाए रखने में सक्षम हो. इस असफलता का कारण यह है कि पीएजीडी कोई ऐसा मोर्चा नहीं है जो बीजेपी के राजनीतिक विरोधियों से मिलकर बना हो, बल्कि यह राजनीतिक अवसरवाद के विचार और अस्तित्व बचाने की जद्दोजेहद करने वालों से मिलकर बना है. जो दल कभी स्वायत्तता और स्वशासन की पैरवी किया करते थे, वे अब धारा 370 को फिर से बहाल करने और नागरिकता के मुद्दे तक सिमट गए हैं.
फिर से बहाली की इस मांग के जरिए पीएजीडी खुद को कश्मीरी जनता की आवाज और 5 अगस्त 2019 को जम्मू और कश्मीर से छीने गए सभी अधिकारों की रक्षक के तौर पर प्रस्तुत करना चाहती है. यह विचारधारा, जिसके बारे में पीएजीडी को लगता है कि कश्मीरियों ने यकीन किया है, कट्टर राजनीतिक विरोधियों को एक गठबंधन में साथ लाई है. लेकिन वह बड़ी आसानी से ही नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी के सत्ता में रहते हुए स्वायत्तता में कटौती और कमजोर पड़ते प्रावधानों की बात को टाल जाते हैं. मुख्य बात यह है कि गठबंधन में सभी सहयोगियों को समान शक्ति और स्थान नहीं दिया गया है और न ही भारत सरकार की राजनीतिक चालबाजी को रोकने के लिए कोई गंभीर प्रयास किया गया. उदाहरण के तौर पर, नेशनल कॉन्फ्रेंस ने न केवल सबसे अधिक सीटों पर चुनाव लड़ा, बल्कि सीटों के बंटवारे को लेकर बनी आंतरिक व्यवस्था का उल्लंघन करते हुए कई क्षेत्रों में प्रतिनिधि और स्वतंत्र उम्मीदवारों को भी मैदान में उतारा. इस गठबंधन में ऐसा करने वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस ही अकेली नहीं थी, बल्कि पीडीपी और पीपुल्स कॉन्फ्रेंस ने भी ऐसा ही किया था. जिससे पीएजीडी को लेकर फैला अविश्वास खुल कर सामने आ गया.
नतीजतन, जो गठबंधन बनाया गया था उसे राजनीतिक अनिश्चितता के चलते अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए जूझना पड़ा. जाहिरा तौर पर जिस दिन से गठबंधन बना उसी दिन से उसके भीतर की दरारें सामने दिखने लगी थी जो आगे चलकर फूट का कारण बन गईं. 19 जनवरी को पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष सजाद लोन ने पीएजीडी और नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला को पत्र लिख कर गठबंधन से बाहर हो गए. लोन ने लिखा, "कश्मीर में हम 5 अगस्त के दोषियों के खिलाफ नहीं बल्कि एक दूसरे के खिलाफ लड़े और 5 अगस्त के अपराधी और उनके दुमछल्ले आज खुश हैं.”
इस बीच अल्ताफ बुखारी की अपनी पार्टी ने अनुच्छेद 370 की बहाली के मुद्दे को छोड़ दिया है. बुखारी का जोर इस बात पर रहा कि ''आम कश्मीरियों के लिए'' यह अब कोई मुद्दा नहीं है. बुखारी के अनुसार पीएजीडी और उसके नेताओं ने एक सिद्धांतहीन और अवसरवादी गठबंधन बनाया है, जो अनुच्छेद 370 की बहाली जैसा नामुमकिन वादा करके कश्मीर की जनता को धोखा दे रहा है. बुखारी का कहना है कि वह से मतदाताओं से जुड़े विकास के मुद्दों पर काम कर रहे हैं. अनुच्छेद के निरस्त किए जाने के बाद से बीजेपी के तत्कालीन कश्मीर प्रभारी राम माधव बार-बार कहते आ रहे थे कि पार्टियों को राजनीतिक क्रियाकलाप शुरू करने चाहिए और उन्होंने नए नेताओं से अपील की कि वे विकास के मुद्दों पर ध्यान दें. अब बुखारी खुद को जम्मू-कश्मीर की राजनीति में जनता के हितों का एकमात्र प्रतिनिधि कहते हैं.
अनुच्छेद 370 को निरस्त किए जाने के बाद जम्मू-कश्मीर की राजनीति को नियंत्रित करने में बीजेपी की सफलता का अंदाजा शायद अपनी पार्टी में शामिल होने वाले नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी के सदस्यों की संख्या से लगाया जा सकता है.
इनमें पूर्व पीडीपी नेता दिलावर मीर, रफी मीर और पूर्व कांग्रेसी नेता उस्मान मजीद और शोएब लोन जैसे दिल्ली के पुराने वफादर शामिल हैं. कश्मीर का राजनीतिक इतिहास देखते हुए इस सफलता को समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है.
डीडीसी के रूप में इतिहास खुद को दोहरा रहा है. 1953 में नेशनल कॉन्फ्रेंस के शेख अब्दुल्ला को कश्मीर की स्वतंत्रता की हिमायत करने के शक में कांग्रेस के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने जेल में डाल दिया था. उसके बाद उन्होंने जीएम बख्शी को अब्दुल्ला का उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया. नेशनल कॉन्फ्रेंस को अपने कठपुतली प्रशासन के तौर पर इस्तेमाल करने के साथ ही केंद्र की कांग्रेस सरकार ने जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता के विखंडन की शुरुआत की थी. संविधान के जानकार एजी नूरानी ने अपनी पुस्तक आर्टिकल 370: कॉन्स्टीट्यूश्नल हिस्ट्री ऑफ जम्मू एंड कश्मीर में लिखा है कि अब्दुल्ला के हिरासत में रहने के दो दशकों में भारत सरकार ने क्षेत्र में हस्तक्षेप कर धीरे-धीरे स्वायत्ता की बुनियाद को ही खोखला कर दिया.
1975 में अब्दुल्ला के रिहा होने के बाद उन्होंने इंदिरा गांधी से संपर्क कर कश्मीर की स्वायत्तता को पहले की तरह बहाल करने की मांग की. तब गांधी ने तब कहा था, “समय को वापस नहीं मोड़ जा सकता."
अब्दुल्ला ने इस नई राजनीतिक सच्चाई को मंजूर कर कांग्रेस के नेतृत्व में बनी सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में जम्मू-कश्मीर में अपनी वापसी कर ली. अनुच्छेद 370 की बहाली को असंभव मानते हुए बुखारी भी गांधी के शब्दों से ही सहमत होते दिखते हैं. मौजूदा समय में कश्मीर के लोग इस बात को समझ गए हैं कि यह झूठ है कि पीएजीडी और अपनी पार्टी कश्मीर के रक्षक हैं.
अनुच्छेद 370 के प्रभवपूर्ण रूप से हटाए जाने के बाद से ही क्षेत्र की राजनीति में उथल-पुथल चल रही है. दिल्ली से मिल रहे केंद्र के निर्देशों के बाद कश्मीर के नेता प्रतिस्पर्धी पार्टियों में शामिल होने के लिए अपनी-अपनी पार्टियों से इस्तीफा दे रहे हैं या अपनी अलग पार्टी बना रहे हैं. 2019 में किए गए संवैधानिक परिवर्तनों के बाद विभिन्न विचारधाराओं के बीच करो या मरो की जो लड़ाई हम देख रहे हैं उसे समझने के लिए उनका पिछला रिकॉर्ड ही काफी है. उदाहरण के लिए शेख अब्दुल्ला ने अपनी राजनीतिक विचारधारा के चलते एक्सेस ऑफ इंस्ट्रूमेंट पर दस्तखत कर कश्मीर की स्वायत्तता स्थापित करने के लिए जनमत संग्रह की मांग की थी, जबकि उनकी पार्टी के हाल के नेता मोहिउद्दीन करारा कश्मीर में भारत समर्थक पक्ष पर भी ध्यान देने की जरूरत की बात करते हैं.
इसके साथ ही ऐसी कई विचारधाराएं रही हैं जिनको दिल्ली की सरकार द्वारा दबा दिया गया. कुछ लोगों के मुताबिक कश्मीर में शेखवाद को भी धीरे-धीरे खत्म कर दिया गया. कुछ ऐसा ही गुपकरवाद के साथ भी होगा, सिर्फ स्वायत्तता के नारे, नसीहत भरे राजनयिक भाषण, प्रेस बयान और इंटरव्यू इसकी भरपाई नहीं कर पाएंगे और ऐसे में बुखारी की अपनी पार्टी को जनता के बीच अपनी विश्वसनीयता बनाने में कई साल लग जाएंगे. अगर वह इसमें सफल हो भी गए, तो भी उनकी वैधता प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से दिल्ली के सहारे चलने वाली पिछली पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकारों से अधिक संदेहास्पद होगी. आखिर में उनका यह वैचारिक दिखावा राजनीतिक अनिश्चितताओं के कुहासे में मिट जाएगा. पीएजीडी और अपनी पार्टी दोनों के कई अनुयायी हो सकते हैं लेकिन अंतिम रूप से मायने यह रखता है कि कौन सा क्षेत्रीय कलाकार दिल्ली की बेहतर सेवा करता है.
इस बीच केंद्र डीडीसी चुनावों के जरिए कश्मीर में सामान्य स्थिति को दर्शाने की कोशिश करेगा. 18 मार्च को शोपियां जिले में आतंकवादियों और सुरक्षा बलों के बीच तीन दिन तक चली गोलीबारी के बाद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने संसद में दावा किया कि कश्मीर में हिंसा की दर अब कम हो गई है.
आखिर में, अगर इस बात को छोड़ दिया जाए कि कौन जिला परिषदों का नेतृत्व करता है या कौन जीतता है और सरकारी दफ्तरों पर कौन अपना कब्जा जमाता है, तो भी कश्मीर भारतीय राज्य के पक्षपातपूर्ण रवैये और हस्तक्षेप को झेलता रहेगा. निश्चित रूप से यह माना जाना चाहिए कि कश्मीर में अभी वैधता का संकट प्रबलता से बना रहेगा और अगर दिल्ली को लगता है कि जम्मू और कश्मीर में राजनीतिक अनिश्चितता जल्द ही दूर हो जाएगी, तो यह उसका राजनीतिक भोलेपन ही होगा.
Thanks for reading till the end. If you valued this piece, and you're already a subscriber, consider contributing to keep us afloat—so more readers can access work like this. Click to make a contribution: Contribute