क्या ब्राह्मणवादी संरचना के भीतर जाति का विनाश मुमकिन है? क्या यह मुमकिन है कि ब्राह्मणवाद भी बचा रहे और जाति न रहे? या ये दोनों इतने अंतरविरोधी हैं कि एक की उपस्थिति में दूसरे का अस्तित्व संभव ही नहीं है? ये ऐसे सवाल हैं जिन्हें हिंदुत्व के आईकॉन में समाज सुधार की गुंजाइश को तलाशने वाले शोधकर्ता हर बार नजरअंदाज करते हैं. हिंदुत्व, नस्लीय गौरव की राजनीति को ऊर्जा प्रदान करता है जो ब्राह्मणवादी वर्चस्व कायम रखना चाहती है. इस तरह की विद्वत्ता निराशाजनक होती है क्योंकि इन अध्ययनों में हिंदुत्ववादी वर्चस्व और जाति के विनाश के बीच के वास्तविक संबंध की पड़ताल नहीं की जाती बल्कि एक ऐसा गल्प रचा जाता है जो सच्चाई पर पर्दा डालने के काम आता है.
हाल में प्रकाशित पत्रकार वैभव पुरंदरे की किताब सावरकरः दि ट्रू स्टोरी ऑफ दि फादर ऑफ दि हिंदुत्व सावरकर के संबंध में एक अलग नजरिया पेश करने का दावा करती है. किताब के शीर्षक में “ट्रू स्टोरी” या सत्य कथा होने से यह भान होता है कि यह किताब सावरकर के मुरीदों द्वारा उसके इर्द-गिर्द रचे गए प्रभामंडल को भेद कर सावरकर के असली चरित्र को सामने लाएगी. लेकिन इस किताब के पहले कुछ पन्ने पढ़ते ही यह एहसास हो जाता है कि सावरकर के प्रति संवेदना रखने वाले उनके अन्य जीवनी लेखकों, जिसमें धनंजय कीर, चित्रा गुप्ता और डीएन गोखले शामिल हैं, की तरह ही पुरंदरे भी अपने विषय के प्रति श्रद्धाभाव रखते हैं और आधुनिक भारत के एक जटिल और विरोधाभासी व्यक्ति की जीवनी लिखने के लिए जिस तरह के ऐतिहासिक वस्तुवादी दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है उसका अभाव लेखक में है.
मिसाल के तौर पर इस किताब का दसवां अध्याय सावरकर को एक समाज सुधारक की तरह बताता है जो जाति व्यवस्था को मिटा देने के पक्ष में था और जिसने हिंदू समाज में व्याप्त छुआछूत और अंधविश्वास को खत्म करने का बीड़ा उठाया था और जो इन कुप्रथाओं को समावेशी और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बदल देना चाहता था. लेखक बताते हैं, “1924 में रत्नागिरी में लोकप्रिय गणेश उत्सव में छुआछूत के संस्कार को तोड़कर उन्होंने इस कुप्रथा के खिलाफ पहला विद्रोह किया.” लेखक ने बताया है कि कैसे सावरकर ने अंतरजातीय भोज और दलितों के मंदिर में प्रवेश को अपने उपरोक्त उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए दोहरी रणनीति बनाई थी और कैसे 1931 में रत्नागिरी में निचली जातियों के लिए एक “पतित पावन” नाम का मंदिर बनाना कट्टरवादी हिंदुओं के खिलाफ उनके विद्रोह की चरम अभिव्यक्ति थी.
पुरंदरे इस बात की अनदेखी कर देते हैं कि सावरकर के सामाजिक सुधारों के प्रयत्न दोहरे मानदंडों पर खड़े थे क्योंकि उसके राजनीतिक दर्शन- हिंदुत्व- का लक्ष्य ब्राह्मणवादी वर्चस्व को मजबूत करना था. ब्राह्मणवादी प्रभुत्व का आधार सामाजिक वर्गीकरण है और ऐसा कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है जो यह बताता हो कि सावरकर ने प्रभुत्व के ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण को चुनौती देने का प्रयास किया हो.
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