अयोध्या में राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह के समापन के अगले दिन यानी 23 जनवरी को, नरेन्द्र मोदी की केंद्र सरकार ने दिवंगत कर्पूरी ठाकुर को भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान, भारत रत्न देने की घोषणा की. ठाकुर 1970 के दशक में दो बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे थे. पुरस्कार की घोषणा के बाद केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने बीजेपी के पार्टी मुख्यालय कार्यकर्ताओं को संबोधित किया. शाह ने कहा, “मोदी जी ने 22 जनवरी को रामकाज किया और 23 जनवरी को गरीबकाज.” उन्होंने दावा किया कि ठाकुर की तरह मोदी भी “अति पिछड़ी जाति” से हैं.
24 जनवरी को ठाकुर की जन्म शताब्दी पर प्रधानमंत्री मोदी ने समाजवादी राजनेता ठाकुर की तरीफ़ करते हुए एक संपादकीय लिखा. मोदी ने ठाकुर के जीवन के उन हिस्सों पर ज़ोर दिया, जो उनके खुद के जीवन से मिलते-जुलते थे. जैसे ठाकुर की जातीय पृष्ठभूमि और कांग्रेस पार्टी के प्रति उनका कड़ा विरोध, जो उनके गुरु राम मनोहर लोहिया से प्रेरित था. प्रधानमंत्री ने लिखा कि ठाकुर ने “भारी विरोध” के बावजूद सकारात्मक कार्रवाई की वकालत की थी. हालांकि, उन्होंने इस बात की चर्चा नहीं की कि ठाकुर का विरोध भारतीय जनसंघ ने भी किया था.
ठाकुर एक कट्टर समाजवादी और स्वतंत्रता सेनानी थे, जो लोहिया के नेतृत्व में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से राजनीति में आए थे. लोहिया की तरह ठाकुर ने भी उत्पीड़ित जातियों के लिए आरक्षण का समर्थन किया, जिन्हें “अन्य पिछड़ा वर्ग” कहा जाता था. जनसंघ और कांग्रेस के ज़्यादातर ऊंची जाति के नेताओं को यह नागवार था. ओबीसी में भी कई जातियों को बेहद वंचित के रूप में वर्गीकृत किया गया और उन्हें प्रशासनिक रूप से “सबसे पिछड़ा वर्ग” या “अत्यंत पिछड़ा वर्ग” कहा गया. ठाकुर खुद इसी ईबीसी समुदाय के नाई समाज से थे.
1960 और 1970 का दशक ओबीसी नेताओं के लिए सरगर्मी का दौर था, ख़ासकर हिंदी पट्टी में. 1967 के आम चुनावों में कांग्रेस को एक बड़ा झटका लगा, जिससे लोहिया समूह जैसी गैर-कांग्रेसी पार्टियों का मार्ग प्रशस्त हुआ. उत्तर भारत में ओबीसी जनसमूह में राजनीतिक चेतना बढ़ रही थी और अधिकांश पार्टियों और सरकारों में ओबीसी राजनेताओं का उदय हो रहा था. कर्पूरी ठाकुर, भावी प्रधानमंत्री चरण सिंह और बिहार के भावी मुख्यमंत्री बीपी मंडल, नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव जैसे कई प्रमुख नाम आने वाले समय में देश की ओबीसी राजनीति को नई दिशा देने वाले थे.