यूनियन कार्बाइड से लेकर फेसबुक और ब्लूम्सबरी तक सभी बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत में अपनाती हैं दोहरा मानदंड

क्या भोपाल गैस त्रासदी के वक्त यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन सीईओ वारेन एंडरसन, फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग और ब्लूम्सबरी के सीईओ नाइजिल न्यूटन के बीच कोई समानता है? उनमें एक समानता उनका यह विश्वास है कि उन्हें भारत में कारोबार करते हुए उन मानकों का पालन नहीं करना होगा जो वे पश्चिमी लोकतंत्र में कारोबार करते समय अपनाते हैं. इन लोगों को विश्वास है कि मुनाफे के लिए वे भूतपूर्व “उपनिवेशों” में मूल्यों से समझौता कर सकते हैं और साथ ही साथ पश्चिम में अपने उपभोक्ताओं को उदारवाद का पाठ पढ़ाते रह सकते हैं. चाहे फेसबुक भारत में लोकप्रिय निरंकुश शासक को घृणा और हिंसा भड़काने के लिए अपने प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करने दे या ब्लूम्सबरी कोई ऐसी किताब को छापने का फैसला करे जो उस दृष्टिकोण को बढ़ावा देती है जिसने पिछले कुछ दशकों में हजारों लोगों की जान ली है, दोनों ही मामलों में नैतिकता से जुड़े निहितार्थ एक समान हैं.

एक किताब के लेखकों द्वारा तय विमोचन के दिन ब्लूम्सबरी उस किताब को छापने के अपने फैसले से पीछे हट गई जिसे वह सितंबर में बाजार में लाने वाली थी. यह किताब इस साल फरवरी में उत्तर पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा पर है. हमारे सामने मौजूद सबूतों से स्पष्ट है कि उस हिंसा में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और पुलिस की मिलीभगत थी. हिंसा में 53 लोगों की जान गई थी और मारे गए कुल लोगों में से 39 मुसलमान थे. प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया है कि कैसे बीजेपी नेता कपिल मिश्रा ने मुसलमानों के खिलाफ हिंसा को भड़काया और उसमें भाग लिया.

बावजूद इसके ब्लूम्सबरी इस किताब को संपादित कर प्रकाशित करने को तैयार थी जिसके लेखकों ने हिंसा के लिए जिहादी-नक्सलवादी लॉबी को जिम्मेदार बताया है. सत्ता में विराजमान दक्षिणपंथी अपने विरोधियों को जिहादी-नक्सलवादी लॉबी कहते हैं. इस किताब को बुद्धिजीवियों और शिक्षाविदों के समूह (जीआईए) के सदस्यों ने लिखा है. मार्च में इस किताब के तैयार होने से पहले इस समूह ने दिल्ली दंगे 2020 : ग्राउंड जीरो से रिपोर्ट नाम की एक फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट प्रकाशित की थी. उस वक्त हालिया किताब के एक लेखक ने रिपोर्ट के बारे में ट्वीट करते हुए कहा था कि दिल्ली दंगों पर जीआईए की संपूर्ण रिपोर्ट यहां पढ़िए और जानिए कि ये दंगे स्वतःस्फूर्त नहीं थे बल्कि एक नियोजित षडयंत्र के तहत किए गए थे. अर्बन नक्सल और जिहादी संजाल ने दंगों की योजना बनाई थी और इसे अंजाम दिया था. लेखकों ने यह रिपोर्ट केंद्रीय गृहमंत्री को सौंपी थी. इस रिपोर्ट के झूठे दावों का पर्दाफाश हो चुका है.

ब्लूम्सबरी प्रकाशन ने किताब को गलत तकरीर देकर वापस लिया है. अपने वक्तव्य में प्रकाशन ने दावा किया है कि उसने यह निर्णय इस बात के मद्देनजर लिया है कि हाल में उसके संज्ञान में लाए बगैर किताब के लेखकों ने प्रकाशन पूर्व एक वर्चुअल विमोचन सहित कई कार्यक्रम किए और ऐसा करते हुए इन कार्यक्रमों में उन्हें शामिल किया जिनकी मौजूदगी संभवतः प्रकाशक को स्वीकार्य नहीं होती. “ब्लूम्सबरी इंडिया भारत में अभिव्यक्ति की आजादी का पुरजोर समर्थन करती है लेकिन इसके साथ ही वह समाज के प्रति गहरी जिम्मेदारी की भावना भी रखती है.”

लेकिन यहां मामला अभिव्यक्ति की आजादी या मनपसंद किताब प्रकाशित करने के प्रकाशक के अधिकार का नहीं है. किताब के विमोचन से कोई समस्या नहीं है बल्कि किताब से ही समस्या है. प्रकाशकों के लिए जरूरी है कि वह किसी भी नॉनफिक्शन में किए गए दावों से सहमत हों. ऐसे दावों वाली किताब संपादक की नजर से गुजर कर छपने के लिए चली गई, संपादकीय मानकों में दिखाई गई ऐसी कमजोरियों की तफर इशारा है जो यही ब्लूम्सबरी ब्रिटेन या अमेरिका में नहीं कर सकता था.

1984 की भोपाल गैस त्रासदी पर भी यही बात लागू होती है. उस घटना में मध्य प्रदेश में स्थित यूनियन कार्बाईड फैक्ट्री से हुए गैस रिसाव में 4000 से ज्यादा लोगों की जान चली गई थी. एक शोधकर्ता ने इस मामले पर निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है, “यह कंपनी अमेरिका के वेस्ट वर्जीनिया में अपनी इकाई में इस्तेमाल किए जाने वाले सुरक्षा उपकरण और प्रक्रिया में अपनाए जाने वाले मानकों से बहुत कम पर यहां काम कर रही थी. यूनियन कार्बाइड कंपनी का सेविन कीटनाशक उत्पादन संयंत्र मध्यप्रदेश में इसलिए नहीं लगाया गया था कि अमेरिका के पर्यावरण नियमों से बचा जा सके बल्कि उसे भारत में कीटनाशक के बड़े और बढ़ते बाजार का दोहन करने के लिए लगाया गया था. लेकिन जिस तरह से इस प्रोजेक्ट को यहां शुरू किया गया वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दोहरे मानदंड को दिखाता है जो विकासशील देशों में काम करते हुए ये कंपनियां अपनाती हैं.”

यही निष्कर्ष भारत में काम कर रही फेसबुक और ब्लूम्सबरी सहित कई कंपनियों के बारे में निकाला जा सकता है. ये कंपनियां यहां पश्चिम की तुलना में बहुत कमतर मानकों पर काम करती हैं ताकि वे भारत के बड़े और विकसित हो रहे बाजार का दोहन कर सकें. जिस तरह से वह काम करती हैं वह भी विकासशील देशों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दोहरे मानदंड को दर्शाता है. भोपाल मामले में न तो एंडरसन को और न ही यूनियन कार्बाइड को सुरक्षा से जुड़ी अपनी आपराधिक नजरअंदाजी के लिए जवाबदेह बनाया गया.

पिछले कई सालों से फेसबुक के मामले में जो हमारे सामने आ रहा है उसे अभी हाल में वॉल स्ट्रीट जर्नल ने अपनी एक रिपोर्ट में प्रकाशित किया है. उस रिपोर्ट के अनुसार, भारत में फेसबुक की लोक नीति प्रमुख आंखी दास ने यहां के हिंदू राष्ट्रवादियों पर हेट स्पीच के लिए फेसबुक के नियमों के तहत कार्रवाई करने का विरोध किया था. जिन लोगों पर कार्रवाई न करने की सिफारिश दास ने की थी उनमें बीजेपी के नेता भी शामिल हैं. वॉल स्ट्रीट जर्नल ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि दास ने ऐसा नरेन्द्र मोदी सरकार के साथ फेसबुक के कारोबारी संबंधों को नुकसान होने से बचाने के लिए किया. उस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि दास ने चुनाव से संबंधित मामलों में बीजेपी का पक्ष लिया.

खुद को उदारवादी कहने वाले मार्क जुकरबर्ग अंतर्निहित फायदे के लिए बीजेपी के साथ समझौते जारी रख सकते हैं. इस कंपनी ने बीजेपी और अन्य हिंदुत्ववादी नेताओं द्वारा हेट स्पीच, इस्लामोफोबिया और हिंसा भड़काने के लिए फेसबुक के इस्तेमाल को रोकने की दिशा में बहुत कम काम किया है फिर भी जुकरबर्ग कुछ महीने पहले अपने स्टाफ को यह बता-बता कर खुश हो रहे थे, “आप जान जाते हैं कि कौन कब हिंसा को बढ़ावा दे रहा है. मुझे लगता है आमतौर पर आप लोग नहीं चाहते कि ऐसा कंटेंट ऊपर दिखे और भारत में ऐसे कई मामले सामने आए हैं. उदाहरण के लिए एक मामले में कोई कह रहा था कि ‘अगर पुलिस इसे ठीक नहीं करेगी तो हमारे समर्थक सड़कों पर निकल कर सब ठीक कर देंगे’. यह सीधे-सीधे समर्थकों को उकसाने वाली बात थी और हमने इसे फेसबुक से हटा दिया.” जुकरबर्ग उत्तर पूर्वी दिल्ली में कपिल मिश्रा के भाषण से संबंधित एक पोस्ट के बारे में बता रहे थे जिसकी वजह से वहां हिंसा हुई. जुकरबर्ग ने हटाई गई इस एक पोस्ट का इस्तेमाल अपनी पीठ थपथपाने के लिए किया, जबकि उनकी कंपनी की भारतीय इकाई हत्या और हिंसा का साथ देती रही जिसको वह पोस्ट भड़काना और सही ठहराना चाहती थी.

ब्लूम्सबरी के संस्थापक नाइजिल न्यूटन इस मामले में बहुत अलग नहीं हैं. उन्होंने जिस कंपनी की शुरुआत की थी आज उससे कई अच्छे और महान लेखक जुड़े हैं लेकिन इस घटना ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भारत में यह प्रकाशन संस्थान बहुत अलग नियमों से काम करता रहेगा. कल्पना कीजिए कि श्वेत नस्ल श्रेष्ठातावादी यह दावा करते हुए किताब लिखें कि अमेरिका का ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन कम्युनिस्ट और जिहादी लॉबी की योजना में चलाया गया, तब ऐसा बिल्कुल मुमकिन है कि अमेरिका और ब्रिटेन के संपादक इस तरह की किताब को कमिशन और एडिट करना तो दूर, इसकी पांडुलिपी भी न पढ़ें.

ब्लूम्सबरी ने जिस किताब को छापने से रोका है वह किताब दक्षिणपंथियों के बड़े काम की होती लेकिन अब वे इसके न छपने का भी वैसा ही फायदा उठा लेंगे. लेकिन हमें मुख्य मुद्दे से नहीं भटकना चाहिए और वह यह है कि इस किताब को प्रकाशित करने की मंजूरी दी गई थी. फिर, इस किताब को छपने से रोकने का तब तक कोई मतलब नहीं है जब तक कि प्रकाशन जवाबदेही तय नहीं करता, ब्लूम्सबरी के भारत में कामकाज के तरीके में बदलाव नहीं लाता और यह निर्धारित नहीं कर लेता कि भविष्य में भारत में काम करने का उसका तरीका क्या होगा.


हरतोष सिंह बल कारवां के कार्यकारी संपादक और वॉटर्स क्लोज ओवर अस : ए जर्नी अलॉन्ग द नर्मदा के लेखक हैं.