राजनीतिक कार्यकर्ता जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1970 के दशक में हुए जेपी आंदोलन में शामिल रहे सामाजिक कार्यकर्ता मौजूदा किसान आंदोलन में उसकी अनुगूंज सुन रहे हैं. मार्च 1974 में हुआ जेपी आंदोलन बेरोजगारी के खिलाफ बिहार में छात्रों के नेतृत्व के हुए विरोध प्रदर्शन के रूप में शुरू हुआ था, जिसे जल्द ही नारायण का समर्थन मिल गया. आगे चलकर यह आंदोलन इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के नेताओं के भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा हुआ. नारायण ने इसे "संपूर्ण क्रांति" कहा था. कई कार्यकर्ताओं ने कहा कि अगर किसानों का आंदोलन लंबे समय तक बरकरार रहता है, तो यह दूसरी संपूर्ण क्रांति में बदल सकता है.
केंद्र के कृषि कानूनों के विरोध में लाखों किसान दिल्ली की सीमा पर डेरा डाले हुए हैं. मैंने इस बारे में जेपी आंदोलन के सक्रिय प्रतिभागी और वर्तमान में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) से संबद्ध अखिल भारतीय किसान सभा के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव एनके शुक्ला से बात की. संगठन मौजूदा प्रदर्शनों में भी शामिल है. शुक्ला ने बताया, "जेपी आंदोलन पहला ऐसा जन आंदोलन था, जिसने इंदिरा गांधी की शक्तिशाली सरकार को खुली चुनौती दी. यह एक साल से अधिक समय तक चला, जिसके चलते भारतीय राजनीति में पहली बार आपातकाल और फिर कांग्रेस की एक साफ हार हुई. यहां तक कि इंदिरा और संजय गांधी भी अपनी सीट हार गए.” उन्होंने आगे कहा, "मौजूदा किसान आंदोलन के संबंध में समय के साथ-साथ यह स्थिति बढ़ती जा रही है जिसे तीन महीने से ज्यादा तो हो ही गया है." अगर इसी भावना से यह लंबे समय तक टिकता है, तो यह उसी बिंदु पर पहुंच जाएगा जहां जेपी आंदोलन था."
मैंने पटना के रहने वाले पूर्व प्रोफेसर अनिल रॉय से भी बात की जो जेपी आंदोलन में सक्रिय छात्र थे. रॉय वर्तमान में एक सामाजिक समूह एसोसिएशन फॉर स्टडी एंड एक्शन के सचिव हैं जो सामाजिक, आर्थिक और संवैधानिक मूल्यों के बारे में कार्यक्रम आयोजित करता है. रॉय ने कहा, "इस आंदोलन का मुद्दा 1974 में हुए आंदोलन की तुलना में अधिक गंभीर और गहरा है. इस दबाव समूह ने सरकार और कारपोरेट के बीच गठजोड़ की पहचान की है. लेकिन, जहां तक इसके सुदृढीकरण का सवाल है, यह अभी और मजबूती पाने के रास्ते पर है. दूसरी बात यह है कि आंदोलन अन्य दबाव समूहों को भी उत्तेजित कर रहा है. बिहार के छात्र संगठन अटकले लगा रहे हैं और लगातार इस बात पर मंथन कर रहे हैं कि उन्हें इस आंदोलन से कैसे जुड़ना चाहिए. ”
जून 1975 में गांधी के इस्तीफा की मांग उठी और प्रधानमंत्री ने देश में राष्ट्रीय आपातकाल लागू कर दिया. नारायण को अन्य विपक्षी नेताओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ गिरफ्तार कर लिया गया था. 1977 में आपातकाल हटा दिया गया और चुनावों की घोषणा हुई. नारायण के मार्गदर्शन में विपक्षी दल जनता पार्टी की छत्रछाया में एकजुट हुए. 1977 के चुनावों में जनता पार्टी ने कांग्रेस को हराया. यह आजादी के बाद कांग्रेस के लिए राष्ट्रीय स्तर पर पहली चुनावी हार थी. कांग्रेस को भारी चुनावी झटका देने के लिए जेपी आंदोलन शुरू होने में तीन साल लग गए. कार्यकर्ताओं ने कहा कि मार्च 2021 में शुरू होने वाले राज्य चुनावों में और आखिरकार 2024 के आम चुनावों में मोदी सरकार को नुकसान उठाना पड़ सकता है. फरवरी 2021 में पंजाब नगरपालिका चुनावों में बीजेपी को पहले ही हार का सामना करना पड़ा है और बाद में दिल्ली में पांच नगरपालिका वार्डों के लिए हुए उपचुनावों में उसी मुंह की खानी पड़ी है.
शुक्ला ने जोर दिया कि जेपी आंदोलन छात्रों के आंदोलन के रूप में शुरू हुआ था और बाद में एक राजनीतिक आंदोलन के रूप में विकसित हो गया. "सभी विपक्षी दल भी आंदोलन का समर्थन करने के लिए सामने आए. यह धीरे-धीरे कांग्रेस-विरोधी आंदोलन में विकसित हो गया," उन्होंने कहा. उनका मानना था कि किसानों का आंदोलन उसी दिशा में चल रहा है. इसी महीने प्रेस बयानों में संयुक्त किसान मोर्चा ने कहा कि उसके नेता पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की बढ़ती कीमतों के लिए "बीजेपी शासन की आलोचना" करते हैं. वे मोदी सरकार के खिलाफ “देश में सार्वजनिक क्षेत्र को कारपोरेट को बेचने” के लिए भी बोलते रहे हैं.
इसके अलावा 10 मार्च को एक विरोध बैठक में भारतीय किसान यूनियन (अराजनीतिक) के नेता राकेश टिकैत ने घोषणा की कि वह इस महीने पश्चिम बंगाल जाएंगे और राज्य में किसानों से बीजेपी को हराने का आग्रह करेंगे. उन्होंने कहा कि पांच राज्यों में 27 मार्च से शुरू होने वाले विधान सभा चुनावों में बीजेपी को हराने के लिए एक आह्वान किया गया है. ये पांच राज्य हैं, पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुदुचेरी. हालांकि, टिकैत ने भी जोर देकर कहा कि वह किसी विशेष राजनीतिक दल का समर्थन नहीं करेंगे.
शुक्ला ने कहा कि विपक्षी दल भी किसानों के विरोध का समर्थन करते रहे हैं. उन्होंने कहा, "आप देख सकते हैं कि राजनीतिक दलों ने इस विषय पर आक्रामक रूप से बोलना शुरू कर दिया है इसलिए आंदोलन एक राजनीतिक ताकत पाने की दिशा में है और फिर एक समय में यह केंद्र में बीजेपी को हटाने के एकमात्र एजेंडे की तरफ भी बढ़ सकता है. इसका असर राज्यों में होने वाले विधान सभा चुनावों में दिखाई दे सकता है.” उन्होंने आगे कहा, “अब इस आंदोलन में स्थिरता है और यह एक संतुलित स्थिति में है. निश्चित रूप से पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी केंद्र हैं लेकिन इसका असर भारत में हर जगह देखा जा सकता है.” उन्होंने कहा कि यह भी तब है जब मुख्यधारा की मीडिया उस तरह से इस आंदोलन को नहीं कवर कर रही है जिस तरह से किया जाना था.
किसान आंदोलन भी विरोध के उन्हीं तरीकों को अपनाता रहा है जिनका उपयोग जेपी आंदोलन करता था. बिहार में जेपी आंदोलन में लंबे समय तक धरने, प्रदर्शन, सड़कें जाम करना, रेल रोको और पंचायत स्तर पर बैठकें जैसी गतिविधियाँ होती थीं. विरोध प्रदर्शनों पर सरकार का दबदबा-बढ़ती मीडिया सेंसरशिप, सोशल मीडिया पर नियंत्रण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सरकारी नीतियों के खिलाफ किसी भी विरोध प्रदर्शन की अनुमति से इनकार- की तुलना 1970 के दशक में राजनीतिक माहौल के साथ की जा सकती है.
सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उस व्यापक समर्थन को इंगित किया जो किसान आंदोलन विभिन्न सामाजिक समूहों, जैसे कि ट्रेड यूनियनों, मजदूरों, छात्रों और युवाओं से प्राप्त कर रहा है. पूर्व राज्यसभा संसद और राष्ट्रीय जनता दल के दिग्गज नेता शिवानंद तिवारी भी बिहार में जेपी आंदोलन में सक्रिय रहे थे. "यह आंदोलन सही दिशा में है और इसका समाज के सभी वर्गों पर प्रभाव है," उन्होंने किसानों के विरोध का जिक्र करते हुए मुझसे कहा. "मैंने अपने राजनीतिक जीवन में इतना बड़ा आंदोलन नहीं देखा."
उन्होंने कहा कि 26 जनवरी को ट्रैक्टर रैली के दौरान हिंसा की घटनाओं को छोड़कर आंदोलन अच्छी तरह से संगठित और शांतिपूर्ण है और सरकार के खिलाफ "असंतोष की आवाज" स्थापित की है. तिवारी ने कहा, "आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इसने समुदायों के बीच सांप्रदायिक दूरी को कम करने के साथ किसानों के व्यापक हितों और कल्याण के लिए समाज के सभी वर्गों को एक साथ लाया है. समाज को एक साथ लाने में आंदोलन की प्रभावशीलता को देखा जा सकता है कि इस आंदोलन को बदनाम करने के बीजेपी के प्रयासों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा है. यह आंदोलन सरकार के खिलाफ शुरू से ही कृषि बिलों के संबंध में था और यह निश्चित रूप से समय के साथ मजबूत तरीके से सरकार के खिलाफ बढ़ता जाएगा.
कुमार प्रशांत भी जेपी आंदोलन के दौरान सक्रिय थे और जेल गए थे. प्रशांत दिल्ली में गांधी पीस फाउंडेशन के प्रमुख हैं. उन्होंने कहा, "जो भी यथास्थिति के खिलाफ है, वह उसी स्थान पर पहुंच जाएगा जहां 1974 का आंदोलन पहुंचा था. कोई फर्क नहीं पड़ता कि शुरुआती बिंदु क्या है या इसका क्या कारण है," उन्होंने मुझे बताया. "यदि प्रयास ईमानदार है, तो यह संपूर्ण क्रांति के चरण तक पहुंच जाएगा." उन्होंने जोर दिया कि 1974 का आंदोलन भी किसी प्रतिष्ठान या सरकार को हटाने के लक्ष्य से शुरू नहीं हुआ था. “जब आप सिस्टम में बदलाव के बारे में बात करते हैं, तो यथास्थिति इसे खुद के खिलाफ ले जाती है और आंदोलन को दिग्भ्रमित करना, क्षति पहुंचाना या विचलित करना शुरू कर देती है. किसान आंदोलन के साथ भी यही स्थिति है.
प्रशांत ने कहा, ''किसान एमएसपी, अपने अधिकारों और कल्याण के बारे में बात कर रहे हैं, जो कि निश्चित रूप से किसी सरकार के खिलाफ नहीं है. लेकिन जब आप अपनी बातों को ईमानदारी से रखते हैं और समझौता करने के लिए तैयार नहीं होते हैं, तो सरकार इसे अपने खिलाफ मान लेती है. इसीलिए बीजेपी सरकार शुरू से ही इस आंदोलन को तोड़ने की कोशिश कर रही है. लेकिन किसान आंदोलन को खत्म करने और यथास्थिति को बनाए रखने के उन सभी प्रयासों के बावजूद कुछ भी नहीं हुआ और आंदोलन सही रास्ते पर है और समय के साथ मजबूत होता जा रहा है.” उन्होंने दोहराया, "यह आश्चर्यजनक नहीं होगा कि यह दूसरी संपूर्ण क्रांति हो जाए जिसका केंद्र पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी हो."
प्रशांत ने इस विडंबना की ओर इशारा किया कि जेपी आंदोलन के बाद से राजनीतिक भूमिकाएं उलट गई हैं. जबकि बीजेपी के पूर्ववर्तियों ने कांग्रेस सरकार से लड़ने के लिए जेपी आंदोलन का समर्थन किया था, अब वही बीजेपी सत्ता में है. "जो लोग उस समय यथास्थिति को चुनौती दे रहे थे, वे अब यथास्थिति में हैं और जिन लोगों को चुनौती दी जा रही थी वे इस समय उन्हें चुनौती दे रहे हैं." प्रशांत ने कहा, "अंतर यह है कि वर्तमान स्थिति किसी भी बदलाव के लिए इस तरह के आंदोलन या असंतोष की आवाज को दबाने के लिए ज्यादा चालाक, सुसज्जित और संगठित है. वर्तमान सरकार अधिक खतरनाक है क्योंकि इसके पास चालाक राजनीति के साथ सांप्रदायिक रंग भी है.”
राजनीतिक विश्लेषक और नोएडा में एमिटी विश्वविद्यालय के वरिष्ठ व्याख्याता श्रीश पाठक ने कहा कि किसानों का आंदोलन निर्णायक स्थिति पर पहुंच गया है. उन्होंने कहा, "या तो यह कृषि कानूनों को निरस्त करने से परे जाकर और देश के ज्वलंत मुद्दों को हल करने और स्थापित शासन के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी क्रांति बन जाएगा या आंतरिक कलहों से भर जाएगा, बेतरतीब ढंग से फैलेगा और अंततः पूरी तरह से गायब हो जाएगा," उन्होंने कहा. पाठक ने कहा, “ऐसे समय में जब मीडिया का अधिकांश हिस्सा सरकार के प्रति निष्ठा से काम कर रहा है और सत्तारूढ़ दल ने खुद को राजनीतिक पार्टी की तुलना में चुनाव मशीन के रूप में अधिक बदल दिया है, इस पैमाने के एक सहज सामूहिक विरोध का विकास एक दैनिक घटना नहीं है. क्रांतिकारी आंदोलन को बनाए रखने के लिए नेतृत्व, संसाधनों और एक वर्चस्वशाली विचारधारा की आवश्यकता होती है.”
पाठक ने कहा कि अगर किसान आंदोलन को लंबे समय तक चलना है तो इसे एक विचारधारा विकसित करनी होगी. उन्होंने कहा, "इस जन आंदोलन की सफलता देश के अनिच्छुक और कुछ हद तक सभ्य समाज को फिर से जीवंत कर सकती है. इस आंदोलन की विफलता आवश्यक राजनीतिक विकास को आमंत्रित करने के लिए एक महान अवसर को खोने जैसा होगा."