“अम्मी तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं,” 15 अक्टूबर 2019 की दोपहर दिल्ली की जंतर-मंतर रोड़ इस नारे से गूंज रही थी जब नीले रंग की सलवार-कमीज में फातिमा नफीस ने बोलने के लिए माइक अपने हाथों में लिया. वह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यायल से 15 अक्टूबर 2016 से गायब छात्र नजीब अहमद की मां है. अपनी कड़क आवाज में फातिमा ने सरकार और पुलिस को ललकारा तो लंबे वक्त से जारी उस प्रदर्शन में मौजूद लोग, जो कुछ देर पहले तक थक कर जमीन और कुर्सियों पर जगह तलाश रहे थे, जोश से भर गए. फातिमा ने अपने भाषण का आगाज “सीबीआई मुर्दाबाद” कहकर किया क्योंकि साल 2018 में आज ही के दिन, नजीब के मामले में जांच को जारी रखने की फातिमा नफीस की ढेरों अपीलों के बावजूद सीबीआई ने मामले की क्लोजर रिपोर्ट दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट में दाखिल कर दी थी.
फातिमा उसी दिन सुबह-सुबह अपने बेटे की गुमशुदगी की तीसरी बरसी पर आयोजित धरने में शामिल होने बदायूं से आईं थीं.
इस प्रदर्शन में पहली बार फातिमा से मेरी सीधी मुलाकात हुई थी. इससे पहले मैंने उन्हें सिर्फ टीवी और अखबारों में देखा था. नजीब के लापता होने के 9 दिन बाद हुए एक प्रदर्शन की तस्वीर में फातिमा के हाथों में नजीब का एक पोस्टर था, उनका मुंह रुआसा था और वह किसी का हाथ थाम कर बड़ी मुश्किल से चलती लग रहीं थीं. 23 दिन बाद इंडिया गेट पर हुए एक अन्य प्रदर्शन की फोटो में दो महिला पुलिसकर्मी रोती फातिमा को घसीट रहीं थीं. फिर 2017 में नजीब पर बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म “अम्मी” में जब मैंने उन्हें देखा था तो मेरे सामने उनकी तस्वीर एक ऐसी मां की बनी थी जो अपने लापता बेटे के लिए बेचैन है और उसे ढूंढने की परेशानियों जूझ रही है.
लेकिन 15 अक्टूबर 2019 के रोज, जिस तरह से वह मंच से सरकार को ललकार रही थीं, पुलिस और प्रशासन को कायर बोल रही थीं, प्रदर्शन की अगुवाई कर रही थीं और साथ ही अपने साथियों के प्रति स्नेह एवं सम्मान दिखा रही थीं, वह बदायूं जैसे पिछड़े इलाके की औरत के बारे में मेरे स्टीरियोटाइप से बिल्कुल उलट था. बाद में इस बारे में उन्होंने मुझसे कहा, “जब किसी की कोई अनमोल चीज गुम हो जाती है तो वह उसे ढूंढने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है, नजीब मेरी वही अनमोल चीज है”.
जंतर-मंतर पर हुए उस प्रदर्शन में जेएनयू के पूर्व छात्र नेता उमर खालिद, लेखिका अरुंधति रॉय, सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण, वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश, जिनकी हत्या 5 सितंबर 2017 को हिंदुत्ववादियों ने गोली मार कर की थी, की बहन कविता लंकेश, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद, बसपा सांसद दानिश अली और हिंदुओं की भीड़ द्वारा पीट-पीट कर मार दिए गए तबरेज अंसारी की बीवी शाइस्ता परवीन भी शामिल थीं. दिल्ली विश्वविद्याल, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया, अलीगढ़ विश्वविद्यालय से वहां आए ढेरों युवा “एबीवीपी हाय-हाय “सीबीआई होश में आओ”, “दिल्ली पुलिस नजीब को ढूंढ कर लाओ”, “गोदी मीडिया हाय-हाय” जैसे नारे लगा रहे थे.
बीते चार सालों में 50 साल की फातिमा बहुत बदल गई हैं. वह सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों में सक्रिय हुई हैं. आज वह भारत में चल रहे नागरिकता संशोधन कानून विरोधी आंदोलन सहित तमाम लोकतांत्रिक आंदोलनों का जानामान चेहरा हैं. पिछले साल हुए लोक सभा चुनाव में फातिमा ने जेएनयूएसयू के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार, जो भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी की ओर से बिहार के बेगुसराय से खड़े थे, के लिए प्रचार भी किया था.
फातिमा के बारे में जेएनयू से पीएचडी कर रहीं गीता थात्रा ने मुझे बताया कि 2016 की फातिमा और 2020 की फातिमा में बहुत फर्क है. “वह अब बहुत अच्छा भाषण देती हैं, उन्हें कानून की अच्छी जानकारी हो गई है और मानसिक रूप से भी बुहत ज्यादा मजबूत हैं.”
नजीब के लापता होने के बाद से ही थात्रा इस मामले से जुड़ी हुई हैं. आज वह इस मामले में कानूनी स्तर पर मदद कर रही हैं. थात्रा ने मुझे बताया कि फातिमा मानती हैं कि उनके पास इस मामले में “राजनीतिक रास्ता अपनाने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं था.” उन्होंने बताया, “शुरुआत में अम्मी ज्यादा कुछ नहीं जानती थीं पर अब वह सबको बताती हैं कि क्या किया जाना चाहिए, किस तरह प्रोटेस्ट बुलाया जाए, क्या कानूनी कदम उठाने चाहिए, आदि. वह अब राजनीति समझने लगी हैं और केंद्र की राजनीति भी जनती हैं.”
फातिमा में उपरोक्त बदलाव अक्टूबर 2016 के बाद आने शुरू हुए, जब उनका सबसे बड़ा बेटा नजीब अहमद अपने जन्मदिन से महज दो दिन पहले, 15 अक्टूबर को जेएनयू परिसर से रहस्यमयी तरीके से गायब हो गया था. आज तक नजीब का पता नहीं चल पाया है. नजीब उस समय बायोटेक्नोलॉजी विभाग या जैव प्रौद्योगिकी विभाग में प्रथम वर्ष का छात्र था. एक बार फातिमा ने मुझे बताया कि वह चाहती थीं कि नजीब डॉक्टर बने. उन्होंने मुझसे कहा, “नजीब को मेरा यह सपना पूरा न कर पाने का अफसोस था.”
2016 में नजीब ने जेएनयू और जामिया मिलिया सहित चार विश्विद्यालयों की प्रवेश परीक्षाएं दी थी और सभी में वह पास हो गया था. फातिमा की इच्छा उसे जामिया भेजने की थी क्योंकि उनको लगता था कि वहां वह “अपने धर्म और लोगों” के बीच सुरक्षित रहेगा. लेकिन जेएनयू के पासआउट नामी विचारकों, बड़े सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों, दुनियाभर में पहचाने जाने वाले प्रोफेसरों ने नजीब को अपनी तरफ खींच लिया और फातिमा को भी उसकी बात माननी पड़ी. फातिमा ने मुझे बताया कि जेएनयू जाने के बाद भी नजीब फातिमा से दिन में तीन से चार बार फोन पर बात करता था.
गायब होने के दो दिन पहले 13 अक्टूबर को नजीब बदायूं में अपने परिवार के साथ मुहर्रम में शामिल होकर अपने हॉस्टल माही मांडवी वापस आया था. नजीब अपने रूममेट मोहम्मद कासिम के लिए बदायूं से मिठाई भी लाया था. संभवतः माही मांडवी के कमरा नंबर 106 में वह डब्बा आज भी रखा है क्योंकि 14 अक्टूबर की उस रात के बाद से ही उसे बंद कर दिया गया है.
उस समय जेएनयू के हॉस्टल चुनाव चल रहे थे. नजीब के हॉस्टल में मुख्य मुकाबला वामपंथी छात्र संगठन के उम्मीदवार शाहिद रजा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के उम्मीदवार विक्रांत कुमार के बीच था. दोनों मेस सचिव पद के लिए चुनाव लड़ रहे थे. 14 अक्टूबर की रात तकरीबन 11.30 बजे जब सभी छात्र अपने-अपने उम्मीदवारों के साथ प्रचार में जुटे थे तो विक्रांत और उसके साथियों ने कमरा नंबर 106 पर दस्तक दी. उस दस्तके के तुरंत बाद विक्रांत और नजीब में झगड़ा शुरू हो गया.
कासिम ने मुझे बताया, “यह कोई नहीं जानता कि नजीब और विक्रांत के साथियों का झगड़ा किस मामले को लेकर हुआ. यह बात सिवाए नजीब के, जो है नहीं, और विक्रांत और उसके साथियों के, जो कुछ बताते नहीं, और कोई नहीं जानता.” समाचारों के मुताबिक विक्रांत और उसके साथियों ने बताया है कि नजीब ने विक्रांत के हाथ में बंधा कलावा देखकर उसे थप्पड़ मारा था लेकिन कासिम ने मुझसे कहा कि यह “झूठ के अलावा कुछ नहीं है. यह सिर्फ उनकी एक फैंटसी है.” कासिम का मानना है कि यह घटना हॉस्टल चुनाव को ध्यान में रखते हुए हिंदू-मुस्लिम कराने के लिए एबीवीपी द्वारा पूर्वनियोजित थी.
झगड़ा शुरू होने के कुछ ही देर में 100-150 लड़कों की भीड़ वहां इकट्टी हो गई और नजीब को सांप्रदायिक गालियां देने लगी. कासिम ने बताया, “वे लोग कह रहे थे, ‘मारो इन कटुओं कों’, ‘सत्तर हूरों के पास पहुंचा दो.’”
भीड़ के हमले से नजीब को चोट लगी थी और उसकी नाक से बहुत खून बह रहा था. कासिम, हामिद रजा, मोहम्मद शाद और अन्य छात्र नजीब को गुस्से से पागल भीड़ से बचाने, लोगों को समझाने, और शांत करने की कोशिश कर रहे थे. कासिम ने मुझे बताया, “तभी अंकित रॉय नाम का एक लड़का चिल्लाने लगा, ‘हमारी हिंदू अस्मिता को ठेस पहुंची है. इसने कलावा खींचा कैसे?’ इसके बाद 10-15 लड़कों की भीड़ नजीब पर फिर टूट पड़ी."
भीड़ से निकाल कर नजीब के दोस्तों ने उसे कमरा नंबर 106 में बंद कर दिया लेकिन बाद में जब वे लोग उसके आसपास घेरा बना कर, बचाते हुए वार्डन के कमरे में ले जा रहे थे तब पूरे रास्ते भीड़ उसे पीटती रही. कासिम ने बताया, “जिसके हाथ में जो आ रहा था उससे वह नजीब को मार रहा था. जय ‘श्रीराम’ और ‘मारो कटुओं को, मारो मुल्लों को’ के नारे लगा रहे थे.”
कासिम ने मुझे बताया कि वार्डन के कमरे में हॉस्टल के तीन वार्डन- सौम्यजीत रे, मैन्स वार्डन अरुण श्रीवास्तव और सीनियर वार्डन सुशील कुमार मौजूद थे. तीनों वार्डनों ने नजीब, कासिम और हिंसक भीड़ से कुछ लोगों को कमरे में बुला लिया लेकिन नजीब को बचाने वालों को बाहर रुकने का निर्देश दिया.
कासिम को याद है कि नजीब उस समय गहरे सदमे और डर में था. “वह कुछ बोल नहीं रह था सिवाए माफी मांगने के ताकि मामल शांत हो जाए.” लेकिन कमरे के बाहर खड़ी भीड़, जिसका नेतृत्व सौरभ शर्मा कर रहा था, जोर-जोर से दरवाजा पीट रही थी और नजीब को गालियां दे रही थी. सौरभ शर्मा उस समय जेएनयू छात्रसंघ का जॉइंट सेक्रटरी और एबीवीपी का सक्रिय कार्यकर्ता था. शाद ने मुझे बताया, “सौरभ शर्मा ने बाद में आमीर मलिक नाम के एक अन्य लड़के को भी नजीब की तरह गायब करने की धमकी दी थी.” शाद ने यह भी बताया कि सौरभ शर्मा का नाम 2018 के जेएनयू छात्रसंघ चुनावों की मतगणना के समय हिंसा करने और बाद में पीएचडी डिग्री अन्य छात्रों के मुकाबलों जल्दी प्राप्त करने के लिए भी विवादित हुआ था. फिलहाल वह जेएनयू के सीएसआईएस विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.
उस समय कमरे में मौजूद भीड़ में शामिल अभिजीत नाम का लड़का बार-बार कासिम को चुप रहने की धमकी दे रहा था और नजीब को पागल कह कर पुकार रहा था. कासिम ने बताया, “अभिजीत ने वार्डन से कहा ‘सर इसको छोड़ दो, सुबह इसकी लाश मिलेगी और कासिम तू तो बाहर निकल, तुझे अभी देख लेंगे.’ हैरानी की बात थी इस पर किसी भी वार्डन ने आपत्ति नहीं जताई, न उस पर कोई कार्रवाई हुई.”
कमरे में मामला शांत होने के बाद कासिम और शाद नजीब को रात करीब 2.30 बजे सफदरजंग अस्पताल ले गए. कासिम ने बताया कि पिटाई से नजीब की कमर के ऊपर और गर्दन के नीचे गहरी चोटें लगी थीं. कासिम ने कहा, “नजीब डर के कारण इलाज भी नहीं करना चाहता था. वह सिर्फ अपनी मां फातिमा से बात करना चाहता था जो घटना की जानकारी मिलते ही रात 3 बजे बदायूं से दिल्ली के लिए रवाना हो गई थीं."
कासिम को याद है कि पूरी रात नजीब ने बेचैनी, डर और अम्मी फातिमा के इंतजार में बिताई. “नजीब अपने बिस्तर पर लेटकर सिर्फ छत को घूर रहा था. वह अपने घर वापस लौट जाना चाहता था,” कासिम ने बताया और आगे कहा, “उसकी बेचैन हालत के मद्देनजर वह किसी तरह से उसको शांत करने की कोशिश कर रहा था और साथ ही अम्मी को फोन कर नजीब की हालत के बारे में भी बता रहा था लेकिन 15 अक्टूबर की सुबह को जब फातिमा जेएनयू के माही मांडवी हॉस्टल पहुंचीं, तो नजीब वहां नहीं मिला. फातिमा ने कासिम, शाद, हामिद और अन्य छात्रों के साथ मिलकर जेएनयू परिसर और दिल्ली के अन्य स्थानों में नजीब को ढूंढने की कोशिश की लेकिन वह नहीं मिला.
तब से लेकर आज तक कोई नहीं जानता अगली सुबह नजीब कहां चला गया. गीता थात्रा ने मुझसे कहा था कि नजीब के गायब होने के दो महीने बाद हॉस्टल के वार्डन कुमार ने पुलिस को बयान दिया था कि उन्होंने नजीब को ऑटो रिक्शा में बैठकर कहीं जाते हुए देखा था. अम्मी फातिमा ने मुझे बताया कि जेएनयू के प्रोफेसर और प्रोक्टर एपी डीमरी ने इस मामले की प्रोक्टरल इंक्वाइरी की थी और कुछ एबीवीपी के लड़कों को इसमें दोषी भी पाया था. उन्होंने कहा, “वीसी और कुछ ऊपरी लोगों के दबाव के चलते डीमरी को प्रोक्टर पद से इस्तीफा देना पड़ा.”
इस संबंध में मैंने डीमरी से इस साल फरवरी में बात करने की कोशिश की लेकिन उनके कार्यालय में जिस व्यक्ति ने फोन उठाया, उसने कहा, “मैडम, अभी वह ट्रेवल कर रहे हैं और लगभग इस मंथ के एंड (आखिर) तक बाहर हैं. जब वह आएंगे तभी बात हो पाएगी.” रिपोर्ट के प्रकाशित होने से पहले भी मैंने डीमरी के कार्यालय में कई बार फोन किया लेकिन फोन नहीं उठा.
मामले को लेकर जेएनयू प्रशासन, दिल्ली पुलिस और सीबीआई पर सवाल उठना लाजमी है क्योंकि जेएनयू प्रशासन ने मामले को लेकर न कोई पुलिस रिपोर्ट लिखाई और न ही आरोपियों पर कार्रवाई की. गीता थात्रा ने मुझसे कहा, “सजा के नाम पर आरोपियों का सिर्फ हॉस्टल ट्रांसफर कर देना सजा नहीं है. दिल्ली पुलिस ने इस मामले में घटना के दो महीने बाद खोजबीन शुरू की, अक्टूबर में नजीब गायब हुआ और पुलिस दिसंबर में स्नीफर डॉग लेकर जेएनयू में उसकी तलाश करने पहुंची. मतलब रिकार्ड में लिखा जाएगा कि सर्च ऑपरेशन किया गया पर उसे ऐसे किया गया कि उससे कुछ निकल कर नहीं आया.” 16 मई 2017 को दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश पर यह मामला सीबीआई को सौंप दिया गया.
जंतर-मंतर के पिछले साल के प्रोटेस्ट में अपूर्वानंद ने इस मामले में सीबीआई की भूमिका के बारे कहा था कि, “सीबीआई सीलबंद लिफाफे में कोर्ट को रिपोर्ट देती है. उस बंद लिफाफे में क्या है वह आपको नहीं मालूम, नजीब की मां को नहीं मालूम. बंद लिफाफे में रिपोर्ट देने का एक रिवाज सा चल पड़ा है ताकि कोई यह न जान पाए कि लिफाफे में क्या है? सब बातों से एक चीज साफ होती है कि सरकार, पुलिस, सीबीआई को नजीब को ढूंढने में कोई दिलचस्पी नहीं है.”
नजीब के मामले में सीबीआई की जांच पर शुरू से ही शंकाओं और अविश्वास का कोहरा छाया रहा और 15 अक्टूबर 2018 को, फातिमा नफीस की जांच को जारी रखने की ढेरों अपीलों के बावजूद, सीबीआई ने मामले की क्लोजर रिपोर्ट पटियाला हाउस कोर्ट में दाखिल कर दी. अम्मी फातिमा सीबीआई और दिल्ली पुलिस पर आरोप लगाती रही हैं कि वे दोषियों को बचा रहे हैं और जांच में लापरवाही बरती गई है.
क्लोजर रिपोर्ट दाखिल हुए दो साल हो गए हैं लेकिन अब तक इस मामले से जुड़े जरूरी दस्तावेज सीबीआई ने कोर्ट को नहीं सौंपे हैं. जिसके चलते मामले की सुनवाई टलती जा रही है. फातिमा ने क्लोजर रिपोर्ट के खिलाफ पटियाला हाउस कोर्ट में याचिका भी दाखिल की है. इस मामले की सुनवाई पटियाला हाउस कोर्ट में 8 मई 2020 को होनी थी लेकिन कोविड-19 महामारी के बाद केंद्र सरकार द्वारा लगाए गए लॉकडाउन के कारण सुनवाई नहीं हो पाई. सुनवाई की अगली तारीख 8 दिसंबर 2020 मुकर्रर है.
इस मामले में हर तरफ एक अधूरापन दिखाई पड़ता है, पुलिस और सीबीआई की सुराग न ढूंढने में, विश्वविद्यालय प्रशासन की छात्रों पर कार्रवाई न कर पाने में और फातिमा अहमद की अपने बेटे से न मिल पाने में. यह मामला छात्र राजनीति के उस भयावह चेहरे को भी सामने लाता है जिसमें एक सत्ताधारी पार्टी या संगठन के रौबदार छात्र नेता प्रशासन की आंखों के सामने गैरकानूनी काम को आसानी से अंजाम दे सकते हैं.
कासिम ने मुझे बताया कि नजीब सिर्फ 15-20 दिन ही उसके साथ रहा था. 20 सितंबर के आस-पास वह कासिम के साथ रूम में शिफ्ट हुआ और 14 अक्टूबर को यह घटना हो गई. कासिम ने बताया, “वह हर किसी की बहुत इज्जत करता था. हर कोई ऐसा रूममेट चाहेगा. नजीब इतना ज्यादा पढ़ता था कि उनके कमरे में एक तरह की शांति और सुकून रहता था.”
14 अक्टूबर की रात उस समय कासिम भी अपने साथी हामिद रजा, जो हॉस्टल प्रेसिडेंट के पद का चुनाव लड़ रहे थे और शाहिद रजा, जो मैस सचिव के पद का चुनाव लड़ रहे थे, के साथ मांडवी विंग में प्रचार कर रहे थे तभी उनको रूममेट नजीब की किसी से लड़ाई होने की खबर मिली थी. “मैं जानता था कि सब कुछ मुझे ही संभालना होगा क्योंकि नजीब बहुत ही सीधा लड़का था.” लेकिन जब तक कासिम वहां पहुंचते विक्रांत और उसके दोस्त नजीब की बहुत ज्यादा पिटाई कर चुके थे. वार्डन रूम में मीटिंग के बारे में कासिम ने बताया, "जो लड़के कमरे में मौजूद थे, वे एबीवीपी के गुंडे थे क्योंकि कुछ लड़के तो जेएनयू के छात्र थे ही नहीं.” (जेएनयू में बाहर के लोगों का आकर छात्रों और शिक्षकों के साथ मारपीट करने के आरोप 5 जनवरी 2020 को वहां हुए हमले के बाद भी लगा था.) कासिम ने बताया कि नजीब उस वक्त बहुत दबाव में था और उसने “2-3 बार अपना सिर दीवार में मारा और कहा ‘सर छोड़ दीजिए, गलती हो गई.’ उसने ऐसा इसलिए कहा ताकि झगड़ा खत्म हो जाए.”
नजीब के गायब होने के बाद एक खबर यह भी आई थी कि झगड़े के बाद कासिम ने वार्डन को लिख कर दिया था कि “नजीब पागल है.” मैंने उस पत्र और अन्य शिकायत के बारे में कासिम से पूछा कि क्या उन्होंने ऐसा कोई पत्र लिखा था? कासिम ने कहा कि उन्होंने ऐसा कोई पत्र वार्डन को नहीं दिया. उन्होंने कहा, “रात 12 बजे हुई वार्डनों और छात्रों की मीटिंग में मुझे सारी बात लिखकर देने को कहा गया था लेकिन मैंने कहा कि ‘सर मेरे पास समय नहीं है, मुझे नजीब को संभालना है.’ तब वहां खड़े आयुष्मान नाम के लड़के ने वार्डन को एक पत्र लिखकर दिया. मैंने बस एक लाइन पढ़कर साइन कर दिया था.” कासिम ने दावा किया कि “नजीब पागल है और मुझे उससे डर लगता है” यह लाइन बाद में किसी ने जोड़ी थी “जो पूरी तरह से झूठ थी क्योंकि नजीब बहुत अच्छा लड़का था. पढ़ने वाला लड़का था, वह कभी भी इस तरह की सांप्रदायिक चीजें नहीं कर सकता.”
उस रात की मीटिंग के बारे में 23 अक्टूबर 2016 को समाचार पत्र दी एशियन एज की वेबसाइट में प्रकाशित एक समाचार के मुताबिक, 15 अक्टूबर को रात 12 बजे यानी नजीब के साथ मारपीट की घटना के आधे घंटे में, माही मांडवी हॉस्टल के सीनियर वार्डन सुशील कुमार, मैस वार्डन अरुण श्रीवास्तव, वार्डन सौम्यजीत रे और छात्रों ने मीटिंग की थी जिसमें खुद नजीब ने कासिम, हॉस्टल प्रेसिडेंट अलीमुद्दीन और पूर्व हॉस्टल प्रेसिडेंट दिलीप सहित के सामने स्वीकार किया था कि उसने “विक्रांत को थप्पड़ मारा था” अन्य छात्रों ने नजीब के खिलाफ शिकायत पर हस्ताक्षर किए थे.
शाद, जो फिलहाल जेएनयू से दर्शनशास्त्र में एमए कर रहे हैं, के अनुसार वह विक्रांत को अच्छे से जानते थे क्योंकि वह उनका बैचमेट और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का सदस्य था. “इस घटना से पहले नजीब को कोई भी नहीं जानता था और जब वे लोग उसे मार रहे थे तभी सबको उसका नाम पता चला.” शाद ने बताया कि वार्डन के कमरे तक जाते हुए, जबकि वार्डन आगे चल रहे थे, भीड़ नजीब को मार रही थी. उन्होंने बतया, “उस समय वार्डन के वहां रहने या न रहने का कोई मतलब नहीं था. उस समय अगर नजीब के करीब नहीं होते तो वे लोग पक्का उसे मार देते.” शाद ने बताया, "इस पूरी घटना में सबसे ज्यादा जिम्मेदार हॉस्टल वार्डन को मानना हूं. सबसे पहला एक्शन वार्डन के खिलाफ लिया जाना चाहिए, उसके बाद अन्य लोंगो के खिलाफ.”
शाद ने मुझसे कहा, “सौम्यजीत रे और गौतम झा एबीवीपी से जुड़े हैं, ये बात मैं लिख कर दे सकता हूं." रात 2.30 बजे जब कासिम और शाद नजीब को अस्पताल लेकर गए तब डॉक्टर ने उन्हें पुलिस के पास जाकर शिकायत लिखाने ले लिए कहा था. शाद ने बताया, “लेकिन नजीब तब इतना डरा हुआ था कि पुलिस के पास नहीं जाना चाहता था जिसके कारण उसी वक्त नजीब की मेडिकल रिपोर्ट नहीं बन पाई." उन्होंने आगे कहा, “अगर उस दिन मेडिकल रिपोर्ट बन जाती, तो उन लड़कों पर एक्शन लेना आसान हो जाता.” इस मामले से जुड़ी एक घटना के बारे में बताते हुए शाद ने कहा, "एक बात जो मुझे आज तक परेशान करती है कि जब तीन दिन बाद हम 18 अक्टूबर को वसंत कुंज पुलिस थाने में हम लोग आंदोलन कर रहें थे तब नजीब की मां से एक सब इंस्पेक्टर ने कहा था कि 'आप अपनी शिकायत वापस ले लिजिए, बेटा तो आपको मिल ही जाएगा.' शाद को बताया कि उन्हें ठीक से याद नहीं कि ऐसा कहने वाला कौन था. शाद ने कहा, “उस पुलिस वाले को लगातार फोन आए रहे थे जिनके जवाब में वह सिर्फ 'जी सर, हां सर' ही बोल रहा था. उसकी इस लाइन का मतलब यही था कि वे लोग जानते थे कि नजीब कहां है.”
शाद ने कहा कि घटना के बाद से माही मांडवी हॉस्टल का माहौल बदल गया और हॉस्टल में एबीवीपी वाले आकर रहने लगे और वे लोग मैस में अड्डा लगाकर रोज गंदी-गंदी गालियां देते थे. शाद ने कहा, “वे कहते थे कि ‘हम छुरा मार कर निकल जाते कोई कुछ नहीं कर पाता.’ उन्होंने कॉमन रूम की टेबल पर लिख दिया है, ‘ऑल मुस्लिम्स आर टेरीरिस्ट.’” शाद ने दावा किया कि जब उन्होंने इसकी शिकायत वार्डन सौम्यजीत रे से की तो वार्डन ने उन्हें चुप हो जाने के लिए कहा. शाद ने बताया, “माही मांडवी की दीवारों पर, सीढ़ियों, वॉशरूम में बहुत सी एंटी मुस्लिम बातें लिखी हुई थी जैसे ‘मुल्ला की मां का...’, ‘मुल्लो को मारो’, ‘ऑल मुस्लिम्स आर टेरीरिस्ट’, ‘कटुवों को मारो.’” शाद ने बताया कि ऐसी घटनाएं पहले भी होती थीं लेकिन उस रात के बाद ज्यादा होने लगीं. “इस मामले को सिर्फ गुमशुदगी के मामले के रूप में देखा जाता है जबकि इसे लड़ाई-झगड़े के मामले के रूप में भी देखा जाना चाहिए. लड़ाई की तो कोई बात ही नहीं करता, जबकी यह सीध-सीधा मार-पीट का केस है,” शाद ने बताया.
अम्मी फातिमा ने मुझे बताया कि 15 अक्टूबर की शाम नजीब को बहुत ढूंढने के बाद जब वह अपने मंझले बेटे मुजीब अहमद, तीन रिश्तेदारों और जेएनयू के कुछ छात्रों के साथ वसंत कुंज थाने शिकायत लिखाने गईं थीं तो वहां के एसएचओ गगन ने जांच अधिकारी (आईओ) संदीप कुमार को इशारा किया और फातिमा और मुजीब को एक कमरे में ले गए. फातिमा ने बताया, “बाकि सब लोगों को, जो उनके साथ थे, कमरे से बाहर निकाल कर कमरा अंदर से बंद कर लिया.” फातिमा ने बताया कि संदीप कुमार ने उनसे कहा कि वह शिकायत में किसी का नाम नहीं लिखें “अगर लिखोगी तो तुम खुद जिम्मेदार रहोगी, हमसे कोई मतलब नहीं रहेगा.” फातिमा ने बताया कि इंस्पेक्टर ने उनसे आगे कहा था “अगर तुम्हें अपना बेटा चाहिए तो किसी का भी नाम मत लिखो. यह बात वह बार-बार दबाव के साथ बोलता रहा.”
कासिम को भी याद है कि इसके बाद “अम्मी घबरा गईं. मुजीब ने उनसे कहा कि ‘अम्मी भाई को बहुत मारा है, तुम उन लोगों के नाम लिखवाने दो’ लेकिन संदीप कुमार नाम न लिखवाने पर अड़ा रहा और शिकायत पर अम्मी के दस्तखत करा लिए और फिर कोने में जाकर किसी से फोन पर बात करते हुए कहने लगा कि ‘मीसिंग लिखाई है, नाम नहीं आने दिए.’”
उस समय तक फातिमा और उनके बेटे को शिकायत के बारे में कुछ नहीं पता था कि कैसे लिखी जाती है? यह पहली दफा था कि जब वह पुलिस के पास शिकायत लिखाने पहुंची थीं. जब फातिमा पुलिस के पास शिकायत दर्ज करा रही थीं तब वे छात्र भी वहां मौजूद थे जो नजीब की पिटाई के गवाह थे. फातिमा की “मिसिंग कंप्लेंट” को बाद में एफआईआर में बदल दिया गया.
लेकिन जब बाद में जेएनयू के छात्रों ने नजीब के साथ हुई मारपीट की एफआईआर दर्ज कराने की मांग करते हुए वसंत कुंज पुलिस स्टेशन तक मार्च किया तो पुलिस ने उनकी शिकायत ले तो ली लेकिन आज तक उस पर एफआईआर दर्ज नहीं की है. जेएनयू के छात्रों की उस शिकायत में 12 गवाहों के बयान हैं. छात्रों ने जेएनयू के वीसी एम. जगदीश कुमार के खिलाफ भी आंदोलन किया और मांग की कि वीसी इस मामले के आरोपियों के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराएं लेकिन वीसी ने इस मुद्दे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की.
फातिमा से पहले विक्रांत और बाकी लोग नजीब के खिलाफ शिकायत दर्ज करा चुके थे जिसे तुरंत ही एफआईआर में बदल दिया गया था. नजीब को ढूंढने और आरोपियों को सजा देने की मांग को लेकर छात्रों के आंदोलन के बाद गृह मंत्रालय ने एक विशेष जांच दल या एसआईटी का गठन किया, “लेकिन हम उनके काम से संतुष्ट नहीं थे”, अम्मी फातिमा, गीता और उमर खालिद तीनों ने मुझसे कहा.
आंदोलनों के साथ-साथ फातिमा, गीता थात्रा और उमर खालिद सहित बाकी छात्रों ने मामले के कानूनी पहलुओं पर भी जोर देना शुरू किया. गीता उस समय इतिहास में पीएचडी के पहले साल में थीं और उमर खालिद इतिहास में पीएचडी कर रहे थे. 13 सितंबर 2020 को खालिद को दिल्ली पुलिस ने गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया. उन पर इस साल फरवरी में उत्तर पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा का षड़यंत्र रचने का आरोप है. उस हिंसा में लगभग 53 लोगों की मौत हुई थी. मरने वालों में 30 से अधिक मुस्लिम हैं.
गीता ने मुझे बताया कि नजीब के मामले को आरोपियों ने सांप्रदायिक रूप दे दिया जिससे कानूनी दांव-पेंच मुश्किल हो गए. फिलहाल इस मामले में तीन केस चल रहें हैं : पहली गुमशुदगी की याचिका है, जो पहले उच्च न्यायालय में थी लेकिन क्लोजर रिपोर्ट के बाद यह मामला ट्रायल कोर्ट में चल रहा है. दूसरी नागरिक अवमानना का मामला है जो चार मीडिया संस्थानों- टाइम्स नाऊ, टाइम्स ऑफ इंडिया, दिल्ली आजतक और इंडिया टुडे- के खिलाफ उच्च न्यायालय में चल रहा है और तीसरा आपराधिक अवमानना का मामला पटियाला हाउस कोर्ट में चल रहा है. गीता थात्रा कहती हैं कि "क्राइम ब्रांच नजीब को दरगाह और मस्जिदों में ढूंढ रही थी और केस को ऐसा बनाया जा रहा था ताकि नजीब मानसिक रूप से अस्वस्थ ठहराया जा सके. पूछताछ के नाम पर पुलिस आरोपियों को थाने में बुलाकर चाय-पानी पिलाकर भेज देती थी. उनके स्टेटमेंट में कुछ खास नहीं था. न ही उनसे कोई सवाल किया गया.” थात्रा ने मुझे समझाते हुए कहा कि अदालत हॉस्टल में हुई लड़ाई और नजीब के गायब होने को अलग-अलग करके देखती है लेकिन “हम कह रहें हैं कि दोनों मामले आपस में जुड़े हैं.” उनका कहना है कि सीबीआई की रिपोर्ट कहती है कि इस मामले में कोई हिंसा नहीं हुई थी. “मतलब वह उस रात हुई घटना की जानकारी रखते ही नहीं हैं."
फातिमा का सारा ध्यान हमेशा अपने तीन बेटों और एक बेटी की शिक्षा और पालन-पोषण पर ही रहा. उनकी पढ़ाई के लिए फातिमा को 2016 में अपनी जमीन भी बेचनी पड़ी थी जो उन्होंने अपनी बेटी की शादी के लिए खरीदी थी. साफ है कि फातिमा के लिए बेटी की शादी के खर्चे से ज्यादा अहम उनकी अच्छी शिक्षा है. पढ़ाई-लिखाई को लेकर फातिमा छोटी उम्र से काफी दिलचस्पी रखती हैं. उनके पिता अखबार में काम करते थे, इसलिए वह 10-12 साल की उम्र से ही अखबार पढ़ने लगी थीं. पिता की रूढ़िवादी सोच होने के कारण उन्हें ज्यादा पढ़ाया नहीं गया लेकिन खत लिखना, किताबें पढ़ना और सामान्य ज्ञान जैसे चीजों में उनकी दिलचस्पी बनी रही.
फातिमा जो खुद हासिल न कर सकीं उसे उन्होंने बच्चों में पूरा किया. शायद इसलिए उनके सभी बच्चे विज्ञान और गणित जैसे मुश्किल समझे जाने वाले विषयों पर हमेशा आगे रहे. नजीब ने बरेली स्थित निजी इंवर्टिस यूनिवर्सिटी से स्नातक किया क्योंकि बदायूं में ज्यादा सुविधाएं नहीं थीं.
फातिमा ने मुझे बताया कि नजीब उनके बहुत करीब था. “जब वह कॉलेज जाता था, तब वह अपने दोस्तों की, टीचरों की बातें और पूरा दिन उसने क्या किया सब कुछ मुझे घर आकर बताता था.” नजीब की गुमशुदगी के बाद बार-बार दिल्ली आना, यहां रहना, कोर्ट की कार्यवाही में फातिमा का बहुत पैसा खर्च हुआ है जिस वजह से उन पर कर्ज भी चढ़ गया है. फातिमा बताती हैं, “मैंने कभी 300-400 रुपए से ज्यादा का कोई कपड़ा नहीं पहना और कभी 200 रुपए से ज्यादा की चप्पल नहीं ली.” इस मुद्दे पर दिल्ली के वक्फ बोर्ड ने फातिमा की सहायता करते हुए फातिमा को पांच लाख रुपए और दोनों बेटों को नौकरी दिलाई है. फातिमा कहती हैं, “इसी से अब मैं अपना कर्जा चुका पा रही हूं.”
जब मैंने शाद से फातिमा की हिम्मत के बारे पूछा तो उन्होंने कहा, “अम्मी को यकीन है कि अगर इंसान मेहनत करे, तो लोकतंत्र के रास्ते समाज में बदलाव लाया जा सकता है.” शाद ने कहा कि भारत में मुस्लिम औरतों की जो पहचान है फातिमा उसे तोड़ती हैं. “लोग सोचते हैं कि मुस्लिम औरतें घर में ही रहती हैं, बाहर नहीं निकलतीं. यह धारणा अब टूट रही है. अम्मी घर के काम करने वाली औरत हैं लेकिन वह बेगुसराय की चुनावी रैली में भी जाती हैं, आंदोलन में भी जाती हैं. वह देशभर में घूम रही हैं. वह सरकार के खिलाफ आवाज उठा रही हैं.”
कासिम बताते हैं कि जब उन्होंने फातिमा को पहली बार देखा था तो वह सबके साथ नरमी से पेश आने वाली औरत थीं लेकिन “अब उन्हें एक मजबूत औरत के रूप में देखता हूं.” कासिम कहते हैं, “इतने सारे अटैक चल रहे हैं, देश में महिलाओं पर, दलितों पर. इस तरह की सरकार है और उसके सामने भी हार न मानना, डटे रहना, ये बातें हैं जो अम्मी में हैं. आज जो अम्मी है, वह डरती नहीं है.”
मेरी बातचीत में अम्मी फातिमा ने यह भी पूछा कि साधारण परिवार से आने वाले आरोपी पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली के लिए केस लड़ने वाला वकील कैसे कर सकते हैं? “उस वकील की एक सुनवाई की फीस ही लाखों में होती है. ऐसा इसलिए क्योंकि उन पर बीजेपी का हाथ है. सभी आरोपी लड़के एबीवीपी के सदस्य हैं.”
आज भी वे सभी छात्र एबीवीपी से जुड़े हैं. उन्होंने कहा, “सौरभ शर्मा उनका नेता है. जिस पर पटियाला हाउस कोर्ट में क्रिमीनल केस चल रहा है.” बीजेपी पर निशाना साधते हुए फातिमा ने मुझसे कहा, “बीजेपी नेता जब डीबेट में बैठते हैं, तब कोई नजीब का नाम ले लेता है, तो उनकी बोलती बंद हो जाती है. मैं अब थक गई हूं, बूढ़ी हो गई हूं. इतनी ताकत नहीं बची की सड़क पर उतर सकूं लेकिन मैं लड़ रही हूं अपने बच्चे के लिए.”
उन्होंने बताया कि जेएनयू के बच्चों के साथ रहते-रहते अब वह “वहां पढ़ाए जाने वाले बहुत से विषयों के बारे में जानने लगी हूं. बड़े अफसरों से मिलने में अब मैं पहले की तरह झिझकती नहीं हूं और अपनी बात साफ और कठोर शब्दों में रख लेती हूं.” फातिमा ने आगे कहा, “आज तक जेएनयू प्रशासन, सीबीआई और दिल्ली पुलिस यह मानने को तैयार नहीं हैं कि नजीब को मारा-पीटा गया था. कम से कम एक झड़प ही लिख देते. जबकि उसके साथ तो पूरी मॉब लिंचिंग हुई थी. चार बार उस पर हमला किया गया था और एक भी अरोपी को सजा नहीं हुई. मेरा नजीब बहुत सीधा लड़का था और जिसने भी उसके साथ यह किया है वह जरूर भुगतेगा. अल्लाह नजीब को जरूर इंसाफ देगा. वह जहां भी होगा अल्लाह की पनाह में होगा.”
2016 से अब तक, इन सालों में नजीब के मामले में अम्मी फातिमा, कासिम, शाद, गीता थात्रा और उमर खालिद सहित तमाम छात्रों को बहुत कुछ झेलना और देखना पड़ा है. लेकिन साथ ही फातिमा के साथ इनके रिश्ते गहरे हुए हैं. गीता ने मुझे बताया कि वह अब उनके परिवार का हिस्सा हैं. गीता ने कहा, “जब वह दिल्ली आती हैं, तो कभी-कभी हमारे साथ भी रुकती हैं. त्योहार के मौके पर वह हमको फोन पर मुबारक देती हैं और तबीयत ठीक न होने पर हालचाल पूछती हैं.” गीता ने बताया कि बच्चों के इम्तिहान के समय अम्मी कोई आंदोलन या धरना नहीं करना चाहतीं क्योंकि वह बच्चों की पढ़ाई को लेकर काफी संवेदनशील हैं. “उनको दुख होता है जब आंदोलन में किसी भी बच्चे को चोट लग जाती है, वह अब सभी से अपने बच्चों की तरह ही व्यवहार करती हैं.” गीता बताती हैं, "अम्मी मानती हैं कि उनके बेटे को किसी ने कहीं जबरदस्ती छुपा कर रखा है और एक दिन वह वापिस जरूर आएगा. उनका संघर्ष और विश्वास है जो हम सभी को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है.”
फातीमा के बारे में उमर खालिद ने मुझसे कहा था कि वह उत्तर प्रदेश के बदायूं जैसे छोटे इलाके से आती हैं जहां शिक्षा, व्यवस्था, कानून और अन्य सुविधाएं पूर्ण रूप से विकसित नहीं हुई हैं. बूढ़ी और ज्यादा पढ़ी लिखी न होने के बावजूद उन्होंने इस लड़ाई को देश के कोने-कोने तक पहुंचाया है.
मुझे फातिमा के बारे में बताते वक्त उमर खालिद कई बार भावुक हुए फिर अपनी बात खत्म करते हुए उन्होंने मुझसे कहा, “इस लड़ाई को जारी रखने का एक मकसद नजीब को लोगों की याददाश्त में बनाए रखना भी है. जिस दिन नजीब लोगों की यादों से गायब हो जाएगा, उस दिन यह संघर्ष भी मर जाएगा.”