सालाना 31 जुलाई को प्रेमचंद की जयंती के मौके पर होने वाले हिंदी साहित्यिक पत्रिका हंस के जलसे में मेरा जाना हुआ. इस साल के जलसे का विषय था, ‘राष्ट्र की पहेली और पहचान का सवाल’. मेरे साथी वक्ताओं में मकरंद परांजपे भी थे जो फिलहाल भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान (शिमला) के प्रमुख हैं. अपने भाषण में परांजपे ने भारतीय संविधान के उन प्रावधानों की बात की जो गैरबराबरी पैदा करने वाले हैं. इस मौके पर परांजपे ने आदिवासियों का संदर्भ इस चिंता के साथ दिया कि उन्हें आयकर नहीं देना पड़ता.
जब कार्यक्रम के अंत में दर्शकदीर्घा से किसी ने पूछा कि परांजपे उन लोगों से आयकर वसूलने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं जिनकी कोई आय ही नहीं है. परांजपे ने सफाई दी कि उनका इशारा पूर्वोत्तर के आदिवासी लोकसेवकों की ओर है. जब उन्हें बताया गया कि यह संविधान की छठी अनुसूची से प्राप्त विशेषाधिकार है तो उनका कहना था कि यही जनता के बीच किए जाने वाले कानूनी भेदभाव हैं जो समस्या की जड़ है.
मुझे परांजपे के इस बे सर पैर के दावे से हैरानी हुई. लेकिन कसूर मेरा और वहां उपस्थित उन दर्शकों का है जिन्होंने परांजपे को गंभीरता से नहीं लिया. अभी एक सप्ताह भी नहीं हुआ है जब परांजपे सरीखी संविधान के प्रावधानों को धता बताने वाली मानसिकता ने कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को प्रवाभहीन बना दिया.
परांजपे वाली सूची लंबी है. इसमें शामिल हैं आयकर न चुकाने वाले आदिवासी, विशेष दर्जा प्राप्त कश्मीरी, चार बीवियों के साथ मौज करते मुसलमान और खान मार्किट गैंग जिसे सब कुछ हासिल है. लेकिन कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना की तर्ज पर यह सूची उनके लिए नहीं है जो इसमें शामिल है बल्कि उनके लिए है जिनके लिए यह तमाशा किया जा रहा है. गुजराती अस्मिता का नारा लगाकर नरेन्द्र मोदी ने चार बार विधान सभा चुनाव जीता और हिंदू गौरव की अपील कर दो बार लोकसभा चुनाव.
पूछा जाना चाहिए कि यह अपील काम कैसे करती है और वह डर कर सिकुड़ा हुआ हिंदू गौरव है क्या चीज?
हिंदुस्तान को देखें तो यह डर बेबुनियाद लगता है. यहां ब्राह्मण और बनिया जैसी द्विज जातियों का प्रभुत्व है. भारत के 50 शीर्ष अरबपतियों में 24 बनिया हैं. यहां की शीर्ष कम्पनियों के अधिकांश प्रमुख ब्राह्मण या बनिया हैं. अशोका, जेएनयू, बीएचयू और तमाम विश्वविद्यालयों में द्विजों का कब्जा है. यहां के उदार और दक्षिणपंथी मीडिया घरानों के शीर्ष पदों पर द्विज विराजमान हैं. देश की दौलत और बौधिक पूंजी पर 15 फीसद जनसंख्या वाले द्विजों का कब्जा है. नस्लवादी दौर के दक्षिण अफ्रीका के अलावा ऐसी विषमता किसी अन्य देश में देखने को नहीं मिलती.
यहां तक कि भारत के विचार पर रस्साकशी करने वाले भी यही द्विज जन हैं. इस रस्साकशी के एक छोर पर पुराना ‘धर्मनिर्पेक्ष’ संभ्रांत वर्ग है जिसने द्विजों के प्रभुत्व को मिटाने के लिए कभी कुछ नहीं किया और दूसरे छोर पर ईमानदारी से अपनी धर्मांधता का प्रदर्शन करने वाले हिंदुत्वादी.
इस डरे हुए हिंदू गौरव को समझने के लिए जरूरी है उस संक्रमण को समझना जिसमें पुराने द्विज धर्मनिर्पेक्ष संभ्रांत के हाथों से ताकत छिटक कर आज राजनीतिक क्षितिज पर छाए अधिक उग्र और धर्मांध हिंदू राष्ट्रवादी संभ्रांत के हाथ लग गई.
इस नए राष्ट्रवाद का जन्म तीन धाराओं के संगम से हुआ है.
पहली घटना है पंजाब का हिंसक आंदोलन और भिंडरांवाले का उदय जिसे कांग्रेस ने हवा दी और परिणामस्वरूप ऑपरेशन ब्लूस्टार हुआ. इसके बाद इंदिरा गांधी की हत्या और 1984 में दिल्ली और मुख्य रूप से हिंदी पट्टी में सिखों का कत्लेआम हुआ. कत्लेआम के बाद हिंदुस्तान में पहली मर्तबा बहुसंख्यक हिंदुओं का धुव्रीकरण हुआ. 1984 के चुनावों में ‘राष्ट्र’ के ऊपर मंडरा रहे सिख अल्पसंख्यक के खतरे का जो अभियान चलाया गया था वह भविष्य में मुसलमानों के नाम पर बनने वाले बहुसंख्यकवाद का आधार बना. क्या हैरानी कि कत्लेआम के बाद संघ विचारक नाना देशमुख जैसों ने राजीव गांधी का साथ दिया और आरएसएस के सदस्यों ने पाला बदल कर कांग्रेस के लिए प्रचार किया. परिणामस्वरूप, संसद में बीजेपी की संख्या सिमट कर दो रह गई थी. लेकिन बीजेपी की वह हार एक नए दौर की शुरुआत थी. जिस हिंदू वोट बैंक के पौधे को कांग्रेस ने सींचा, वह जब बड़ा हुआ तो उस पर बीजेपी के फल लगे.
हिंदू वोट बैंक के ठोस बनते जाने को संसद में मुसलमानों की संख्या के बरअक्स रख कर देखा जा सकता है. 1952 में हुए पहले चुनाव में संसद में मुसलमानों की मौजूदगी दो प्रतिशत थी जो 1980 में दस फीसदी हो गई. यह संख्या देश की जनसंख्या में मुस्लिम आबादी के प्रतिशत के आसपास है. 1984 में हुए चुनाव में यह प्रतिशत आजादी के बाद पहली बार गिरा और 10 से घट कर 8 हो गया. आज यह छह फीसदी से भी कम है.
उपरोक्त संगम की दूसरी धारा है कांशीराम के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी का उभार. बसपा की स्थापना 1984 में हुई थी और 1989 में हुए आम चुनाव में इसने देशभर में 5 प्रतिशत वोट हासिल किया. इसने 245 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे और चार सीटों पर पार्टी की जीत हुई. अपनी किताब ‘चम्चा युग’ में कांशीराम ने लोकतंत्र की उन कमजोरियों का उल्लेख किया है जिनकी वजह से दलित, आदिवासी और ओबीसी राजनीति की कमान द्विज जातियों के प्रभुत्व वाली पार्टियों के हाथों में चली जाती है. कांशीराम ने बसपा का गठन इसी कमजोरी के खिलाफ किया था. यह पार्टी दलितों के हितों की बात करती थी और इसका मकसद आदिवासी और मुस्लिम आबादी तक पहुंच बनाना था. यह पार्टी द्विजों के नेतृत्व वाली कांग्रेस के लिए दलितों पर नियंत्रण रखने की राह में सबसे बड़ी चुनौती थी.
तीसरी लहर मंडल आयोग की रिपोर्ट से पैदा हुई जिसने लालू यादव और मुलायम सिंह जैसे स्वतंत्र ओबीसी नेताओं को जन्म दिया. यह भी ओबीसी पर कांग्रेस के पारंपरिक नियंत्रण को खुली चुनौती थी.
इसके बाद अचानक ही पुराना संतुलन गोते खाने लगा. द्विज जातियों के नेतृत्व वाली कांग्रेस अन्य जातियों की राजनीतिक महत्वकांक्षाओं को दबाए रखने में नाकामयाब होने लगी और द्विज जातियों ने राम जन्मभूमि आंदोलन से उठी बीजेपी को अपना तिनका बना लिया.
आरएसएस के साथ मिल कर बीजेपी ने अन्य जातियों को अपने पास रखने का जो रास्ता अपनाया वह कांग्रेस के बस की बात नहीं थी. यह नुस्खा नया और कठोरा हिंदुत्व का घोल है. जहां कांग्रेस केवल संरक्षण या आर्थिक फायदे का लालच दे सकती थी वहीं आरएसएस-बीजेपी ने पहचान जैसा भावनात्मक मुद्दा परोसा. 1984 में संयोगवश कांग्रेस ने यह शिक्षा आरएसएस-बीजेपी को दे डाली थी. 1984 में हुए क्षणिक हिंदू धुव्रीकरण को आरएसएस-बीजेपी ने स्थाई घृणा का स्वरूप दे दिया. लेकिन इनके निशाने में मुसलमान थे. कांग्रेस के लिए सिख चुनाव जीतने का साधन थे लेकिन आरएसएस के लिए मुसलमान उसकी धर्मांध विचारधारा का सहज परिणाम था जो चुनावी मैदान में उतरने से पहले से ही उसके भीतर मौजूद था.
आरएसएस से संबद्ध संगठनों ने 1980 और 1990 के दशकों में मध्य भारत के आदिवासियों के बीच सतर्कता और सुविचारित तरीके से काम किया. नतीजतन 2002 में गुजरात में और 2003 में मध्य प्रदेश में बीजेपी को जीत मिली. इसके अन्य नतीजे थेः गुजरात में 2002 के मुस्लिम कत्लेआम और इसके तुरंत बाद मध्य प्रदेश के झाबुआ के पास ईसाई विरोधी हिंसा में आदिवासियों की सहभागिता.
यह काम प्रगति पर है. बीजेपी का विस्तार जाति को अनदेखा करने से नहीं बल्कि इस पर व्यवस्थित तरीके से काम करने से हुआ है. कांशीराम की मूल अवधारणा से विपरीत बसपा केवल जाटवों की पार्टी बन कर रह गई और बीजेपी ने गैर-जावट दलितों को साध लिया. बीजेपी ने ऐसा प्रतिकों के माध्यम से किया. कभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वाल्मीकि सफाईकर्मियों के पैर धोए और कभी दलित जातियों के धार्मिक अनुष्ठानों और मंदिरों में आरएसएस और संबद्ध संगठनों ने शिरकत की. यही रणनीति बिहार और उत्तर प्रदेश के गैर-यादव ओबीसियों को रिझाने में अपनाई गई. राजभर के राजा सुहेलदेव को दैवत्व प्रदान करने से लेकर पार्टी में इन जातियों के प्रतिनिधित्व को बढ़ावा देना इस रणनीति का हिस्सा है. इन जातियों को समावेश करने में कांग्रेस से अधिक बीजेपी ने काम किया है.
कांग्रेस की तुलना में बीजेपी-आरएसएस नेतृत्व द्विजों के नियंत्रण और प्रभुत्व को सुनिशिचत करने सक्षम है. यहां तक कि बनिया मोदी ने स्वंय को ओबीसी बना लिया. यह एक सच्चाई है कि 2014 और 2019 के बीच दलित, आदिवासी और ओबीसी के बीच अपने आधार को बढ़ाने वाली बीजेपी के केंद्रीय मंत्रीमंडल में द्विजों का दबदबा और बढ़ा है.
2014 के कुल 24 केंद्रीय कैबिनेट मंत्रियों में 5 ब्राह्मण, तीन राजपूत और तीन कारोबारी जातियों सहित 11 यानी 46 फीसदी द्विज थे. लेकिन 2019 में 8 ब्राह्मण (एक भूमिहार सहित), तीन राजपूत और 5 कारोबारी जाति के मंत्री हैं. यानी 16 द्विज मंत्री हैं जो कुल मंत्रीमंडल का 67 प्रतिशत हैं.
आज द्विजों द्वारा संचालित बीजेपी-आरएसएस के सामने भी वही चुनौती है जो एक जमाने में कांग्रेस के सामने थी. वह चुनौती है कि कैसे दलित और ओबीसियों को वास्तविक शक्ति दिए बिना अपने पक्ष में रखा जाए. हिंदू पहचान के घेरे में इन जातियों का धुव्रीकरण कोई स्थाई समाधान नहीं है. इस कारण आरएसएस-बीजेपी द्विज प्रभुत्व से दलित और ओबीसियों का ध्यान भटका कर उन्हें सीमा के अंदर और सीमा के बाहर (पाकिस्तान) के मुसलमानों का खतरा दिखा कर उलझाए रखना चाहते हैं. कश्मीर को इन दोनों ही श्रेणियों में रखा जा सकता है. यह धुव्रीकरण के लिए हिन्दुत्व का सबसे शक्तिशाली और पुराना हथियार है.
यहां एक बात समझने लायक है कि बीजेपी-आरएसएस के लिए कश्मीर को स्थाई रूप से द्वंद्वरत क्षेत्र बना देना उसके हित में है. इसने पंजाब को अपने सिख सहयोगियों के हवाले कर दिया है और गोवा और पूर्वोत्तर में ईसाइयों को अपना लिया है. लेकिन मुसलमानों को बाहरी देखना इसके विश्व दृष्टिकोण का केंद्रीय हिस्सा है.
पिछले छह साल उपरोक्त बातों की अच्छी मिसाल हैं. मोदी सरकार ने कश्मीर में यूपीए के समय की सुरक्षा स्थिति को बिगड़ने दिया और ऐसा करते हुए उसे राजनीतिक लाभ मिला. मोदी सरकार का दुबारा सत्ता में आना कश्मीर में हुए घटनाक्रम का परिणाम है. यदि पुलवामा न होता तो आज बीजेपी गठबंधन सरकार चलाने के लिए संघर्ष कर रही होती.
जरूरी है कि 370 को महज घाटी के लिए किए गए उपाय की तरह नहीं देखा जाना चाहिए. यह एक पैकेज डील का हिस्सा है जिसका विस्तार अयोध्या में राम मंदिर और समान नागरिक संहिता तक होगा. इस प्रकार के धुव्रीकरण के कई खतरे भी हैं. मुसलमानों के चुनावी इस्तेमाल से जनता उकता न जाए इसलिए नए प्रयोग करते रहने होंगे. ऐसे में कश्मीर एक स्थाई हल की तरह मौजूद रहेगा.
यह रामवाण उपाय है. भारतीय समाज में द्विजों का प्रभुत्व एक ऐसा स्थाई द्वंद्व क्षेत्र बना कर सुदृढ़ कर दिया गया है जिसकी मार मुसलमानों को पड़ेगी और भारतीय सुरक्षाबल के जो जवान मारे जाएंगे वे उन जातियों के होंंगे जिन्हें सत्ता से बाहर रखा जाना है. पुलवामा में मारे गए जवानों या अन्य भारतीय द्वंद्वों में मारे गए जवानों की जातीय पृष्ठभूमि पर सरसरी नजर डालने से ही पता चला जाता है कि इनमें द्विजों का प्रतिशत शायद ही कभी अपनी आबादी के प्रतिशत के ऊपर गया है.
हिंदू गौरव की यही समस्या हैं. यह दंभ भारतीय आबादी के बीस प्रतिशत से भी कम अल्पसंख्यकों का गौरव है जो मुस्लिम सहित अन्य अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत फैलाकर निरंतर अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहता है. इसे हमेशा चीजों के हाथ से निकल जाने का डर लगा रहता है. इस गौरव को जन्म देने वाली इसकी मायूसी और असुरक्षा वास्तविक है. और इसकी यही घबराहट इस देश के लिए सबसे बड़ा खतरा है.