We’re glad this article found its way to you. If you’re not a subscriber, we’d love for you to consider subscribing—your support helps make this journalism possible. Either way, we hope you enjoy the read. Click to subscribe: subscribing
जनवरी 2019 में पाकिस्तान सरकार ने अमेरिका से हुसैन हक्कानी के प्रत्यर्पण की प्रक्रिया कथित तौर पर शुरू की. हक्कानी पूर्व राजनयिक हैं जो 1992 से 1993 तक श्रीलंका और 2008 से 2011 तक अमेरिका के राजदूत रह चुके हैं. हक्कानी ने पाकिस्तान के चार प्रधानमंत्रियों के साथ भी काम किया है.
राजनयिक के रूप में हक्कानी का करियर विवादों से दूर नहीं रहा. 2012 में एक न्यायिक आयोग ने उन पर देश के सुरक्षा हितों को हानि पहुंचाने का आरोप लगाया. इसके बाद वे देश छोड़ कर अमेरिका चले गए. 2018 मार्च में पाकिस्तान की संघीय जांच एजेंसी ने हक्कानी के खिलाफ ‘‘अमेरिका में पाकिस्तानी दूतावास में अपने कार्यकाल में आपराधिक विश्वासघात, प्राधिकार का दुरुपयोग और गबन’’ के आरोप में मामला दर्ज किया. माना जा रहा है कि गबन के मामले को प्रत्यर्पण का आधार बनाया गया है.
हक्कानी पाकिस्तानी सेना के मुखर आलोचक हैं और बार-बार ‘‘राज्य की बागडोर डीप स्टेट (अदृश्य ताकत) के हाथों में होने’’ का आरोप लगाते रहे हैं. पाकिस्तान में मिलीटेंसी और विदेशी संबंध पर पाकिस्तान : बिटवीन मॉस्क एंड मिलिट्री और मेगनिफिशंट डिल्यूजन : पाकिस्तान और द यूनाइटेड स्टेट्स एंड एन इपिक हिस्ट्र ऑफ मिसअंडरस्टेंडिंग नाम से दो किताबें लिख चुके हैं. हाल में वे अमेरिका की थिंक टेंक संस्था हडसन के दक्षिण और मध्य एशिया विभाग के निदेशक हैं. पत्रकार हनन जफर के साथ साक्षत्कार में हक्कानी ने आतंकवाद, इस्लामिक चरमपंथ और पाकिस्तान की पुनर्कल्पना की आवश्यकता पर चर्चा की. पाकिस्तान लौटने की संभावना पर हक्कानी कहते हैं, ‘‘जिंदा रह कर राज्य के नैरेटिव (भाष्य) पर सवाल उठाना, लौट कर राज्य के भाष्य का शिकार हो जाने से अधिक समझदारी का काम है.’’
हनन जफर- अपने छात्र जीवन में आप इस्लामिक राजनीतिक संगठन ‘जमात ए इस्लामी’ के युवाओं के संगठन से जुड़े थे. लेकिन हाल के दिनों में आपने सार्वजनिक रूप में चरमपंथी इस्लाम, पाकिस्तान के डीप स्टेट और सेना की अलोचना की है.
हुसैन हक्कानी- मैं, जमात-ए-इस्लामी से कभी नहीं जुड़ा था. हां, मैं करांची विश्वविद्यालय के छात्र आंदोलन ‘इस्लामिक जमात-ए-तलबा’ से जरूर जुड़ा था. (इस्लामिक जमात-ए-तलबा पाकिस्तानी राजनीतिक दल जमात-ए-इस्लामी की छात्र शाखा है.) वह चालीस साल पहले छात्र राजनीति का दौर था. जरूरी यह है कि आज मैं क्या सोचता हूं.
जफर- आपका मानना है कि पाकिस्तान में इस्लामिक चरमपंथ कोई असमान्य बात नहीं है बल्कि यह वहां संस्थागत कर दी गई है. यदि ऐसा है तो अल्लाह ओ अकबर तहरीक जिसके बारे में माना जाता है कि वह लश्कर-ए-तैयबा से संबद्ध है और जमात-ए-इस्लामी को 2018 के आम चुनावों में इतनी कम सीटें क्यों मिलीं?
हुसैन हक्कानी- लोगों की निजी बातों पर जबरन दखल करने वाली जमात-ए-इस्लामी या जमात-ए-दावा जैसी पार्टियां मजबूत राजनीतिक विचारों वाली राष्ट्रवादी पार्टियों से हार जाती हैं. (जमात-ए-दावा हाफिज सईद की पार्टी है. हाफिज को लश्कर-ए-तैयबा का सह संस्थापक माना जाता है. खबरों के मुताबिक यह दल अल्लाह ओ अकबर तहरीक को समर्थन देता है.)
पाकिस्तान में दो तरह के इस्लामिक राष्ट्रवादी दल हैं. लश्कार-ए-तैयबा, जमात-उद-दावा और जमात-ए-इस्लामी जैसे दल हैं जो इस्लामिक संस्कृति और जीवन शैली की बात करते हैं. दूसरे वे दल हैं जो इस्लामिक राष्ट्रवाद को मानते हैं लेकिन इस्लामिक जीवनल शैली में यकीन नहीं करते. सरल शब्दों में कहूं तो इनका अंतर ये है कि पहली श्रेणी के लोग नमाज अता करते हैं और दूसरों को भी नमाज अता करने को कहते हैं. दूसरी श्रेणी के लोग खुद भी नमाज अता नहीं करते लेकिन मुसलमानों को एक राष्ट्र की तरह देखते हैं और मानते हैं कि उन्हें दूसरों का विरोध करना चाहिए.
जफर- आपने पाकिस्तानी सेना और डीप स्टेट के आंकतवाद से मुकाबला करने के तरीकों पर सवाल उठाया है. लेकिन पाकिस्तान खुद को आतंकवाद से पीड़ित देश बताता है. इसके अलावा खबरें हैं कि पाकिस्तान में आतंकवाद बड़े स्तर में कमजोर हुआ है.
हुसैन हक्कानी- सबसे पहली बात तो यह है कि पाकिस्तानी राज्य का कथन दुनिया की उसके बारे में जो सोच है उससे अलग है. अपनी जमीन में आतंकवाद के विस्तार को रोकने में पाकिस्तान सफल रहा है. एक हद तक इसका श्रेय पाकिस्तानी सेना को दिया जाना चाहिए. लेकिन पाकिस्तान ने उन आतंकी समूहों के खिलाफ कुछ नहीं किया जो उसकी सीमा से बाहर कार्रवाई करते हैं. अफगान-तालिबान पाकिस्तान से काम करता है और अफगानिस्तान पर हमला करता है. वहां लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद का भी अस्तित्व है. तो सवाल है कि क्या पाकिस्तान ने सभी आतंकवादियों के खिलाफ कदम उठाया है? जिन्हें अंतरराष्ट्रीय रूप में आतंकवादी माना गया है क्या उनके खिलाफ पाकिस्तान ने काम किया है?
उदाहरण के लिए, 2008 में मुंबई हमले के लिए जिम्मेदार लश्कर-ए-तैयबा के खिलाफ उसने क्या किया? इस हमले को विद्रोह नहीं माना जा सकता. इसे युद्ध भी नहीं माना जा सकता. यह विशुद्ध रूप से आतंकवाद है जिसमें लोग ऐसे आम नागरिकों की हत्या करते हैं जिनका द्वंद्व से कुछ लेना देना नहीं है. इस तरह के संगठन पाकिस्तान की छवि खराब करते हैं.
जफर- पाकिस्तान हमेशा ही अफगानी-तालिबान को ‘‘अच्छा तालिबान’’ मानता है. हाल में अमेरिका, तालिबान से बातचीत कर रहा है और अफगानिस्तान से उसने सेना हटाने का प्रस्ताव दिया है. क्या इसका मतलब है कि पाकिस्तान का विचार मान लिया गया?
हक्कानी- अफगानिस्तान में संपूर्ण सेटलमैंट के लिए अमेरिका बातचीत को बढ़ावा दे रहा है. जाहिर तौर पर यह बातचीत तालिबान और अफगान सरकार के बीच होगी. जहां तक तालिबान की बात है तो कभी किसी ने नहीं कहा कि किसी भी समूह के साथ बातचीत नहीं होनी चाहिए. लेकिन तालिबान लश्कर-ए-तैयबा से अलग है. लश्कर-ए-तैयबा एक आतंकी समूह है क्योंकि इसका उद्देश्य किसी भूभाग में कब्जा करना नहीं है. यह पाकिस्तान के बाहर नागरिक और गैर सैनिक लक्ष्यों को निशाना बनाता है. जबकि तालिबान, आंतकी और विद्रोही दोनों समूह है.
एक विद्रोही समूह के रूप में तालिबान से बातचीत चल रही है. यह अंतर हमेशा से रहा है. इसलिए अमेरिका और अन्य अंतरराष्ट्रीय समूहों ने तालिबान के सभी धड़ों को आतंकवादी नहीं माना.
जफर- क्या कश्मीर के विद्रोही समूह, जैसे हिजबुल मुजाहिदीन के बारे में भी आप ऐसा ही सोचते हैं?
हक्कानी- मैं बाल की खाल उधेड़ना नहीं चाहता लेकिन हिजबुल को अभी तक उस स्तर में नहीं देखा जा रहा है. फिर भी हिजबुल के कुछ लोग ऐसी गतिविधियों में लिप्त हैं जिन्हें अंतराष्ट्रीय समुदाय ने आतंकवाद माना है.
जफर- कश्मीर मामले का समाधान कैसे हो सकता है?
हक्कानी- भारत सरकार द्वारा कश्मीर के विभिन्न राजनीतिक धड़ों से बातचीत कर समाधान निकाला जाना चाहिए.
जफर- पाकिस्तान से नहीं?
हक्कानी- कश्मीर का जो हिस्सा पाकिस्तान के नियंत्रण में है वहां कोई समस्या नहीं है.
जफर- लेकिन भारत सरकार का दावा है कि पाक अधिकृत कश्मीर भी भारत का अभिन्न अंग है और इसलिए वह भी समस्या का हिस्सा है.
हक्कानी- इस तरह की भाषा समस्या को हल नहीं करने वाली. सालों पहले भारत ने नियंत्रण रेखा को सीमा मान लेने का प्रस्ताव पाकिस्तान को दिया था. (1972 में दोनों देशों ने शिमला समझौता किया था. समझौते में राजनयिक संबंधों के बारे में दिशानिर्देश और नियंत्रण रेखा का उल्लंघन न करने की प्रतिबद्धता दोनों देशों ने व्यक्त की थी.)
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और परवेज मुशर्रफ के बीच हुई बातचीत में भी इसी विचार पर सहमति बनी थी. मुझे लगता है कि भारत और पाकिस्तान की सहमति से नियंत्रण रेखा में कुछ समायोजन हो सकता है.
जफर- ऐसा लग रहा है कि आप कश्मीरी आवाम को विश्वास में लिए बिना बातचीत करने की वकालत कर रहे हैं?
हक्कानी- कश्मीरियों को भौगोलिक और ऐतिहासिक यर्थाथ को समझने की आवश्यकता है. 1950 और 1960 के दशक में राष्ट्रसंघ के प्रस्तावों के अनुरूप कश्मीर विवाद को हल करने का मौका था. 1965 में हुए भारत-पाक युद्ध के बाद यह मौका हाथ से निकल गया.
जफर- कुछ साल पहले चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर के निमार्ण की घोषणा की गई. लेकिन इसकी मुख्य परियोजना को बंद कर देने के बाद उत्साह कम पड़ गया है. इस परियोजना के बारे में आप के क्या विचार हैं?
हक्कानी- इस परियोजना के कारण पाकिस्तान कर्ज के जाल में फंस जाएगा. कर्ज में न फंसे इसके लिए उसे कई देशों से लेनदेन जारी रखना होगा. किसी भी देश के लिए एक देश पर निर्भर रहना उचित नहीं होता. 60 सालों तक अमेरिका पर निर्भर रहने के बाद अब पाकिस्तान चीन पर निर्भर होता जा रहा है. यह ठीक नहीं है. पाकिस्तान को आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनने की जरूरत है.
जफर- आप अक्सर राजनीतिक वैज्ञानिक बेनिडिक्ट एंडरसन का हवाला देते हैं जिनका मानना था कि राष्ट्र और समुदाय काल्पनिक होते हैं और निजी संबंधों से नहीं बल्कि भाषा, संस्कृति और राजनीति के कारण आपस में जुड़े होते हैं. राष्ट्र-राज्य की इस अवधारणा में पाकिस्तान को आप कहां पाते हैं?
हक्कानी- मैं कहूंगा कि पाकिस्तान की कल्पना के बारे में और इस बारे में भी कि किस तरह उसकी पर्याप्त रूप से कल्पना नहीं की गई, की बहुत सी वाजिब आलोचनाएं हैं. पाकिस्तान पर प्रस्ताव पारित करने और इसके अस्तित्व में आने में 7 साल का अंतर है. उपमहाद्वीप को विभाजित करने और करोड़ों मुसलमानों को क्या करना है यह सोचने के लिए सात सालों का वक्त! पाकिस्तान को दक्षिण एशिया के सभी मुसलमानों के देश के रूप में सोचा गया था, वह ऐसा नहीं बन पाया. आज दक्षिण एशिया के मुसलमान तीन देशों में बंटे हैं- बंग्लादेश, भारत और पाकिस्तान.
मैं बस इतना कह रहा हूं कि पाकिस्तान की फिर से कल्पना करने की जरूरत है ताकि उसे इस भूभाग के इलाकों के संघ की तरह देखा जाए. यह यर्थाथवादी पुनर्कल्पना होगी.
जफर- यदि आप पाकिस्तान जाएंगे तो क्या हो सकता है?
हक्कानी- हाल में मेरा वहां जाने का कोई इरादा नहीं है. बाहर रह कर मैं जो सवाल उठा रहा हूं उसे पाकिस्तान के अंदर उठाने नहीं दिया जाता. यह जरूरी है, मुझे लगता है कि पाकिस्तान के उग्रवादियों और डीप स्टेट का पाकिस्तान के बारे में बहुत ही संकुचित दृष्टिकोण है. वे मेरे जैसे लोगों को नहीं समझ सकते इसलिए यदि मैं वापस जाता हूं तो यह मेरे लिए एक खतरा मोल लेना होगा. इसलिए जिंदा रह कर राज्य के भाष्य पर सवाल उठाना, लौट कर राज्य के भाष्य का शिकार हो जाने से अधिक समझदारी का काम है.
Thanks for reading till the end. If you valued this piece, and you're already a subscriber, consider contributing to keep us afloat—so more readers can access work like this. Click to make a contribution: Contribute