चुनाव आयोग, फंडिंग और मीडिया बना रहे चुनावों को एकतर्फा

इलाहाबाद में भारतीय जनता पार्टी के समर्थक फरवरी 2022 में गृह मंत्री, अमित शाह की एक रैली के लिए इकट्ठा होते हुए. संजय कनौजिया/एएफपी/गैटी इमेजिस

“क्रिकेट का आकर्षण इस बात में है कि इसे न केवल नियमों में बंध कर खेलना होता है बल्कि क्रिकेट की भावना से भी खेला जाना चाहिए. खेल निष्पक्ष हो यह तय करने की मुख्य जिम्मेदारी कप्तानों की होती है लेकिन सभी खिलाड़ियों, मैच अधिकारियों से भी इसकी उम्मीद की जाती है.” यह बात लिखी है मैरीलबोन क्रिकेट क्लब के क्रिकेट नियमों की प्रस्तावना में. यह प्रस्तावना खेल की भावना को परिभाषित करती है. सभी खेल "निष्पक्ष" प्रतियोगिताओं की "भावना" पर आधारित हैं. भारत में चुनाव कोई खेल नहीं है लेकिन इस पर भी खेल के कुछ बुनियादी सिद्धांत लागू होते हैं. मसलन जो खेलना चाहते हैं उन सभी के लिए नियम और मैदान एक बराबर होने चाहिए. अगर नियमों को तोड़ा-मरोड़ा जाता है या पिच को खोद दिया जाता है या अन्य तरह की रुकावटें डाली जाती हैं तो इसे ईमानदार मुकाबला नहीं माना जा सकता.

इस महीने आए पांचों विधानसभा चुनावों के नतीजों पर जो चर्चा देखने को मिली वह ज्यादातर मतदाताओं के व्यवहार और किस नेता ने चुनाव अभियान में क्या कहा इस पर केंद्रित रही. लेकिन जिस ऑपरेटिंग सिस्टम के भीतर जनता की राय तय की जाती है, जो संस्थान चुनाव के लिए जिम्मेदार है उसकी भी जांच की जानी चाहिए. चुनावी फंडिग का तंत्र और चुनाव आयोग और मीडिया की भूमिका को देखने से निराशाजनक निष्कर्ष निकलते हैं. सवाल उठता है कि क्या चुनाव "निष्पक्ष" रहे या कितनी सच्ची "भावना" से हुए.

यहां प्रतिस्पर्धी पार्टियों और उम्मीदवारों ने कितना खर्च किया इसी से शुरू करना बेहतर होगा. चुनावी बॉन्ड, जिनके बारे में कोई जानकारी नहीं है कि किस तरह का पैसा है, किसके लिए और कहां से आ रहा है, पूर्व की तरह इस चुनाव में ईंधन की तरह था. ऐसा इसलिए हुए कि सुप्रीम कोर्ट ने बॉन्ड को चुनौती देने वाल मामले पर फैसला सुनाने से इनकार कर दिया था. इस मामले में 2017 से फैसला रुका हुआ है. इसलिए ही यह गुप्त वित्तीय साधन भारतीय लोकतंत्र को विकृत करना जारी रखे हुए है. हाल के चुनावों से पहले सरकार के स्वामित्व वाले भारतीय स्टेट बैंक ने 1213 करोड़ रुपए के चुनावी बॉन्ड बेचे. यह राज्य चुनावों में अब तक की सबसे ज्यादा बॉन्ड बिक्री है और 2019 में हुए आम चुनावों से पहले बेचे गए 3622 करोड़ रुपए के बॉन्ड के बाद दूसरे स्थान पर है.

सूचना अधिकार कार्यकर्ता लोकेश के. बत्रा ने बॉन्ड की बिक्री के बारे में एसबीआई से 19 चरणों में डेटा जुटाया है. उनके विश्लेषण से पता चला कि पिछले चार सालों में बेचे गए नब्बे फीसदी से ज्यादा चुनावी बांड 1 करोड़ रुपए मूल्य के थे. वित्तीय वर्ष 2019-2020 में बेचे गए बॉन्डों का कम से कम तीन-चौथाई सत्तारूढ़ बीजेपी के पास गया है. औसत भारतीय के लिए गंभीर आर्थिक परेशानी के बीच चुनाव आयोग ने उम्मीदवारों के लिए खर्च की सीमा बढ़ाकर खेल के मैदान को और गैरबराबार कर दिया है. विधानसभा क्षेत्रों के लिए जहां पहले 20 से 28 लाख रुपए तक खर्च करने की इजाजत थी वहीं अब इसे 28 से 40 लाख रुपए कर दिया गया है. इससे ज्यादा से ज्यादा खर्चा करने को लोग प्रेरित होते हैं. अगर चुनाव आयोग से किसी सुधार की जरूरत थी तो उनमें से एक यह हो सकता था कि आयोग इस बारे में जरा सोचे कि चुनावी मुकाबलों के लिए बढ़ता खर्च भारतीय लोकतंत्र के लिए किस कदर खतरनाक है. 2019 के आम चुनाव को आधिकारिक तौर पर दुनिया के सबसे महंगे चुनाव के रूप में दर्ज किया गया था. यहां तक कि इसने अमरीकी राष्ट्रपति चुनावों को भी पीछे छोड़ दिया था. निश्चित रूप से, भारत जैसे बड़े देश के लिए जहां इस कदर गरीबी है आयोग को खर्च की सीमा बढ़ाने से अधिक इस बात पर जोर देना चाहिए था कि ऐसा होना देश के लिए खतरे ही घंटी है.

भारत में चुनाव जिस संस्थागत ढांचे के तहत होते हैं इसकी जांच करते वक्त चुनाव आयोग के कामकाज की पड़ताल भी आवश्यक है. 2021 में स्वीडन स्थित वी-डेम इंस्टीट्यूट ने भारत को "चुनावी निरंकुशता" की श्रेणी में रखा था. हमारे देश के चुनाव आयोग की स्वायत्तता में गिरावट के कारण भारत की रेटिंग गिरी है. 2019 में चुनाव आयोग की भूमिका पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी या गृहमंत्री अमित शाह ने कुछ भी कहने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि यह पुरानी रवायत है. 2020 में एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए आंतरिक बैठकों में मुखर रहने वाले एकमात्र चुनाव आयुक्त अशोक लवासा को अगला मुख्य चुनाव आयुक्त न बना कर मनीला के एशियाई विकास बैंक में भेज दिया गया. अब मुख्य चुनाव आयुक्त सतीश चंद्र हैं. ऐसा केवल दूसरी बार ऐसा हुआ है कि किसी गैर-आईएएस अधिकारी को इस शीर्ष पद नियुक्त किया गया है. पिछले साल जून में लवासा के स्थान को भरने के लिए चुने गए सेवानिवृत्त अरूप चंद्र पांडे 2019 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के मुख्य सचिव थे. यह भी एक संयोग ही है कि पांडे के कार्यभार संभालने के कुछ महीने बाद ही उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले थे.

चुनाव आयोग ने 2019 में आदित्यनाथ के खिलाफ "मोदीजी की सेना" नारे लगाने की शिकायतों पर सख्त कार्रवाई नहीं की. उन्हें बस "ज्यादा सावधानी बरतने" के लिए कहा गया. इस बार हिंदू युवा वाहिनी के संस्थापक आदित्यनाथ और ज्यादा आक्रमक हो गए. उनके सांप्रदायिक भड़काऊ भाषण और संदर्भ देने के कम से कम 100 उदाहरण दर्ज किए गए हैं. इनमें "80 प्रतिशत बनाम 20 प्रतिशत" का चुनाव और "अब्बाजान" वाली उनकी ठिठोली चर्चाओं में हैं. नवंबर 2020 और फरवरी 2021 के बीच तीन महीनों में सार्वजनिक रूप से उपलब्ध 34 भाषणों के दि वायर द्वारा किए गए विश्लेषण ने परेशान करने वाले एक पैटर्न का खुलासा किया है लेकिन इस बार उन्हें "ज्यादा सावधानी बरतने" के लिए भी नहीं कहा गया. अमेठी के एक बीजेपी विधायक ने मुसलमानों की दाढ़ी काट देने का आह्वान अपने समर्थकों से किया. एक अन्य ने कहा कि जिसने बीजेपी को वोट नहीं दिया उसके अंदर मिया का खून है. चुनाव आयोग ने दोनों मामालों पर लचर प्रतिक्रिया देते हुए उनके प्रचार पर 24 घंटे की रोक लगा दी. आयोग को अहसास तक नहीं रहा कि एक बड़े और संवेदनशील राज्य में सत्तारूढ़ दल द्वारा सबसे ध्रुवीकरण अभियान चलाया जा रहा है.

जून 2021 में चुनाव आयोग ने वोटर आईडी से लिंक कराने के लिए आधार नंबर मांगे थे. इस आशय का एक विधेयक संसद में पहुंचा और अब कानून बन गया है. इस तथ्य पर कोई विचार नहीं किया गया है कि यह गुप्त मतदान को गंभीर रूप से खतरे में डाल सकता है और इस डेटा तक पहुंच रखने वाले लोगों के साइकोमेट्रिक प्रोफाइल के आधार पर मतदाताओं को प्रभावित कर सकते हैं. आधार नंबर से वोटर आईडी को जोड़ना लाभों और सब्सिडी के लाभार्थियों के साथ मनमुताबिक तिकड़म करने का रास्ता देता है.जिनके पास यह डेटा होगा उनके पास यह अनुचित पहुंच होगी.

हमारे चुनावी ढांचे का तीसरा पहलू जिस पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिए वह है मीडिया की भूमिका. दिल्ली के सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज के शोध कार्यक्रम लोकनीति के तुलनात्मक लोकतंत्र कार्यक्रम द्वारा आयोजित राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन के एक भाग के रूप में प्रकाशित 2014 के एक शोध पत्र में पूछा गया है कि "क्या मीडिया का रवैया भारत में वोट डालने और राजनीतिक प्राथमिकताओं को प्रभावित करता है? " और निष्कर्ष निकला है कि करता है. शोध में इस बात के सबूत मिले कि “जिनका मीडिया एक्सपोजर बहुत ज्यादा है उन मतदाताओं की 2014 के चुनावों में बीजेपी को वोट देने की ज्यादा संभावना थी.” हाल में वोट डालने वाली जनता का मीडिया एक्सपोजर कई गुना बढ़ गया है. इससे भी अधिक परेशान करने वाली बात यह है कि बीजेपी सरकार विज्ञापनों के वितरण के जरिए अक्सर अप्रत्यक्ष रूप से लेकिन मजबूती से मीडिया पर नियंत्रण रखती है. उत्तर प्रदेश सरकार ने अप्रैल 2020 से मार्च 2021 के बीच टीवी न्यूज चैनलों में विज्ञापनों पर 160.31 करोड़ रुपए खर्च किए.

आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू होने के कुछ ही हफ्ते पहले भारतीय अखबारों के पाठकों पर बड़े-बड़े पेज के विज्ञापनों की बौछार कर दी गई जिसमें विपक्ष को निशाना बनाने वाले संदेश थे. समाजवादी पार्टी के बारे में ये विज्ञापने कहते थे कि इनके राज्य में मुसलमान कानून से ऊपर हो जाते हैं. इसको लेकर अशोका रोड स्थित चुनाव आयोग के दफ्तर में चर्चा तक नहीं हुई. जब एक शर्मनाक विज्ञापन में कोलकाता के मां फ्लाईओवर को उत्तर प्रदेश के बुनियादी ढांचे के रूप में दिखाए जाने की कोशिश हुई तो इंडियन एक्सप्रेस ने बीच में कूद कर माफी मांगी यानी वह कहना चाहता था कि गलत तस्वीर चुनने के लिए सरकार दोषी नहीं है. अखबारों के अलावा टीवी बहसों ने बीजेपी की राज्य सरकारों द्वारा किए गए दावों पर सवाल उठाने, आलोचना करने या सिर्फ एक ईमानदार मूल्यांकन तक करना मुनासिब नहीं समझा.

सम्मानित अमेरिकी पत्रकार जे. रोसेन ने राजनीति को "घुड़दौड़" की तरह कवर करने की शैली की तीखी आलोचना की है. वह कहते हैं कि ऐसे में "हम सिर्फ यह जानना चाहते हैं कि कौन जीतने वाला है." वह इसके बरख्श "नागरिक-शैली" का प्रस्ताव करते हैं जो एक बहुत ही आसान सवाल के साथ शुरू होता है: "जब उम्मीदवार वोट मांगने के लिए आपके पास आएं तो आप उनसे किस विषय पर बात सुनना चाहेंगे?” उनका कहना है कि अगर आप यह काफी बार पूछे- "दर्जनों बार नहीं, हजारों बार" - तो यह बात उभर कर आती है कि "तब चुनाव का एजेंडा नेता नहीं बल्कि लोग तय करने लगते हैं.”

विधानसभा चुनावों के अंत में मतदाताओं को मीडिया से "नागरिक शैली" का कोई एजेंडा नहीं मिला. यहां तक कि सोशल मीडिया स्पेस यानी फेसबुक और ट्विटर तक सत्तारूढ़ दल के पक्ष में लोटमलोट हुआ पड़ा है. यह भारतीय मतदाताओं के लिए दुर्भाग्य का दौर है. भारत में न केवल उम्मीदवार एक-दूसरे से लड़ते हैं बल्कि मतदाता भी. वह भी एक भीषण गैरबराबर मैदान में. इस सब से जो जानकारी मतदाताओं को मिलती है, जो चुनाव के रेफरी हैं और जो चुनाव के नियम हैं, ये सभी संदिग्ध हो जाते हैं और भारत का लोकतंत्र मजबूत नहीं हो पाता.


सीमा चिश्ती दिल्ली में रहने वाली एक लेखिका और पत्रकार हैं. उन्होंने 1990 से प्रिंट, रेडियो और टेलीविजन, अंग्रेजी और हिंदी में काम किया है. वह बीबीसी इंडिया की दिल्ली संपादक और इंडियन एक्सप्रेस में उप संपादक रहीं. वह नोट बाय नोट: द इंडिया स्टोरी (1947-2017), की सह-लेखिका हैं जिसमें स्वतंत्र भारत का एक इतिहास, जिसे साल दर साल हिंदी फिल्मी संगीत के साथ दर्ज किया गया है. उसकी यह कोशिश एक बड़े और विविध देश में परिवर्तन के कई पहलुओं को छेड़ने, खोलने और फिर व्याख्या करने में मदद करने की रहती है.