वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का 85 फीसद. वैश्विक व्यापार का 75 फीसद. 19 सदस्य देश. 9 मेहमान देश. 11 अंतर्राष्ट्रीय संगठन. सभी एक छत के नीचे. जी20 शिखर सम्मेलन, 9-10 सितंबर, नई दिल्ली.
अगर भारत की अध्यक्षता वाले जी20 शिखर सम्मेलन का कोई टेलीविजन प्रोमो होता, तो उसमें एक पोस्टर होता और उसे फाड़ कर हीरो नरेन्द्र मोदी बाहर निकलते क्योंकि हमेशा, चाहे जो भी मौका हो, ब्रांडिंग तो उनकी ही होनी है. और नैरेटिव होना है कि भारत तो भाई विश्वगुरु है. निर्धारित शिखर सम्मेलन से कुछ महीने पहले, चीन से आया एक यूरोपीय पत्रकार यह देख कर हैरान था कि दिल्ली भर में जी20 लोगो लगे हैं जबकि शिखर सम्मेलन तो महीनों बाद होना है. उसने इसकी तुलना बार्सिलोना में 1992 में हुए ओलंपिक की ब्रांडिंग से की. 2008 के बीजिंग ओलंपिक का चीन का जश्न एक एशियाई पड़ोसी के रूप में बेहतर तुलना है, लेकिन अफसोह ही कह लीजिए कि मोदी सरकार इस मौके के लिए तय बुनियादी ढांचे का निर्माण करने में विफल रही है.
मेरी यह तुलना मुमकिन है कि मेरे बहुत से पाठकों को पसंद ना आए लेकिन बहुपक्षीय शिखर सम्मेलन को दुनिया के सबसे बड़े खेल महाकुंभ के साथ जोड़ने का काम खुद मोदी ने किया था. पिछले महीने दिल्ली के प्रगति मैदान में अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी-सह-सम्मेलन केंद्र का उद्घाटन करते हुए उन्होंने दावा किया था कि "हम देखते हैं, दुनिया में किसी देश में अगर एक ओलंपिक समिट होता है तो पूरी दुनिया में उस देश का प्रोफाइल एकदम से बदल जाता है." उन्होंने आगे घोषणा की कि "आज, इस विश्व में इन चीजों का महत्व बहुत बड़ा हो गया है." यह उस समय की याद दिलाता है जब उनकी पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने चतुराई भरी प्रशंसा में मोदी को "एक शानदार इवेंट मैनेजर" कहा था.
जैसा की हम सभी जानते हैं कि होने वाली हर घटना एक कहानी बयां करती है. जी20 शिखर सम्मेलन की कहानी दो हिस्सों में है. पहला हिस्सा एक व्यक्ति के रूप में मोदी और एक राजनेता के रूप में उनकी बेलगाम महत्वाकांक्षा के बारे में है. दूसरा हिस्सा, भारत और दुनिया में भारत की भूराजनीतिक स्थिति के बारे में है. 2014 के बाद से हमने भारत की भू-राजनीतिक स्थिति को एक व्यक्ति की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के आगे चकनाचूर होते देखा है. यही नहीं, बल्कि फायदे के लिए इन दोनों हिस्सों को एक बताने की कोशिशें देखी हैं. हमारे विदेश मंत्री एस जयशंकर, जो एक करियर डिप्लोमेट हैं, वह अब बिना आधार वाले एक छुटभैया नेता की तरह बयानबाजी करते हैं. उन्होंने पिछले साल दावा किया था कि, ''इसमें कोई दो राय नहीं कि विश्व मंच पर प्रधानमंत्री मोदी का दबदबा है." सतह पर देखने से लगता कि जयशंकर अपने आका की कुछ ज्यादा ही चापलूसी कर रहे हैं लेकिन यहां खेल यह कि मोदी को देश के पर्यायवाची के रूप में स्थापित किया जाए.
दिल्ली में जी20 शिखर सम्मेलन उस फ्यूजन को, यानी मोदी और भारत को एक बताने के प्रचार को, पंचर करने जा रहा है. देश के अंदर भले मोदी अब भी इस आयोजन को व्यक्तिगत गौरव के क्षण के रूप में प्रचारित कर सकते हैं और दावा कर सकते हैं कि उन्होंने भारत की वैश्विक प्रतिष्ठा को बढ़ाया है. इस काम में खूब सारी तस्वीरें और क्लिप होंगे, आधे सच और पूरे झूठ से भरे कई व्हाट्सएप संदेश होंगे जो मुख्यधारा की मीडिया, सोशल-मीडिया ट्रोल और यूट्यूब के इंफ्लूएंसर बार-बार दोहराएंगे. फिर भारत की जी20 की रूटीनी अध्यक्षता को बताया जाएगा कि देखिए मोदी वैश्विक नेताओं के ही अध्यक्ष हो गए हैं. हर नेता को मोदी के सामने झुकते और उनके ज्ञान के मोती तलाशते दिखाया जाएगा. अंत में शिखर सम्मेलन को एक जबरदस्त सफलता के रूप में दिखाया जाएगा. इस फैंटासी को मोदी के मंत्री और उनकी पार्टी के नेता हवा देंगे. यह तब से चल रहा है जब एक कॉमिक बुक में उन्हें एक स्कूली बच्चे के रूप में अकेले मगरमच्छ पकड़ते हुए दिखाया गया था. तब से तकनीक और ज्यादा बेहतर हो गई है.
लेकिन हर कहानी का कोई मतलब होना चाहिए. जी20 शिखर सम्मेलन की कहानी के मायने इसके नतीजों में हैं. यानी कम से कम शिखर सम्मेलन में नेताओं की संयुक्त घोषणा में. नवंबर 2022 में बाली में, जहां भारत को जी20 की अध्यक्षता सौंपी गई थी, समूह ने एक सर्वसम्मत नेताओं की घोषणा जारी की थी, जिसमें कहा गया था कि ज्यादातर सदस्य यूक्रेन में युद्ध की निंदा करते हैं लेकिन "स्थिति और प्रतिबंध के बारे में उनके विचार अलग-अलग हैं.” खाद्य और ऊर्जा सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन और वैश्विक आर्थिक सहयोग पर अन्य आकलन और सिफारिशें सर्वसम्मति से थीं, हालांकि कोई ठोस और निर्णायक समझौते या घोषणाएं नहीं की गईं. भारत की अध्यक्षता के तहत सभी मंत्रिस्तरीय और आधिकारिक बैठकें बिना संयुक्त विज्ञप्ति के पूरी हुई हैं. समूह के अध्यक्ष के रूप में इतने खराब ट्रैक रिकॉर्ड के साथ दिल्ली शिखर सम्मेलन को अब कोई चमत्कार ही बचा सकता है. यूक्रेन युद्ध, जिसमें चीन और रूस अब बाली में इस्तेमाल की गई भाषा पर आपत्ति जता रहे हैं, संयुक्त घोषणा के जारी होने में मुख्य बाधा रहा है. हालांकि, बहुपक्षीय संस्थानों में सुधारों और जलवायु परिवर्तन पर दूसरे मतभेद भी हैं.
नेताओं की घोषणा के लिए आम सहमति तलाशने में वार्ताकार सितंबर के पहले हफ्ते में कड़ी मेहनत करने जा रहे हैं लेकिन इस बीच दोनों पक्षों यानी जी7 और चीन-रूस के संबंध और खराब हो गए हैं इसलिए समझौते की बहुत कम गुंजाइश बची है. भारत ने समूह में अफ्रीकी संघ के शामिल होने का राग अलाप कर और खुद को वैश्विक दक्षिण की आवाज के रूप में स्थापित करके अपने लक्ष्य को बदलने की कोशिश की है. लेकिन ऐसा लगता है कि अब तक उपरोक्त दोनों में से कोई भी एजेंडा इस शिखर सम्मेलन के शीर्ष लक्ष्य के बतौर स्थापित नहीं हो सका है. कुछ भारतीय अधिकारियों ने बताया है कि "अध्यक्षीय सारांश" जिसमें समझौते के कई क्षेत्रों को शामिल किया गया है, एक सफल शिखर सम्मेलन का संकेत देता है. फिर भी दिल्ली शिखर सम्मेलन बाली शिखर सम्मेलन से काफी पीछे रहने वाला है.
चीन की ओर से चीजों को और ज्यादा पेचीदा बनाया जा रहा है. उसने संस्कृत में "वसुधैव कुटुंबकम " के इस्तेमाल पर कड़ी आपत्ति जताई है क्योंकि संस्कृत का इस्तेमाल करना जी20 के दस्तावोजों में संवाद के लिए संयुक्त राष्ट्र से गैर-अनुमोदिया भाषा का इस्तेमाल करना था. भारत ने अपने सारांश दस्तावेजों और परिणामी वक्तव्यों में "एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य" वाक्यांश के केवल "अंग्रेजी संस्करण" का उपयोग करके चीन की बात मान ली. पिछले कुछ हफ्तों में बीजिंग ने भारतीय जी20 वार्ता दल द्वारा जी20 के दस्तावेजों में पेश किए गए कई दूसरे वाक्यांशों पर ज्यादा टकरावपूर्ण रुख अपनाया है. उनमें से ज्यादातर पर मोदी की व्यक्तिगत छाप है. इसके स्पष्ट उदाहरण, जैसा कि समाचार पत्र दि हिंदू के लिए एक कॉलम में सुहासिनी हैदर ने बताया है कि मोटे अनाज को बढ़ावा देने की मोदी की घरेलू नीति "पर्यावरण के लिए जीवन शैली पहल" और "लिंग-आधारित विकास" जैसे शब्दों के रूप में जी20 लक्ष्य में फिर से पैक किया गया है. चीनी वार्ताकारों ने बताया कि ऐसी भाषा सतत विकास लक्ष्यों से संयुक्त राष्ट्र द्वारा अनुमोदित शब्दों का स्थान ले रही है.
बीजिंग के साथ नई दिल्ली के तनावपूर्ण रिश्ते अब शिखर सम्मेलनों में भी सामने आ रहे हैं. जुलाई में भारत की अध्यक्षता में शंघाई सहयोग संगठन शिखर सम्मेलन में- जिसे अंतिम क्षण में वर्चुअल बना दिया गया- भारत ने एससीओ आर्थिक विकास रणनीति पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया. ताजिकिस्तान द्वारा प्रस्तावित और अन्य एससीओ सदस्यों द्वारा सहमत इस दस्तावेज को भारत ने वीटो कर रोक दिया था क्योंकि इसमें बेल्ट एंड रोड पहल और नए वैश्विक विकास पहल के "चीन-विशिष्ट" संदर्भ शामिल थे. जी20 को प्रतिबिंबित करते हुए, एससीओ शिखर सम्मेलन में, जयशंकर द्वारा प्रस्तावित बाजरा और पर्यावरणीय जीवन शैली पर संयुक्त बयान, को चीन के कड़े के बाद अपनाया नहीं गया था. तब से दोनों देशों के बीच हालात बेहतर नहीं हुए हैं.
अगर दिल्ली शिखर सम्मेलन तक चीन के साथ सीमा संकट अनसुलझा रहता है, तो मोदी चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ द्विपक्षीय बैठक की मेजबानी करने में भी उतने ही असहज होंगे. एक मेजबान के रूप में शी को द्विपक्षीय बैठक से इनकार करना उनके लिए अनुचित होगा लेकिन सीमा मुद्दे पर प्रगति ना होने से मोदी को बहुत शर्मिंदा होना पड़ेगा. उन्हें पहले ही चीन के बयान ने मुश्किल स्थिति में डाल दिया है जिसमें उसने दावा किया है कि मोदी ने जोहान्सबर्ग में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के मौके पर शी के साथ बैठक की मांग की थी. बाली में शिखर सम्मेलन के रात्रिभोज के समापन पर शी के साथ मोदी की बातचीत का भी बीजिंग ने दूसरी बार उस वक्त जिक्र किया जब चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से 24 जुलाई को जोहान्सबर्ग में मुलाकात की. भारतीय विदेश मंत्रालय को यह मानने के लिए मजबूर होना पड़ा कि दोनों नेताओं ने भारत-चीन संबंधों को स्थिर करने की जरूरत पर चर्चा की थी. हो सकता है कि वैश्विक मीडिया के लिए इसमें बहुत ना हो लेकिन भारतीय लेखक और पत्रकार, चीन के मोर्चे पर स्थिति के बारे में थोड़ी सी भी जानकारी के लिए भूखे बैठे हैं. इसके अलावा बीजिंग ने अब चीन का एक आधिकारिक नक्शा जारी करके, जिसमें अरुणाचल प्रदेश और अक्साई चिन शामिल हैं, लद्दाख सीमा संकट पर समझौते की किसी भी उम्मीद को खत्म कर दिया है.
भारत आने वाले विदेशी मीडिया के लिए मोदी के नेतृत्व में लोकतांत्रिक गिरावट में बहुत रुचि होगी. खासकर मणिपुर में जारी हिंसा और हाल ही में हरियाणा में हिंदुत्ववादी भीड़ और भारतीय जनता पार्टी सरकार द्वारा मुस्लिम विरोधी हमलों को देखते हुए ऐसा कहा जा सकता है. अच्छी खबर कोई खबर नहीं होती और 2002 के गुजरात दंगों में मोदी के पिछले रिकॉर्ड और हाल ही में पश्चिमी नेताओं द्वारा उन्हें लुभाने के कारण इस तरह की बुरी खबरें वैश्विक प्रेस के लिए विशेष रूप से आकर्षक हो जाती हैं. मोदी की उदासीनता और प्रशासनिक विफलताओं से भारत की शिखर सम्मेलन की मेजबानी पर काली छाया पड़ने का खतरा है. संयुक्त राज्य अमेरिका की राजकीय यात्रा के दौरान व्हाइट हाउस में पत्रकार सबरीना सिद्दीकी द्वारा अल्पसंख्यकों के कथित मानवाधिकारों के उल्लंघन और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक के बारे में पूछे गए एक सवाल ने जैसी स्थिति मोदी के लिए पैदा की थी, जी20 को कवर करने आए विदेशी पत्रकार वैसा ही कुछ कर सकते हैं.
अगर भारत जी20 की अध्यक्षता की मेजबानी करने वाला पहला ऐसा देश बन जाता है जो नेताओं की घोषणा जारी करने में नाकाम रहता है तो मोदी की कूटनीतिक प्रतिष्ठा को कोई नहीं बचा पाएगा. यह कुछ ऐसा है जिसे वैश्विक मीडिया, जो भारत की राजधानी में जुटेगा, दुनिया को भूलने नहीं देगा.
जी20 की अध्यक्षता करने के सालाना क्रमवार मानदंड के अनुरूप, भारत को 2021 में और इटली को 2022 में जी20 शिखर सम्मेलन की मेजबानी करनी थी. 2018 में मोदी ने इटली से अनुरोध किया कि वह 2021 में शिखर सम्मेलन की मेजबानी करे और भारत को भारतीय स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने के जश्न के हिस्से के रूप में एक साल बाद इसकी मेजबानी करने दे. फिर, इंडोनेशिया द्वारा इसी तरह का अनुरोध करने के बाद, भारत अपनी अध्यक्षता को 2023 तक स्थगित करने पर सहमत हुआ. इससे भारत को शिखर सम्मेलन की मेजबानी के लिए निर्माण और सौंदर्यीकरण कार्य पूरा करने का समय मिल गया. मोदी ने 2024 के आम चुनाव के लिए अपने अभियान की शुरुआत के साथ एक सफल शिखर सम्मेलन की मेजबानी को बहुत उम्मीद भरा बना दिया है. इस आयोजन को भारत की कूटनीतिक उपलब्धि की पीठ पर सवार होकर एक व्यक्ति की विजय होना था. मोदी के समर्थक यह दिखावा कर सकते हैं कि यह अभी भी मोदी की व्यक्तिगत जीत है लेकिन भूराजनीतिक वास्तविकताओं ने शिखर सम्मेलन को निराशा के कगार पर धकेल दिया है. कहानी के दोनों हिस्से नहीं मिल पाएंगे. यह है दिल्ली में जी20 शिखर सम्मेलन की असली कहानी.