जम्मू कश्मीर में पांच चरणों में कराए गए लोकसभा चुनावों के आखिरी चरण का मतदान 6 मई को हुआ. राज्य में 6 संसदीय सीटें हैं और इतिहास में पहली बार दक्षिण कश्मीर के चार जिलों को समेटने वाली अनंतनाग संसदीय सीट में सुरक्षा कारणों से 3 चरणों में मतदान कराए गए. इस संसदीय सीट में कुलगाम, पुलवामा, शोपियां और अनंतनाग जिले आते हैं. 2014 से ही दक्षिण कश्मीर में उग्रवाद की घटनाओं में भारी वृद्धि हुई है. सुरक्षाबलों और आतंकियों के बीच निरंतर गोलीबारी होती रहती हैं जिनमें एक खास किस्म की समानता दिखाई देती है. स्थानीय लोग भीड़ लगा कर सुरक्षाबलों को घेर लेते हैं और सुरक्षा घेरे में फंसे आतंकवादियों को भागने का रास्ता मिल जाता है. गोलीबारियोंं के समाप्त होने के बाद, जिन घरों में आतंकियों ने पनाह ली होती है, वे जला कर भस्म कर दिए जाते हैं और आम लोगों को इसकी कीमत चुकानी पड़ती है. इस पृष्ठभूमि में 22 अप्रैल और 13 मई के बीच मैंने मतदाताओं की प्रतिक्रिया को समझने के लिए पुलवामा और शोपियां का भ्रमण किया.
अनंतनाग में केवल 8.76 प्रतिशत मतदान हुआ है. स्थानीय लोगों के अनुसार यहां लोगों ने अपनी इच्छा से मतदान का बहिष्कार किया था. दक्षिण कश्मीर क्षेत्र में लोगों को इस बात का डर है कि यदि भारतीय जनता पार्टी दोबारा सत्ता में आई तो यह क्षेत्र लंबे दौर के लिए हिंसा के चक्र में फंस जाएगा. 2014 में बीजेपी ने पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के साथ मिलकर पहली बार राज्य में सरकार बनाई थी. केंद्र और राज्य में नियंत्रण के चलते बीजेपी के लिए प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के सुरक्षा सिद्धांत को लागू करने का मौका मिला. 2010 के एक लेक्चर में डोभाल ने अपनी सुरक्षा नीति का खुलासा किया था. यह एक कट्टर सुरक्षा नीति है जिसके बारे में डोभाल ने बताया था, “शक्ति के खेल में अंतिम न्याय उसके पास होता है जो शक्तिशाली होता है.” इस नीति का क्षेत्र में भयावह परिणाम दिखाई दिया. 2018, इस दशक का सबसे ज्यादा रक्तरंजित वर्ष था. दिल्ली के नीति शोध संस्थान के फेलो सिद्धिक वाहिद ने मुझे बताया, “मतदान में भाग लेने वालों की संख्या को देख कर कश्मीरियों के अंदर जबरदस्त अलगाव को समझा जा सकता है. लोगों ने स्पष्ट तौर पर बता दिया है कि उनके लिए चुनाव के कोई मायने नहीं हैं.” वाहिद ने यह भी कहा कि कश्मीरियों को नहीं पता कि चुनाव के बाद क्या होगा पर “वे लोग यह जरूर समझते हैं कि जो भी होगा अच्छा नहीं होगा.”
22 अप्रैल को मैं पुलवामा गया. उसके अगले दिन वहां मतदान होना था. मैं बख्तरबंद गाड़ी में बैठ कर सफर कर रहा था और जब मैंने चुनाव के बारे में अपने सहयात्री से जानना चाहा तो वह चुप हो गया. जब सभी यात्री गाड़ी से उतर गए तो ड्राइवर ने मुझे बताया, “हो सकता है वह आपको पुलिस वाला समझ रहा हो. इस इलाके में बहुत से जासूस हैं जो पुलिस और सेना को जानकारी पहुंचाते हैं.” ड्राइवर ने मुझे यह भी बताया कि यहां मुझे कोई नहीं बताएगा कि वह वोट कर रहा है या नहीं. टाउन बाजार में मोबाइल की दुकान चलाने वाला 22 साल का एक लड़का नाम न छापने की शर्त पर मुझसे बात करने को राजी हुआ. मैंने उससे पूछा कि क्या वह वोट देगा? उसका जवाब था, “कभी नहीं. मैं शहीदों के साथ धोखा नहीं कर सकता. शहीद से उसका मतलब सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में मारे गए उग्रवादियों से था. उस लड़के ने मुझसे कहा, “दिया जाने वाला हर वोट हमारे ऊपर हिंदुस्तान की हुकूमत जायज बनाता है.”
इस साल 14 फरवरी को पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर हुए हमले के बाद दक्षिण कश्मीर के उसके आसपास के क्षेत्रों में सुरक्षाबलों की सख्ती के निशान हर जगह मौजूद हैं. 19 फरवरी को केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने राज्य प्रशासन को “प्रतिरोध कला” की सूचना मुहैया कराने का निर्देश दिया था. उस आदेश में लिखा था, “पता चला है कि कश्मीर घाटी में भारत विरोधी भावना को आकार और प्रोत्साहन देने के लिए कला के विभिन्न स्वरूपों का इस्तेमाल हो रहा है”. इसके बाद अलगाववादी व्यक्तियों और समूहों को प्रवर्तन निदेशालय, राष्ट्रीय जांच एजेंसी, जम्मू-कश्मीर पुलिस और आयकर विभाग ने मिलकर तंग करना शुरू कर दिया.
सबसे पहले जमात-ए-इस्लामी जम्मू-कश्मीर को प्रतिबंधित किया गया. इसके बाद 16 मार्च को राज्य पुलिस ने 650 स्कूली शिक्षकों की सूची जारी की जिन पर “आतंकवाद से संबंधित गतिविधियों” में शामिल होने का शक है. इसके बाद एक आदेश जारी हुआ जिसने राज्य सरकार को उन सरकारी मुलाजिमों के खिलाफ कार्रवाई का मौका दिया जिनके “नजदीकी और दूर के रिश्तेदार अलगाववादी राजनीति, आतंकवाद, पत्थर फेंकने के काम या जमात से जुड़े हैं”. 22 मार्च को गृह मंत्रालय ने अलगाववादी नेता यासीन मलिक के जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट को प्रतिबंधित कर दिया. 30 मार्च को राज्य के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने बहुस्तरीय आतंक निगरानी समूह का गठन किया जिसका उद्देश्य आतंकियों के प्रति सहानुभूति रखने वाले ऐसे शिक्षकों और सरकारी कर्मचारियों को लक्षित करना था जो आतंकी गतिविधियों को प्रत्यक्ष और परोक्ष समर्थन दे रहे हैं. इसके बाद 18 अप्रैल को राज्य सरकार ने अपने कर्मचारियों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गैरकानूनी संगठनों का साथ न देने की चेतावनी दी. यहां सरकार का इशारा जमात और जेकेएलएफ की ओर था.
राज्य के मानव अधिकार कार्यकर्ता खुर्रम परवेज के अनुसार, “चुनाव के पहले दमन, चुनावों से ज्यादा महत्व रखता है. राज्य द्वारा संदिग्ध समझे जाने वाले लोग, जिन पर तुरंत ही कार्रवाई की जा सकती है की संख्या पर गौर करना चाहिए”. परवेज ने यह भी बताया कि कश्मीरियों को चुनाव से कोई लेना देना नहीं है क्योंकि “किसी भी प्रकार की लोकतांत्रिक प्रक्रिया समावेशी होनी चाहिए. कश्मीर में यह प्रक्रिया सैन्यकरण और डर के वातावरण को पैदा करती है”.
जब मैं पुलवामा के एक अन्य गांव में गया तो मुझे खुर्रम की बात समझ आ गई. इस गांव का नाम ताहब था और मैं यहां 5 मई के दिन पहुंचा था. यहां के गली कूचों में क्रिकेट के हेलमेट लगाए वर्दी में सैनिक मौजूद थे. एक मई को इस गांव में बहुत सारे लोगों को पुलिस और सशस्त्र बल ने सुरक्षा उपाय के चलते हिरासत में ले लिया था. ऐसे लोगों में एक 15 साल का नौजवान भी था. 70 साल की बुजुर्ग खाती ने मुझे बताया, “ऐसे ही हालात पुलवामा और शोपियां के कई गांवों के हैं”. खुर्रम ने मुझे बताया कि कश्मीर में तीन तरह की गिरफ्तारियां होती हैं. एक अवैध गिरफ्तारियां, जिसमें पुलिस बिना गिरफ्तारी दिखाए लोगों को सैन्य परिसर में गिरफ्तार करके रखती है. दूसरी तरह की गिरफ्तारी दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 107 और 151 के तहत होती हैं जिनमें सुरक्षा दृष्टि से लोगों को हिरासत में लिया जाता है और तीसरी तरह की गिरफ्तारी जम्मू-कश्मीर लोक सुरक्षा कानून, 1978 के अंतर्गत की जाती है. खुर्रम का कहना है कि सेना की तैनाती और सुरक्षात्मक हिरासत की संख्या के बारे में राज्य पूरी तरह से अपारदर्शी है.”
ताहब में मेरी मुलाकात एक युवा लड़के से हुई. उसने नाम नहीं बताया लेकिन कहा कि वह 24 साल का कश्मीर विश्वविद्यालय का छात्र है. उसने मुझसे कहा, “इस गांव का एक भी आदमी वोट देने नहीं जाएगा”. फिर उसने बताया कि वोट देना शहीदों के खून का “अपमान” है. उसने कहा, “यह चुनाव नहीं है. क्या चुनावों में इतनी बड़ी तादाद में सेना को लगाना पड़ता है. यह चुनाव कम और जंग के लिए सेना की लामबंदी ज्यादा लग रही है”. उसने दावा किया कि केवल वे लोग ही वोट डालने जाएंगे जिन्हें राजनीतिक दलों ने जम्मू एंड कश्मीर बैंक में नौकरी देने का लालच दिया है.
6 मई को मैं खाली सड़कों से होता हुआ पुलवामा से शोपियां पहुंचा. उस दिन वहां मतदान हो रहा था और इंटरनेट बंद था. सड़कों पर सेना के जवान बंदूकों और भीड़ को नियंत्रण करने वाले अस्त्रों से लैस खड़े थे. राज्य पुलिस के अनुसार इस क्षेत्र के ज्यादातर मतदान केंद्र “अति संवेदनशील” हैं. अभूतपूर्व रूप से इस बार इलाके के सभी मतदान केंद्रों में तीन स्तरीय में सुरक्षा घेरा खड़ा किया गया है. हथियारबंद 10 गार्ड मतदान केंद्र के अंदर तैनात थे, इसके बाहर 30 सुरक्षा गार्डों का घेरा था और सेना के ढेरों गश्ती वाहन अंतरालों में मतदाता केंद्रों की निगरानी कर रहे थे.
शोपियां का शादाब करेवा गांव ही एक अपवाद था जहां मतदान केंद्रों के बाहर थोड़ी बहुत भीड़ दिखाई पड़ रही थी. शोपियां और पुलवामा के अन्य स्थानों में मुझे केवल खाली मतदान केंद्र और निराश बैठे मतदान एजेंट नजर आए. शादाब करेवा में एक कश्मीरी युवा ने मुझे बताया कि वह मतदान नहीं करेगा. उसने कहा, “मैं वोट देकर उन लड़कों का अपमान नहीं करने वाला जो रोजाना मारे जाते हैं.” जब मैंने उनसे गांव के मतदान केंद्रों के बाहर लगी लाइनों के बारे में पूछा तो उसका कहना था कि इसकी वजह यहां की जनसंख्या है. उसने बताया, यहां 2400 घर हैं और सौ कश्मीरी हैं, बाकी के लोग विभिन्न इलाकों से आए हैं. यही एकमात्र गांव है जहां आपको लोग मतदान करते नजर आएंगे.”
मैं लतीफ दार के गांव डोगरीपोरा भी गया. 3 मई को मारा गया लतीफ दार, बुरहान वानी समूह का आखिरी सदस्य था. बुरहान वानी के समूह में 11 नौजवान कश्मीरी थे जो पाकिस्तान समर्थक उग्रवादी संगठन हिज्बुल मुजाहिदीन में शामिल हो गए थे. इस समूह का नेता 22 वर्षीय बुरहान था. दार के जनाजे में लगभग पूरा गांव शामिल हुआ था. दार की मौत के बाद डोगरीपोरा का मतदान केंद्र बगल के गांव रेशीपोरा में भेज दिया गया था. यहां भी मतदान अधिकारी कुर्सियों पर बैठे धूप सेक रहे थे. बूथ के बाहर कई लोग मेरी तरफ आए. मैंने जानना चाहा कि क्या उनमें से कोई वोट देगा तो एक 30 साल के आदमी ने मुझसे कहा, “हमारे लिए सब बराबर हैं. हम जनाजे में शामिल होकर अपनी राजनीति स्पष्ट करना चाहते हैं और हम सब ने वही किया है”.
डोगरीपोरा गांव में मेरी मुलाकात मोहम्मद अजहरुद्दीन से हुई. मोहम्मद अजहरूद्दीन दार का पड़ोसी है. वह कहते है, “हम दोनों दोस्त थे और एक दूसरे को बचपन से जानते थे. आप भी तो कश्मीरी हैं. है कि नहीं? क्या आपको नहीं मालूम कि यहां क्या हो रहा है”. अजहरुद्दीन ने आरोप लगाया कि पुलिस ने उसे बार-बार हिरासत में लेकर यातना दी है. “उनको लगता है कि मैंने लतीफ को मिलिटेंसी में शामिल होने के लिए मनाया था. लेकिन यह मीडिया द्वारा बनाया गया सबसे बड़ा झूठ है कि बंदूक उठाने में हमें मजा आता है. कोई नहीं चाहता कि उसका बेटा मुजाहिदों की मौत मरे”. उसने मुझे बताया, “जब मैं दाढ़ी रखता हूं तो सुरक्षाबल के जवानों को मुझ पर शक होता है. अगर उन्हें मेरे धार्मिक विश्वासों से समस्या है तो मैं यह कहना चाहता हूं कि मेरा धार्मिक विश्वास ही मेरी प्रतिरोध की भाषा है”.
अजहरुद्दीन ने दावा किया कि कश्मीरियों को “पाकिस्तान और हिंदुस्तान से कुछ लेना देना नहीं है”. उसने राष्ट्र संघ की निगरानी में जनमत संग्रह की मांग दोहराई. वह कहता है, “अगर बहुमत भारत के साथ रहना चाहता है तो मैं इस फैसले को मान लूंगा लेकिन इस राजनीतिक विवाद का समाधान राष्ट्र संघ द्वारा तय फ्रेमवर्क में किया जाना चाहिए.” जब उसने अपनी बात खत्म की तो वहां खड़े लोग ताली बजाने लगे.
6 मई की शाम तक मतदान के आंकड़े आ गए थे. दोनों जिलों में कुल 2.81 प्रतिशत मतदान हुआ था. यह बात गौरतलब है कि चुनाव प्रक्रिया से गायब रहने का फैसला लोगों ने अपनी मर्जी से किया था. दशकों से कश्मीर की मुख्यधारा की पार्टियों के चुनाव प्रचार के खिलाफ अलगाववादी नेता बहिष्कार का आह्वान करते आए हैं. लेकिन इस बार आमतौर पर स्थानीय लोग मान रहे थे कि बॉयकॉट की अपील को मीडिया में कोई खास तवज्जो नहीं मिलती और इन अपीलों को दबा दिया जाता है.
कश्मीरियों की दूसरी चिंता वर्तमान राज्यपाल सत्यपाल मलिक हैं. बीजेपी के पीडीपी सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद राज्य में राज्यपाल का शासन लागू हो गया था. राज्यपाल के रूप में मलिक का कार्यकाल विवादों से घिरा रहा है. नवंबर में पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने सरकार बनाने का दावा किया था. लेकिन राज्यपाल ने राज्य विधानसभा को भंग कर दिया. उनके इस निर्णय को लोग सही नहीं मानते. जम्मू-कश्मीर के संविधान के अनुसार राज्य में राष्ट्रपति शासन को राज्य के राज्यपाल द्वारा चलाया जाता है. उस समय से ही घाटी के भीतर मलिक की भूमिका पर विवाद जारी है. शोधकर्ता वाहिद का कहना है, “कश्मीर में गवर्नर शासन निरंकुश है और इसे गवर्नर छुपाते तक नहीं. हमने देखा है कि उनके हर कदम के खिलाफ कड़ी प्रतिक्रियाएं होती हैं. ऐसे में क्या होता है कि गुस्सा भरता जाता है और एक दिन स्थितियां विस्फोटक बन जाती हैं.
इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि राष्ट्रपति शासन जारी रहने वाला है. बीजेपी ने संकेत दिया है कि वह विधानसभा चुनाव जल्द कराए जाने के पक्ष में नहीं है. राज्य पुलिस के एक वरिष्ठ सदस्य के अनुसार, “सुरक्षा एजेंसियां भी यहीं चाहती हैं कि राज्य में जल्द चुनाव न कराए जाएं. माना जाता है कि निर्वाचित सरकार आतंक रोधी अभियानों में अड़ंगा खड़ा करती हैं. सुरक्षा के हिसाब से यह दिखाने के लिए कि राज्य में अमन है, राष्ट्रपति शासन बेहतर होता है.”
6 मई की रात को मतदान के आंकड़े जारी हो जाने के बाद, मैं एक बार फिर खुर्रम से मिला. खुर्रम ने बताया, “कश्मीरी लोग चुनावों को भारतीय राज्य सत्ता की तरह कश्मीर विवाद से जोड़कर नहीं देखते. वह तो हिंदुस्तान की सरकार है जो कश्मीर में भारत के शासन को जायज दिखाने के लिए चुनावों को जनमत संग्रह की तरह पेश करती है”.