4 मई को श्रीलंका के उत्तरी प्रांत के एक शहर वावुनिया में सड़क किनारे एक छोटे से तंबू में तमिलों की भीड़ जमा थी. उनके पीछे एक दीवार थी जिस पर परिवार के उन सदस्यों की तस्वीरें टंगी थीं जिन्हें आखिरी बार श्रीलंकाई सेना की हिरासत में देखा गया था. कई लोग हाथों में उनकी तस्वीरें थामे हुए थे जिन्हें जबरन गायब कर दिया गया था. यह भीड़ न केवल अपने प्रियजनों की याद में वहां थी बल्कि उनसे फिर से मिल पाने की उम्मीद भी रखती थी. यह एक सीधा-सरल प्रदर्शन था लेकिन थोड़ा सा अंतर्राष्ट्रीय कवरेज भी हासिल नहीं कर पाया. वे लगभग दो हजार दिनों से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं लेकिन श्रीलंकाई सरकार ने इन लोगों की मांगों पर ध्यान बहुत कम दिया और तिरस्कार बहुत ज्यादा किया है.
इस बीच, कोलंबो में समंदर के किनारे एक शहरी पार्क गाले फेस पर एक बहुत ही अलग विरोध चल रहा था. रात में तुरही और ढोल की आवाज सुनाई दे रही थी और श्रीलंकाई जनता "गो होम गोटा" (गोटा घर जाओ) के नारे लगा रही थी. उन्होंने सिंहली शेर के चित्र वाला देश का झंडा फहराया. इनके लिए यह राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है. द गार्जियन ने बताया कि लोग इस क्षण को "श्रीलंका के अरब स्प्रिंग" के रूप में देख रहे हैं. कोलंबो स्थित एक गैर सरकारी संगठन नेशनल पीस काउंसिल ऑफ श्रीलंका के कार्यकारी निदेशक जेहान परेरा ने अखबार को बताया कि "सभी समुदायों के लोग सड़कों पर निकल रहे हैं, मैंने ऐसा पहले कभी नहीं देखा है." एक प्रदर्शनकारी ने बीबीसी को बताया, "देखिए, मुसलमान यहां हैं, हिंदू यहां हैं, कैथोलिक यहां हैं. सब एक ही खून हैं.” इसी रिपोर्ट में एक बौद्ध भिक्षु के हवाले से कहा गया है, "श्रीलंका एक संयुक्त राष्ट्र बन गया है."
गाले फेस का विरोध लगभग दो महीने के लंबे असंतोष के बाद 9 अप्रैल को शुरू हुआ था. यह बड़े पैमाने पर बेकाबू मुद्रास्फीति और विकराल होते आर्थिक संकट से प्रेरित विरोध था. महिंदा और गोटाबाया राजपक्षे भाइयों के शासन में आर्थिक संकट बढ़ गया था. दोनों भाई नवंबर 2019 से क्रमशः प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति थे. विभिन्न मंत्रालयों का नेतृत्व करने वाले चचेरे भाइयों और भतीजों के साथ राजपक्षे परिवार ने 2000 के दशक के मध्य से देश की चुनावी राजनीति में एक प्रभावशाली असर रखा है. विरोध प्रदर्शनों के बारे में अधिकांश अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टिंग ने असफल अर्थव्यवस्था और देश के भ्रष्टाचार के इतिहास पर परिवार की पकड़ से भड़के आंदोलन की बात की. रिपोर्ट में श्रीलंका के बढ़ते अंतरराष्ट्रीय कर्ज में चीन की बढ़ती हिस्सेदारी के साथ-साथ करों में कटौती और जैविक खेती अपनाने के सरकार के फैसले पर अधिक जोर दिया गया है. हालांकि इनमें बढ़ते सैन्य बजट को वित्त पोषित करने के लिए खोखले होते सामाजिक कार्यक्रमों पर बहुत कम रिपोर्ट है.
अंतर्राष्ट्रीय कवरेज में “श्रीलंकाई एकता” की इस सरल धारणा को कई तमिल शक की निगाहों से देखते हैं. पूरे प्रदर्शनों के दौरान श्रीलंका के झंडे का प्रदर्शन उन लोगों के लिए बेहद असहज करने वाला था, जो इसे सिंहली वर्चस्व के प्रतीक के रूप में देखते हैं. हालांकि कुछ प्रदर्शनकारी तमिलों के साथ एकजुटता के मामूली प्रदर्शनों में लगे रहे लेकिन आंदोलन द्वारा व्यापक स्तर पर उठाई गई मांगों ने तमिलों की लंबे समय से चली आ रही शिकायतों को नजरअंदाज ही किया है.
विरोध प्रदर्शनों- नागरिक-समाज के कार्यकर्ताओं से लेकर राजनेताओं तक- ने पूरे दक्षिण से विभिन्न प्रकार की हस्तियों ने भाग लिया लेकिन कुख्यात नस्लवादी शख्सियतों की परेशान करने वाली मौजूदगी भी आंदोलन में रही है. इनमें एक अति-राष्ट्रवादी राजनीतिक दल जाथिका हेला उरुमाया के चरमपंथी बौद्ध भिक्षु शामिल हैं. कई प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति के पूर्व समर्थक होने की बात स्वीकार की. एक सिंहली प्रदर्शनकारी ने द गार्जियन को बताया, "मैंने यह सोच कर गोटा को वोट दिया कि वह शेर है. अब मैं देख सकता हूं कि वह कुत्ते से भी बदतर है."
द्वीप के तमिलों और सिंहली के बीच के इस विभाजन को श्रीलंकाई डायसपोरा में भी देखा जा सकता है. 15 मई को, ऑस्ट्रेलियाई तमिलों ने अपने सिंहली समकक्षों के साथ राजपक्षे प्रशासन के विरोध में प्रदर्शन में भाग लिया लेकिन जैसे ही तमिलों ने उन पर किए गए अत्याचारों को उठाने की कोशिश की उन्हें चुप करा दिया गया और प्रदर्शनकारियों ने "हम एकजुट हैं!" और "श्रीलंका!" के नारे लगाए.
तमिल आवाजों को सेंसर करने के लिए एकता के नैरेटिव को हथियार बनाया गया है जबकि श्रीलंकाई राजनीति के अधिकांश हिस्से को रेखांकित करने वाली जातीय-राष्ट्रवादी विचारधारा को चुनौती नहीं दी गई है. प्राथमिक शिकायत आर्थिक है, राजनीतिक नहीं है, जो द्वीप के अशांत अतीत के बारे में एक स्पष्ट रूप से अदूरदर्शी दृष्टिकोण अपनाती है.
32 दिनों तक प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति कार्यालय के बाहर उनके इस्तीफे की मांग को लेकर शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया. 9 मई को घटनाओं ने हिंसक रूप ले लिया. "क्या तुम तमिल हो?" राजपक्षे समर्थक भीड़ के सदस्यों ने राष्ट्रपति सचिवालय के बाहर एक युवा महिला कार्यकर्ता से धमकी भरे लहजे में पूछा. "यह एक सिंहली बौद्ध देश है," एक व्यक्ति ने कहा. "क्या तुम्हें युद्ध का समय याद नहीं है?" भीड़ युवती पर टूट पड़ी और उसे लात-घूसों से पीटा. पुलिस ने कुछ नहीं किया.
कहीं और, सरकार विरोधी प्रदर्शनकारी राजपक्षे के समर्थकों की तलाश में राजधानी में एक बस में चढ़ गए. कथित तौर पर सरकार समर्थित लंपटों की भीड़ द्वारा प्रदर्शनकारियों पर हमला करने के प्रतिशोध में, सरकार-गठबंधन वाले राजनेताओं के घरों में आग लगा दी गई थी. जिन्हें निशाना बनाया गया उनमें सांसद सनथा निशांत का घर भी था, जिसने कथित तौर पर गाले फेस प्रदर्शनकारियों पर हमला करने के लिए भीड़ का नेतृत्व किया था. बीबीसी ने बताया कि "राजनेताओं के 50 से ज्यादा घर" और "राजपक्षे परिवार को समर्पित एक विवादास्पद संग्रहालय" जमीनदोज कर दिए गए थे. उसी दिन, राजपक्षे के समर्थक होने के संदेह में एक शख्स को नंगा कर पोल से बांध दिया गया. अगले दिन, सरकार विरोधी भीड़ ने कोलंबो भर में सड़क जाम कर दी. उनसे बच कर भाग निकलने की कोशिश कर रहे स्थानीय राजनेताओं की कारों की जांच की. टिंडरबॉक्स जला दिया गया था और पूरे दक्षिण में झड़पें शुरू हो गईं. महिंदा के इस्तीफा देने के बाद ही कुछ शांति बहाल हुई और उनकी जगह विपक्षी नेता रानिल विक्रमसिंघे ने ले ली.
हिंसा की यह घटना कोई असामान्य नहीं है. श्रीलंका ने पहले भी हिंसा के ऐसे कई खूनी चक्र देखे हैं. युद्ध से पीड़ित और तमिलों और मुसलमानों की मांगों को पूरा करने में असमर्थ देश में जातीय तनाव गहरा है. 1956 में सिंहली भीड़ ने एक सौ पचास से अधिक तमिलों को महज इसलिए मार डाला था क्योंकि उन्होंने भेदभावपूर्ण सिंहली अधिनियम के खिलाफ प्रदर्शन किया था, जिसके तहत तमिल को द्वीप की राष्ट्रीय भाषा से बाहर कर दिया गया था. श्रीलंकाई राज्य ने तमिलों के खिलाफ जिस तरह की हिंसा की है और उसमे सिद्धी पा ली है वह हिंसा कई बार उन सिंहला आंदोलन को भी अपनी चपेट में ले लेती है जो राज्य को चुनौती देते हैं. 1987 और 1989 के बीच, सरकार ने जनता विमुक्ति पेरामुना के विद्रोह पर बेरहमी से नकेल कसी, जो बड़े पैमाने पर सिंहली वामपंथी संगठन है. अनुमानत: साठ हजार लोगों की हत्या कर दी गई. लेकिन देश में जातीय संबंधों के संदर्भ के बिना, इन चक्रों को नागरिकों के ऊपर दमन करने वाले महज एक क्रूर राज्य के रूप में देखना गलत होगा.
पीढ़ियों से, सिंहली नेतृत्व वाली सरकारों ने द्वीप को दो अलग-अलग भूमि के रूप में माना है. स्वतंत्रता के तुरंत बाद श्रीलंकाई राज्य उपनिवेशीकरण योजनाओं में लग गया और उसने उत्तर-पूर्व में तमिलों से जमीन हड़पी और इसे बसने वाले सिंहलियों को दे दी. यह जाहिरा तौर पर दक्षिण में ज्यादा आबादी वाली आर्द्रभूमि पर दबाव को कम करने के लिए था लेकिन तमिलों की प्राथमिकताओं को नजरअंदाज कर दिया गया, जिनमें से कई ने इसे पारंपरिक तमिल मातृभूमि की क्षेत्रीय निकटता को तोड़ने के रूप में देखा. यह सबसे स्पष्ट रूप से पूर्वी प्रांत के एक क्षेत्र बट्टिकलोआ के पास गल ओया रिहाइश योजना में देखा गया, जिसमें हमेशा मुख्य रूप से तमिल और मुस्लिम आबादी रहती आई है. सिंचाई प्रणाली के उपयोग के लिए एक लाख साठ हजार वर्ग किलोमीटर भूमि का अधिग्रहण किया गया था. सिंहली किसान गल ओया टैंक के अधिक उत्पादक मुहाने में बस गए जबकि तमिल और मुसलमान नीचे की ओर स्थित थे. 1960 के दशक की शुरुआत में, पंद्रह हजार से अधिक लोग जिनमें ज्यादातर सिंहली थे, इस क्षेत्र में स्थायी रूप से बस गए थे, जिसमें दस हजार अतिरिक्त लोगों के लिए मौसमी रोजगार उपलब्ध था. अम्पराई को बट्टिकलोआ से काटकर अलग जिला बनाया गया था जिसमें सिंहली आबादी तेजी से बढ़ी.
सिंहली नेतृत्व अक्सर द्वीप के इस बटवारे पर चुप्पी साधे रहा है. 1983 के काले जुलाई की तबाही के बाद, जिसमें तीन हजार से अधिक तमिल मारे गए थे, श्रीलंका के राष्ट्रपति जेआर जयवर्धने ने डेली टेलीग्राफ को बताया कि अगर उनकी सरकार "तमिलों को भूखा रखेगी, तो सिंहली लोग खुश होंगे."
इस दौरान तमिलों ने अहिंसक सत्याग्रह विरोधों की ओर रुख किया लेकिन सिंहली भीड़ उन्हें फटकार लगाती रही. इस साल 9 मई की हिंसा की तरह ही 1958 में कोलंबो की सड़कों पर सिंहला भीड़ ने लगभग पंद्रह सौ तमिलों को मारा था. तमिलों की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को पूरा करने में बार-बार विफल होने से निराश होकर- जैसा कि 1957 और 1965 में सिंहली और तमिल राजनीतिक दलों के बीच समझौते के टूटने से प्रमाणित हुआ- तमिल युवाओं ने हथियार उठा लिए. 1990 के दशक तक, प्रमुख तमिल उग्रवादी संगठन लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम, जो दशकों चले युद्ध में शामिल रहा, सैकड़ों आत्मघाती बम विस्फोटों और कई जानी-मानी राजनीतिक हत्याओं में शामिल था. सशस्त्र आंदोलन तमिलों की आत्मनिर्णय की मांगों और एक स्वतंत्र राज्य की स्पष्ट मांग से अटूट रूप से जुड़ा हुआ था. इसे कई तमिलों ने राज्य दमन के खिलाफ एक सुरक्षा कवच के रूप में देखा.
यह संघर्ष तमिलों के खिलाफ नरसंहार युद्ध में तब्दील हो गया क्योंकि अस्पतालों, खाद्य आपूर्ति लाइनों और नो-फायर जोन पर बार-बार गोलीबारी की गई. जबकि संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि कम से कम चालीस हजार लोग मारे गए थे. एक मानवाधिकार संस्था इंटरनेशनल ट्रुथ एंड जस्टिस प्रोजेक्ट नोट करती है कि यह आंकड़ा 169796 तक हो सकता है. तमिल हर 18 मई को इस दुखद त्रासदी को एक नरसंहार के रूप में याद करते हैं. लेकिन राजपक्षे ने इसे "मानवीय मिशन" बताया था.
हिंसा के इतिहास के साथ-साथ, वर्तमान में पूरे द्वीप में दिखाई देने वाली आर्थिक अवस्था तमिलों के लिए भी नई नहीं है. सशस्त्र संघर्ष के दौरान, जैसा कि तमिल स्कूलों और पूजा स्थलों पर नियमित रूप से बमबारी की जाती थी, राज्य ने सख्त प्रतिबंध लगा कर तमिल इलाकों में आर्थिक कठिनाई पैदा की, जिसमें चिकित्सा आपूर्ति की एक विस्तृत कड़ी शामिल थी. 2004 की सुनामी के बाद भी, बेहद जरूरी मदद को उत्तर-पूर्व में जाने से रोक दिया गया था और इसके बजाय इसे दक्षिण की ओर भेज दिया गया था. जबकि पूरे उत्तर-पूर्व में चिकित्सा कर्मियों की कमी पहले से ही थी, सरकार के इस कदम ने स्थिति और बिगाड़ दी. 2005 तक उत्तरी प्रांत में किलिनोच्ची के केंद्रीय अस्पताल में, एक लाख पचास हजार की आबादी के लिए केवल 15 डॉक्टर और सात सहायक डॉक्टर थे, जबकि श्रीलंका में प्रति 100000 पर औसत पचास डॉक्टर हैं. इसमें केवल 20 नर्सें थीं, जो जरूरी संख्या का छठा हिस्सा था. तमिलनाडु सरकार आज श्रीलंका को आवश्यक आपूर्ति की खेप भेजती है तमिलों में डर है कि इस सहायता का भी यही हश्र हो सकता है.
आज भी तमिलों को नस्लवादी भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है. उत्तर-पूर्वी जिलों में गरीबी की दर बेहद ज्यादा है, जबकि सामाजिक ताने-बाने के टूटने से शराब के दुरुपयोग और उच्च बेरोजगारी की दर बढ़ गई है. हाल के महीनों में गहराते आर्थिक संकट के बीच, कई तमिलों ने द्वीप से भागने और विदेशों में शरण लेने की कोशिशें भी की हैं, बहुत कुछ उन अनगिनत तमिलों की तरह जो सशस्त्र संघर्ष के दौरान विदेश भाग गए थे.
हिंसा समाप्त नहीं हुई है. मनमाने ढंग से गिरफ्तारी और यातना अभी भी जारी है जबकि उत्तर-पूर्व में बेखौफ सेना का कब्जा बना हुआ है जिसने बमबारी कर जानें ली थीं. उदाहरण के लिए, जाफना स्थित मानवाधिकार थिंक टैंक अदायालम सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च ने पाया कि मुलैतिवु जैसे क्षेत्रों में, हर दो नागरिकों पर एक श्रीलंकाई सैनिक है. सेना नियमित रूप से सर्वेक्षण और युद्ध में मारे गए लोगों के लिए विरोध प्रदर्शन या यादगारी में शामिल होने की हिम्मत करने वाले तमिलों को परेशान करती है. यातना की कई रिपोर्टों में इसका उल्लेख नहीं है. पिछले सितंबर में, आईटीजेपी ने 15 तमिल गवाहों की गवाही का विवरण देते हुए एक घातक रिपोर्ट जारी की, जिन्हें गोटाबाया के पदभार संभालने के बाद से प्रताड़ित किया गया था.
राजपक्षे शासन इन दशकों के दमन और संघर्ष की ही पैदाइश है. यह सिंहली बौद्ध राष्ट्रवाद के पैटर्न का केवल सबसे चरम रूप है जो कोलंबो में सत्ता बनाए रखने के लिए किसी भी राजनीतिक दल के लिए लगभग जरूरी हो गया है. यह राष्ट्रवाद सशस्त्र बलों की वीरता पर निर्भर करता है, बौद्ध धर्म को द्वीप के सबसे प्रमुख धर्म के रूप में मानता है और आत्मनिर्णय के लिए तमिल मांगों को खारिज करके एक संयुक्त श्रीलंका के प्रति दृढ़ निष्ठा प्रदर्शित करता है. 2019 के चुनाव अभियान के दौरान राजपक्षे ने तमिलों के साथ बहुत ज्यादा मिलनसार होने के लिए पिछले प्रशासन की निंदा की थी और देश का जिक्र करते हुए "एकात्मक राज्य" वाक्यांश का उपयोग नहीं करने और विचलन की बात करने के लिए अपने मुख्य विपक्षी दल, समागी जन बालवेगया, पर निशाना साधा था. महिंदा ने चेतावनी दी कि एसजेबी श्रीलंका को "वस्तुतः स्वतंत्र प्रांतीय इकाइयों के एक ढीले संघ" में बदल देगा.
दशकों से श्रीलंकाई नेता ऐतिहासिक रूप से द्वीप के विघटन के डर से हस्तांतरण की दिशा में उठे कदमों का विरोध करते आए हैं. इसका एकमात्र अपवाद जुलाई 1987 में था, जब जयवर्धने और भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने एक समझौता करने का प्रयास किया जो संघर्ष को समाप्त कर देता. उन्होंने लिट्टे या तमिल राजनीतिक नेताओं से परामर्श किए बिना ऐसा किया था. भारतीय शांति रक्षा बल के रूप में एक सशस्त्र हस्तक्षेप के बाद- जिसके बारे में कई मानवाधिकार संगठनों ने नोट किया कि इसने बलात्कार किए और कई नागरिकों को मार डाला- समझौते के चलते श्रीलंका के संविधान में तेरहवां संशोधन आया. विवादास्पद संशोधन प्रांतीय परिषदों की स्थापना और कुछ हद तक सत्ता हस्तांतरण की इजाजत देता था. तमिल नेतृत्व ने आत्मनिर्णय की अपनी मांगों के समाधान के रूप में इसको दिखाने की भर्त्सना की. तमिल नेतृत्व का कहना था कि समझौता कमजोर है क्योंकि प्रांतीय राज्यपालों को श्रीलंका के राष्ट्रपति के अधीन रखा गया था और प्रमुख मुद्दे केंद्र सरकार के लिए आरक्षित थे.
फिर भी, आज तक, श्रीलंकाई सरकार तेरहवें संशोधन को लागू करने में विफल रही है और 2007 में श्रीलंका सर्वोच्च न्यायालय ने तमिल मातृभूमि की क्षेत्रीय निकटता को तोड़ कर संशोधन को कमजोर कर दिया. न्यायालय ने कहा कि उत्तर और पूर्व को अलग कर दिया जाए. भारत द्वारा बार-बार, लेकिन अक्सर कमजोर रूप में, मांग उठाने पर कि संशोधन के माध्यम से तमिलों की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को पूरा किया जाए, श्रीलंकाई नेताओं ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया है. अगस्त 2021 में द हिंदू के साथ एक साक्षात्कार में, भारत में श्रीलंका के उच्चायुक्त मिलिंद मोरागोडा ने प्रांतीय-परिषद प्रणाली को "अनावश्यक, महंगी, विभाजनकारी" और "अक्षमता से भरी" बताया.
गोटाबाया ने इस कट्टर राष्ट्रवादी प्रचार के दम पर नवंबर 2019 में भारी सिंहली बहुमत के साथ राष्ट्रपति पद हासिल किया. उन्होंने प्रांतीय परिषदों के कमजोर ढांचे को मजबूत करने जैसी तमिल आकांक्षाओं की सबसे बुनियादी मांगों को भी मानने से इनकार कर दिया. अगस्त 2020 में, उन्होंने सिंहली समर्थन के आधार पर, फिर से संसद में दो-तिहाई बहुमत हासिल किया.
राष्ट्रपति बनते ही उन्होंने तीन राष्ट्रपति टास्क फोर्सों की स्थापना की जिनमें सिर्फ सिंहली को रखा गया. इनमें युद्ध के दौरान मानवाधिकारों के उल्लंघन के दोषी कई सैन्य अधिकारियों को भी स्थान दिया गया. "पूर्वी प्रांत में पुरातत्व विरासत प्रबंधन" को समर्पित पहली टास्क फोर्स ने पुरातात्विक स्थलों को संरक्षित करने के बहाने उत्तर-पूर्व में राज्य के भूमि कब्जाने की प्रक्रिया को और अधिक सक्षम किया है, जिसे अमेरिकी राज्य विभाग ने "धार्मिक धमकी" का कहा है.
दूसरी टास्क फोर्स, जिसका घोषित उद्देश्य "एक सुरक्षित देश, अनुशासित, सदाचारी और वैध समाज का निर्माण" करना है, की अस्पष्ट भाषा के लिए व्यापक रूप से आलोचना की गई. मसलन, इसका उद्देश्य "सामाजिक समूहों की अवैध गतिविधियों पर अंकुश लगाना" और "असामाजिक गतिविधियों... के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करना" है. इसके बारे में यह चिंता जताई गई कि यह श्रीलंका के सुरक्षा बलों को मानवाधिकार संगठनों के साथ-साथ तमिल राजनेताओं और नागरिक-समाज समूहों के संचालन और कार्यों को प्रतिबंधित करने की शक्ति प्रदान करेगा.
तीसरी टास्क फोर्स का लक्ष्य "एक देश, एक कानून" हासिल करना था. इसका प्रमुख चरमपंथी बौद्ध भिक्षु अथथ ज्ञानसारा गैलागोडा को बनाया गया. जून 2014 के मुस्लिम विरोधी दंगों से पहले, उन्होंने अलुथगामा में एक उत्साही सिंहली राष्ट्रवादी भीड़ से कहा था कि "अगर कोई मरक्कलया " -मुसलमानों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली गाली - "किसी सिंहली पर हाथ उठाता है, तो यह सभी मुसलमानों का अंत होगा." इसके बाद की हिंसा में चार लोग मारे गए और अस्सी अन्य घायल हो गए और इसमें सैकड़ों लोग बेघर हो गए. जिन स्थलों पर हमला किया गया उनमें मस्जिदें, मुस्लिम घर और व्यवसाय और यहां तक कि एक नर्सरी भी थी. जून 2020 में ज्ञानसारा ने हस्तांतरण की मांग करने वाले तमिलों को धमकी देते हुए एक भीड़ से कहा, “हम तमिलों को हस्तांतरण के माध्यम से समाधान खोजने की इजाजत नहीं देंगे. अगर वे फिर से एक अलग राज्य की मांग करते हैं, तो उत्तर और पूर्व में खून की नदी बह जाएगी.
विरोध प्रदर्शनों की शुरुआत के बाद से अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टिंग में गूंजने वाली इस "एकीकृत श्रीलंका" के उदारवादी आह्वान के बारे में शायद सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि इस तरह के नारे पिछले नस्लवादी ऐलानों और हिंसा के उनके अस्थिर खतरों को दर्शाते हैं.
देश को एकजुट होना चाहिए लेकिन केवल सिंहली राजनीति की शर्तों पर? "एक देश, एक कानून" के लिए टास्क फोर्स के पीछे यही तर्क है. यही कारण है कि गोटाबाया की सरकार ने कई मुस्लिम विरोधी कानून लागू किए, जिसमें बुर्का पर प्रतिबंध, जबरन दाह संस्कार की नीति और सैकड़ों व्यक्तियों और संगठनों के खिलाफ प्रतिबंध शामिल हैं. यह एक देश और एक जातिवादी विचारधारा के तहत एक कानून है.
गोटाबाया के शासनकाल के शुरुआती वर्षों में खुले तौर पर नस्लवाद, मानवाधिकारों के हनन और बड़े पैमाने पर सैन्यीकरण के बावजूद, दक्षिण में उनके मतदाता आधार कमजोर नहीं पड़ा. वास्तव में, संसद में उनका दो-तिहाई बहुमत उन्होंने अपने कार्यकाल के एक साल में हासिल कर लिया था. हाल के महीनों में ही, जैसे-जैसे आर्थिक संकट तेज हुआ, असंतोष बढ़ने लगा है.
जाफना के एक छात्र ने गाले फेस विरोध प्रदर्शन के बारे में फेसबुक पर पोस्ट किया, “आज, उनकी सक्रियता मुझे हास्यास्पद लगती है. मैंने यहां पांच सालों से पढ़ रहा हूं, हम छात्रों ने अपने समुदाय के हालात में सुधार के लिए अनगिनत विरोध प्रदर्शन किए हैं. उन्होंने भाग नहीं लिया, यहां तक कि देखने भी नहीं आए. विरोध करना हमारे लिए नया नहीं है... यह उनके लिए नया है.”
अपने लापता बेटे की तलाश कर रही सरोजिनी शनमुगमपिल्लई ने वावुनिया विरोध प्रदर्शन के दौरान संवाददाताओं से कहा "हमारा विरोध आपके जैसा नहीं है." मुल्लातीवू निवासी शशिकुमार रंजनादेवी, जिनके पति और दो भाई जबरन गायब हो गए थे, ने वाइस को बताया कि गाले फेस प्रदर्शनकारियों की तरह, तमिल भी आर्थिक राहत चाहते थे, "लेकिन हम इससे भी ज्यादा मूल्यवान यानी मानव जीवन चाहते हैं."
अविश्वास की भावना से भरे पूरे तमिल क्षेत्र में विरोध प्रदर्शनों के प्रति उदासीनता का भाव है. जाफना स्थित नागरिक अधिकार कार्यकर्ता अनुशानी अलगराजह ने बीबीसी को बताया, "अगर हम न्याय और जवाबदेही के बारे में बात करने लगें तो तो क्या हम इस विरोध स्थल में सुरक्षित महसूस करेंगे?" जाफना के एक अन्य निवासी ने तमिल गार्जियन से कहा, "प्रदर्शनकारी रोटी और ईंधन मिलने पर हमारे बारे में सब भूल जाएंगे. सरकार में बदलाव का मतलब केवल सत्ता में सिंहली कट्टरपंथियों के किसी दूसरे समूह का आ जाना ही होगा.”
तमिलों के लिए सरकार को लेकर यह आक्रोश मौजूदा आर्थिक संकट पर एक अस्थायी प्रतिक्रिया है, जिनका इस द्वीप की ज्यादा प्रणालीगत समस्याओं को दूर करने से बहुत कम लेना-देना है. कोलंबो के प्रदर्शनकारी अपने प्रस्तावों में विसैन्यीकरण और हस्तांतरण की तमिल मांगों को समायोजित करने में विफल रहे. "बियॉन्ड गाले फेस", (गाले फेस से परे) में, जो हाल ही में विरोध प्रदर्शनों में शामिल साठ से ज्यादा संगठनों और दो सौ कार्यकर्ताओं द्वारा सह-निर्मित मांगों की सूची है, उत्तर-पूर्व के विसैन्यीकरण का कोई जिक्र नहीं है, उन लोगों के परिवारों के लिए कोई जवाबदेही की बात नहीं है जो जबरन गायब कर दिए गए थे और साथ राजपक्षे की निगरानी में हुए नरसंहार के लिए न्याय की कोई भी कोशिश इसमें नजर नहीं आती.
वास्तव में कई तमिलों को डर है कि शासन में साधारण बदलाव देश के प्रणालीगत मुद्दों के लिए सिर्फ एक मुखौटा बन कर रह जाएगा. 2015 के राष्ट्रपति चुनाव में भी इसी तरह का कदम उठाया गया था. तब महिंदा को मैत्रीपाल सिरिसेना ने हराया था. उस चुनाव में सिंहली बहुल दक्षिण ने राजपक्षे के पक्ष में वोट किया लेकिन उत्तर-पूर्व के तमिल और मुसलमान परिवारों ने उनके खिलाफ और सिरिसेना के पक्ष में वोट किया. सिरिसेना के पहले विदेश मंत्री मंगला समरवीरा ने द हिंदू में लिखा कि चुनाव एक "इंद्रधनुष क्रांति" और "एक नए युग की शुरुआत" है. विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया. संक्रमणकालीन न्याय, सुलह और यहां तक कि एक नए संविधान के वादे किए गए.
2016 में गायब कर दिए गए तमिल परिवारों ने जो पिछले टूटे वादों और असफल आयोगों के साक्षी थे, एक नवगठित परामर्श कार्य बल से आस लगाई जिसके बारे में कहा गया कि वह एक स्वतंत्र नागरिक-समाज निकाय है. इसे युद्ध से सबसे अधिक प्रभावित लोगों की बात सुननी थी. टास्क फोर्स ने युद्ध अपराधों पर मुकदमा चलाने के लिए स्थानीय और विदेशी न्यायाधीशों से बनी एक हाइब्रिड कोर्ट का प्रस्ताव दिया और यह सुनिश्चित करने का वादा किया कि विभिन्न संक्रमणकालीन-न्याय तंत्र लागू किए जाएंगे. इन प्रस्तावों को सिरिसेना प्रशासन ने खारिज कर दिया. जून 2016 में सिरिसेना ने परिवारों को आश्वस्त किया कि वह सेना से हिरासत में लिए गए सभी लोगों और सभी गुप्त हिरासत केंद्रों के स्थानों की सूची देने का अनुरोध करेंगे. पांच महीने बाद, जब जवाब के लिए बढ़ती आवाजों का सामना करना पड़ा, तो उन्होंने परिवारों की सभी मांगों को खारिज कर दिया और एक बैठक से बाहर निकल गए.
लापता व्यक्तियों के कार्यालय जैसी सरकारी पहलों को बिना अधिकार के छोड़ दिया गया जबकि शासन के अधिकारियों ने अंतरराष्ट्रीय आपराधिक-न्याय तंत्र से सशस्त्र बलों का सार्वजनिक रूप से बचाव करना जारी रखा. नए संविधान की बात करना महज बातें बन कर रह गया, जिसमें कोई ठोस काम नहीं हुआ. और जल्द ही, द्वीप ने खुद को उसी नौकरशाही दलदल में फंसा पाया, जिसमें वह दशकों से है, जवाबदेही, हस्तांतरण या सड़े हुए नस्लीय प्रश्न को संबोधित करने में लगभग कोई प्रगति नहीं हुई है. सत्ता में रहते हुए, सिंहली उदारवादियों ने गंभीर सत्तावादी शासन की अवधि के बाद केवल प्रेशर वाल्व के रूप में काम किया है. वे अंतरराष्ट्रीय सरोकार वालों को आश्वासन देते हैं कि द्वीप वास्तव में, बिना इस बारे में कुछ भी किए, बदल सकता है. उन्होंने अपने राष्ट्रवादी समकक्षों की तरह ही तमिल आवाजों के प्रति उतनी ही कठोर अवहेलना दिखाई है.
दोनों पक्ष अक्सर सीधी मिलीभगत में काम करते हैं. अक्टूबर 2018 में सिरिसेना ने अपनी सरकार की गिरती लोकप्रियता को पहचानते हुए विक्रमसिंघे की जगह महिंदा को अपना प्रधानमंत्री बनाने की कोशिश की. अब, बढ़ते जन दबाव का सामना करते हुए, गोटाबाया ने महिंदा की जगह विक्रमसिंघे को नियुक्त किया है. यह न केवल श्रीलंका में उदारवादियों और राष्ट्रवादियों के बीच पारगम्य सीमा को दर्शाता है बल्कि यह भी बताता है कि कई तमिलों का लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास क्यों खो गया है. विक्रमसिंघे द्वीप पर एक परिचित व्यक्ति हैं, जिन्होंने अब छठी बार प्रधानमंत्री का पद ग्रहण किया है. अपने पिछले कार्यकाल के दौरान, उन्होंने गायब हुए लोगों के परिवारों को यह दावा करते हुए खारिज कर दिया था कि उनके प्रियजन "जहां तक मुमकिन है मर चुके" हैं. उन्होंने बार-बार सेना का बचाव किया है, आरोपी युद्ध अपराधियों को "दोस्त" बताया है. 2015 में, उन्होंने दावा किया कि उन्होंने "महिंदा राजपक्षे को बिजली की कुर्सी से बचाया है". सात साल बाद राजपक्षे ने फिर उनसे मदद की मांग की है.
श्रीलंका के प्रदर्शनकारियों को अभी बहुत कुछ करना है. उन्हें सबसे पहले यह स्वीकार करना चाहिए कि लाखों सिंहली ने राजपक्षे सरकार का समर्थन किया था बावजूद इसके कि राजपक्षे ने तमिलों के खिलाफ गंभीर अपराध किए हैं. एकता के आह्वान की उन लोगों की नजर से बारीक जांच की जानी चाहिए जिन्हें इस एकता के नाम पर उत्पीड़ित किया गया है. यह नहीं पहचानना कि वास्तव में एकता क्या है, तब यह नारा केवल द्वीप के तमिलों और मुसलमानों की वैध मांगों को दबाने के साधन के रूप में काम करता है. अगर श्रीलंका को वह क्रांति हासिल करनी है जो वह चाहता है, तो वह वावुनिया में सड़क के किनारे गायब किए गए लोगों के परिवारों के साथ खड़े होने से ही मुमकिन है, जिनकी मांगें श्रीलंका के अशांत इतिहास के मूल में हैं. "हम चीजें हासिल करने के लिए विरोध नहीं कर रहे हैं," शनमुगमपिल्लई ने समझाया, वह सीधे गाले फेस प्रदर्शनकारियों के पास पहुंचीं. "हमारे संघर्ष को मजबूत करने के लिए आपको हमारे साथ जुड़ना चाहिए."