हर साल भारत के बहुप्रतीक्षित सरकारी दस्तावेजों में से एक होता है वित्त मंत्री द्वारा प्रस्तुत किया जाने वाला वार्षिक बजट. यह राष्ट्र का आर्थिक लेखा-जोखा है. यह बताता है कि सरकार किस तरह से संसाधनों को जुटाने और सार्वजनिक धन को खर्च करने का इरादा रखती है. यह दस्तावेज आर्थिक प्राथमिकताओं और सरकार के एजेंडे को दर्शाता है. कई अन्य सरकारी दस्तावेजों के उलट, बजट को संसद में पेश किया जाता है, उस पर बहस की जाती है और फिर मतदान किया जाता है और इस तरह बजट दस्तावेज में की गई प्रतिबद्धता एक निश्चित पवित्रता ग्रहण कर लेती है.
हालांकि 2014 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के सत्ता में आने के बाद से यह पवित्रता तेजी से लुप्त होने लगी और आज तो लगभग विलुप्त ही हो गई है. सरकार ने बार-बार ऐसे फैसले लिए हैं जो बजट में की गई प्रतिबद्धताओं के उलट हैं और बजट के लिए अनिवार्य संसदीय स्वीकृति को एक स्वांग बना दिया है. पिछले कुछ वर्षों में बजट में प्रस्तुत किए गए आंकड़े, सरकार द्वारा जारी किए गए अन्य आर्थिक आंकड़ों की तरह, जितना बताते हैं उससे ज्यादा छिपाते हैं. जिसने इस दस्तावेज की पवित्रता को गिराकर मीडिया प्रबंधन की कवायद तक पहुंचा दिया है.
पिछले तीन सालों से राजकोषीय घाटे के बारे में सरकारी अनुमानों पर गंभीर संदेह उठाए गए हैं. जब सरकार की आय उसके खर्च से कम हो जाती है तो इसे राजकोषीय घाटा कहते हैं. अधिकांश आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि प्रस्तुत की गई राजकोषीय घाटे की गणना को कम करके आंका गया है. सरकार के किसी भी स्पष्टीकरण के अभाव में "वास्तविक" राजकोषीय घाटे के बारे में कई अनुमान मीडिया में प्रसारित हुए हैं. पिछले साल नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) ने खुद सरकार के आंकड़ों पर सवाल उठाए थे. ऐसा लगता है कि सरकार अपनी प्राप्तियों और व्यय दोनों के बारे में आंकड़ों की बाजीगरी कर रही है. खर्च को कम दिखाने के लिए यह "बजट से इतर" उधार ले रही है जिसे सरकार बजट दस्तावेज में नहीं दर्शाती है. उदाहरण के लिए, सरकार ने खाद्य सब्सिडी का वित्तीय बोझ तब्दील करते हुए बजट से इतर जाकर भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) को राष्ट्रीय लघु बचत कोष से उधार लेने के लिए मजबूर किया. नतीजतन, एफसीआई पर अब एक ऐसे ऋण का बोझ है जिसे चुकाना बहुत मुश्किल है. पिछली सरकारें भी आंकड़ों के हेरफेर के लिए ऐसे तरीकों का इस्तेमाल करती रही हैं लेकिन वर्तमान सरकार ने इस हेराफेरी को एक नई ऊंचाई पर पहुंचा दिया है.
शक्तियों के बंटवारे को देखते हुए कार्यपालिका को बजट पर विधायिका का अनुमोदन प्राप्त करना होता है. हालांकि, ऐसा लगता है कि सरकार इन संस्थागत सुरक्षा उपायों को लेकर जरा भी चिंतित नहीं है. यह जुलाई 2017 में माल एवं सेवा कर (जीएसटी) को लागू करने के साथ यह शुरू हुआ जिसने अप्रत्यक्ष करों को बजट से बाहर कर दिया. तब से अप्रत्यक्ष करों का निर्णय वित्त मंत्री की अध्यक्षता में बनी जीएसटी परिषद नामक एक निकाय द्वारा किया जाता है जिसे संसद की मंजूरी की आवश्यकता नहीं है. जीएसटी दरों को अब राजनीतिक लाभ के लिए बार-बार संशोधित किया जाता है. उदाहरण के लिए गुजरात विधानसभा चुनावों से ठीक पहले एक लोकप्रिय गुजराती स्नैक, खाखरा पर जीएसटी को 12 प्रतिशत से घटाकर पांच प्रतिशत कर दिया गया था. चूंकि जीएसटी के जरिए हुई प्राप्तियां सरकार के कुल कर राजस्व का एक बड़ा हिस्सा होती हैं इसलिए बार-बार कर की दरों में किए गए संशोधन बजट में पेश किए गए अनुमानों को संदिग्ध बनाते हैं.
जबकि प्रत्यक्ष कर अभी भी बजट का हिस्सा है. फिर भी पिछले साल, सरकार ने यह जाहिर कर दिया कि वह अपनी सुविधा के अनुसार इनसे छेड़छाड़ कर सकती है. सितंबर में एक संवाददाता सम्मेलन में वित्त मंत्री ने संसद को दरकिनार करते हुए अध्यादेश के जरिए कॉर्पोरेट करों में एक बड़ी कमी की घोषणा की. सरकार ने संसद में दिसंबर में इस अध्यादेश को मंजूरी दे दी. इस कार्रवाई का 2019-20 के बजट पर गंभीर प्रभाव पड़ा. कॉरपोरेट सेक्टर के लिए टैक्स में की गई इस कटौती से सरकार को लगभग 1,45,000 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ. कटौती की घोषणा होने के बाद भी सरकार ने कई ऐसे फैसले लिए जिन्हें संसद के समक्ष बजट के हिस्से के रूप में पेश किया जाना चाहिए था लेकिन अध्यादेश या कभी-कभी सिर्फ अधिसूचना जारी करके फैसले ले लिए गए. उदाहरण के लिए, इक्विटी शेयरों और इक्विटी-उन्मुख म्यूचुअल फंडों की इकाइयों की बिक्री से होने वाले पूंजीगत लाभ कर पर एक अतिरिक्त अधिभार जुलाई 2019 के बजट में संसद द्वारा अनुमोदित किया गया था इसे बाद में सरकार ने वापस ले लिया. भले ही कर व्यवस्था में इस तरह के बदलाव अनसुने न हों लेकिन जिस नियमितता के साथ यह हो रहा है वह अभूतपूर्व है.
ये फैसले साल भर के लिए कर संग्रह के अनुमान को प्रभावित करते हैं. साल के बीच में ही प्रस्तावित करों में परिवर्तनों का एक नतीजा राजस्व संग्रह में तेज गिरावट रहा है. 2020-21 के बजट में प्रस्तुत संशोधित अनुमानों के अनुसार प्रस्तावित करों में अन्य परिवर्तनों के साथ कॉर्पोरेट कर माफी के चलते कॉर्पोरेट कर संग्रह में 1,55,500 करोड़ रुपए की शुद्ध गिरावट आई है. कर रियायतें इतनी बड़ी हैं कि संशोधित कॉर्पोरेट कर संग्रह 2018-19 में वास्तविक संग्रह से 50000 करोड़ रुपए कम है.
यह बजट में की गई प्रतिबद्धताओं के साथ खुली दगाबाजी लगती है, 2019-20 के बजट में सरकार ने जिनता खर्च करने का वादा किया था उस वर्ष के संशोधित अनुमानों में खर्च में 87797 करोड़ रुपए की गिरावट आई है. केंद्रीय योजनाओं पर संशोधित व्यय में कुल कमी 112392 करोड़ रुपए है जो व्यय में कुल गिरावट से बहुत ज्यादा है, यह दर्शाता है कि सरकार ने अन्य क्षेत्रों में व्यय में वृद्धि की थी. इस कुल गिरावट में से 97598 करोड़ रुपए केंद्र प्रायोजित योजनाओं से लिए गए और 14794 करोड़ रुपए उन योजनाओं से काट लिए गए जो इन योजनाओं को लागू करने के लिए राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को दिए जाने थे. जिन योजनाओं में व्यय में कमी देखी गई है उनमें से अधिकांश को सरकार की प्रमुख योजनाओं के रूप में देखा जाता है. खेती योग्य भूमि के लिए सिंचाई सुविधा उपलब्ध करने के उद्देश्य से शुरू की गई प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना का बजट 9682 करोड़ रुपए से घटाकर 7896 करोड़ रुपए कर दिया गया. सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क संपर्क के उद्देश्य से शुरू की गई प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के बजट में कटौती की जिसका बजट 19000 करोड़ रुपए घटाकर 14070 करोड़ रुपए कर दिया गया. आवश्यक पोषण कार्यक्रमों के बजट में भी यह कमी दर्ज की गई -एकीकृत बाल विकास सेवा योजना में 2629 करोड़ रुपए की गिरावट हुई जबकि मिड-डे-मील योजना के बजट में 1000 करोड़ रुपए से अधिक की गिरावट हुई. गरीबों को स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के उद्देश्य से शुरू हुई आयुष्मान भारत योजना जिसे सरकार एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में उद्धृत करती है, का बजट 6556 करोड़ रुपए से घटाकर 3314 करोड़ रुपए हो गया. जहां सरकार ने नौकरियों और कौशल विकास के लिए योजनाओं पर 7260 करोड़ रुपए खर्च करने की प्रतिबद्धता जाहिर की थी, वहीं अब यह आंकड़ा संशोधित अनुमानों में 5749 करोड़ रुपए है.
यह देखते हुए कि देश आर्थिक संकट से गुजर रहा है, व्यय में इतनी कमी एक विनाशकारी सार्वजनिक नीति है. सरकार आर्थिक मंदी की अनदेखी करना जारी रखे हुए है जो कई संकेतकों से स्पष्ट है. जबकि सकल घरेलू उत्पाद की सकल विकास दर 2016-17 में 8.2 प्रतिशत से घटकर 2019-20 में 5 प्रतिशत हो गई है लेकिन इससे पूरी तस्वीर साफ नहीं होती है. इस दशक में निवेश दर सर्वकालिक निम्न स्तर पर है. निर्यात में भी गिरावट देखी जा रही है. बैंक क्रेडिट जैसे सकल संकेतक अर्थव्यवस्था के गंभीर संकट में होने का सुझाव देते हैं. आम लोगों का जीवन गंभीर रूप से प्रभावित हुआ है. 1972-73 के बाद से बेरोजगारी दर सबसे अधिक है, खपत-व्यय सर्वेक्षण के लीक हुए आंकड़े घरेलू खपत में गिरावट और गरीबी में वृद्धि को दर्शाते हैं. वर्ष 2011-12 से 2017-18 के बीच भोजन पर व्यय में भी 1970 के बाद से पहली बार कमी आई है.
अधिकांश अर्थशास्त्री इस बात से सहमत हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में मांग में कमी मंदी के पीछे एक प्राथमिक कारक है. इस तरह सरकार से उन क्षेत्रों में व्यय में वृद्धि की उम्मीद थी जो ग्रामीण मांग को बढ़ा सकते थे. लेकिन जितना वादा किया था उससे कम खर्च करके सरकार इसके ठीक उलट काम कर रही है. सिंचाई सुविधा जैसी कृषि योजनाओं पर बजटीय व्यय में कमी केवल किसानों के दुख को ही बढ़ा रही है वह भी ऐसे समय में जब देश सबसे खराब कृषि संकटों में से एक का सामना कर रहा है. केंद्रीय योजनाओं को लागू करने के लिए राज्यों को बजट आवंटन में कटौती यह दर्शाती है कि वे भी मांग को प्रोत्साहित करने या उन लोगों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान नहीं कर पाते हैं जिन्हें इसकी सबसे अधिक आवश्यकता है. अक्सर गरीब राज्यों और विशेष रूप से हाशिए पर और बहिष्कृत समूहों पर खर्च में कटौती का सबसे बुरा प्रभाव पड़ता है. इस तरह कॉरपोरेट क्षेत्र को 29 वर्षों में सबसे बड़ी कर में राहत देकर यानी ग्रामीण गरीबों की कीमत पर उन्हें वित्त पोषित करके सरकार ने दिखाया है कि वह किसके लिए काम करती है. इससे भी बुरी बात यह है कि बजट को मीडिया में जितना प्रचार मिलता है बजट अनुमानों में संशोधन पर मीडिया का उतना ध्यान नहीं जाता है, इसलिए जो लोग इसका शिकार होते हैं उन्हें भी इसके बारे में पता नहीं होता है.
बजट सरकार के अनुमानित राजस्व का एक खराब संकेतक भी बन गया है. वर्तमान बजट पर विशेषज्ञों ने सरकार के अनुमानित कर राजस्व के बारे में संदेह जताया है. यह देखते हुए कि नाममात्र की विकास दर- मुद्रास्फीति के समायोजन के बिना जीडीपी विकास दर - वर्तमान में केवल 7.5 प्रतिशत है, आने वाले वर्ष में इसके दस प्रतिशत होने की उम्मीद है. गैर-कर राजस्व पक्ष पर, सरकार को सार्वजनिक स्वामित्व वाली कंपनियों से अपने शेयरों को बेच करके 2,10,000 करोड़ रुपए इकट्ठा करने की उम्मीद है. यह भी संभावना नहीं है कि अपने स्वयं के संशोधित अनुमानों से सरकार केवल पिछले बजट में निर्धारित विनिवेश लक्ष्य के 60 प्रतिशत को पाने में ही सक्षम थी. अगर ये प्राप्तियां उसे नहीं मिलती तो यह अनिवार्य रूप से आवश्यक सरकारी योजनाओं पर खर्च में कटौती का कारण बनेगा. दुर्भाग्य से, वास्तविकता केवल अगले बजट तक स्पष्ट हो पाएगी, जब संशोधित अनुमान प्रस्तुत किए जाएंगे, और वास्तविक व्यय का अंतिम अनुमान केवल 2022-23 के बजट में उपलब्ध होगा.
बजट को पूरी तरह से अविश्वसनीय बनाकर केंद्र राज्य सरकारों के नीति-निर्धारण को भी ठेस पहुंचाता है, खासकर इस सरकार ने केंद्र प्रायोजित योजनाओं के लिए राज्यों के केंद्रीय करों या फंडों की हिस्सेदारी पर अक्सर रोक लगाई है. राज्य सरकारों पर सीमित संसाधनों के साथ अपने स्वयं के संसाधनों को बढ़ाने का बोझ, अस्प्ष्ट अनुमान राज्यों के बजट और पहलों को प्रभावित करते हैं.
इस प्रकार बजट सरकार के आर्थिक एजेंडे का पता लगाने के मामले में किसी काम का नहीं है. सत्ता में बैठी एक ऐसी सरकार के बारे में जो धू्म्रावरण बनाने में माहिर है. हमें अब यह पता लगाने के लिए डेटा जासूसों की आवश्यकता है कि हमारे पैसों का सरकार ने क्या किया और क्या करने की योजना बना रही है.