सवालों के घेरे में हल्द्वानी अतिक्रमण के भारतीय रेलवे के दावे

नोटिस जारी करते हुए विवादित भूमि का आकार 29 से बढ़ा कर 78 एकड़ कर दिया गया जबकि आधिकारिक रिकॉर्ड में कहीं भी विवादित भूमि 78 एकड़ नहीं है. रेलवे का दावा है कि उसके पास 29 एकड़ जमीन है लेकिन उसने 2016 में 78 एकड़ में सीमांकन और खंभे लगा दिए थे. कारवां के लिए पारिजात
18 January, 2023

5 जनवरी 2023 की सर्द सुबह से ही उत्तराखंड के हल्द्वानी के बनभूलपुरा और आस-पड़ोस के लोग गली नंबर 17 में जमा थे. सुप्रीम कोर्ट से आस लगाए उस माहौल में बैचेनी तारी थी. अगर अदालत से फौरन कोई राहत उन्हें नहीं मिलती तो 10 जनवरी का दिन दशकों से बसे यहां के निवासियों की बेदखली के लिए मुकर्रर था. चेहरों की मायूसी यह भी बता रही थी कि सुप्रीम कोर्ट के अलावा फिलहाल अभी उनके पास अपने घरों को बचाने की कोई दूसरी कारगर रणनीति नहीं थी. 4365 परिवारों की लगभग 50000 आबादी फौरन घर से बेघर हो जाने के बीच झूल रही थी, जिनमें से करीब 35000 लोगों के पास वोटर आईडी कार्ड हैं. गली के मुहाने पर जमे मजमे में एक इस्लामिक विद्वान तसल्लीबख्श अफ्लाकी तालीम का कायदा बुलंद आवाज में बता रहे थे.

उस दिन सुप्रीम कोर्ट ने सात दिन में लोगों को हटाने के नैनीताल हाईकोर्ट के निर्देश पर आपत्ति जताते हुए कहा कि सात दिन में 50000 लोगों को नहीं हटाया जा सकता है.

जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस अभय एस ओका की पीठ ने 20 दिसंबर 2022 को उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ द्वारा पारित फैसले के खिलाफ दायर विशेष अनुमति याचिकाओं के एक बैच में उत्तराखंड राज्य और रेलवे को नोटिस जारी करते हुए यह आदेश पारित किया और अदालत ने मामले को 7 फरवरी, 2023 तक के लिए स्थगित कर दिया. अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य और रेलवे को व्यावहारिक समाधान खोजने के लिए कहा.

बीती 20 दिसंबर 2022 को उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने हल्द्वानी में रेलवे की जमीन से कथित अतिक्रमणकारियों की बेदखली का आदेश देते हुए कहा था, "हम लंबे विचार-विमर्श के बाद आखिरकार इस नतीजे पर पहुंचे कि हल्द्वानी के बनभूलपुरा के निवासियों और अनुबंध कर्ताओं का, जिस जमीन पर वे रह रहे हैं, कानूनी अधिकार नहीं बनता है. इसको पूरी ताकत से खाली कराया जाना चाहिए."

इसके साथ ही अदालत के इस फैसले को अंजाम देने के लिए सचिव सहित पुलिस प्रशासन, जिलाधिकारी और उनके तथा रेलवे के मातहत के अधिकारियों को हिदायत देते हुए सुनिश्चित करने के लिए कहा कि "अदालत के हुक्म की तामील के लिए फौरन रेलवे की अनाधिकृत कब्जे वाली जमीन को खाली कराया जाए. हुक्म की तामील के लिए स्थानीय पुलिस बल साथ ही रेलवे सुरक्षा बल का इस्तेमाल किया जाए और अगर जनता की ओर से इस फैसले को लागू करने पर किसी तरह का प्रतिरोध होता है तो जरूरत मुताबिक अर्द्ध सैनिक बलों को भी लगाया जा सकता है."

साथ ही अदालत ने यह भी हुक्म दिया कि जिन लोगों ने 2 जनवरी तक अतिक्रमण नहीं हटाया तो इस स्थिति में कब्जों को तोड़ने का खर्च भी अतिक्रमणकारियों से वसूला जाए.

नैनीताल हाई कोर्ट का आदेश आते ही स्थानीय निवासी सड़कों पर इकट्ठा होने लगे. निवासियों ने शांतिपूर्वक मोमबत्ती जुलूस निकाला, मानव श्रृंखला बना एकजुटता का इजहार किया और कड़ी सर्दी के बीच औरतें, बच्चे, बूढ़े-बीमार मजबूरन सब कुछ छोड़-छाड़ कर अपने घरों को बचाने की नाउम्मीद सी जद्दोजहद में फंस गए. हफ्ते भर के भीतर इलाके को सपाट किया जाना था.

हल्द्वानी के जिस इलाके में अतिक्रमण बताया जा रहा है वह करीब 2.19 किमी लंबी रेलवे लाइन का क्षेत्र है. रेल अधिकारियों का कहना है कि रेल लाइन से 400 फीट से लेकर 820 फीट चौड़ाई तक अतिक्रमण है. रेलवे करीब 78 एकड़ जमीन पर कब्जे का दावा कर रहा है. अतिक्रमित जमीन पर पांच सरकारी स्कूल, 11 प्राइवेट स्कूल, मंदिर, मस्जिद, मदरसे और पानी की टंकी के साथ ही सरकारी स्वास्थ्य केंद्र भी हैं. ढोलक बस्ती, गफूर बस्ती, लाइन नंबर 17, नई बस्ती,  इंद्रानगर छोटी रोड, इंद्रानगर बड़ी रोड आदि बुलडोजर की जद में हैं.

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नवंबर 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड राज्य की स्थापना हुई थी. तब नैनीताल में उत्तराखंड उच्च न्यायालय बनाया गया. साल 2007 में इलाहाबाद से यहां आए उत्तराखंड हाई कोर्ट बार एसोसिएशन ने अपने आने-जाने के लिए इलाहाबाद से काठगोदाम के बीच ट्रेन की मांग की. लेकिन इस बहाने इसे ठुकरा दिया गया कि उस जगह पर नई ट्रेन चलाने के लिए जगह नहीं है. उस समय कथित अतिक्रमण का मामला पहली बार सामने आया था. इसमें कहा गया था कि हल्द्वानी रेलवे स्टेशन के पास 29 एकड़ रेलवे भूमि पर अतिक्रमण है. रेलवे ने उसी साल दायर एक हलफनामे में उत्तराखंड उच्च न्यायालय को सूचित किया कि उसने 29 एकड़ भूमि में से 10 एकड़ से अतिक्रमण हटा दिया है. रेलवे ने अदालत से एक आदेश पारित करने की अपील की, जिसमें राज्य के अधिकारियों को शेष 19 एकड़ जमीन वापस पाने में मदद करने का निर्देश दिया गया. मुद्दा शांत हो गया और आगे कोई तोड़-फोड़ नहीं की गई.

रेलवे की जमीन पर अतिक्रमण का जिन्न एक बार फिर 2014 में सामने आया. 2003 में गौला नदी पर 9.40 करोड़ की लागत से एक पुल बनाया गया था. बनने की तीन-चार साल बाद ही पुल ढह गया. 2014 में रविशंकर जोशी नामक एक शख्स ने उत्तराखंड उच्च न्यायालय में जनहित याचिका के रूप में एक रिट याचिका दायर की, जिसमें पुल के ढहने की जांच का आदेश देने की प्रार्थना की गई थी. याचिकाकर्ता की सुनवाई के बाद उच्च न्यायालय ने 01.09.2014 को एक आदेश पारित कर एच.एम. भाटिया को कमिश्नर नियुक्त किया. एडवोकेट कमिश्नर ने क्षेत्र का दौरा किया और 26.06.2015 को एक रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें आरोप लगाया गया कि रेलवे ट्रैक के करीब रहने वाले अतिक्रमणकारियों के अवैध खनन में लिप्त होने के कारण पुल ढह गया.

आयुक्त की रिपोर्ट के बाद उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने रेलवे को तलब किया, जिसने एक बार फिर दावा किया कि उसकी 29 एकड़ भूमि पर कब्जा कर लिया गया है. उच्च न्यायालय ने 9 नवंबर 2016 को एक अंतरिम आदेश पारित कर अधिकारियों को रेलवे संपत्ति से कथित अतिक्रमण हटाने का निर्देश दिया. राज्य सरकार ने बाद में अदालत से अपील करते हुए अपने 9 नवंबर, 2016 के अपने आदेश की समीक्षा करने की मांग की. "अतिक्रमणकर्ताओं" को हटाने का कार्य नहीं किया जा सका क्योंकि रेलवे संपत्ति का कोई सीमांकन नहीं था. याचिका में कुछ बिक्री विलेखों का भी उल्लेख किया गया था. राज्य ने एक जवाबी हलफनामा भी दायर किया जिसमें कहा गया कि भूमि राजस्व विभाग की है. 10 जनवरी 2017 को उच्च न्यायालय ने एक बार फिर राज्य सरकार को कथित अतिक्रमण हटाने को सुनिश्चित करने का निर्देश दिया.

उच्च न्यायालय के आदेश से व्याकुल निजी पक्षों का प्रतिनिधित्व करने वाली ("अतिक्रमित" भूमि के पीड़ित कब्जाधारी) सहयोग सेवा समिति ने राज्य सरकार के साथ सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और अदालत को बताया कि यह मामल उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका बतौर शुरू हुआ था, जिसमें कथित रेलवे भूमि से "अतिक्रमण" हटाने के लिए कोई प्रार्थना भी नहीं की गई थी. यह भी बताया गया था कि याचिकाओं में भी अनाधिकृत कब्जेदारों को कभी व्यक्त नहीं किया गया था. शीर्ष अदालत को बताया गया कि यह भी स्पष्ट नहीं है कि विचाराधीन भूमि रेलवे की है भी या नहीं. यह भी बताया गया कि 29 एकड़ भूमि का कोई सीमांकन नहीं है, जैसा कि याचिकाकर्ता ने जनहित याचिका में आरोप लगाया है. याचिकाकर्ताओं ने अदालत का ध्यान उन दस्तावेजों की ओर भी दिलाया, जो दर्शाते हैं कि उनके पक्ष में निष्पादित सरकारी पट्टों के आधार पर जमीन उनके कब्जे में है. कुछ अन्य मामलों में, उन्होंने नीलामी में सबसे बड़ी बोली लगा कर अपने अधिकार का दावा किया. उन्होंने दावा किया कि इसलिए उनका कब्जा वैध, अधिकृत और कानूनी है.

इसका भी जिक्र किया गया था कि सार्वजनिक परिसर (अनाधिकृत कब्जाधारियों की बेदखली) अधिनियम, 1971 के तहत याचिकाकर्ताओं को जारी किए गए बेदखली नोटिसों में से किसी में भी उन्हें व्यक्तिगत रूप से संबोधित नहीं किया गया था जैसा की कानून द्वारा अनिवार्य किया गया था. इसे "हल्द्वानी रेलवे स्टेशन से सटे 78/0 से 83/0 किमी हल्द्वानी तक रेलवे भूमि के सभी अनधिकृत कब्जेदारों" को संबोधित किया गया था. इसलिए यह तर्क कि उच्च न्यायालय के बेदखली आदेश से पहले किसी भी याचिकाकर्ता को व्यक्तिगत रूप से नोटिस नहीं दिया गया था, उनके खिलाफ गया. हालांकि याचिकाकर्ताओं ने सार्वजनिक परिसर (अनधिकृत कब्जाधारियों की बेदखली) अधिनियम, 1971 के तहत पारित बेदखली आदेशों के खिलाफ एक अपीलीय उपाय की मांग की, लेकिन उच्च न्यायालय के आक्षेपित आदेश से इन्हें निराशा ही हाथ लगी. कुछ याचिकाकर्ताओं ने बेदखली के नोटिस को चुनौती देने के लिए उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था लेकिन उनके मामले उच्च न्यायालय की एकल पीठ के समक्ष सूचीबद्ध थे.

सामने आई बातों पर विचार करते हुए शीर्ष अदालत ने 18.01.2017 को कहा कि पीड़ित याचिकाकर्ताओं को उच्च न्यायालय द्वारा सुना जाना चाहिए. सर्वोच्च अदालत ने प्रभावित पक्षों को निर्देश दिया कि वे उच्च न्यायालय का रुख करें और अपने आदेश को वापस लेने या संशोधित करने के लिए अलग-अलग आवेदन दायर करें. इसने निर्देश दिया कि मामले की सुनवाई एक खंडपीठ द्वारा की जानी चाहिए. शीर्ष अदालत ने कहा कि उच्च न्यायालय कोई भी आदेश तभी पारित करे जब याचिकाकर्ताओं को सुनवाई का अवसर दिया गया हो और उनके निजी विवादों का ध्यान रखा गया हो. इसके अलावा उच्च न्यायालय को 13 फरवरी 2017 से तीन महीने की अवधि के भीतर ऐसे सभी आवेदनों का निपटान करने का निर्देश दिया गया था.

इसके चलते उच्च न्यायालय द्वारा जारी बेदखली के निर्देश तीन महीने के लिए रुके रहे. सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी साफ किया कि कब्जाधारियों द्वारा शुरू की गई अपीलीय कार्यवाही, जो जिला न्यायाधीश, नैनीताल के समक्ष लंबित है, को उच्च न्यायालय द्वारा दर्ज की गई टिप्पणियों द्वारा "अप्रभावित" रूप से निपटाया जाएगा.

सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बाद,एक संपदा अधिकारी को विवादित भूमि के कानूनी मालिकों का पता लगाने, प्रत्येक व्यक्ति को नोटिस जारी करने और सार्वजनिक परिसर (अनधिकृत कब्जाधारियों की बेदखली) अधिनियम, 1971 की धारा 4 के अनुरूप वरीयता के आधार पर निपटान हेतु उनकी आपत्तियों को सुनने के लिए नियुक्त किया गया था. संपदा अधिकारी ने कथित तौर पर बिना किसी स्रोत का हवाला दिए निष्कर्ष निकाला कि उनका विचार है कि भूमि रेलवे की है और कब्जा करने वाले अवैध अतिक्रमणकर्ता हैं जिन्हें हटाने की जरूरत है. इसके मुताबिक, बनभूलपुरा के इंदिरा नगर, नई बस्ती और लाइन नंबर 17, 18, 19, और 20 में फैली 78 एकड़ भूमि पर कब्जा करने वाले लोगों को बेदखली के नए नोटिस दे दिए गए.

दीगर बात है कि नोटिस जारी करते हुए विवादित भूमि का आकार 29 से बढ़ा कर 78 एकड़ कर दिया गया जबकि आधिकारिक रिकॉर्ड में कहीं भी विवादित भूमि 78 एकड़ नहीं है. रेलवे का दावा है कि उसके पास 29 एकड़ जमीन है लेकिन उसने 2016 में 78 एकड़ में सीमांकन और खंभे लगा दिए थे.

नोटिस मिलने के बाद निवासियों ने अपनी आपत्ति दर्ज कराई. लेकिन कोविड-19 महामारी के चलते लगे लॉकडाउन के कारण कोई सुनवाई नहीं हुई. कोविड-19 प्रतिबंध समाप्त होने के बाद आगे ऐसी कोई सार्वजनिक सूचना जारी नहीं की गई, जिसमें लोगों को सूचित किया गया हो कि आपत्तियों की फिर से सुनवाई शुरू हो गई है. इसके बाद सभी आपत्तियों को एकपक्षीय रूप से खारिज कर दिया गया क्योंकि फिर से सुनवाई के संबंध में किसी भी जानकारी के अभाव में निवासी उपस्थित होने में विफल रहे.

एकपक्षीय आदेशों के बाद निचली अदालत में सार्वजनिक परिसर (अनधिकृत कब्जाधारियों की बेदखली) अधिनियम, 1971 की धारा 9 के तहत 1700 अपीलें दायर की गईं. जिनमें से काफी संख्या में अपीलें अभी भी जिला जज कोर्ट में लंबित हैं.

लेकिन जिला न्यायालय में दायर अपीलों के निपटान का इंतजार किए बिना ही, नैनीताल उच्च न्यायालय ने सार्वजनिक परिसर अधिनियम 1971 का उल्लंघन करते हुए 20 दिसंबर 2022 को बेदखली का नया आदेश जारी किया और प्रशासन को अपने आदेश का पालन करने के लिए एक हफ्ते का समय दिया.

उत्तराखंड की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने 2016 में एक हलफनामा दायर कर रेलवे के दावे को चुनौती दी थी. इसने अदालत को बताया कि सालों से इस विचाराधीन भूमि पर लोग रह रहे थे. कई लोगों ने जमीन खरीदी थी और बाकी ने इसे सरकार से लीज पर लिया था. हलफनामे में कहा गया है कि रेलवे के पास संपत्ति का कोई स्वामित्व नहीं था. बाद में 2022 में सरकार इससे मुकर गई. मौजूदा बीजेपी सरकार ने कहा कि जमीन पर उसका कोई अधिकार नहीं है.

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हल्द्वानी नैनीताल जिले की एकमात्र विधानसभा सीट है जहां सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की हार हुई है. शहर के निवर्तमान मेयर जोगेंद्र पाल सिंह रौतेला मेयर रहते हुए लगातार दो बार विधायकी का चुनाव हार चुके हैं. उच्च न्यायालय के फैसले से लेकर सुप्रीम कोर्ट की रोक तक चली उठापटक के दौरान इलाके में उनका न आना स्थानीय निवासियों को काफी खला. लोग इस बात पर हैरानी जाहिर कर रहे थे कि न तो शिक्षा विभाग अपने स्कूल बचाने के लिए सामने आया, न स्वास्थ्य विभाग अपने अस्पताल.

7 फरवरी को होने वाली अगली सुनवाई तक फिलहाल मामला शांत है. लेकिन आगे क्या होगा इसकी बेचैनी अभी भी कायम है.

नाम न छापने की शर्त पर एक नौजवान ने बात करते हुए कहा, ''यहां की ज्यादातर आबादी बहुत कम पढ़ी-लिखी है, इनका एकजुट हो पाना बहुत नामुमकिन है.'' साथ खड़े एक हमउम्र नौजवान ने इसमें इजाफा करते हुए कहा, ''हमारे पुरानी पीढ़ी के लोगों का तो पहले से ही कुछ इस तरह का रवैया रहा कि 'अरे कबसे सुनते आ रहे हैं कि खाली करा देंगे, पर कुछ नहीं हुआ,' और वे अपने पक्के कागजों के साथ नौजवानों की तुलना में बहुत फिक्रमंद नहीं थे.''

यहां उस बदलते सामाजिक तानेबाने की तरफ इशारा किया जा रहा था जिसे नौजवानों के मुताबिक पुरानी पीढ़ी एक खास तरह की अनुभवजन्य परवरिश के चलते देख पाने में पीछे रही है.

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7 फरवरी को होने वाली अगली सुनवाई तक फिलहाल मामला शांत है. लेकिन आगे क्या होगा इसकी बेचैनी अभी भी कायम है. कारवां के लिए पारिजात

बनभूलपुर की नई बस्ती में ज्यादातर लोगों के पास नजूल की संपत्ति का पट्टा (भूमि का पट्टा) है. लाइन नंबर 17 इलाके में ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने 1947 में केंद्रीय पुनर्वास मंत्रालय द्वारा जारी नीलामी-बिक्री प्रमाणपत्र (मालिकाने का सबूत) के जरिए शत्रु संपत्ति खरीदी थी.

2009 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार एक नई नजूल नीति लाई, जिसमें पट्टे के खिलाफ ऐसी जमीनों के आवंटन पर रोक लगा दी गई, तो इन्हें फ्रीहोल्ड भूमि में बदल दिया गया. कई कब्जाधारियों के पास ऐसी सेल डीड हैं.

उत्तराखंड के दस्तोजीकरण पर केंद्रित प्रतिष्ठित वेब साइट काफल ट्री में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, "अंग्रेज इतिहासकार एंटिकसन द्वारा लिखे हिमालयन गजेटियर में यह उल्लेख मिलता है कि हल्द्वानी खास का स्वामित्व 1834 से 1896 तक मिस्टर थामस गान के पास था. उसके बाद 1869 में मिस्टर गान ने सदाचार और भलमनसाहत में इस क्षेत्र के दस्तावेज पिथौरागढ़ जिले के व्यापारी दान सिंह बिष्ट को दे दिए. इस दिन से यह इलाका दान सिंह बिष्ट की संपत्ति माना गया. यहां पर मुख्य बिंदु यह है कि 1896 के बाद दान सिंह बिष्ट के पास जो भूमि थी वह नजूल की थी और कानून के अनुसार इसके हस्तांतरण का अधिकार नहीं बनता. हल्द्वानी नगर निगम के अधिकारिक दस्तावेजों तथा अन्य कागजों के अनुसार हल्द्वानी खास की जमीन नजूल भूमि मानी गई है. ऐसे में रेलवे का इस भूमि पर अधिकार जताना कानूनन सही नहीं दिखता.''

बेदखली की जद में आए एक नौजवान ने कहा कि एक तरफ तो यह कहा जा रहा है कि जमीन के पट्टे खत्म हो गए हैं और उनका नवीनीकरण नहीं किया गया है. अगर इसे ही आधार बना लिया जाए तो पट्टे आखिर राज्य सरकार ने जारी किए थे, तो फिर रेलवे मामले में कहां से पक्ष बन गया? रेलवे ने अपने दावे के समर्थन में केवल एक नक्शा दिखाया है.

जिला अदालत में कई याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व कर रहे एडवोकेट मोहम्मद यूसुफ ने समाचार वेबसाइट न्यूजक्लिक को बताया, ''लिहाजा हल्द्वानी में लोगों के पास पट्टा, बैनामा और फ्रीहोल्ड जमीन है. वे सरकार को हाउस टैक्स, पानी का टैक्स और सफाई टैक्स आदि का भुगतान करते हैं. अगर सरकार किसी जमीन पर कब्जा करने वाले से हाउस टैक्स लेती है, तो यह प्रमाणित होता है कि वह संपत्ति की कानूनी संरक्षक है और अतिक्रमणकर्ता नहीं है."

लेकिन रिकॉर्डों के अनुसार, मानचित्र के अलावा रेलवे ने अभी तक जमीन पर अपना हक साबित करने के लिए कोई विश्वसनीय सबूत पेश नहीं किया है. उसने एक आरटीआई के जवाब में यह भी स्वीकार किया है कि विवादित जमीन पर अपने दावे के समर्थन में नक्शे के अलावा उसके पास कोई अन्य दस्तावेज नहीं है.

सूचना के अधिकार के तहत 2017 में दायर एक सवाल के जवाब में नगर निगम ने कहा था कि पुराने वार्ड नंबर 14 में स्थित प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र उसके रिकॉर्ड में है. यह भी पता चला कि फ्रीहोल्ड को छोड़ कर वार्ड की पूरी जमीन नगर निकाय के रिकॉर्ड में राज्य के राजस्व विभाग की संपत्ति के तौर पर दर्ज है.

रिपब्लिक भारत, टाइम्स नाऊ और लल्लनटॉप : सरकारी बुलडोजर के तीन चक्के

शकील अहमद की उम्र लगभग 60 साल के करीब है. वह अनपढ़ हैं. वह गौला नदी में बुग्गी चलाते हैं. उनकी मां का इंतकाल 75 साल की उम्र में हुआ और वालिद का लगभग 80 साल में. वह जिस घर में रह रहे हैं उसे उनके वालिद ने बनवाया था. शकील का बचपन यहीं गुजरा. जब मैं शकील से बात कर रहा था तो 25-30 साल के तीन-चार नौजवान सामने आए और हमसे पूछताछ करने लगे. उन्होंने शकील से बात न करने के लिए हमें मजबूर किया और किसी ''जिम्मेदार आदमी'' से बात कराने के लिए अपने साथ चलने को कहा. थोड़ा ही चलने पर इनसे कुछ बड़ी उम्र के नौजवानों से मुलाकात हो गई जो कारवां के बारे में पहले से जानते थे उनके सुपुर्द हमें कर वह नौजवान आगे बढ़ गए.

दरअसल अपने मसले को लेकर बीते पंद्रह-बीस दिनों की मीडिया कवरेज ने लोगों के भीतर एक स्वाभाविक गुस्सा भर दिया था. एक नौजवान ने बताया कि वह रोज रात को लगभग सभी चैनलों की कवरेज देखते हैं. उन्होंने जिक्र किया कि 4 जनवरी को रिपब्लिक टीवी की टीम का बहिष्कार किया जा रहा था लेकिन खबरों में दिखाया गया कि लोग प्रशासन का बहिष्कार कर रहे हैं उसके खिलाफ ''गो बैक'' के नारे लगा रहे हैं. इससे पहले रिपब्लिक टीवी ने मामले को शाहीन बाग 2.0 बताते हुए विस्थापित होने जा रहे लोगों को ही कानून का उल्लंघन करने वाला कहा था. इस समाचार चैनल के पत्रकारों द्वारा मामले को गलत ढंग से प्रस्तुति करने पर पत्रकारों के बहिष्कार करने संबंधी वीडियो मेरे पास मौजूद है जहां पुलिस-प्रशासन भी मीडिया से माहौल शांत रखने की अपील कर रहा है.

ऐसी नजीरों से सबक लेते हुए, युवा खुद से सक्रिय थे. वे हर जगह नजर बनाए रखते, गोदी मीडिया को खुद से दूर रखने की पुरजोर कोशिश करते. स्थानीय युवाओं ने बताया कि उन्होंने खुद मीडिया के लोगों की मदद की. उन्हें लोगों से मिलवाया, कागज दिखवाए, दस्तावेज उपलब्ध करवाए, उनकी हर मुमकिन जरूरत पूरी की, लेकिन बतौर नतीजा उन्हें जमीन जेहादी, अवैध कब्जाधारी, षड़यंत्रकारी और न जाने क्या-क्या कहा गया.

5 जनवरी को एबीपी न्यूज की रूबिका लियाकत भी मामले को कवर करने हल्द्वानी आने वाली थीं. उनके आने को लेकर युवाओं में एकमत नहीं था. कुछ का कहना था कि लियाकत ने सकारात्मक रिपोर्टिंग करने की बात कही है. वहीं ज्यादातर नौजवान इस बात पर मुतमइन नहीं थे. उन्हें बिल्कुल उम्मीद नहीं थी कि लियाकत उनके पक्ष में रिपोर्ट करेंगी. बीते कुछ ही दिनों में मीडिया का एक खास तबका अपने लिए इस तरह की "इज्जत" कमा चुका था.

टाइम्स नाऊ नवभारत के एंकर सुशांत सिन्हा ने अपनी पाठशाला में एक विचित्र समीकरण सूत्र की खोज कर एक नायाब सवाल पेश करने की कोशिश की. नीम बदहवासी में किया गया उनका लगभग 22 मिनट का कार्यक्रम यूट्यूब पर उपलब्ध है. उनका यह कार्यक्रम सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद का है. उनकी बातों का कोई साफ ओर-छोर नजर नहीं आता. बेदखली पर सुप्रीम कोर्ट की अंतरिम रोक से सिन्हा के होश फाक्ता नजर आते हैं. उनके तर्कों की उथली, बजबजाती, बेसुध धारा कार्यक्रम को इस पंक निष्कर्ष पर ले गई कि उत्तराखंड वक्फ बोर्ड अगर अपनी जमीन से मुस्लिमों के ही अवैध कब्जे खाली करवाए तो किसी को कोई दिक्कत नहीं होती है. उन्होंने कहा तब ''मानवीयता'' खत्म हो जाती है. मानवीयता शब्द पर उनका जोर सुप्रीम कोर्ट से खिसियाहट को भी जाहिर करता है. कार्यक्रम के शुरुआती हिस्से में उन्होंने मानवीय पहलू के आधार पर सुप्रीम कोर्ट से मिली अंतरिम राहत को इस तरह पेश करने में माथा पच्ची की जैसे नैनीताल हाईकोर्ट का आदेश वह सुप्रीम कोर्ट को समझाने की कोशिश कर रहे हों.

सिन्हा खुद बताते हैं कि उत्तराखंड वक्फ बोर्ड का मानना है कि अपनी जमीन से अवैध अतिक्रमण हटाने के बाद वक्फ जमीन का इस्तेमाल गरीब और जरूरतमंदों के लिए शेल्टर, युवाओं के कौशल विकास के लिए कोचिंग सेंटर के लिए किया जाएगा. सिन्हा फिर ललकारते हैं ''बॉस... उस जमीन में बना कर दीजिए न इनको घर.''

थोड़े में कहें तो उनकी स्थिति की तुलना 1986 में आई बासु चटर्जी की फिल्म एक रुका हुआ फैसला के पंकज कपूर से की जा सकती है. इस पर आलम यह है कि मामले को मुस्लिम विरोधी बताना उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाता.

एक तरफ जहां मीडिया का एक हिस्सा इस्लामोफोबिया का जहर बांट रहा था वहीं अपनी आस्तीनों को बेदाग करते हुए विचारों को इस तरफ मोड़ने की भी पुरजोर कोशिशें हुईं कि मामले को हिंदू-मुस्लिम के चश्मे से न देखा जाए. इंडिया टुडे समूह के लल्लनटॉप यूपी ने इस पर एक रिपोर्ट पेश की जिसका थंबनेल था, "हल्द्वानी : मामला हिंदू-मुस्लिम या सच्चाई कुछ और है". वीडियो का शीर्षक अतिक्रमण पर रेलवे की कार्रवाई और हिंदू-मुस्लिम में भेदभाव का पूरा सच पेश करने का दावा करता है. जबकि कार्यक्रम के आरंभ में एंकर सौरभ द्विवेदी मानते हैं कि “जिन घरों को कब्जा बताया गया वे एक वक्त में नहीं बने हैं बल्कि उनमें से कई का इतिहास हल्द्वानी शहर जितना पुराना है.” लेकिन अंत तक आते-आते अपनी इस “निष्पक्ष पेशकश” में द्विवेदी रेलवे के वकील बतौर सामने आते हैं. उनकी प्रस्तुति का अंतिम सार यही था कि देश भर में रेलवे की जमीनों पर कब्जा है जिससे रेवले को नुकसान होता है. रेलवे के दावे पर बिना सवाल उठाए, उनके कार्यक्रम से जो अंतिम निष्कर्ष निकलता है वह यह है कि बनभूलपुरा में जो है वह अतिक्रमण ही है. जबकि जैसा कि ऊपर बताया गया है कि राज्य ने एक हलफनामा में कहा है कि “भूमि राजस्व विभाग की है.” इसके साथ ही कार्यक्रम में इन बातों पर गौर नहीं किया गया कि नोटिस जारी करते हुए विवादित भूमि का आकार 29 से बढ़ा कर 78 एकड़ कर दिया गया जबकि आधिकारिक रिकॉर्ड में कहीं भी विवादित भूमि 78 एकड़ नहीं है. यह भी नजरंदाज कर दिया गया कि कोविड-19 प्रतिबंध समाप्त होने के बाद लोगों को सूचित नहीं किया गया कि आपत्तियों की फिर से सुनवाई शुरू हो गई है और आपत्तियों को एकपक्षीय रूप से खारिज कर दिया.

कार्यक्रम के अंत में वह कहते हैं, “जिन अधिकारियों की नजर तले ये कब्जे बढ़ते गए, वहां पर सरकारी भवन बनते गए उनकी भी जांच होनी चाहिए.” साथ ही वह “उम्मीद करते हैं कि अतिक्रमण विरोधी कार्रवाई में सरकार सभी नियम-कानून का पालन करेगी.”

बच्चों के कंधों पर बंदूक रख बच्चों को ही निशाना बना रहा राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग

पांच जनवरी को राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने उत्तराखंड के हल्द्वानी में रेलवे की जमीन से ‘‘अतिक्रमण’’ हटाए जाने के खिलाफ प्रदर्शन में बच्चों को कथित तौर पर शामिल किये जाने पर आपत्ति जताई.

आयोग ने कहा कि विभिन्न सोशल मीडिया मंचों पर अपलोड की गई तस्वीरों में बच्चे हाथों में बैनर लेकर विरोध प्रदर्शन में बैठे स्पष्ट रूप से नजर आ रहे हैं.

उसने कहा, ‘‘यह उल्लेख करना जरूरी है कि बच्चों को इन प्रतिकूल मौसम स्थितियों में प्रदर्शन स्थल पर लाया गया है जो उनके स्वास्थ्य के लिए खतरनाक साबित हो सकता है. साथ ही आयोग ने कहा कि उसने शिकायत का संज्ञान लेना उचित समझा क्योंकि ‘अवैध विरोध’ में बच्चों को शामिल करना किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 का उल्लंघन है.

आयोग ने कहा कि इस ‘‘अवैध विरोध प्रदर्शन’’ में शामिल होने वाले बच्चों की पहचान कर उन्हें उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बाल कल्याण समिति के समक्ष पेश किया जाना चाहिए.

आयोग ने कहा कि इसके अलावा, इन बच्चों के माता-पिता को भी उचित परामर्श दिया जा सकता है.

बुलडोजर की जद में बनभूलपुरा के पांच सरकारी स्कूल आ रहे हैं. इनमें जीजीआईसी, जीआईसी, प्राथमिक, उच्च प्राथमिक विद्यालय बनभूलपुरा और प्राथमिक विद्यालय इंदिरानगर शामिल हैं. इन स्कूलों में दो हजार से अधिक बच्चे पढ़ रहे हैं.

ईओ हरेंद्र मिश्रा की ओर से एक पत्र जारी कर कहा गया है कि इन स्कूलों की वैकल्पिक व्यवस्था नजदीकी स्कूलों में की गई है. जीजीआईसी बनभूलपुरा को जीजीआईसी हल्द्वानी, जीआईसी बनभूलपुरा को महात्मा गांधी इंटर कॉलेज, प्राथमिक विद्यालय इंदिरानगर को गांधीनगर, प्राथमिक विद्यालय बनभूलपुरा को बरेली रोड, उच्च प्राथमिक विद्यालय बनभूलपुरा को गांधी नगर में संचालित किया जाएगा.

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की इस विचित्र आपत्ति पर गौर करते हुए हमने कुछ बिंदुओं पर विचार करने की कोशिश की लेकिन कोई युक्तिसंगत जवाब नहीं तलाशा जा सका.

हमें इस बात की भी जानकारी नहीं है कि विस्थापन और पुनर्वास की किसी योजना के बिना हफ्ते भर के अंदर पूरे इलाके को जमींदोज करने के आदेश पर आयोग ने वहां रहने वाले बच्चों की सुध लेते हुए क्या उपाया किए. राज्य के किस निकाय से आयोग ने इस संबंध में बातचीत की. अगर सर्वोच्च अदालत की ओर से फैसला न आता तो ''प्रतिकूल मौसम स्थितियों में'' बच्चों के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए 10 जनवरी को आयोग उन बेघर बच्चों को कहां रखता? मुमकिन है कि आयोग ने इस बाबत कुछ इंतजामात किए हों लेकिन बुलडोजर चलने की चकचौंध के बीच इस बारे में कोई ज्यादा जानकारी हम नहीं जुटा सके.

ईओ हरेंद्र मिश्रा द्वारा सुझाई गई स्कूलों की वैकल्पिक व्यवस्था भी कोई तर्कसंगत सुझाव पेश नहीं करती. 28 से 78 एकड़ हो गई जमीन से बेदखल बेआसरा लोग कहां जाएंगे बिना यह जाने यह तय कर लिया गया उनके बच्चे पास ही के दूसरे स्कूलों में चले जाएंगे.