"अवैध कब्जा"

हल्द्वानी अतिक्रमण मामले में भारतीय रेलवे के दावों का पूरा सच

''यहां के लोगों के तो ये भी दावे हैं कि तीन बार की बाढ़ से रेलवे खिसक कर उस तरफ आ गया जिधर अवैध कब्जा होने का वह दावा कर रहा है.'' यानी रेलवे खुद अवैध कब्जाधारी है. फोटो पारिजात
13 October, 2023

हल्द्वानी रेलवे भूमि अतिक्रमण विवाद पर 20 दिसंबर 2022 को उत्तराखंड हाईकोर्ट का फैसला आने और फिर राष्ट्रीय मीडिया में छा जाने से करीब चार महीना पहले, सितंबर, से ही प्रशासन ने कथित अतिक्रमण हटाने की पूरी तैयारी कर ली थी. कार्रवाई का ब्लू प्रिंट स्थानीय अखबारों में लगभग रोज ही छप रहा था. 4365 परिवारों के घरों पर बुलडोजर चलाने के महीने भर चलने वाले अभियान में अर्धसैनिक बल की 6 कंपनी (पुरुष), अर्धसैनिक बल 3 कंपनी (महिला), आरपीएफ 3 कंपनी (पुरुष), आरपीएफ 2 कंपनी (महिला), पीएसी/आईआरबी 8 कंपनी, 300 मजिस्ट्रेट, आठ सहायक/अपर पुलिस अधीक्षक, 26 पुलिस उपाधीक्षक, 97 इंस्पेक्टर, 145 एसआई, 36 महिला एसआई, 93 हेड कांस्टेबल, 1214 सिपाही, 361 महिला सिपाही, 101 यातायात पुलिस, 8आंसू गैस यूनिट, 13 फायर यूनिट, 5 बीडी स्क्वाएड, 5 डॉग स्क्वाड, 6 घुड़सवार सेक्शन तैनात होने थे.  

इसके अलावा रेलवे ने 25 पोकलैंड, 25 जेसीबी, मलबे को ढोने के लिए वाहन और पर्याप्त संख्या में मजदूरों की उपस्थिति के लिए भी तैयारी शुरू कर ली थी. तय जगहों पर बिजली के इंतजाम के लिए अधिशासी अभियंता से संपर्क हो चुका था. रेलवे पुलिस बल की 10 कंपनी सिर्फ रेलवे स्टेशन और रेलवे ट्रैक की सुरक्षा में तैनात होनी थी.

आने वाले दिनों में पुलिस ने दंगा नियंत्रण वैन, प्रिजनर वैन, बॉडी प्रॉक्टर, केन शील्ड, हेलमेट, लाठी/डंडे, रस्से, दूरबीन, ध्वनी विस्तारक यंत्र, 38 एमएम टियर गैस गन, एसएलआर/टियर स्मॉक सैल, सॉफ्ट नोज एलआर, एंटी राइड गन, रबड़ बुलेट, कैप्सी स्प्रे, कैप्सी ग्रेनेड समेत अन्य तरह के उपकरणों की मांग की थी. बाहर से फोर्स बुलाने के अलावा खुफिया तंत्र की निगरानी लगातार जारी थी. सोशल मीडिया सेल यूनिट की तैनाती हो चुकी थी. बिजली ठप होने पर सीसीटीवी कैमरे कैसे चलेंगे से लेकर ड्रोन से निगरानी की तैयारी भी चल रही थी.

यह सब रोजमर्रे की स्थानीय खबरों का हिस्सा हुआ करता था.

अनुमानों के मुताबिक 23 से 30 करोड़ रुपए तक का खर्चा इस कवायद में होने वाला था. रेलवे का दावा इतना पुख्ता है कि उत्तराखंड हाईकोर्ट के जस्टिस रमेश चंद्र खुल्बे और जस्टिस शरद कुमार शर्मा की पीठ ने 20 दिसंबर 2022 को दिए अपने फैसले में लिखा, 

"हालांकि पिछले मौके पर, ऐसी छाप छोड़ी गई थी कि संबंधित भूमि का न तो सर्वेक्षण किया गया था, न ही सीमांकन. 2017 में विद्वान अधिवक्ता आयुक्त श्री हरि मोहन भाटिया ने इस न्यायालय को सूचित किया कि संबंधित भूमि का सर्वेक्षण रेलवे और राजस्व विभाग, दोनों के जरिए, किया गया था. उनके मुताबिक, संबंधित भूमि का सर्वेक्षण किया गया था पर इसका कभी सीमांकन नहीं किया गया. दूसरी ओर, रेलवे के विद्वान अधिवक्ता श्री जी. के. वर्मा के अनुसार, संबंधित भूमि का सर्वेक्षण और सीमांकन दोनों किया गया है. विद्वान अधिवक्ता वर्मा के मुताबिक सर्वेक्षण प्रतिवेदन राजस्व विभाग के पास है.''

रेलवे के इतने पुख्ता दावों पर उच्च न्यायालय ने आदेश जारी करते हुए कहा,

''यह रेलवे अधिकारी तय करें कि कब्जे की जमीन पर निर्माण की गई संरचनाओं को ध्वस्त करने और अतिक्रमणकारियों द्वारा अवैध रूप से कब्जा की गई रेलवे की संपत्ति को कब्जे में लेने के लिए यदि बल का उपयोग करना पड़ता है तो क्या इस काम के खर्च को अवैध कब्जेदारों से भू-राजस्व के बकाया के रूप में वसूल किया जाए.''

हालांकि अदालत ने अपने फैसले में जमीन के आकार को लेकर कोई टिप्पणी नहीं की, फिर भी यह आंकड़ा 29 से 78 एकड़ के बीच घूमता रहा. एएनआई को दिए अपने एक बयान में नैनीताल के तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट धीराज सिंह गर्बियाल ने कहा कि माननीय उच्च न्यायालय के फैसले पर रेलवे की 70 एकड़ जमीन को खाली कराने के लिए पूरी तैयारियां कर ली गई हैं.

7 फरवरी को जब सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले पर सुनवाई हुई तो राज्य की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने अदालत से और वक्त की मांग की. इसके बाद अदालत ने ''पिछली तारीख में उठाई गई बातों का हल निकालने के लिए'' आठ हफ्ते का वक्त दे दिया. अगली सुनवाई 2 मई को होनी तय हुई. (सुनवाई में अदालत ने अतिक्रमण तोड़ने पर रोक के अं​तरिम ओदश को तब तक के लिए लागू कर दिया जब तक मामले पर पूरी सुनवाई नहीं हो जाती.)

6 फरवरी को समाचार पत्र अमर उजाला में छपी एक खबर के मुताबिक जिला प्रशासन रेलवे, राजस्व, और वन भूमि का सीमांकन पूरा नहीं कर पाया था. साथ ही रेलवे की ओर से नोटिफिकेशन नहीं देने के बारे में भी बताया गया था. प्रशासन ने रेलवे से यह पूछा था कि उसे जमीन कब मिली, इसका नोटिफिकेशन भी उपलब्ध कराए.

अपने घरों को बचाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय पहुंची याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए 5 जनवरी 2023 को अदालत ने कहा था, ''हमने एएसजी से पूछा है कि क्या ऐसी कोई कार्यप्रणाली हो सकती है जिससे रेलवे द्वारा भूमि प्राप्त करने के साथ-साथ क्षेत्र में रह रहे निवासियों का पुनर्वास भी किया जा सके?"

बनभूलपुरा के निवासी और "खबर7" के पत्रकार सरताज आलम शुरुआत से ही इस मुद्दे पर सक्रिय रहे हैं. आलम बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अब राज्य सरकार के लिए जरूरी हो गया कि सीधे-सीधे जमीन की पैमाइश करे. इसे लेकर 28 जनवरी को शासन की ओर से जिला मजिस्ट्रेट नैनीताल की अध्यक्षता में एक बैठक बुलाई गई थी. तकरीबन 20 लोगों की इस बैठक में सर्वोच्च न्यायालय के याचिकाकर्ता, बीजेपी, कांग्रेस, सपा और अन्य प्रमुख पार्टियों के नुमाइंदे और स्थानीय आलिम-फाजिल मौजूद थे. आलम ने बताया कि इस बैठक में तय हुआ कि सीमांकन होने जा रहा है और इसमें सबका सहयोग चाहिए. प्रशासन की ओर से मौजूद लोगों से कहा गया, "अगर कुछ गलत हो रहा है, तो आप भी अपनी आपत्ति दर्ज करा सकते हैं. आप खुद भी देखिए कि आपके पास कागज हों, नक्शे हों.''

रेलवे, प्रशासन, और राजस्व विभाग की संयुक्त टीम को रेलवे की जमीन की पैमाइश शुरू करनी थी. इससे साफ हो जाता कि रेलवे की कितनी जमीन पर निवासियों का कब्जा है. इसमें रेलवे, राजस्व विभाग के अधिकारियों के साथ सिटी मजिस्ट्रेट और एसडीएम को भी मौजूद रहना था.

जिला प्रशासन, राजस्व, वन विभाग, रेलवे और नगर निगम 29 जनवरी की सुबह संयुक्त सर्वे करने निकले. अमर उजाला में छपी खबर के मुताबिक, टीम सुबह 10 बजे से शाम पांच बजे तक वन विभाग के सीमांकन पिलर खोजती रही. देर शाम तक वन विभाग के तीन सीमांकन खंभे मिल पाए. पहले दिन के सर्वे में यह बात सामने आई कि रेलवे की 32 मीटर जमीन गौला नदी में भी है.

आलम कहते हैं, ''पहले ही दिन 32 मीटर जमीन का गौला नदी में मिलना स्थानीय लोगों के दावों में दम भरता है.'' उन्होंने आगे कहा, ''यहां के लोगों के तो ये भी दावे हैं कि तीन बार की बाढ़ से रेलवे खिसक कर उस तरफ आ गया जिधर अवैध कब्जा होने का वह दावा कर रहा है.'' यानी रेलवे खुद अवैध कब्जाधारी है.

आलम ने बताया कि ऐसा नहीं है कि सर्वेक्षण के तरीके से सभी लोग सहमत हैं लेकिन प्रशासन के ही नक्शे रेलवे के दावों में सुराख कर रहे हैं. इसके अलावा अभी बसावट की ओर पैमाइश शुरू नहीं हुई है जिसके चलते सर्वेक्षण में किसी तरह की रुकावट भी नहीं खड़ी हुई. प्रशासन पहले वन विभाग की जमीन का सीमांकन कर रहा है. वन विभाग का सीमांकन पूरा होने के बाद रेलवे की जमीन की नपाई होगी. इसके बाद राजस्व जमीन की नपाई होगी. वन विभाग की जमीन के बाद रेलवे की और इसके बाद राजस्व विभाग की जमीन है," उन्होंने बताया.

रेलवे द्वारा दाखिल भूमी योजना का नक्शा. इसी के दम रेलवे सारी जमीन अपनी होने का दावा करता है.

2 जुलाई 2022 की सुबह जब बादल बरसे ही जा रहे थे, तकरीब 40-50 बच्चे और औरतें सुबह 11 बजे शहर के विरोध प्रदर्शन स्थल, बुद्ध पार्क, में जमा हुए. "बाल आग्रह" के नाम से आयोजित इस विनती कार्यक्रम में साथ लाया गया आग्रह पत्र प्रशासन के मार्फत पहुंचाया गया. विनती, गीत और नारों के साथ आधा घंटा चले कार्यक्रम के बाद प्रदर्शनकारी पास की ही ठंडी सड़क पर अपने तख्ती—बैनर भीगने से बचाते, आसरा तलाशते तकरीबन डेढ़ घंटा खड़े रहे.

इस पूरी कहानी की सबसे शरुआती कड़ी, मूल याचिकाकर्ता रविशंकर जोशी को संबोधित उनके आग्रह पत्र में कहा गया था, ''आपकी जनहित याचिका को आधार बना कर रेलवे बनभूलपुरा के हजारों परिवारों को उजाड़ना चाह रहा है. बनभूलपुरा में रेलवे का जमीन पर स्वामित्व का दावा झूठा है.'' आगे उनसे निवेदन किया गया था, ''महोदय, हमें पूरा विश्वास है कि आप एक नेकदिल, इंसाफपसंद हैं. हमें यकीन है कि आप रेलवे को अपनी याचिका का आधार बना कर यह अन्याय नहीं करने देंगे. हम बच्चे आपसे आदरपूर्वक आग्रह करते हैं कि आप अपनी जनहित याचिका वापस ले लें. हमारे घरों, स्कूलों को उजड़ने से बचा लें. आपके सहयोग के लिए हम आजीवन आपके ऋणी रहेंगे.''

परिवर्तनकामी छात्र संगठन के महासचिव महेश कुमार ने 13 फरवरी को बात करते हुए कहा, ''अगर प्रशासन ने लोगों को डराया न होता तो और भी ज्यादा लोग कार्यक्रम में शामिल हुए होते''. संगठन बाल आग्रह कार्यक्रम के आयोजकों में से एक था. महेश ने बताया कि सबसे पहले 2007 में रेलवे की जमीन पर अतिक्रमण का मामला सामने आया. रेलवे से सटी गफूर बस्ती, ढोलक बस्ती वगैरह को तोड़ दिया गया. इलाके के हकपसंदों ने इसे लेकर उस वक्त भी आंदोलन किया था.

उन्होंने बताया कि उनके संगठन ने 2007 से पर्चे निकाल कर लोगों को जगाने का काम किया कि उन्हें आगे आना चाहिए और अपने हक के लिए लड़ना चाहिए. उन्होंने बताया कि इन बस्तियों में ज्यादातर मुस्लिम आबादी रहती है. कुछ नेपाली मूल के मजदूर परिवार और सैकड़ों गरीब हिंदू परिवार भी यहां रहते हैं. ये गरीब बस्तियां गौला नदी के पश्चिम में रेलवे पटरियों के समानान्तर रेलवे स्टेशन के पास तक हैं. इनके बाद के मोहल्लों में सरकारी कर्मचारियों से लेकर अलग—अलग पेशों की मिली-जुली आबादी रहती है. यह इलाका मेहनत-मजूरी करने वाले सबसे गरीब लोगों से भरा हुआ है. यहां एक कमरे में दस—दस लोग रहते हैं, गंदी नालियां हैं.'' उन्होंने बताया कि 2007 में जब बस्ती तोड़ी गई और उसके बाद 2011 तक चली पुनर्वास की मांग की लंबी प्रक्रिया में उनका संगठन सक्रिय तौर पर शामिल रहा. उस वक्त को याद करते हुए उन्होंने कहा, ''तत्कालीन जिलाधिकारी नैनीताल ने आक्रोशित भीड़ से पुनर्वास के लिए मौखिक तौर पर कहा कि 'गौला पार जा कर वनभूमि पर बस जाइए.' इसमें किसी प्रक्रिया का पालन नहीं हुआ.'' उन्होंने कहा कि ''विस्थापित लोग गौलापार वनभूमि में जा कर रहने लगे. लेकिन वन विभाग ने उन्हें वहां से हटा दिया. ये प्रक्रियाएं चलती रहीं और कभी पुनर्वास हुआ ही नहीं.'' महेश बताते हैं, ''यह तथ्य है कि सभी लोगों के पास कागज हों ऐसा नहीं है. यह भी तथ्य है कि लोगों के पास तमाम कागजात हैं.''

इस मामले की पूरी प्रक्रिया को उन्होंने कुछ इस तरह बताया: साल 2013 में रवि शंकर जोशी ने उच्च न्यायालय में गौला नदी पर बने पुल के बार-बार टूट कर गिरने के कारण और उसके दोषियों पर कार्रवाई करने की अपील दाखिल की. पुल टूटने के मामले में गौला नदी के बहाव के असर, खराब इंजीनियरिंग और भ्रष्टाचार वगैरह की जांच होनी चाहिए थी. लेकिन जांच की जगह उच्च न्यायालय के आदेश पर एक जांच दल बना जिसने कहा कि कुछ लोग अपनी घोड़ा गाड़ी से नदी में अवैध खनन करते हैं जिससे पुल कमजोर हो कर बार-बार टूटा. कहा गया कि ये अवैध खनन करने वाले लोग रेलवे के किनारे इन बस्तियों में अतिक्रमण करके रहते हैं.

महेश कहते हैं, ''न्याय का तमाशा यह हुआ कि न्यायालय इस आधार पर बस्तियों की भूमि का मालिकाना ढूंढने निकल पड़ता है और पुल टूटने के कारणों की जांच, अपराधी, और अपराधियों को उचित सजा सब फैसले से गायब हो जाते हैं. मामला बस्ती के वैध या कब्जे पर बने होने की तरफ चल पड़ता है.''

2016 में रेलवे ने शपथपत्र देकर उच्च न्यायालय में दावा किया कि उसकी 29 एकड़ भूमि पर अतिक्रमण हुआ है. अपने दावे को पक्का करने के लिए रेलवे ने 1959 का रेलवे का नक्शा पेश किया. यह नक्शा 1959 में रेलवे का भूमि प्लान था. रेलवे के पास भूमि अर्जन/अधिग्रहण का कोई सरकारी राजपत्र नहीं था जो कि भूमि पर उसके मालिकाने का वाजिब कानूनी दस्तावेज होता. लेकिन इन नक्शों और राजस्व विभाग से मिली कुछ खतौनियों के आधार पर इसे रेलवे का स्वामित्व मान लिया गया.

रेलवे के दावे पर उच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि 29 एकड़ भूमि से अतिक्रमण को हटाया जाए. उत्तराखंड की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने उच्च न्यायालय में भूमि के नजूल होने और इस नजूल भूमि के राज्य सरकार की संपत्ति होने की बात की. उच्च न्यायालय से सुनवाई न होन पर सर्वोच्च न्यायालय में इसे चुनौती दी गई. सर्वोच्च न्यायालय ने 2017 में उच्च न्यायालय को दूसरे पक्ष (बस्तीवासी) को भी सुनने का निर्देश दिया. और मामला रेलवे ट्रिब्यूनल, इज्जतनगर के सुपुर्द हो गया. उसे ही बस्तीवासियों का पक्ष सुनना था. (पीपीएक्ट के मुताबिक उसी प्राधिकरण को सुनवाई का अधिकार है.)

शायर सुदर्शन फाकिर के एक शेर, "मेरा मुंसिफ ही मेरा कातिल है, वो क्या मेरे हक में फैसला देगा", के साथ तंज कसते हुए महेश कहते हैं, "रेलवे ही 2016 में दावा कर रहा है कि उसकी 29 एकड़ जमीन पर कब्जा है और उसे ही कथित कब्जाधारियों की सुनवाई करने का जिम्मा सौंप दिया गया. रेलवे ट्रिब्यूनल में लोग गए, हाजिरी लगाई, कागज जमा किए पर कभी कोई सुनवाई नहीं हुई. फिर अखबारों के जरिए लोगों को पता चला कि रेलवे ने उनके दावे खारिज कर दिए हैं. लोगों को रेलवे के नोटिस मिलने लगे."

रेलवे ट्रिब्यूनल में 31.87 हेक्टेयर जमीन यानी लगभग 78 एकड़ जमीन रेलवे की होने का दावा किया गया. जबकि पहले रेलवे 29 एकड़ पर ही अपना दावा करता था. रेलवे ट्रिब्यूनल के फैसले के खिलाफ लोग जिला अदालत गए. जहां ये वाद अभी भी जारी है.

उधर उच्च न्यायालय में रवि शंकर जोशी ने मार्च 2022 में दुबारा याचिका लगाई. इस याचिका में रेलवे भूमि से अतिक्रमण हटाने की बात की गई. उच्च न्यायालय ने इस याचिका को स्वीकार कर लिया. जबकि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर जिला न्यायालय की प्रक्रिया अभी जारी ही है.

महेश बताते हैं, ''फैसले का राजनीतिक-आर्थिक पहलू बेहद जरूरी है. हल्द्वानी कुमाऊं का प्रवेश द्वार कहा जाता है. यहां गौलापार में एक अंतर्राष्ट्रीय स्टेडियम है, उच्च न्यायालय उत्तराखंड को नैनीताल से हल्द्वानी लाने का फैसला हुआ है. हल्द्वानी कुमाऊं भर का शिक्षा, स्वास्थ्य के मामले में केंद्र (हब) है. हल्द्वानी सहित गौलापार में भी जमीनें लगातार महंगी हो रही हैं. रेलवे अपनी कोई परियोजना न होने की बात करता है. साफ है कि यह जमीन पूंजीपतियों को कई-कई तरह से ललचाती है और गरीबों-मेहनतकशों की कीमत पर ऐसा करने में उन्हें कोई गुरेज भी नहीं है.'' महेश बताते हैं कि 2017 में उनके सहयोगी संगठनों- क्रांतिकारी लोकअधिकार संगठन और प्रगतिशील महिला एकता केंद्र, जो मई 2022 में बनी बस्ती बचाओ संघर्ष समिति के भी सदस्य हैं, ने इस मुद्दे पर कानूनी प्रक्रिया के जरिए भी जाने का तय किया. वह कहते हैं, ''हमने सोचा कि इस मामले में हमें कानूनी प्रकिया के जरिए भी जाना चाहिए. हमने फिर आरटीआई लगानी शुरू की. हम आरटीआई लगाते रहे कि जमीन का मालिकाना किसका है, भूमि किसकी है लेकिन हमें कोई जवाब नहीं मिला.''

25 सितंबर 2017 को दायर एक आरटीआइ में रेलवे से सीधे-सीधे तीन बिंदुओं पर सूचना मांगी गई थी: 1. हल्द्वानी रेलवे स्टेशन से लालकुआं की ओर जाने वाली रेलवे लाइन के दोनों और हल्द्वानी स्टेशन से इंदिरानगर कॉलोनी तक रेलवे को हस्तांतरित भूमि की माप व क्षेत्रफल का ब्यौरा उपलब्ध कराएं; 2. यह भूमि किस अधिसूचना द्वारा कब हस्तान्तरित/अधिग्रहित की गई है, उसका ब्यौरा संबंधित अधिसूचना की सत्यापित प्रतिलिपि के साथ उपलब्ध कराएं; और 3. उक्त भूमि अर्जन/हस्तांतरण किन परियोजनाओं के लिए किया गया था उसका विवरण उपलब्ध कराएं.

महेश ने बताया कि 2020 में कोविड काल के दौरान मुख्य सूचना आयुक्त दिल्ली रेलवे में उन्होंने शिकायत की कि कई आरटीआई लगा चुकने के बाद भी उन्हें सूचना नहीं मिल रही है. तब मुख्य सूचना आयुक्त दिल्ली ने उन्हें नैनीताल बुलाया. उनके संगठन के साथी नैनीताल गए. वहां वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए सुनवाई हुई. वह कहते हैं, "वहां तय हुआ कि हम जो भी जवाब मांग रहे हैं वह हमारा अधिकार है, हमें जवाब दिया जाना चाहिए."

10 नवंबर 2020 को रेलवे के लोक सूचना अधिकारी इज्जत नगर मंडल से मांगी गई जानकारी पर सूचना देते हुए बताया गया कि ''लैंड प्लान 4 पृष्ठ में उपलब्ध है इसके आलावा कोई भी सूचना उपलब्ध नहीं है." महेश कहते हैं कि हालांकि पहले ही लोग मानते रहे हैं कि यह जमीन रेलवे की नहीं है लेकिन ''आधिकारिक तौर पर रेलवे का कबूलनामा पहली बार सामने आया." उन्होंने कहा कि रेलवे के पास 1959 के यही नक्शे हैं जो रेलवे ने हमें जारी किए और बाद में उच्च न्यायालय में भी दिए.

महेश ने बताया कि रेलवे ट्रिब्यूनल कोर्ट से हार जाने के बाद ''हमने 4 मई को जुलूस निकालकर एसडीएम को ज्ञापन दिया कि यह जमीन रेलवे की नहीं है और आप सरकार से कहें कि वह अपनी संपत्ति की पैरवी करे.'' उन्होंने हल्द्वानी के विधायक कांग्रेस के सुमित हृदेश को भी ज्ञापन दिया कि ''आप विधानसभा में इस मुद्दे को उठाएं.''

महेश ने बताया कि उन्होंने 2 जुलाई 2022 को एक कार्यक्रम की कॉल दी. कार्यक्रम के मुताबिक मूल याचिकाकर्ता रविशंकर जोशी के गौलापार स्थित घर में महिलाओं और बच्चों की एक बाल पंचायत होना तय किया गया था. उन्होंने कहा कि ''हमने तय किया कि जोशी जी से अपील करेंगे कि आपने जो याचिका दाखिल की है उससे हजारों घरों का, लोगों का उजड़ने का खतरा मौजूद है तो आप अपनी याचिका वापस ले लीजिए.''

महेश बताते हैं कि एसडीमए हल्द्वानी को इसकी सूचना दे दी गई थी. उन्होंने कहा, ''हमने यह भी सोचा की अचानक से हम सौ-दो सौ लोग जोशी जी के घर पहुंच जाएं और उन्हें ऐसा न लगे कि उनके घर अचानक से आकर धमक गए. हिंदू-मुस्लिम इलाके हैं तो मामला इस ओर न मुड़े ऐसा सोच कर हम पहले ही जोशी जी को कार्यक्रम की सूचना देने चले गए.'' उन्होंने आगे कहा, ''वह थे नहीं. उनकी मां—बहन मिलीं. उन्होंने बहुत स्वागत किया. हमने उन्हें सब बताया. हमने विनती कार्यक्रम के बारे में बताया जिसे हमने बाल आग्रह का नाम दिया था. उन्होंने हमें चाय-पानी पिलाया. हम चार लोग वहां गए थे. उन्होंने हमें जोशी जी का नंबर दे दिया.''

महेश ने आगे कहा, ''जोशी जी से हमारी फोन पर बात हुई. उन्हें हमने कार्यक्रम के बारे में बताया. उन्होंने कहा 'ऐसा मत करिए गलत हो जाएगा.' हमने कहा कि हम बस विनती करेंगे और कुछ नहीं. उन्होंने मामला होल्ड पर रख बाद में बताने को कहा.'' महेश कहते हैं, ''हम रात को बस्ती में इस कार्यक्रम का प्रचार कर ही रहे थे कि थाने से दो सिपाही आए और थाना अध्यक्ष का बुलावा बता कर हमें अपने साथ ले गए. वहां लगभग एक घंटा बात चली. हमने बताया कि हमने इस कार्यक्रम की सूचना दी थी. पुलिस ने कहा कि 'यह सूचना है, इजाजत नहीं है.' फिर उन्होंने मसले के हिंदू-मुस्लिम हो जाने की बात समझाते हुए कहा 'कल मुकदमें होंगे' बस्ती के लोग इसमें शामिल थे. हमने कहा कि अभी रात को हमारी एक बैठक है उसमें जो तय होगा उसके मुताबिक हम चलेंगे. उन्होंने हमें सुझाव दिया कि हम 'बुद्ध पार्क में कार्यक्रम कर लें वहां जोशी जी भी आ सकते हैं.' हमने ये प्रस्ताव भी बैठक में रखा. इस पर सबकी सहमति बन गई.” महेश ने बताया कि उन्होंने रवि शंकर जोशी को फोन किया लेकिन फोन नहीं उठा. ''अगले दिन कार्यक्रम में भी जोशी जी नहीं आए. अपील हमने डाक के जरिए उन्हें भेज दी और प्रशासन को ज्ञापन देकर अपील उनके मार्फत पहुंचाने की बात कही.''

महेश ने बताया कि उत्तराखंड हाईकोर्ट में हुई अगली सुनवाई में ''जोशी जी ने कहा कि बस्ती बचाओ संघर्ष समिति के चार लोग उनके घर पर आए और उन्हें पर जान से मारने की धमकी दी है. उन्होंने इस मसले को अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश की. उन्हें पहले से ही सुरक्षा मिली हुई है उन्होंने और सुरक्षा मांगी जो और बढ़ा दी गई. उच्च न्यायालय ने एसएसपी नैनीताल से समिति के चार सदस्यों और समिति के संयोजक टीकाराम पांडे की जांच करने के आदेश दिए.'' उन्होंने आगे बताया, ''हमें एसपी सिटी आफिस बुलाया गया. हम वहां गए और हमने उन्हीं के जरिए एसएसपी को ज्ञापन दिया कि हम पर लगे आरोप गलत हैं इन्हें खारिज किया जाए. हमने जांच में भी सहयोग किया.''

इसके आगे मामले का क्या हुआ इस बारे में उन्हें कुछ खबर नहीं थी. ''अब तो हाईकोर्ट का फैसला भी आ चुका है और मामला सुप्रीम कोर्ट में है, अब तक कुछ हुआ तो नहीं जांच के अलावा.'' महेश मुतमइन दिखे, ''फिलहाल अभी उस केस में कुछ होता दिख नहीं रहा. हो सकता है देर—सवेर कभी इसका इस्तेमाल करना हो, कभी दमन करना हो तो केस लगा दें,'' उन्होंने कहा. (रिपोर्ट प्रकाशित होने तक संगठन के 4 कार्यकर्ताओं पर भारतीय दंड संहिता की धारा 382, 448, 506 के तहत केस दर्ज किया गया है. उनकी अगली सुनवाई अक्टूबर में होनी है.)

महेश ने बताया कि 11 मई को उनकी याचिका हाई कोई में लगी जिसमें पुनर्वास की बात उठाई गई थी. उन्होंने बताया कि दिसंबर में याचिका पर हुई सुनवाई में जजों ने कहा, "पहले उस बस्ती को तोड़ा जाए तब हम पुनर्वास को देखेंगे.'' महेश कहते हैं, ''उजाड़ने के बाद कौन सुनता है.''

उन्होंने आरोप लगाया कि राज्य की बीजेपी सरकार देश के आम हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के मुद्दे की तरह ही इसे ले रही है. सरकार ने 2016 में मलिन बस्ती पुनर्वास नीति बनाई जिसमें राज्य भर की 582 मलिन बस्तियां चिन्हित हैं. रेलवे के पास की पांच मलिन बस्तियां भी इसमें थीं, जिन्हें सरकार ने मलिन बस्तियों की श्रेणी से हटा दिया है. राज्य सरकार 2018 में राजधानी देहरादून में रिस्पना नदी पर बसी मलिन बस्तियों को उच्च न्यायालय के आदेश से बचाने के लिए अध्यादेश लेकर आई. यह अध्यादेश 2021 में खत्म हो रहा था तो सरकार ने इसे फिर से 2024 तक बढ़ा दिया है. लेकिन उच्च न्यायालय में राज्य सरकार ने नजूल भूमि पर अपना दावा करते हुए कोई पैरवी नहीं की. गफूर बस्ती, ढोलक बस्ती के पुनर्वास को लेकर 2011 से लटकी प्रक्रिया पर कोई कार्यवाही नहीं की. ऐसे तमाम तथ्य हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि बस्ती तोड़ने का यह फैसला ‘‘एक राजनीतिक फैसला है, जिसे न्यायालय ने सुनाया है. यह राजनीति हिंदू फासीवाद की राजनीति है.”

महेश ने कहा कि 20 दिसंबर के आदेश से पहले जनता न्यायिक प्रक्रिया में ही लगी रही जिसमें स्थानीय नेता वगैरह सक्रिय रहे. स्थानीय विधायक इसमें कानूनी सहयोग करते रहे. जनता इस उम्मीद में थी कि न्यायालय में न्याय होगा. 20 दिसंबर के आदेश के बाद तुरंत लोग सर्वोच्च न्यायालय गए हैं. 26 दिसंबर की रात में मौलवियों-इमामों, बस्ती वासियों, स्थानीय नेताओं, विधायक की मौजूदगी में एक बैठक में 28 दिसंबर को मानव श्रृंखला बनाकर प्रशासन के सीमांकन करने के फैसले का विरोध करने का फैसला लिया गया. उन्होंने बताया कि ''अल-नमरा बैंक्वेट हॉल में आयोजित इस बैठक पर प्रशासन ने मुकदमा दर्ज कर जुर्माना लगा दिया.''

27 दिसंबर को बनभूलपुरा बस्ती को उजाड़े जाने के विरोध में उत्तराखंड के विभिन्न सामाजिक संगठनों की आपातकालीन बैठक बुलाई गई. इस बैठक में क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन, प्रगतिशील महिला एकता केंद्र, समाजवादी लोक मंच, परिवर्तनकामी छात्र संगठन, उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी, इंकलाबी मजदूर केंद्र, भाकपा (माले), समाजवादी पार्टी, देवभूमि उत्तराखंड सफाई कर्मचारी संघ, फुटकर व्यापारी जन कल्याण समिति, प्रगतिशील युवा संगठन, सर्व श्रमिक निर्माण कर्मकार संगठन, जन सेवा एकता कमेटी, क्रांतिकार किसान मंच, भीम आर्मी के अलावा वकील, स्वतंत्र पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता व बनभूलपुरा वासी शामिल रहे. बैठक में फैसला लिया गया कि सभी संगठन बनभूलपुरा बस्तीवासियों के समर्थन में अपनी-अपनी जगह पर बैठक और प्रदर्शन, अपीलें करेंगे और 28 दिसंबर को मानव श्रृंखला बनाने व बाजार बंद के कार्यक्रम में भागीदारी की जाएगी. इसके अलावा अन्य कार्य योजना भी इस बैठक में तैयार हुई.

उन्होंने बताया कि 26 दिसंबर की बैठक के बाद प्रशासन ने लोगों को डरा दिया तो 27 दिसंबर को जहां बैठक आयोजित होनी थी उसने जगह देने से मना कर दिया. फिर आखिरकार जहां आपातकालीन बैठक करनी पड़ी वह खुद अतिक्रमण की जद में आ रहा था.

बस्ती बचाओ संघर्ष समिति, बनभूलपुरा में तीन के अलावा और संगठन क्यों नहीं हैं इस पर महेश ने कहा, ''हमारी कोशिश थी कि मोर्चा बने. जितने भी ट्रेड यूनियन, सामाजिक, राजनीतिक समूह हैं, सबका मोर्चा बने. लेकिन मोर्चा में नाम नहीं हो पाता है, अकेले में नाम होता है, ऐसी भी सोच लोगों में हावी है जिसके चलते मोर्चा बन नहीं पाया. हमने कोशिश भी बहुत की लेकिन जितने हम शुरू में थे उतने ही हैं.''

सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर जमीन की पैमाइश को लेकर 28 जनवरी को बुलाई जिला प्रशासन की बैठक में एडवोकेट जावेद अख्तर शामिल नहीं हुए. ''हमने इस बैठक से करीब दस दिन पहले ही कुमांउ कमिश्नर को खुद ज्ञापन देकर पूछा था कि पैमाइश के लिए किस नक्शे को आधार बनाया जाएगा,’’ उन्होंने कहा. ज्ञापन पत्र में ''...भूमि की पैमाइश/सीमांकन ग्राम हल्द्वानी खास के 1321 फसली वर्ष मुताबिक सन 1912-13 के भूमानचित्र के अनुसार करने" का निवेदन किया गया था.

सर्वोच्च अदालत के आदेश पर जमीन की पैमाइश करता सरकारी अमला. फोटो: पारिजात

फरवरी की एक शाम दरमियानी उम्र के अख्तर अपने छोटे से घर के एक छोटे से दफ्तरनुमा कमरे में फाइलों और कतरनों के बीच किसी तरह अपने और आने वालों के लिए जगह बनाए बैठे थे.

वह सीधे मुद्दे पर आए. फाइलों के बीच तरतीब से रखे बटर पेपर पर बने एक नक्शे को निकाला और फाइलों से ठसी छोटी सी मेज पर फैला दिया. यह हल्द्वानी शहर के 1912—13 के नक्शे की जिला प्रशासन द्वारा जारी एक प्रमाणित कॉपी थी. खसरा—खतौनियों और कुछ दूसरे दस्तावेजों को एक सधी हुई धुन में सजा कर एक लंबा ब्योरा देने से पहले खीज भरे दुख के साथ उन्होंने कहा ''रेलवे पर फर्जीवाड़े का मुकदमा होना चाहिए."

अख्तर इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में दाखिल एसएलपी (सि) स० 289/2023 में याचिकाकर्ता नंबर 2 और 3 के अधिवक्ता हैं. उनकी अपील संख्या 108/2022 रहमत खान बनाम भारत संघ और 109/2022 अतीक शाह खान बनाम भारत संघ अन्तर्गत धारा 9 पी पी एक्ट 1971 न्यायालय अपर जिला जज प्रथम हल्द्वानी में विचाराधीन है.

उन्होंने बताया कि मई 2022 में रेलवे अदालत से हार जाने के बाद कुछ लोग उनके पास अपने कागजात लेकर आए. ''ये एकदम पक्के दस्तावेज थे. लोगों के पास पट्टे के कागजात थे, शत्रु संपत्ति खरीद के दस्तावेज थे. रेलवे ने जो नक्शे और खतौनियां पेश की थीं वे भी उनके पास थीं."

रेलवे के दाखिल दस्तावेज खसरा नंबर 871 अ, ब को अलग अलग नहीं लिखा गया, सारी जमीन रेलवे ने अपनी बता दी.

अख्तर ने कहा कि जब उन्होंने मामले की तहकीकात की तो ''रेलवे का पूरा फर्जीवाड़ा साफ हो गया." दरअसल सन 1884 में भोजीपुरा (बरेली) से काठगोदाम तक रेलवे लाईन बनी थी. सन 1912 तक रेलवे की जो जमीन थी वह सन 1912-13 के बंदोबस्त में ग्राम हल्द्वानी खास के राजस्व अभिलेखों में दर्ज और भूमानचित्र में दिखती है. इस नक्शे के मुताबिक रेलवे स्टेशन और रेलवे आराजी (भूमि) 1321 फसली वर्ष के खसरा नंबर 129 में दिखाई देता है जिसका 1367 फसली वर्ष मुताबिक सन 1959-60 के बंदोबस्त/चकबंदी के बाद दूसरे रेलवे आराजी के खसरा नंबरान को मिला कर नया खसरा नंबर जो वर्तमान में 684 (रकबा 51 बीघा 14 बिस्वा) खसरा नंबर 683—स (रकबा 82 बीघा 2 बिस्वा) और खसरा नंबर 685 (रकबा 58 बीघा 7 बिस्वा, कुल रकबा 192 बीघा 3 बिस्वा यानी लगभग 29 एकड़ जमीन) 1367 फसली वर्ष की जिल्द बंदोबस्त के साफ खसरा और खतौनी संख्या 137 में रेलवे के नाम दर्ज है. यह जमीन फिलहाल शहर के राजपुरा, जवाहर नगर इलाके में है जहां कुछ जमीन पर आज भी रेलवे के क्वार्टर बने हैं. इस जमीन को रेलवे विभाग छोड़ चुका है.

1913 का हल्द्वानी खास का मानचित्र, यहां रेलवे लाइन सीधी रेखा में दिखती है.

सन 1912-13 के इस नक्शे के मुताबिक रेलवे लाईन की पूरब दिशा में जंगल/गौला नदी और पश्चिम दिशा में खसरा नंबर 383 है. 1940 में ब्रिटिश सरकार ने कई लोगों को खसरा नंबर 383 की जमीन को रिहाइश के लिए लीज/पट्टे पर दिया था. इसका मतलब है कि साल 1940 में खसरा नंबर 383 की जमीन पर आबादी हो चुकी थी. साल 1947 में इस खसरा नंबर 383 की जमीन पर बसे कुछ लोग पाकिस्तान चले गए. उनके मकानों को शत्रु संपत्ति घोषित करते हुए केंद्रीय सरकार के मातहत पुर्नवास विभाग के बरेली स्थित कार्यालय के जरिए साल 1956 में नीलाम किया गया था. (अख्तर इस नीलामी के खरीदशुदा मकान में काबिज/निवासी याचिकाकर्ता के वकील हैं. वह इस संबंध में करीब 150 मामले देख रहे हैं. फिलवक्त जिला अदालत में साढ़े ग्यारह सौ अपील लंबित हैं.)

उन्होंने बताया कि 1950 में गौला नदी में आई बाढ़ में सन 1912-13 में दिखाई देती रेलवे लाईन बह गई या क्षतिग्रस्त हो गई थी. रेलवे विभाग ने एहतियातन रेलवे लाईन को खसरा नंबर 383 की खाली जमीन का अधिग्रहण किए बिना ही शिफ्ट कर दिया जैसा कि सन 1959-60 के नक्शे में रेलवे पटरी सीधी की जगह पर टेढी-मेढी लाइन के रूप में दिखती है.

1959 को रेलवे का जमीन पाने का नोटिफिकेशन. भूमि प्लान के दम पर बेदखली की तोहमत झेलने के बावजूद रेलवे जमीन अधिग्रहण के इस दस्तावेज को छिपाता रहा है.

उन्होंने बताया कि साल 1960 की चकबंदी के दौरान रेलवे विभाग ने खुद ही रेलवे प्लान तैयार कर रेलवे प्लान की जद में आ रही खसरा नंबर 383 की खाली जमीन का अधिग्रहण किए बिना ही, बिना विधिक प्रक्रिया अपनाए सीधे तौर पर रेलवे विभाग के नाम दर्ज करने के लिए चकबंदी अधिकारियों को भेज दिया. चकबंदी अधिकारियों ने रेलवे विभाग के रेलवे प्लान के मुताबिक सन 1912-13 के खसरा नंबर 383 के नए खसरा नंबरान की जगह पर दूसरे खसरा नंबरान के नए खसरा नंबरान को साल 1960 के भूमानचित्र में दर्ज कर दिया.

अख्तर ने बताया, ''जबकि 1940 के बाद से रेलवे विभाग ने किसी जमीन का अधिग्रहण नहीं किया, इसलिए रेलवे के पास भूमि अधिग्रहण का नोटिफिकेशन और अधिग्रहित भूमि का नक्शा नहीं है सिर्फ रेवेन्यू रेकॉर्ड में फर्जी तरीके से दर्ज इन्द्राज के आधार पर रेलवे विभाग वादग्रस्त जमीन पर दावा कर रहा है.’’

अपनी तहकीकात में अख्तर ने पाया कि हल्द्वानी खास की मौजूदा खतौनी खाता संख्या 191 दोषपूर्ण है. इस खतौनी में खसरा संख्या 871 (रकबा 28 बीघा 18 बिस्वा यानी 1.812 हेक्टोअर) दर्ज है जबकि 1367 फसली वर्ष की जिल्द बन्दोबस्त के साफ खसरा के मुताबिक खसरा संख्या 871—अ (रकबा 28 बीघा 18 बिस्वा) खाता खेवट नंबर 3 रेलवे विभाग और 871—ब (रकबा 106 बीघा 8 बिस्वा) खाता खेवट नंबर 2 जेरे इंतेजाम म्युनिसिपल बोर्ड — नजूल, दर्ज है. इस तरह खसरा संख्या 871—अ यानी 1.812 हेक्टोयर जमीन ही रेलवे विभाग की है. खसरा 871—ब की जमीन राज्य सरकार की है.

उन्होंने कहा कि अगर जनहित के नजरिए से इस जमीन को रेलवे की मान भी लिया जाए तो रेल की पटरी से पश्चिम दिशा की ओर 40 फिट तक की चौड़ी पट्टी को 1.50 किलोमीटर तक नाप लेने पर रेलवे की जमीन (रकबा 28 बीघा 18 बिस्वा) पूरी नप जाती है लेकिन रेलवे विभाग ने राज्य सरकार की जमीन को भी रेलवे भूमि बताकर रेल की पटरी से पश्चिम दिशा की ओर 500 फिट दूर तक रेलवे भूमि के रूप में नापा है जो बहुत बड़ा फर्जीवाड़ा है.

उन्होंने बताया कि रेलवे के बेदखली अपील संख्या 64 के अपीलार्थी शफीक अहमद पुत्र रफीक अहमद साल 1913 के खसरा नंबरा 383 की भूमि पर विधिवत काबिज और दाखिल हैं जिसके नये खसरा नंबरान हाल वर्ष 1960 यानी 1367 फसली वर्ष में खसरा नंबरान रेलवे के द्वारा पत्रावली में दाखिल खतौनियों में दर्ज नहीं हैं. जिस पर पीपी एक्ट 1971 के प्रावधान लागू नहीं होते हैं.

साल 1960 यानी 1367 फसली वर्ष का बंदोबस्त उत्तर प्रदेश जोत चकबंदी अधिनियम 1953 के प्रावधानों के अन्तर्गत हुआ था जिसके मुताबिक खसरा नबंर 383 की नजूल भूमि जेरे कब्जा म्युनिसिपल बोर्ड की थी और 1940 में ब्रिटिश सरकार ने अपीलार्थी के दादा को आवंटित की थी. उस पट्टे की भूमि पर अपीलार्थी विरासतन काबिज और दाखिल है. खसरा नंबर 383 की नजूल भूमि पर इस अधिनियम की चकबंदी अधिनियम 1953 की धारा 3 के प्रावधानुसार चकबंदी प्रक्रिया लागू नहीं होती. इसलिए खसरा नंबर 383 की भूमि का स्थान और प्रकृति नहीं बदल सकती. उन्होंने बताया कि जबकि, रेलवे ने अभिलेखों में हेराफेरी और फर्जीवाड़ा करके वर्तमान खसरा नंबर 871 दाखिल भूमानचित्र 1959-60 में अंकित करा लिया गया जिसके आधार पर रेलवे को विवादग्रस्त भूमि पर कानूनी अधिकार हासिल नहीं होता है.

अख्तर ने बताया कि रेलवे विभाग की खतौनी में दर्ज वर्तमान खसरा नंबरान के पुराने खसरा नंबरान 1359 फसली वर्ष मुताबिक सन 1952 की खतौनी में बंजर (राज्य सरकार) के रूप में दर्ज है. रेलवे विभाग के द्वारा सन 1952 के बाद विवादित भूमि का नियम मुताबिक अधिग्रहण नहीं किया गया है, ''इसलिए वर्तमान में बनभूलपुरा में रेलवे की कोई जमीन ही नहीं है."

इस बाबत 5 सितंबर 2022 को अख्तर ने न्यायालय अपर जिला जज, हल्द्वानी जिला नैनीताल से अपील मेमो में कुछ संशोधन करने की गुजारिश की थी. 23 दिसंबर 2022 को प्रथम अपर जिला जज, हल्द्वानी कंवर अमनिन्दर सिंह ने इसे मंजूरी दे दी.

अख्तर के संशोधन की गुजारिश के विरोध में रेलवे के अधिवक्ता की ओर से आपत्ति जताते हुए कहा गया था कि ‘‘अपीलार्थी को दस्तावेज प्रस्तुत करने का पर्याप्त अवसर दिया गया था लेकिन अपीलार्थी ने संपदा अधिकारी के समक्ष कोई दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किए और रेलवे विभाग के दस्तावेजों के आधार पर ही साइट प्लान तैयार किया गया है और यह कि अपीलार्थी ने गलत तथा मनगढन्त तथ्यों के आधार पर यह संशोधन प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया है जो कि निरस्त किए जाने योग्य है." हालांकि इसके उलट फैसला सुनाते हुए अदालत ने तर्क देते हुए कहा, ‘‘यह अपील संपदा अधिकारी द्वारा पारित आदेश के विरुद्ध योजित की गई है. संपदा अधिकारी ने अपीलार्थी के बेदखली हेतु आदेश पारित किए है.... चूंकि इस मामले में अपीलार्थी की बेदखली का प्रश्न है ऐसे में यह उचित होगा कि अपीलार्थी को अपना पक्ष रखने का पर्याप्त अवसर दिया जाए और यदि कोई दस्तावेज उसके संज्ञान में अपील योजित करने के बाद आया है तो उन दस्तावेजों के आधार पर संशोधन करना उचित होगा और इस मामले के सम्यक और प्रभावी निस्तारण में भी लाभ होगा. उपरोक्त आधार पर मेरे मत में प्रार्थना पत्र स्वीकार करने योग्य है." न्यायालय ने यह भी कहा, ''प्रत्यर्थी यदि कोई अपना अतिरिक्त उत्तर दाखिल करना चाहता है तो दाखिल कर सकता है.''

अख्तर कहते हैं कि यूं तो रेलवे के नोटिस खुद ही कानून का उल्लंघन हैं. रेलवे के अपने नोटिस में अपीलार्थी की कब्जाई जमीन का खसरा नंबर साफ तौर पर दर्ज न होने के चलते खुद नोटिस अवैध हो जाता है. अख्तर ने यह भी दावा किया कि रेलवे के पास कोई वैध दस्तावेज नहीं हैं इसी वजह से वह सुप्रीम कोर्ट से वक्त मांग रहा है. 

इस बारे में अख्तर एक और फर्जीवाड़े का जिक्र करते हैं. वह बताते हैं कि खेवट का जिक्र आना भी एक तरह से धोखाधड़ी ही है. खेवट 1860 में अंग्रेजोे ने शुरू की थी. खेवट यह दशार्ती थी कि किसी भूस्वामी के पास कितनी जमीन है. यह मालिकाने का सबूत होती थी. लेकिन 1950 की शुरुआत में उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम, संक्षेप में यूपीजेड, लागू होने पर खेवट खत्म हो गई और उसकी जगह खसरा और खतौनी ने ले ली. अख्तर बताते हैं कि लेकिन यहां अपने फर्जीवाड़े को सही साबित करने के लिए रेलवे खेवट लेकर आया. जबकि खेवट तो खत्म हो गई थी. अख्तर के मुताबिक रेलवे खेवट इसलिए लाया कि यह साबित कर सके कि जमीन 1960 से पहले से उसके पास है. जबकि यूपीजेड के लागू होने के बाद जिस जमीन पर जो लोग काबिज थे उन्हें भूमिधर अधिकार दे दिया गया था. अख्तर इसे मामले को उलझाए रखने की ही एक कोशिश बताते हैं.  

अख्तर इन मामलों का सारा खर्चा खुद उठा रहे हैं. अख्तर इसे महज एक राजनीतिक एजेंडा मानते हैं. उन्होंने कहा कि यहां लोग ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं, छोटा-मोटा काम करने वाले लोग हैं, मुस्लिम हैं, इस क्षेत्र से कांग्रेस जीतती आई है. ''वोट कम करना निशाना है.''

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सिनेमाई अंदाज से बदल रहे दृश्यों में 7 अगस्त को एक नया मोड़ आया. सर्वोच्च अदालत में रेलवे ने 395 पेज और उत्तराखंड राज्य सरकार ने 110 पेज का अपना जवाब पेश किया. पत्रकार सरताज आलम तब अदालत में मौजूद थे. आलम बताते हैं कि जिस जमीन पर अतिक्रमण का शोर मचाया जा रहा था अब अपने जवाब में राज्य सरकार ने उसके बारे में कहा है कि ''तकरीबन 13.484 हेक्टेयर जमीन राज्य सरकार की है''. हालांकि राज्य की पिछली बीजेपी सरकार ने उच्च न्यायालय में उस जमीन पर अपने हक को छोड़ दिया था जिस पर 2013-14 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने अपना दावा किया था.

सर्वोच्च न्यायालय में ​दाखिल जवाब में राज्य सरकार कहती है कि राज्य के राजस्व रिकॉर्डों के मुताबिक ''30.040 हेक्टेयर जमीन सवालों में है जिसमें बनभूलपुरा के अतिक्रमणकारी काबिज हैं.... 16.556 हेक्टेयर जमीन रेलवे के नाम ​दर्ज है 13.484 हेक्टेयर जमीन नजूल भूमि दर्ज है, हालांकि रेलवे इस पर अपना दावा करता रहा है.''

जवाब में आगे कहा गया है कि रेलवे को विकास कामों के लिए जमीन की जरूरत थी. उत्तराखंड हाई कोर्ट में इस 13.484 हेक्टेयर जमीन पर रेलवे और राज्य सरकार के बीच मालिकाने का विवाद था. ''माननीय उच्च न्यायालय ने रेलवे के पक्ष में राय रखी. राज्य सरकार ने 20.12.2022 के उच्च न्यायालय के इस आपेक्षित फैसले को चुनौती न देना बेहतर चुना... क्योंकि सिद्धांतत: राज्य व्यापक नागरिक हितों को देखते हुए उस जमीन को, जो नजूल भूमि के रूप में दर्ज है, रेलवे को देने को राजी थी.'' जवाब में आगे कहा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय में मामला लंबित होने के चलते यह कार्रवाई नहीं हो पाई. आलम बतातें हैं कि राज्य सरकार ने कहा है कि रेलवे ने विकास कार्यों के लिए जमीन पाने हेतु बीते जून और जुलाई में राज्य सरकार को दो मांग पत्र भेजे, सरकार जमीन देने को राजी है. रेलवे के दायर जवाब के बारे में आलम कहते हैं, ''अब रेलवे किस तरह जमीन पर दावा कर रहा है? रेलवे का कहना है कि हमने 1959 में एक एक भूमि प्लान देकर यह जगह मांगी ​थी. राजस्व ने उसे मंजूर तो कर लिया ​लेकिन जमीन का अधिग्रहण नहीं हो पाया.'' आलम कहते हैं इससे तो राज्य सरकार की जमीन भी भूमि प्लान की जद में आ गई. रेलवे ने माना कि उसने 2017 की सर्वे रिपोर्ट, भूमि का नक्शा और प्लान अपने दावे के पक्ष में ठोस सबूत बतौर पेश किए हैं.

इधर एडवो​केट जावेद अख्तर को एक आरटीआई के जवाब में वह नोटिफिकेशन मिला है जिसे भूमि प्लान के दम पर बेदखली की तोहमत मोल लेने पर भी अब तक रेलवे ने किसी अदालत में पेश नहीं किया. अख्तर बताते हैं कि सूचना अधिकार के तहत उन्होंने रेलवे से हल्द्वानी में अधिग्रहित की गई भूमि का गजट नोटिफिकेशन मांगा था. इसका जवाब उन्हें 2 मई 2023 को रेलवे अपर मंडल इज्जतनगर से मिला. ''इसके हिसाब से, 24 अक्टूबर 1959 के उत्तर प्रदेश गजट के मुताबिक हल्द्वानी खास की 0.199 एकड़ जमीन का रेलवे के लिए अधिग्रणहण किया गया था. इसमें किसी खसरा नंबर का जिक्र नहीं किया गया है. इससे पहले एक गजट नो​टिफिकेशन 25 जनवरी 1926 का है. इसमें रेलवे ने हल्द्वानी खास की 16.568 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया है. सारा जोड़ कर रेलवे ने 16.767 एकड़ जमीन का अब तक अधिग्रहण किया है.'' अख्तर कहते हैं, ''आज रेलवे के नाम पर 29 एकड़ जमीन 1960 से पहले से दर्ज है और ये भूमि रेलवे ने छोड़ दी और अब आबादी में कहते हैं यह हमारी जमीन है. कोई भी खसरा नंबर इनके गजट नोटिफिकेशन में नहीं है.'' अख्तर बताते हैं कि यह बात रेलवे कोर्ट से छिपाता रहा है. ''जिला अदालत में भी छिपाई, उच्च न्यायालय में भी छिपाई और सर्वोच्च न्यायालय में भी छिपाई.'' अख्तर इंतजार के लहजे में कहते हैं, ''जब रेलवे के वकील साहब अदालत में अपनी जिरह करेंगे हम तब ये कोर्ट में पेश करेंगे और बताएंगे कि अदालत को गुमराह किया जा रहा है.'' 

हल्द्वानी जिला अदालत में इस मामले पर जिरह सुनने की उत्सुकता में हम 23 दिसंबर 2022 को अख्तर के संशोधन मेमो की मंजूरी के बाद लगी कई तारीखों पर अदालत पहुंचे. लेकिन 11 सितंबर की पिछली तारीख पर भी रेलवे की ओर से वकील साहब की अनुपस्थिति के चलते आगे की कोई तारीख लग गई.

सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले पर दो जजों की बेंच सुनवाई कर रही है. पहले इस मामले पर जज संजय किशन कॉल और अभय ओका की बेंच सुनवाई कर रही थी. अभय ओका के चले जाने के बाद जज सुधांशू धूलिया को बेंच में शामिल किया गया. चूंकि धूलिया 2007 में इस मामले में उत्तराखंड उच्च न्यायालय में वकील रहे इस वजह से वह बेंच से लग हो गए. 7 अगस्त को सर्वोच्च अदालत ने 14 अगस्त की तारीख तय की थी लेकिन जज नहीं मिल पाने के चलते सुनवाई नहीं हो पाई. तब से अब तक कोई नई तारीख नहीं मिल पाई है. फिलहाल हल्द्वानी बनभूलपुरा के 4365 परिवारों की तकदीर राजनीति, कारपोरे​ट हित और अदालत में एक अदद जज की तलाश के बीच झूल रही है.