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18 जुलाई को द वायर सहित अन्य मीडिया संस्थानों ने खुलासा किया कि दुनिया की कई सरकारें इजरायली कंपनी एनएसओ द्वारा विकसित स्फॉटवेयर पेगासस के जरिए अपने-अपने नागरिकों की जासूसी करवा रही हैं. संभावित लोगों की सूची 50 हजार से अधिक है. भारत के 300 से ज्यादा लोगों को संभावित जासूसी का शिकार बताया गया है जिनमें 40 से अधिक पत्रकार, जज, विपक्ष के नेता, केंद्रीय और राज्य के मंत्री एवं सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं.
इस मामले पर कारवां के विष्णु शर्मा ने पॉलिटिकल एडिटर हरतोष सिंह से बल से बातचीत की. बातचीत का वीडियो आप नीचे लिंक पर क्लिक कर देख सकते हैं.
विष्णु शर्मा : जिस तरह के लोगों की और जैसे लोगों की जासूसी कराई गई है, उसमें क्या पैटर्न नजर आ रहा है?
हरतोष सिंह बल : देखिए, अब तक लिस्ट काफी बाहर आ चुकी है, तो पैटर्न तो साफ है कि इनमें ऐसे पत्रकार हैं जिनकी पत्रकारिता से सरकार को आपत्ति है. द वायर के सिद्धार्थ वरदराजन हैं, एमके वेणू हैं या फिर वे लोग जो द वायर के बाहर से हैं या वायर से जुड़े हुए हैं. परंजाय हैं जिन्होंने अडानी और अंबानी पर इतना काम किया है. शुशांत हैं जिन्होंने रफाल पर काम किया हुआ है. रोहिणी सिंह ने अमित शाह पर काम किया हुआ है. पत्रकारों की लिस्ट में इनके नाम हैं. और अगर पत्रकारों से दूर जाएं तो हम इलैक्शन कमिशन की बात करते हैं. इस पर हम बाद में चर्चा करेंगे कि लिस्ट में कुछ लोगों को टारगेट किया गया था, कुछ लोगों के फोन को चैक करके यह पक्का कर लिया गया है कि उनके फोन प्रभावित थे और निगरानी में थे. ये चार-पांच लोगों के नाम जो मैंने लिए इनका फोन चैक होने के बाद पता चल गया कि इनके फोन निगरानी में थे. बाकि लोग ऐसे थे जो शिकार हुए थे, लेकिन उनके फोनों की फॉरेंसिक जांच अभी नहीं हुई है पर निगरानी किए जाने की सूची में वह जरूर थे.
उनमें से आप देखिए एक तो हैं चुनाव आयुक्त अशोक लवासा. यह बात साफ हो गई थी चुनाव में सरकार कुछ चीजें करना चाहती थी जिसके खिलाफ अशोक लवासा ने स्टेंड लिया था. उसके बाद उनके और उनके परिवार के ऊपर अलग तरह के छापे भी पड़े. ये छापे सरकार के वित्तीय प्राधिकरणों की तरफ से हैं. उसके बाद चीफ जस्टिस गोगोई के खिलाफ जिस महिला ने, जो उनके चैंबर में काम कर रही थी, यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया, उसका फोन भी सर्विलांस में रखा गया. तो जिस समय उन्होंने गोगोई पर आरोप लगाया उस समय उनके परिवार के 9 सदस्यों की निगरानी की गई, उनका नाम सर्विलांस लिस्ट में है. सर्विलांस लिस्ट से हमें यह पता चल जाता है कि लिस्ट में नाम किस तारीख को डाला गया था. तो उससे हम यह भी मिला सकते हैं कि उस समय क्या हो रहा था. अशोक लवासा का नाम उस वक्त आता है जहां वह सरकार के खिलाफ कुछ बोल रहे हैं. रोहिणी सिंह का नाम तब आता है जब अमित शाह के खिलाफ स्टोरी छप रही है. शुशांत का पहली बार नाम तब आता है जब रफाल को लेकर सिलसिले सामने आए हैं. तो इससे कड़ी जुड़ कर बनती है कि सरकार के खिलाफ या तो कोई कार्रवाई हो रही हो या कुछ रिपोर्ट आ रही हो जिससे सरकार को दिक्कत हो, तो उस समय नाम सर्विलांस लिस्ट पर आते हैं.
विष्णु : हम देख रहे हैं कि 2014 के बाद से लोकतांत्रिक सूचकांक हो या प्रेस की स्वतंत्रता सूचकांक, भारत लगातार गिरा है. यह जो खुलासा हुआ है इस खुलासे से हमारे लोकतंत्र की क्रैडिबिलीटी पर क्या असर पड़ेगा?
हरतोष सिंह बल : देखिए, असर पड़ना चाहिए पर लोकतंत्र पर असर पड़ने का जो जरिया होता है वह लोगों का विचार होता है, लोगों का वोट होता है. हमारे संवैधानिक निकाय वैसे ही कमजोर हो चुके हैं. आप पीछे जाकर वाटरगेट का उदाहरण ले लीजिए. 2014 से पहले राडिया टेप की बात करें तो वह एक प्राधिकृत टैपिंग या कानूनी टैपिंग थी जिसमें टैपिंग के रिकॉर्ड सार्वजनिक हुए और वह एक फोन की टैपिंग थी. यहां कम से कम 40-50 तो वैरिफाइड हैं. तो इसका पैमाना ज्यादा बड़ा है. उस समय आप देख लीजिए राडिया टेप के आने के बाद 2जी घोटाला, कॉमनवैल्थ (राष्ट्रमंडल खेल) घोटाला सामने आते हैं और मनमोहन सिंह की 2009 की सरकार का पतन शुरू हो जाता है. तब पब्लिक रिएक्शन (जन सक्रियता) बहुत तेज था. आज जबकि यह केस उससे भी ज्यादा गंभीर है क्योंकि आप याद रखिए राडिया में जो टैपिंग थी वह ईडी की टैपिंग थी. यहां पर तो यह गैर प्राधिकृत और बिना किसी जवाबदेही की टैपिंग है जो न तो संसद के दायरे में आती है, न सरकार के दायरे में आती है और यहां तक कि यह भी तय नहीं हो रहा कि किन-किन एजेंसियों ने मिल कर यह सब किया है. मैं साफ और खुलकर बोल रहा हूं कि यह सरकार के सिवा, भारतीय सरकार के सिवा कोई और नहीं कर सकता.
जो लोग हैं, जिनके नाम आ रहे हैं उससे साफ हो जाता है कि सरकार की क्या नीयत थी. दूसरा, यह सॉफ्टवेयर सिर्फ सरकारों को बेचा जाता है. तो अगर कोई बाहर की सरकार होती तो वह राहुल गांधी पर निगरानी रखती या नरेन्द्र मोदी पर निगरानी रखती. तो इन सब चीजों को अगर आप सोच के निष्कर्ष निकालें तो वह यही हो सकता है कि भारत सरकार के विभागों और एजेंसियों के जरिए यह सर्विलांस हो रहा था. बिना अनुमति राहुल गांधी जैसे राजनीतिक विरोधियों का सर्विलांस हो रहा था. तो अब इसमें जो एक्शन होना चाहिए वह संसदीय समिति की जांच है. इसको लेकर 2019 से जो जांच चल रही है उसका अभी तक कोई नतीजा नहीं आया है. बाहर के देशों में ऐसी जांचों के नतीजे 3 या 6 महीनों में एक्शनेबल पॉइंटस् के साथ आ जाते हैं. शशि थरूर जो खुद संसद और विपक्ष के नेता हैं, कह रहे हैं कि जेपीसी की जरूरत नहीं हैं. इनक्वाइरी कमेटी चल रही है, पर कम से कम यह तो साफ हो जाना चाहिए कि इनक्वाइरी जो चल रही है कब तक किसी नतीजे पर पहुंचेगी और जिन सबूतों की वह जांच कर रही है कब तक सामने आएंगे और ऐसी जो चीजे हैं, वे सिर्फ सार्वजनिक पारदर्शिता के साथ हो सकती हैं यदि लोगों को संतोष दिलाना है. संभावना यह है कि किसी तरह की न्यायिक जांच बैठाई जाए. लेकिन उस पर अभी तक कोई बात नहीं उठी है और न ही लगता है कि सरकार कोई कदम उठाएगी.
विष्णु : शशि थरूर की अध्क्षता में जेपीसा बनी है उससे क्या उम्मीद रखते हैं. क्या ऐसी कमेटियों से कभी सच बाहर आया है और क्या इनके प्रति सरकार की जवाबदेही होती है?
हरतोष सिंह बल : देखिए, आप दोनों चीजें देख लीजिए. न्यायिक जांच या ऐसी जेपीसी का इतिहास ऐसा नहीं है इस देश में कि सरकार की कार्रवाई पर जवाबदेहिता हो. आप इसकी तुलना डोनाल्ड ट्रंप के समय पर जो जांच थी उससे करिए. वह समयबद्ध थी. तुलना करिए कि वहां की समीतियों का कितना जल्दी असर होता है और कितनी जल्दी एक्शन होता है और किस स्वतंत्रता से अमेरिका में ये काम करती हैं. यहां पर देखिए जो कमिशन और इनक्वाइरी बैठती है उनको देख कर लगता है कि ये सच्चाई को उजागर नहीं, सच्चाई को छुपाने के लिए बनाई जाती हैं. सन 1984 (सिख कत्लेआम) के बारे में मैंने कारवां में लिखा हुआ है कि आज तक 11 जांचें बैठीं. हर एक जांच कमेटी कुछ सबूत जमा करती है लेकिन उसका निष्कर्ष उसके ही सबूतों के खिलाफ जाता है और कार्रवाई कुछ भी नहीं होती. 1984 से लेकर आज 36 साल हो गए हैं अब तक कुछ भी नहीं हुआ है. यदि हम वित्तीय घपलों की बात करें या गवर्नमेंट ओवररीच की बात करें तो उनमें भी कोई उदाहरण नहीं है कार्रवाई का. तो दिक्कत यही है हमारी प्रक्रियाएं, हिसाब-किताब और संस्थाएं बहुत कमजोर हैं.
विष्णु : मैं यहां कर्नाटक की तरफ आपका ध्यान खींचना चाहता हूं. कर्नाटक के बारे में हम सुन रहे हैं कि वहां की जो सरकार (जद-कांग्रेस) गिरी उसमें पेगासस सॉफ्टवेयर का हाथ होने की आशंकाए जताई जा रही हैं. अगर यह सच है तो फिर लोकतंत्र के क्या मायने रह जाएंगे. जनता चयन कुछ करती है सरकारें कुछ और बनेंगी और यह पैर्टन सिर्फ कर्नाटक का नहीं है हम मध्य प्रदेश में देख रहे हैं. तमाम जगहों पर लगातार देख रहे हैं. तो जिस कुचक्र में हम फंस गए हैं उससे बाहर कैसे आएंगे?
हरतोष सिंह बल : बाहर आने की बात दूर की है. कर्नाटक में जब सरकार बदल रही है आप सर्विलांस बैठा दे रहे हैं. चुनावी चंदे पर आपका नियंत्रण है. तो सवाल यह उठाता है कि किस हद तक हम कह सकते है कि हमारी चुनाव प्रणाली आज एक साफ-सुथरी प्रणाली है. वह एक लोडेड डैक बन गया है जहां पर फायदा सरकार को है, बीजेपी को है. चंदे की तरह, सूचना-इनफोरमेशन की तरह. आप विपक्ष के नेताओं पर निगरानी रख रहे हैं कि उनकी नीति क्या होगी, किस तरह से चुनाव लडेंगे, किस चीज पर फोकस रखेंगे. आपको पता है कि निर्वाचन आयोग की क्या योजना है. अब आप इन सारी जानकारियों को एक साथ मिला कर देखिए. इस तरह से देखें तो हमारे लोकतांत्रिक ढांचे पर ही सवाल उठ गया है. तभी मैं कहता हूं यह मामला इतना गंभीर है कि अगर हमारे लोकतंत्र की संवैधानिक संस्थाएं किसी हद तक सक्रिय होतीं तो इस सरकार को गिर जाना चाहिए था.
आज हमको यह भी देखना पड़ेगा कि लोगों के बीच में हालात ऐसे बने हुए हैं, एक ऐसा पैटर्न मीडिया के नियंत्रण से, सोशल मीडिया से प्रोपोगैंडा से चलाया जा रहा है कि लोग नागरिक की तरह नहीं सोच रहे हैं, वे फुटबाल फैन की तरह सोच रहे हैं कि मोदी तो हमारी टीम को लीडर है और दूसरी जो टीम बोल रही है वो गलत है, हमारी टीम जो बोल रही है वो सच है. यह एक राजनीतिक जमूरियत में असंभव स्थिति है. लोकतंत्र में लोगों को साक्ष्यों को परख कर सरकार पर निगरानी रखनी होती है और सवाल पूछने होते हैं. लेकिन आज हमारे लोकतंत्र में ऐसा नहीं हो रहा है.
विष्णु : अभी हम समाचार पढ़ रहे थे कि इजरायल अपने यहां से सॉफटवेयर बेचे जाने के संबंध में और इसके कोलैट्रल डैमेज के संबंध में जांच करने जा रहा है. ऐसा ही फ्रांस के बारे में सुन रहे हैं. इन जांचों से अगर भारत सरकार के कुछ हिस्से या एजेंसियों का नाम आता है या सरकार का नाम आता है तो आपको नहीं लगता है कि यह देश कि बहुत बड़ी बदनामी होगी?
हरतोष सिंह बल : बदनामी से बाहर खड़ी सरकार क्या बदनामी से डरती होगी? पर यह जरूर है कि फ्रांस में जो जांच होती है उसके क्या नतीजे निकलते हैं क्योंकि एक और चीज जो हमने ऊपर नहीं कही कि अंबानी से लेकर फ्रांस में राफेल से जुड़े हुए कई कॉन्ट्रैक्टरों के फोन भी सर्विलांस हो रहे थे. तो अगर फ्रांस की निगरानी से ऐसी चीजों का सबूत सामने आता है तब इस सरकार पर झटका जरूर पड़ेगा. जहां तक इजरायल की जांच की बात है मुझे उस पर ज्यादा विश्वास नहीं है. इजरायल में ऐसा नहीं हो सकता कि एनएसओ बिना सरकारी तालमेल के काम कर रही हो, वहां पर जो राष्ट्रीय हित और कारोबारी हित काफी करीब से जुड़ा हुआ है. वहां पर नेतन्याहू ने सार्वजनिक रूप से कहा है साइबर सिक्योरिटी के मामले में उनकी कारोबारी फर्में सरकार की नीतियों को आगे बढ़ाने में काम आती हैं. यह देखिए कि पेगासस के साथ जो डील हुई है, कब हुई हैं. यह आप वेरिफाई कर लें कि जो नेता जिन्होंने पेगासस इस्तेमाल किया है उनका कूटनीतिक संपर्क इजरायल के शीर्ष नेता से होता है उसी के कुछ दिनों बाद ही यह उपलब्ध हो जाता है. ऐसे में उस देश की जांच से हमें कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए. पर हां, फ्रांस से जो निकलता है वह जरूरी होगा.
विष्णु : हम देख रहे थे कि पिछले दिनों से हिंदी अखबार दैनिक भास्कर ने कोविड-19 पर लगातार आलोचनात्मक खबरें छापीं. हालांकि उसका पूराना रिकॉर्ड ऐसा नहीं है. फिर भी कहना होगा कि उसका कोरोना को लेकर काफी अच्छा कवरेज रहा है, काफी अच्छी खबरें छाप रहा था और हिंदी अखबारों में वही एक अखबार था जिसने पेगासस के मामले को प्रमुखता के साथ छापा. इसके बाद उनके दफ्कर पर आईटी की रेड पड़ जाती है. तो यह क्या अब पूरी तरह से मीडिया को दबाया जाएगा?
हरतोष सिंह बल : देखिए सरकार मीडिया का असर समझती है. उसमें भी हिंदी मास मीडिया का असर वह अच्छे से समझती है और आज तक वह इस विश्वास पर चल रही थी कि हिंदी मास मीडियी की पूरी लगाम उसके हाथों में है. मास मीडिया एक स्वतंत्र मीडिया नहीं रह गया है. सरकार के लिए वह अपनी बातें कहने का, विपक्ष के खिलाफ या अन्य लोगों के खिलाफ नीतियाें को भी न्यायोचित ठहराने का एक सरकारी जरिया बन गया था. दैनिक भास्कर ने कोविड की अच्छी रिपोर्टाज की है. इसकी हमें दाद देनी चाहिए. जैसे आपने बोला पूर्व में उनका ऐसा रिकॉर्ड नहीं है कि वे सरकार के सामने डट कर बोलते हैं. लेकिन इसी से आप समझ सकते हैं कि कोई मीडिया हाउस थोड़ी भी कोशिश करे तो सरकार को सहन नहीं होता. और कोविड में उन्होंने क्या कोशिश की है? यह कोई ऐसे बात तो नहीं है जो मीडिया को रिपोर्ट नहीं करनी चाहिए. बस यही न कि कितने लोग मरे हैं, शवों का निपटान किस तरह से किया गया. कोविड की सच्चाई क्या है. अगर सरकार को ऐसी चीजों से आपत्ति है और ऐसी चीजों की रिपोर्टाज से आपत्ति है तो यह बात तो साफ है कि इस सरकार को सच्चाई से आपत्ति है और वह सभी को यही संदेश दे रही है कि स्वतंत्र रिपोर्ताज की जो कोई भी कोशिश करेगा तो उसका भी हश्र यही होगा.
विष्णु : आप एक लंबे समय से पत्रकारिता में हैं. आपने बहुत देखा-लिखा है तो आपने कभी ऐसा सुना था कि सरकार या सरकारी एजेंसियां इतनी बेशर्मी से कानून की धज्जियां उड़ाते हुए लोगों की जासूसी कर रही हों. या अगर ऐसा हुआ है तो कभी सरकार को कठघरे में खड़ा किया गया है?
हरतोष सिंह बल : इस स्तर पर कभी नहीं हुई. यह कहना कि 2014 से पहले सब ठीक था और इस देश में एजेंसियां सर्विलांस नहीं करती थीं या संवैधानिक निकाय ठीक काम करते थे, एकदम गलत होगा. उस पर मैंने कई बार लिखा हुआ है. ढांचे खोखले जरूर थे पर फाइनल धक्का जो दिया जा रहा है, संगठित केंद्रीय एजेंसियों द्वारा और जिस स्केल पर दिया जा रहा है उसकी पहले से कोई तुलना नहीं हो सकती. इसमें देखिए दूसरी बात यह है कि एक जो आम नागरिक, वोटर जो है, आज वह बीजेपी का फुटबॉल फैन बन गया है. जो हो रहा है उसकी जिम्मेदारी नागरिकों को भी लेनी चाहिए. मैंने आपको यह बार-बार उदाहरण दिए हैं कि जब मैं ओपन मैगजीन में था, तब राडिया टेप्स छपे तो सरकार ने हमें बहुत कुछ कहा पर देशद्रोही नहीं कहा. न ही जनता ने मुड़कर यह पूछा कि आप यह स्टोरी क्यों कर रहे हैं. जब लोया पर रिपोर्ट कारवां में छपी या हाल में ले लीजिए नवप्रीत केस में, फार्म प्रोटेस्ट में रिपोर्टिंग हुई है तो हमारे एडिटर विनोद जोस और अनंत और परेश जी के ऊपर राजद्रोह के मामले दर्ज कर दिए गए. आज आपको एंटी-नेशनल कह दिया जाता है. सवाल उठाने पर वे मुझे खालिस्तानी कह देंगे, विनोद को क्रिश्चियन कह देंगे. लोग मुड़ कर यह नहीं पूछते कि रिपोर्ट में कितना दम है, सच्चाई कितनी है, साक्ष्य क्या हैं लेकिन यह पूछते हैं आप लोगों ने फंला रिपोर्ट क्यों की. सवाल यह है कि अगर हम ये रिपोर्ट नहीं करेंगे तो जर्नलिज्म का मायना ही क्या रह जाता है.
विष्णु : दिसंबर 2019 में और मार्च 2020 में कारवां में ही दो रिपोर्ट प्रकाशित हुई थीं कि भीमा कारेगांव से जुड़े कार्यकर्ताओं के डिजिटल एविडेंस के साथ छेड़छाड़ हुई है. उसके बाद अब यही पैटर्न हम एक बड़े रूप में देख रहे हैं. आपको लगता है कि उसमें अगर वक्त रहते न्यायपालिका ने या फिर अन्य निकायों ने दखल दिया होता तो सरकार को या एजेंसियों को इतना साहस नहीं मिलता कि वे जजों की, नौकरशाहों की, पत्रकारों की इस बेशर्मी की हद तक जाकर जासूसी कर सकतीं.
हरतोष सिंह बल : आपने भीमा कोरेगांव की जो बात उठाई है वह बहुत जरूरी और अहम सवाल है. एक तो पहले सोचिए कि भीमा कोरेगांव को एक टैस्ट केस बना दिया है. आदिवासी और दलितों के मुद्दों से सरकार को बहुत ज्यादा डर है. यह आरएसएस (संघ) के एजेंडे को खोखला करने का एक सबसे बड़ा खतरा है इनके लिए और इसको दबाना इनके लिए बहुत जरूरी है, इतना जरूरी कि आपने लोगों के खिलाफ साक्ष्य गढ़ कर उनके कंप्यूटर में प्लांट किया. हमारे इन हाउस पत्रकार और इंजीनीयर ने इसे पकड़ लिया था कि साक्ष्य किस तरह से प्लांट किया गया है. हम लोगों ने रिपोर्ट की थी. उसके बाद बाहर विश्लेषण हुआ है जिसने उसी चीज को पुष्ट किया है और कहा है कि सरकार ने किस तरह से यह सब किया है. इसके बावजूद किसी चीज का असर अभी नहीं पड़ा है. आप देख रहे हैं कि लोग जेलों में हैं, जेल में फादर स्टेन स्वामी की मौत हुई है. ये लोग जिन्होंने न्याय व्यवस्था के लिए, सुधा भार्गवा और आनंद तेलतुमडे ने अकादमिक सशक्तिकरण पर काम किया है. आप उनको गढ़े हुए सबूतों से शिकार बना रहे हैं. बात यह नहीं है कि चार या पांच साल के बाद ये छूट जाएंगे. लेकिन यह जो प्रक्रिया की सजा है, छह साल सजा या जिनकी मौत हुई है यह फिर से वही संदेश है कि आप काम गलत करें या न करें हम सबूत पेश कर सकते हैं कि आप गलत काम कर रहे थे. यही कड़ी आपको दिखती है जब दिल्ली दंगे हुए. उन मामलों पर आज कोर्ट पुलिस को फटकार लगा रही है कि अपने पीडितों को ही आरोपी बना दिया है. लोगों को साल भर से जेल में बंद रखा हुआ है. क्या जो पुलिस दंगो में शामिल थी, जो नेता दंगों में शामिल थे वे हमें न्याय दिलाएंगे? वे क्या खाक न्याय दिलाएंगे. तो भीमा कोरेगांव से जो सबक सरकार ने सीखे हैं वे आज दिल्ली के मामलों में लागू हो रहे हैं. धीरे-धीरे इसका असर हमारी सभी संस्थाओं, लोकतंत्र के पूरे संवैधानिक ढांचे पर पड़ेगा.
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