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कृषि प्रधान राज्य हरियाणा में 21 अक्टूबर को चौदहवीं विधानसभा के चुनाव हुए. शाम 6 बजे तक राज्य में 61.92 प्रतिशत मतदान दर्ज हुआ. 2014 के विधान सभा चुनाव की तुलना में मत प्रतिशन में भारी गिरावट आई. पिछले विधान सभा चुनावों में 76.54 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था. राज्य के सबसे दक्षिणी जिले नूंह की नूंह तहसील के 26 वर्षीय मुंफैद के अनुसार, ये चुनाव "सिर्फ एक नौटंकी" है. जब मैंने उनसे पूछा कि ऐसा क्यों है तो उसने कहा, "सत्तारूढ़ मनोहर लाल खट्टर के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने नूंह के नौजवानों को न तो रोजगार दिया है और न ही हमारे लिए उनके पास कोई ठोस योजना है.” पिछले एक हफ्ते में, मैंने राज्य के तीन दक्षिणी जिलों- रेवाड़ी, महेंद्रगढ़ और मेवात- की यात्रा की. मेवात का नाम बदलकर तीन साल पहले नूंह कर दिया गया था. चुनावों की भागदौड़ के बीच पूरे क्षेत्र में रोजगार में गिरावट एक हकीकत है.
मुंफैद ने कहा कि नूंह में बेरोजगारी इतनी ज्यादा है कि "यहां दिहाड़ी मजदूरों के लिए भी काम नहीं है." मुंफैद के पास स्वास्थ्य कार्यकर्ता की वोकेशनल डिग्री है लेकिन वह ड्राइवरी करता है क्योंकि उसे नौकरी नहीं मिली. "वैसे भी नौकरियां कहां हैं?" उसने कई सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन किया था, लेकिन वह कहता है, "अधिकारी केवल उन लोगों को प्राथमिकता देते हैं जो मोटी रकम देकर सीट खरीद सकते हैं."
10 लाख 89 हजार की आबादी वाले नूंह की साक्षरता दर 54.08 प्रतिशत है, जो हरियाणा के सभी जिलों में सबसे कम है. लेकिन पढ़े-लिखे इन थोड़े से युवाओं के लिए भी नौकरियां ढूंढना मुश्किल है. वर्तमान में राज्य बेरोजगारी संकट का सामना कर रहा है. बिजनेस-इंटेलिजेंस फर्म सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की एक रिपोर्ट के मुताबिक मई और अगस्त 2019 के बीच राज्य में बेरोजगारी दर 21.38 प्रतिशत के साथ देश में दूसरे स्थान पर थी. नूंह के 30 वर्षीय दुकानदार मंसूर अली ने मुझे बताया कि "नूंह के नौजवानों को यहां जो सबसे अच्छी नौकरी मिल पाती है वह या तो ड्राइवर की है या दुकानों में कंप्यूटर ऑपरेटर की. लेकिन आमदनी बहुत कम है." अली ने राज्य की राजधानी चंडीगढ़ के एक कॉलेज से विज्ञान वर्ग में ग्रेजुएशन किया है. लेकिन इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकान खोलने के लिए वह वापस आ गए "ताकि मैं इस उपेक्षित क्षेत्र में अपना कारोबार बढ़ा सकूं और यहां कुछ नौकरियां पैदा कर सकूं."
रोजगार की कमी इस क्षेत्र में कृषि की मौसमी प्रकृति और भयानक जल संकट से जुड़ी हुई है. इस क्षेत्र में मुख्य रूप से सरसों की खेती होती है क्योंकि यह फसल जल्दी तैयार हो जाती है इसलिए यह साल भर काम नहीं देती. नूंह के सामाजिक कार्यकर्ता नासिर हुसैन के अनुसार, यह क्षेत्र मुख्य रूप से मौसमी बारिश पर निर्भर है और पानी की पर्याप्त आपूर्ति की कमी साल-दर-साल खेती में बाधा डालती है. उन्होंने मुझे बताया कि इसके चलते जिले के अधिकांश शिक्षित और अशिक्षित युवा राज्य के अन्य हिस्सों में जाने के लिए मजबूर हैं ताकि ड्राइवरी कर महीने में दो से तीन हजार रुपए की मामूली कमाई कर सकें.
नासिर ने कहा, "मुझे लगता है कि नूंह इतना पिछड़ गया है कि यहां ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने आज तक ट्रेन नहीं देखी." उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि कैसे प्रशासन ने 2016 में ड्राइविंग लाइसेंस के नवीनीकरण के नियमों को बदल दिया, "ड्राइवरी करने वाले हमारे लगभग तीस हजार युवा इसलिए काम पर नहीं जा सके क्योंकि उनके लाइसेंस को नवीनीकृत नहीं किया जा सका." नासिर ने कहा कि इससे “रोजगार की संभावनाओं को बहुत बड़ा झटका लगा है."
इस क्षेत्र के पुरुष काम ढूंढने के लिए बाहर चले जाते हैं, लेकिन महिलाओं की स्थिति बहुत खराब है. 2011 की जनगणना के अनुसार, नूंह की महिला साक्षरता दर 36.6 प्रतिशत है लेकिन सामाजिक तौर पर शिक्षित महिलाओं के काम के लिए यात्रा करने की स्थिति सीमित है. नूंह जिला मुख्यालय से कुछ किलोमीटर दूर शाहपुर नंगली गांव है, जिसकी आबादी 4162 है. ग्रामीणों के अनुसार, आबिद हुसैन का परिवार गांव में सबसे "प्रगतिशील" था. आबिद एक गैर-लाभकारी संगठन, सहगल फाउंडेशन के लिए काम करते हैं. उनकी पत्नी, जिन्होंने नाम न छापने का अनुरोध किया, ने मुझे बताया कि उनकी बेटी आठवीं कक्षा में है. "मैं कभी स्कूल नहीं गई लेकिन यह अच्छा है कि मैंने एक ग्रेजुएट से शादी की है." उन्होंने बताया कि उनका घर "दमनकारी" नहीं था क्योंकि उनके पति शिक्षित थे. जब मैंने आबिद से पूछा कि क्या वह अपनी बेटी को गांव के बाहर काम करने या उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए भेजेंगे, तो उन्होंने कहा, “आप हरियाणा के सबसे पिछड़े इलाके नूंह में खड़े हैं. हमारी लड़की स्कूली शिक्षा पा रही है, लेकिन उसे एक्सपोजर नहीं मिला है.” उन्होंने “इतनी कम जागरूकता वाली लड़की को बाहर भेजना” सुरक्षित नहीं समझा. “वह 10 वीं कक्षा तक पढ़ाई करेगी.” उन्होंने मुझे अपनी बेटी से बात करने की इजाजत नहीं दी.
गांव की सभी शिक्षित महिलाओं में से केवल पांच ही कार्यरत थीं जबकि बाकी गृहिणी थीं. 21 वर्षीय शिवानी ने गुरुग्राम के एक कॉलेज से विज्ञान वर्ग में स्नातक की डिग्री हासिल की थी और वह गांव की सबसे योग्य महिला थी. उसने कहा, "मैं सरकारी नौकरी पाने के बाद ही यहां से बाहर काम करूंगी," उसने मुझे बताया, कि उसके माता-पिता ने उसे निजी क्षेत्र में नौकरी करने से मना कर दिया था. गांव में सामान्य सोच यह थी कि निजी क्षेत्र की नौकरियां टिकाऊ नहीं होती हैं और महिलाओं के लिए ठीक नहीं हैं.
रेवाड़ी में मेरी मुलाकात सामाजिक कार्यकर्ता रेखा सुरलिया से हुई उन्होंने मुझसे कहा कि पिछले कुछ दशकों से हरियाणा की युवतियों के लिए कुछ भी नहीं बदला है. "एक तरफ, मौजूदा सरकार ने 'बेटी बचाओ, बेटी पढाओ' अभियान और नारों को लोकप्रिय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है," लेकिन "इन बेटियों को सशक्त और शिक्षित करने के बाद, उन्होंने बेरोजगारी के अभिशाप से छुटकारा पाने के लिए कोई ध्यान नहीं दिया." सुरलिया ने सिरसा में चौधरी देवीलाल विश्वविद्यालय से पत्रकारिता और जनसंचार विभाग से पहली पीएचडी शोधार्थी रेखा रानी के मामले का जिक्र किया, जो अभी भी बेरोजगार हैं. उन्होंने मुझे बताया कि डॉक्टरेट की डिग्री वाली युवा महिलाएं हरियाणा सेवा चयन आयोग की ग्रुप डी की भर्तियों के जरिए से चपरासी के तौर पर नौकरी कर रही हैं, और यहां तक कि ये नौकरियां मिल पाना भी मुश्किल है.
सार्वजनिक क्षेत्र में नौकरियों की कमी क्षेत्र में मेरी यात्रा के दौरान एक ऐसा विषय था, जिस पर बार-बार बात होती रही. चुनावों के लिए, राज्य में सत्तारूढ़ बीजेपी सरकार ने दावा किया कि अक्टूबर 2014 से 2019 के बीच, राज्य ने 69000 से अधिक लोगों को काम पर रखा. इनमें से 18000 पद राज्य के 11 जिलों में ग्रुप डी के कर्मचारी पदों के लिए थे- इसमें चपरासी, माली, पशु परिचारक के पद शामिल हैं. हालांकि, सूचना का अधिकार कार्यकर्ता सुभाष के अनुसार, सरकार के दावे झूठे हैं. सुभाष हरियाणा सूचना अधिकार मंच के साथ काम करते हैं. इस मंच में कार्यकर्ता और सेवानिवृत्त सैनिक शामिल हैं, जिनका उद्देश्य आरटीआई अधिनियम के बारे में जागरूकता फैलाना है. उनके आरटीआई निष्कर्षों के अनुसार, राज्य ने 40000 लोगों को काम पर रखा है. सरकार द्वारा दावा किया गया आंकड़ा झूठा है.
नूंह शहर से लगभग 105 किलोमीटर की दूरी पर महेंद्रगढ़ जिला है. मैंने इसके नांगल चौधरी निर्वाचन क्षेत्र के गोड गांव की यात्रा की. यहां भी पुरुषों और महिलाओं के बीच बेरोजगारी और अवसरों की कमी का मामला सामने आया. मैंने गोड में चुनाव अभियानों के लिए आयोजित सभाओं के दौरान शायद ही किसी महिला को देखा. जो महिलाएं दिखाई भी देती हैं, वे कमर तक का घूंघट ओढ़े किनारे खड़ी रहती हैं. वहीं के एक निवासी कर्ण सिंह ने मुझे बताया कि “महेंद्रगढ़ में ग्रामीणों को आज तक शिक्षा का बहुत अधिक लाभ नहीं मिला है. हम में से ज्यादातर लोग कृषि पर निर्भर हैं और बाजरा, गेहूं और सरसों हमारी मुख्य फसलें हैं.” अन्य ग्रामीणों ने सिंह की बातों में हां में हां मिलाते हुए कहा कि उनके गांव और आसपास के शहरों में भी कोई काम नहीं है.
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम को ठीक से लागू न करना भी राज्य के ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारी का एक और महत्वपूर्ण कारण है. सार्वजनिक नीति पर केंद्रित थिंक-टैंक, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की एक रिपोर्ट के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2017-2018 में, राज्य सरकार ने प्रति व्यक्ति औसतन 33 दिनों का काम पैदा किया. इस मामले में राज्य देश भर में तीसरे स्थान पर था. अगले वित्तीय वर्ष के लिए जारी अंतरिम आंकड़े इसमें और भी अधिक गिरावट को दर्शाते हैं जो घट कर 28 दिन का काम प्रति व्यक्ति हो गया है. हालांकि, हरियाणा सरकार ने राज्य के विभिन्न मनरेगा यूनियनों की मांगों के साथ-साथ उनके विरोध प्रदर्शनों को भी नजरअंदाज किया है.
इसके अलावा, हिसार जिले के एक दलित-अधिकार कार्यकर्ता रजत कलसन ने कहा, "राज्य में सरकारी नौकरियों के लिए भर्ती में बहुत अधिक भाई-भतीजावाद किया जाता है." उन्होंने कहा कि राज्य अनुसूचित जाति के सदस्यों से भेदभाव करता है जिन्हें ज्यादातर "ग्रुप डी की भर्तियों के ही काबिल समझा जाता है.” वह राज्य के सभी राजनीतिक दलों के आलोचक थे. उन्होंने कहा कि “पिछले दो दशकों में किसी भी सरकार ने अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित सीटों पर बकाया भर्तियों को खत्म करने का काम नहीं किया है.” राज्य अनुसूचित जाति के सदस्यों के लिए सार्वजनिक क्षेत्र में कुल रिक्तियों का 20 प्रतिशत आरक्षित करने के लिए बाध्य है.
राज्य के पूरे दक्षिणी क्षेत्र में - नौकरी और उसका अभाव - बातचीत का सबसे आम विषय था. विडंबना यह है कि सत्तारूढ़ बीजेपी और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के अभियानों में बेरोजगारी का जिक्र नहीं किया गया है. बीजेपी का घोषणापत्र कृषि उपज के मूल्य निर्धारण, कौशल वृद्धि, उद्योगों को विशेष लाभ, कर्मचारियों के वेतन, पेंशन और महिला सशक्तिकरण के इर्द-गिर्द घूमता है. लेकिन पार्टी रोजगार सृजन और बेरोजगारी पर चुप थी. दूसरी ओर, कांग्रेस ने अपने अभियान में सभी बेरोजगार पोस्टग्रेजुएटों युवाओं को 10000 रुपये और बेरोजगार ग्रेजुएटों को 7000 रुपये का मासिक भत्ता देने का वादा किया- लेकिन रोजगार के अवसरों पैदा करने के बारे में कुछ नहीं कहा.
इसके उलट, इन चुनावों में छोटे राजनीतिक दलों ने बेरोजगारी को चुनाव प्रचार के प्रमुख मुद्दों में से एक बना दिया है. जननायक जनता पार्टी- जेजेपी के प्रमुख दुष्यंत चौटाला हरियाणा की राजनीति में पहली बार प्रवेश कर रहे हैं - उन्होंने राज्य में सार्वजनिक क्षेत्र की 75 प्रतिशत नौकरियों को स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित करने का वादा किया है. उन्होंने बार-बार बीजेपी पर यह आरोप लगाया कि सत्ताधारी सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में हरियाणा के लोगों की बजाय बाहरी लोगों को वरीयता देती है. स्वराज इंडिया, जिसने राज्य में चुनावी शुरुआत में कुल 90 निर्वाचन क्षेत्रों में से 28 सीटों पर चुनाव लड़ा ने हरियाणा में 20 लाख नौकरियां पैदा करने का वादा किया है. स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष योगेंद्र यादव कांग्रेस के नकद पैसे देने की योजना के बेहद आलोचक थे. “मैं इसे एक बुरी योजना के रूप में देखता हूं. मैं रोजगार पैदा करने में विश्वास करता हूं. हमने शिक्षा क्षेत्र में 73000, स्वास्थ्य केंद्रों में 22000 नौकरियां पैदा करने की योजना बनाई है.
मैंने नूंह में एक चाय की दुकान पर कुछ नौजवानों के समूह से बात की. जब मैंने उन्हें बताया कि मैं इस इलाके में रोजगार की कमी देख रहा हूं, तो उनमें से एक ने कहा, “हम इतने बेरोजगार हैं कि अपनी बेरोजगारी के बारे में बात करने के लिए हमारे पास समय ही समय है.”
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