इस साल हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की भारी भरकम जीत के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब अहमदाबाद में रोड शो करने पहुंचे तो उसी समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शहर में आयोजित अपने वार्षिक सम्मेलन में एमएस गोलवलकर के विवादास्पद विचारों में से एक में चोरी छिपे जान भरने की कोशिश कर रहा था. गोलवलकर का यह विवादास्पद विचार मुसलमानों से नागरिकता छीन लेने की मांग करता है.
12 मार्च को सम्मेलन में जारी अपनी वार्षिक रिपोर्ट में आरएसएस ने कहा "संविधान और धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में सांप्रदायिक उन्माद, रैलियां, प्रदर्शन, सामाजिक अनुशासन और परंपराओं का उल्लंघन, मामूली बातों पर हिंसा भड़काने और अवैध गतिविधियों जैसी कायरतापूर्ण गतिविधियों का सिलसिला बढ़ रहा है. ऐसा प्रतीत होता है कि सरकारी तंत्र में प्रवेश करने के लिए एक विशेष समुदाय द्वारा विस्तृत योजनाएं बनाई गईं हैं. लगता है कि इन सबके पीछे एक दीर्घकालीन लक्ष्य के साथ एक गहरी साजिश को अंजाम दिया जा रहा है. समाज की एकता, अखंडता और सद्भाव की खातिर संगठित शक्ति, जागृति और सक्रियता के साथ इस साजिश को नाकाम करने के लिए हर संभव प्रयास करना आवश्यक है."
यह साफ है कि उपरोक्त रिपोर्ट भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय यानी मुसलमानों के बारे में बात कर रही है और यह दावा कर कि इसकी "आड़" लेकर साजिश की जा रही है, "संविधान और धार्मिक स्वतंत्रता" पर सवाल खड़े करने का आधार तैयार कर रही है.
आरएसएस के नए सूत्र का मूल यह है कि जब मुसलमानों की बात आती है तो संविधान भारतीय नागरिकों के अधिकार ताक पर होते हैं. हालांकि रिपोर्ट में गोलवलकर के सूत्रीकरण के केंद्रीय तत्वों को लाग लपेट के साथ कहा गया है. गोलवलकर के विचारों की सबसे स्पष्ट और बिना सेंसर की अभिव्यक्ति उनकी पुस्तक वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड में मिलती है जिसमें उन्होंने अल्पसंख्यकों के लिए पूर्ण जातीय अधीनता की बात करते हुए संघ की हिंदू राष्ट्र बनाने की परियोजना की तुलना एडॉल्फ हिटलर के यहूदी विरोध से की है.
सरसंघचालक गोलवलकर ने 1939 में अपनी किताब में लिखा है, "जाति और उसकी संस्कृति की शुद्धता को बनाए रखने के लिए, जर्मनी ने देश की यहूदी नस्ल का शुद्धीकरण कर दुनिया को चकाचौंध कर दिया. जर्मनी ने यह भी दिखाया है कि ऐसी नस्लों और संस्कृतियों के लिए, जिसमें मतभेद जड़ तक फैले हैं, कितना असंभव है संयुक्त होकर रहना. हमारे लिए हिंदुस्तान में यह सीखे जाने लायक सबक है."
गैर-हिंदुओं को विदेशी जाति घोषित करने के बाद गोलवलकर ने भारत में अल्पसंख्यकों के लिए यहूदियों की सफाई के नाजी प्रयोग के समान एक समाधान निर्धारित किया:
इस दृष्टिकोण से, जिसे चतुर पुराने राष्ट्रों के अनुभव की स्वीकृति मिली है, हिंदुस्तान में रहने वाली विदेशी नस्लों को या तो हिंदू संस्कृति और भाषा अपना लेनी चाहिए, हिंदू धर्म के प्रति आदर और सम्मान करना सीख लेना चाहिए, हिंदू नस्ल और संस्कृति को गौरवान्वित करने वाले विचारों को अपना लेना चाहिए और अपने पृथक अस्तित्व को हिंदू नस्ल में पूरी तरह समर्पित कर देना चाहिए या पूर्ण रूप से हिंदू राष्ट्र के अधीन रहते हुए देश में टिके रहना चाहिए और ऐसा करते समय उन्हें न तो किसी तरह का दावा करना होगा, न किसी तरह का उन्हें कोई विशेषाधिकार मिलेगा और किसी तरह के सुविधाप्राप्त व्यवहार की तो बात दूर, उन्हें एक नागरिक का भी अधिकार प्राप्त नहीं होगा. उनके सामने इसके अलावा और कोई चारा नहीं है.
1948 में आरएसएस के एक सदस्य द्वारा मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या के कारण संगठन की विश्वसनीयता को भारी नुकसान हुआ और सरकार ने संघ पर कठोर कार्रवाई की. इसके बाद से आरएसएस बहुत सावधानी से काम करने लगा. बाद के सालों में गोलवलकर और उनके संगठन ने इस किताब से खुद को दूर कर लिया.
लेकिन ऐसा लगता है कि यह दूरी दिखावटी थी और आरएसएस ने किताब की सामाजिक-राजनीतिक परियोजना पर तस्ल्ली के साथ काम करना जारी रखा है. आरएसएस की 12 मार्च की रिपोर्ट इसी तथ्य की पुष्टी करती है. जैसे जैसे इस रिपोर्ट की गूढ़ भाषा की भूलभुलैया से बाहर निकल कर इसमें छिपे रहस्य को हम समझना शुरू करते हैं, वैसे वैसे गोलवलकर के मूल सूत्र के अनुरूप विचार योजना साफ हो जाती है. एक ऐसा सूत्र जिसे तब तक खुल कर नहीं कहा जा सकता जब तक संघ मोदी शासन के तहत देश पर अपना प्रभुत्व स्थापित नहीं कर लेता.
प्रतिबंधों के दौरान बदहवासी में आरएसएस ने वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड की जगह पर गोलवलकर के भाषणों के संकलन : बंच ऑफ थॉट्स, को आधिकारिक तौर पर संगठन के केंद्रीय वैचारिकी माना था. 1966 में प्रकाशित इस संकलन में गोलवलकर की पहली किताब के विचारों को ही लिया गया था लेकिन आंतरिक शत्रु कौन है इस पर पहले जैसी स्पष्टाता को धुंधला दिया गया था. हिंदू राष्ट्र की परियोजना को पूरा करने के लिए संगठन को मुसलमानों के खिलाफ किन कार्रवाइयों की जरूरत होगी, इस सिद्धांत पर भी 1966 की किताब खामोश थी. नई किताब में गोलवलकर ने मुसलमानों को हिंदू राष्ट्र के गठन के लिए तीन प्रमुख खतरों में से एक के रूप में देखा था. बाकी दो थे : ईसाई और कम्युनिस्ट. साथ ही हिंदुओं को राष्ट्र के एकमात्र सच्चे प्रेमी के रूप में प्रस्तुत किया:
क्या भारत के विभाजन के बाद जो यहां रह गए है वे बदले हैं? क्या 1946-47 में व्यापक स्तर पर हुए अभूतपूर्व दंगे, लूटपाट, आगजनी, बलात्कार और सभी प्रकार के सामूहिक दंगों के परिणामस्वरूप उनकी पुरानी दुश्मनी और जानलेवा मनोदशा अब बदल गई है? यह विश्वास करना आत्मघाती होगा कि वे पाकिस्तान के निर्माण के बाद रातों-रात देशभक्त हो गए हैं. इसके विपरीत पाकिस्तान के निर्माण से मुस्लिम खतरा सौ गुना बढ़ गया है जो हमारे देश पर उनके भविष्य के सभी आक्रामक हमालों के लिए एक उत्तोलक बन गया है … बल्कि पूरे देश में ही जहां कहीं भी कोई मस्जिद या मुस्लिम मोहल्ला हो वहां मुस्लिम सोचते हैं कि यह उनका अपना स्वतंत्र क्षेत्र है. अगर कभी संगीत और गायन के साथ हिंदुओं का जुलूस निकलता है, तो वे यह कहते हुए क्रोधित हो जाते हैं कि उनकी धार्मिक संवेदनाएं आहत हुई हैं. अगर उनकी धार्मिक भावनाएं इतनी संवेदनशील हो गई हैं कि मधुर संगीत से आहत हो जाती हैं तो वे अपनी मस्जिदों को जंगलों में क्यों नहीं ले जाते और वहीं शांति से प्रार्थना करते हैं?
बंच ऑफ थॉट्स में कहीं भी गोलवलकर ने यह नहीं बताया कि संघ सत्ता में आने के बाद मुसलमानों से निपटने के लिए किन तरीकों का इस्तेमाल करेगा. नाजियों और उनके यहूदी-विरोध के संदर्भ भी नए वैचारिक पाठ से गायब हो गए. किताब खतरों की बात करती है लेकिन आगे बढ़ने का रास्ता बताने से बचती है.
वर्तमान आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने सितंबर 2018 में गोलवलकर के विचार के इस पतले से संस्करण को एक नया रूप देने की कोशिश की थी. तब उन्होंने घोषणा की कि बंच ऑफ थॉट्स में व्यक्त कुछ विचार शाश्वत नहीं हैं. “चीजें परिस्थितियों के कारण और एक विशेष संदर्भ में कही जाती हैं. वे शाश्वत नहीं होतीं,” वह दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान भारत में गैर-हिंदुओं पर आरएसएस के विचारों के बारे में अल्पसंख्यकों के बीच आशंकाओं को लेकर एक सवाल का जवाब दे रहे थे. "हमने 'विजन एंड मिशन : गुरुजी' नामक एक पुस्तक प्रकाशित की है, जिसमें उनके शाश्वत विचार हैं. हमने उन सभी विचारों को हटा दिया है जो कुछ निश्चित परिस्थितियों में उभरे होंगे और जो शाश्वत हैं बस उन्हें ही रखा है. उन्होंने कहा, ''आरएसएस कोई जड़ संगठन नहीं है. समय के साथ हमारी सोच और उसकी अभिव्यक्ति भी बदल जाती है."
आरएसएस की ताजा वार्षिक रिपोर्ट से पता चलता है कि इसने कभी भी वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड से खुद को दूर नहीं किया था. जब से मोदी सत्ता में आए हैं गोलवलकर की योजना सड़ कर पूरे भारत में फैल गई है. मुसलमानों की लिंचिंग, हिजाब पर हमले, मुस्लिम कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 का विरोध करने वालों को फंसाने जाने से स्पष्ट होता है. लोकसभा चुनाव में बीजेपी की प्रचंड जीत के लगभग तीन साल बाद हाल के विधानसभा चुनावों में उसकी शानदार जीत ने आरएसएस को अपनी शक्ति के बारे में आत्मविश्वास से भर दिया है. संघ अब मानने लगा है कि छिप-छिपाने के दिन गए अब साफगोही के दिन आ गए हैं. ऐसे समय में जब आरएसएस आधिकारिक रूप से गोलवलकर की योजना को प्रतिध्वनित कर रहा है, अहमदाबाद में मोदी की उपस्थिति एक संयोग नहीं हो सकती. यह स्थिति हालात को और अधिक भयावह बनाती है.