1990 के दशक के चारा घोटाला से जुड़े मामले में रांची की बिरसा मुंडा केंद्रीय जेल में सजा काट रहे राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने पिछले साल 10 अप्रैल को, लोकसभा चुनाव के दौरान, बिहार के मतदाताओं को संबोधित करते हुए पत्र लिखा था. उस पत्र में, अन्य बातों के अलावा, उन्होंने पूछा था कि “क्या विध्वंसकारी शक्तियां मुझे कैद कराके बिहार में किसी षड़यंत्र की पठकथा लिखने में सफल हो पाएंगी?”
दरअसल, हाई कोर्ट से जमानत याचिका खारिज हो जाने के बाद यादव ने सुप्रीम कोर्ट में जमानत याचिका डाली थी लेकिन 9 अप्रैल 2019 को सर्वोच्च अदालत ने भी उनकी याचिका खारिज कर दी थी.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जेल से बाहर आकर अपनी पार्टी के लिए चुनाव प्रचार करने की यादव की संभावना समाप्त हो गई थी और 1977 के बाद पहली बार यादव किसी चुनाव से प्रत्यक्ष रूप से दूर कर दिए गए थे. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के दूसरे दिन लिखे उस पत्र में यादव ने घोषणा की थी, “मैं कैद में हूं, मेरे विचार नहीं. 44 वर्षों में यह पहला चुनाव है जिसमें मैं आपके बीच नहीं हूं. इस चुनाव में सबकुछ दांव पर है.”
करीब डेढ़ साल बाद एक बार फिर वैसा ही दृश्य इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में दिखाई देने जा रहा है. पिछले साल की मानिंद यादव की रिहाई विधानसभा चुनाव तक होती नहीं दिख रही है. बिहार विधानसभा चुनाव तीन चरणों (28 अक्टूबर, 3 नवंबर, 7 नवंबर) में होने वाले हैं. यादव के वकील प्रभात कुमार ने मुझे बताया, “लालू जी बिहार चुनाव तक बाहर नहीं आएंगे. किसी हालत में नहीं आएंगे. दुमका कोषागार मामले में जमानत याचिका रांची हाई कोर्ट में पिछले हफ्ते दायर की गई है. अभी सुनवाई की कोई तारीख नहीं मिली है. हाई कोर्ट दुर्गा पूजा के लिए 2 नवंबर तक बंद है. इसके बाद ही सुनवाई की कोई तारीख मिलेगी. जमानत मिलने के बाद भी जेल से बाहर आने में तीन-चार दिन लगते हैं.”
लेकिन क्या इस बार भी यादव के बिना चुनाव लड़ रही उनकी पार्टी के लिए नतीजे पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजों से अलग होगें, जिसमें राजद अपना खाता तक नहीं खोल पाई थी? यह जानने के लिए मैंने बिहार के वरिष्ठ पत्रकारों, राजद और अन्य दलों के नेताओं और जानकारों से बात की. मैंने उनसे राजद के नेता और यादव के छोटे बेटे तेजस्वी यादव के नेतृत्व पर भी बात की जिन्हें महागठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद का दावेदार बताया जा रहा है.
बिहार और लालू प्रसाद यादव की राजनीति पर नजदीक से नजर रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर ने मुझसे कहा, “यह संभव है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में यादव की गैर-मौजूदगी का असर चुनाव परिणाम पर पड़ा हो और अगर आगामी विधानसभा चुनाव में भी वह हाजिर नहीं रहते हैं तो स्वभाविक है कि फिर असर पड़ेगा.”
बिहार चुनाव में यादव के महत्व पर उन्होंने मुझे बताया, “यादव की अपनी एक शैली है. जब वह क्षेत्र में होते हैं, लोगों के बीच होते हैं, तो जाहिर है कि प्रभाव ज्यादा होता है. जनाधार पर उनका असर है. जब वह नहीं रहेंगे या ओझल रहेंगे तो उसका विपरीत असर पड़ेगा. यह स्वभाविक है.”
ठाकुर ने बताया, “अभी भी यादव के बिना राजद कुछ भी नहीं है. जब तक यादव हैं, चाहे जेल में हों या बाहर, उनसे ही पार्टी का नाम है और वही पार्टी का आधार हैं.” यादव की राजनीतिक विरासत संभाल रहे उनके छोटे बेटे तेजस्वी यादव क्या उनकी भरपाई करने में सक्षम हैं? इस प्रश्न के जवाब में ठाकुर ने कहा, “उनकी भरपाई कोई नहीं कर पाएगा. लेकिन उन्हें आधार बनाकर ही तेजस्वी आगे बढ़ना चाह रहे हैं.” ठाकुर ने यह भी बताया कि यादव चुनाव मैदान में जाएं या न जाएं, इसका उनके मुस्लिम-यादव बुनियादी आधार पर असर नहीं पड़ेगा.”
यादव चारा घोटाला के तीन अलग-अलग मामलों में सजायाफ्ता हैं जबकि एक मामले में सुनवाई चल रही है. वह 23 सितंबर 2017 से बिरसा मुंडा केंद्रीय कारावास में सजा काट रहे हैं. लेकिन मधुमेह, गुर्दा, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग समेत 11 अन्य बिमारियों के कारण पिछले ढाई साल से जेल मैनुअल के नियमों के तहत रांची राजेंद्र इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस (रिम्स) में इलाजरत हैं. इस दौरान उन्हें इलाज के लिए 12 मई 2018 को छह सप्ताह के लिए जमानत भी मिली थी.
यादव के तीनों मामलों का संबंध अविभाजित बिहार यानी झारखंड सहित बिहार के अलग-अलग जिलों के कोषागार से अवैध ढंग से राशि की निकासी से है. उन्हें इसी महीने 9 अक्टूबर को ही चाईबासा कोषागार मामले में हाई कोर्ट से बेल मिली गई है. जबकि पिछले साल जुलाई 2019 में देवघर कोषागार मामले में जमानत पहले ही मिल चुकी है. बावजूद इसके यादव जेल से बाहर नहीं आ सकते हैं क्योंकि दुमका कोषागार मामले में उन्हें अब तक जमानत नहीं मिली है.
यादव को चाईबासा कोषाकार (3 अक्टूबर 2013) में पांच साल, देवघर कोषागार (23 दिसंबर 2013) में 3.5 साल और दुमका कोषागार (24 मार्च 2018) में दो अलग-अलग धराओं में सात-सात साल की सजा हुई है. जिन दो मामलों में उन्हें जमानत मिली है वह इस आधार पर कि सजा की आधी अवधि यादव ने काट ली है. तीसरे मामले में अगले महीने नवंबर में सजा की आधी अवधि पूरी होती है. इस लिहाज से जमानत याचिका की अर्जी अब नवंबर में ही दाखिल की जा सकती है.
यादव के महत्व को आंकड़ों से भी समझा जा सकता है. यादव ने 1997 में जनता दल से अलग हो कर राजद का गठन किया. एक साल बाद ही 1998 में राजद ने संयुक्त बिहार की 54 सीटों के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा व वाम दलों के साथ समझौता कर 42 सीटों पर लोकसभा चुनाव लड़ा. इस चुनाव में राजद ने 17 सीटें जीती थी. इसके एक साल बाद ही एक वोट से तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार गिर गई और फिर एक साल बाद 1999 में लोकसभा चुनाव हुए. राजद ने उसी गठबंधन के साथ संयुक्त बिहार में चुनाव लड़ा लेकिन इस बार सीट 17 से घटकर 7 हो गई. बिहार के विभाजन के बाद राजद ने कांग्रेस, झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ बिहार और झारखंड में चुनाव लड़ा और 2004 में बिहार की 40 सीटों में से 23 और झारखंड की 14 सीटों में से एक पर जीत दर्ज की. 2009 में राजद ने बिहार-झारखंड में सिर्फ लोजपा के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा और मात्र चार सीटों पर ही जीत दर्ज की. 2014 में राजद ने एक बार फिर कांग्रेस के साथ गठबंधन किया और चार सीटें जीतीं.
लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों में यादव के बिना चुनावी मैदान में उतरी राजद को एक भी सीट नहीं मिली. यह पहला मौका था जब किसी चुनाव में यादव अपनी पार्टी के लिए एक भी चुनावी सभा नहीं कर पाए थे. महागठबंध बनाकर कांग्रेस, राजद, विकासशील इंसान पार्टी, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा सहित पांच दलों ने वह चुनाव लड़ा था. यादव की अनुपस्थिति से हुए नुकसान का आंकलन इसी बात से भी लगाया जा सकता है उस चुनाव में राजद का वोट प्रतिशत पार्टी के गठन के बाद का सबसे कम 15.36 रहा और सीटों की संख्या शून्य हो गई.
2019 के लोकसभा चुनाव में यादव की अनुपस्थिति से हुए नुकसान की बात राजद के नेता भी स्वीकार करते हैं. पार्टी के उच्च पद पर आसीन एक नेता ने नाम का उल्लेख न करने की शर्त पर माना, “लालू प्रसाद यादव 2019 के लोकसभा चुनाव में जेल से बाहर होते तो पार्टी को उतने बड़े गठबंधन (राजद, कांग्रेस, वीआईपी, रालोसपा, हम) की जरूरत भी नहीं पड़ती. लालू जी काफी थे. बहुत ज्यादा होता तो कांग्रेस के साथ हमारा गठबंधन होता. लालू जी के नहीं रहने पर हमें नुकसान का अंदाजा तो निश्चित था लेकिन एक भी सीट नहीं जीत पाएंगे, ऐसा नहीं सोचा था.” उन्होंने यह भी कहा कि यादव के नहीं रहने के कारण ही एक बड़ा गठबंधन बना था ताकि एनडीए को रोका जा सके.” उन्होंने दावा किया, “विकासशील इंसान पार्टी, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा जैसी पार्टियों को उम्मीद से ज्यादा सीटें दी गईं.”
बिहार में 1990-2004 तक यादव की सरकार थी जिसमें वह सात साल तक मुख्यमंत्री रहे. चारा घोटाले के मामले में जब पहली बार वह 1997 में जेल गए तो रातोंरात उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया. यादव के विरोधी कहते हैं कि इस दौरान राबड़ी देवी बस नाम के लिए मुख्यमंत्री थीं जबकि सत्ता यादव ही चला रहे थे. यही वह समय भी था जब बिहार में यादव की पहचान पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समुदाय के सबसे बड़े हितैशी के रूप बनी. एम-वाई (मुस्लिम+यादव) के वोट बैंक पर यादव का एकक्षत्र राज हो गया और इसी समीकरण के बल पर बिहार में 15 साल तक शासन चला.
2015 के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन की जीत को दो तिहाई में बदल देने का श्रेय भी यादव को ही जाता है. उस चुनाव को यादव ने “मंडलराज-2” का नारा उछाल कर लड़ा था. दस साल बाद बिहार में राजद की सत्ता में वापसी हुई और बिहार की 243 सीटों में से 178 सीटों में महागठबंधन की जीत हुई थी. उस चुनाव में महागठबंधन को 41.8 फीसदी वोट मिले थे. उस चुनाव में राजद के सीटों की 80 पर जा पहुंची जो उससे पहले 22 थी.
छात्र जीवन से ही यादव को जानने वाले राजद के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने यादव के चुनावी मैदान में न होने के बारे में मुझसे कहा कि बिना यादव के राजद की कल्पना नहीं की जा सकती. लेकिन वह तेजस्वी यादव की नेतृत्व क्षमता को भी स्वीकारते हैं.
2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की बुरी तरह से हार हुई. उस चुनाव में वह बिहार में एक भी सीट नहीं जीत पाई. इस बार विधानसभा परिणाम क्या लोकसभा से अगल होंगे? यह सवाल जब मैंने शिवानंद तिवारी से किया तो उन्होंने कहा, “तेजस्वी हैं न. तेजस्वी के नेतृत्व को भी तो लोग जज करेंगे न. तेजस्वी पिछले चार साल से सक्रिय हैं. बिहार में सबको मालूम है कि यादव ने अपनी पॉलिटिकल विरासत उन्हीं को सौंपी है.”
वह आगे कहते हैं, “आप कहते हैं कि लोकसभा चुनावों में लालू यादव नहीं थे इसलिए चुनाव हार गए तो बाकी जगहों पर क्या हुआ था? उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी थे न? वहां क्या हुआ? अगर और जगहों पर मोदी की हार होती और बिहार में वह जीत जाते तो माना जाता कि हां लालू यादव की गैरहाजिरी के चलते जीत गए. आप इसे आइसोलेट करके क्यों देख रहे हैं. पुलवामा, बालाकोट में जो हुआ उससे क्षेत्रीय दलों के भी वोटर प्रभावित हुए.”
हालांकि शिवानंद तिवारी यह भी मानते हैं कि यादव के बिना सत्ता आसानी से नहीं आने जा रही है. इस बारे में वह कहते हैं, “सत्ता में आना आसान नहीं है. कोई लिफ्ट नहीं है. इंतजार कीजिए. यह फैक्ट है कि नीतीश कुमार के खिलाफ एंटी इंकम्बेंसी स्ट्रॉन्ग है लेकिन यह हमारे लिए कितना पॉजिटिव होगा पता नहीं, इसे भुनाने के लिए हमें कोशिश करनी होगी.”
तिवारी का मानना है टिकट बंटवारा कैसे होगा उसे देख कर भी समाज के जागरूक लोग अपना मन बनाएंगे. टिकट बंटवारें को लेकर यादव रिम्स से लगातार दिशानिर्देश देते रहे हैं. इस बीच उन पर और झारखंड में उनकी गठबंधन की सरकार पर आरोप भी लगें कि रिम्स में इलाजरत यादव जेल मैनुअल का उल्लंघन करके नेताओं से मिलते हैं. इस साल 3 सितंबर को आजतक की वेबसाइट में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक जेल आईजी ने माना है कि यादव के मामले में जेल मैनुअल का लगातार उल्लंघन हो रहा है.
यादव को रिम्स में कवर करने वाले एक टीवी पत्रकार ने नाम का उल्लेख न करने की शर्त पर मुझे बताया, “जेल मैनुअल के मुताबिक सप्ताह में शनिवार को सिर्फ तीन ही लोग यादव से मिल सकते हैं. या फिर जेल अधीक्षक की विशेष अनुमति से कोई मिल सकता है. लेकिन इधर चुनाव की घोषणा (बिहार चुनाव) होने से पहले तक कमोबेश रोजना ही लोगों के मिलने का रिम्स में जमवाड़ा लगा रहता था. इनमें ज्यादातर टिकट के लिए बिहार से आए नेता ही होते थे.”
यादव के बाहर नहीं रहने का असर राजद में इस बार हुए टिकट बंटवारे पर भी पड़ा है. बिहार के गया जिले के शेरघाटी विधानसभा की प्रत्याशी मंजू अग्रवाल को लोग इसका उदाहरण मानते हैं. राजद ने शेरघाटी विधानसभा से अग्रवाल को टिकट दिया है. अग्रवाल के बारे में एक स्थानीय पत्रकार ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया, “वह राजद की सक्रिय सदस्य कभी नहीं रहीं. पिछले दो महीने से ही राजद के समर्थन में सोशल मीडिया पर सक्रिय हुई हैं. इससे पहले 2010 तक वह बीजेपी और राष्ट्रीय स्वंसेवक संघ की संस्था दुर्गा वाहिनी की सक्रिय सदस्य थीं. जब उन्हें विधानसभा टिकट नहीं मिला तो 2010 और 2015 में निर्दलीय चुनाव लड़ीं और उन्हें क्रमशः 19000 और 29000 वोट मिलें. हो सकता है उन्हें प्राप्त हुए वोट के कारण राजद से टिकट मिला हो लेकिन यह भी सच है कि उनको उनकी हिंदूवादी छवि के कारण ही वोट मिले थे.”
उस स्थानीय पत्रकार ने यह भी कहा कि मंजू अग्रवाल को टिकट दिए जाने के बाद राजद के कार्यकर्ताओं और मुस्लिम समुदाय में काफी रोष है.
राजद के लिए मुस्लिम-यादव वाले परंपरागत गठजोड़ की गांठ भी इस बार विधानसभा चुनाव में ढीली मालूम पड़ती है. वरिष्ठ पत्रकार सैयद शहरोज कमर इसकी कई वजह गिनाते हैं. वह कहते हैं, “क्या राजद को लेकर मुसलमानों का रुझान वैसा ही है जैसा 2015 में था? यह सच है कि अगर बिहार में मुस्लिम वोट प्राप्त करने वाली सबसे बड़ी पार्टी राजद रही है तो उसकी वजह लालू प्रसाद यादव हैं. लेकिन बीते दो-तीन साल से उनकी पार्टी पर यह भी आरोप लगा है कि वह मुसलमानों के मुद्दे पर, राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर या एनआरसी और दिल्ली में इस साल फरवरी में हुई हिंसा, बोलने से बचती है. इस वजह से भी मुस्लिम वोटर राजद से छिटक सकते हैं और उसे सीमांचल जैसे उन इलाकों पर अधिक नुकसान हो सकता हैं जहां से असदउद्दीन ओवैसी की पार्टी अपने उम्मीदवार उतार रही है.” उन्होंने कहा, “मैं समझता हूं कि इतने के बावजूद भी अगर लालू प्रसाद यादव चुनाव में बाहर रहते तो कोई खास असर नहीं पड़ने देते क्योंकि वह अपने करिश्माई अंदाज से चुनाव का रुख अपनी तरफ मोड़ लेना अच्छे से जानते हैं. इसलिए भी राजद के लिए यह चुनाव चुनौतीपूर्ण रहेगा.”
इन्हीं सवालों पर राजद के राष्ट्रीय प्रवक्ता डॉ. नवल किशोर ने कहा है, “इसमें कोई दो राय नहीं है यादव की अनुपस्थिति का असर था और रहेगा. वह जब रहते हैं और सभाओं में शामिल होते हैं तो उसका कोई मुकाबला ही नहीं है, लेकिन लालू जी जो चाहते हैं वह सभी कार्यकर्ताओं के मन में है. उनसे जो निर्देश दिया जा रहा है उस पर हरेक जिले में काम हो रहा है.”
उन्होंने आगे कहा, “हमलोगों के खिलाफ अभियान चलाया जा रहा है कि हमने मुस्लिम मुद्दे को नहीं उठाया. जबकि सच यह है कि राजद ने हमेशा मुस्लिम मुद्दों को सड़क से सदन तक उठाया है. एनआरसी, दिल्ली दंगा या फिर जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाने की बात हो, सभी पर हमारे नेता मनोज झा ने राज्यसभा में बोला है. उसे देखिए. चूंकि हमारी संख्या लोकसभा में नहीं इसलिए वहां नहीं दिखती है.”
ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन बिहार विधानसभा चुनाव में एक बार फिर से मैदान में है. इस बार वह पार्टी उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी सहित छह पार्टियों के साथ मिलकर ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट बनाकर बिहार के सीमांचल की सीटों में चुनाव लड़ रही है. उनकी पार्टी ने इन चुनावों में 24 उम्मीदवार उतारे हैं. ओवैसी का ध्यान मुस्लिम वोटरों के अलावा बिहार की पिछड़ी जातियों पर भी है. लेकिन उनका पूरा फोकस में सिमांचल के साथ-साथ उन इलाकों पर है जहां मुसलमानों की घनी आबादी है. 2011 के जनगणना के मुताबिक किशनगंज में 67.98, पूर्णिया 38.46, कटिहार 44.47. और अररिया 42.95 प्रतिशत मुस्लिम वोट हैं. बिहार में मुसलामान 17 और यादव 14 फीसद हैं और इन दोनों आबादी के बारे में कहा जाता है कि यह राजद का परंपागत वोट बैंक है, जिसके बूते राजद ने बिहार 15 साल तक शासन किया था. अगर यहां ओवैसी इन वोटों में सेंध लगाते हैं तो जाहिर नुकसान महागठबंधन का ही होगा.
बीते दो-तीन सालों में यादव की गैर-मौजूदगी में राजद के अंदर कभी उनके समकालीन नेताओं को दरकिनार किए जाने और कभी यादव परिवार के आपसी मतभेदों की खबरें बाहर आती रही हैं.
चुनाव की अन्य चुनौतियों के साथ-साथ इन्हें भी पार्टी के लिए चुनौती के रूप में देखा जा रहा है. पिछले महीने पटना में कई जगहों पर राजद के पोस्टरों में तेजस्वी तो दिखे लेकिन उसमें न ही लालू प्रसाद यादव थे और न राबड़ी देवी. वहीं राजद के कद्दावर नेता रहे स्वार्गीय रघुवंश प्रसाद सिंह ने यादव को पत्र लिखकर अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए पार्टी से इस्तीफा दे दिया था. बीच में शिवानंद तिवारी को लेकर भी खबरे आईं कि उन्होंने पार्टी कार्यलय जाना बंद कर दिया है. लेकिन शिवानंद तिवारी के लिए यह सब प्रकृतिक के नियमों की तरह हैं. उन्होंने मुझसे कहा, “पोस्टर तो सिर्फ मैसेज था बिहार के यंगर जेनरेशन (युवा पीढ़ी) के लिए ताकि नौजवानों पार्टी से जुड़ें. बिहार में 65 प्रतिशत वोट युवा हैं. हम अब 77 पूरा करके 78 में जा रहे हैं. हमारा उन नौजवानों से संवाद क्या होगा? उनका क्या सपना है, क्या आकांक्षाएं हैं, हमें क्या पता? नए जमाने का यह मामला है. समय के साथ आपको रास्ता देना पड़ता है. यह तो नियम है प्रकृतिक का. हमारा बेटा समझता है कि हम अपने बाबू जी से बढ़िया ढंग से राजनीति कर रहे हैं. हमको भी लगता था कि हम अपने पिता से ज्यादा क्रांतिकारी हैं. यह सब नियम है.”
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक सुरूर अहमद भी मानते हैं कि चुनावी पोस्टर में यादव की तस्वीर का इस्तेमाल नहीं होना राजद की एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है. पार्टी की नजर नौजवान वोटरों पर है. यही वजह है कि मुस्लिम मुद्दे पर भी पार्टी के नेता कम बोल रहे हैं ताकि मीडिया काउंटर पोलराइजेशन न कर सके. सुरूर अहमद बिना यादव के चुनाव लड़ने और ओवैसी के सवाल पर आगे कहते हैं, “यादव बाहर होते तो जाहिर है कि पार्टी को फायदा ज्यादा होता. बिहार में ओवैसी का असर किशनगंज के जिले तक ही रहेगा क्योंकि इस इलाकें में सुरजापुरी मुसलमानों की बड़ी तादाद है. पहले इस बिरादरी के मौलाना असरारुलहक कासमी बड़े लीडर हुआ करते थें. ओवैसी के पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अख्तरूल ईमान इसी बिरादरी से आते हैं और इनका इस इलाकें में प्रभाव है.”
सीमांचल में शैख, सैयद, मलिक, पठान, मोगल के अलावा एक बड़ी आबादी सुरजापुरी मुसलामनों की है. ये किशनगंज, पूर्णिया अररिया, कटिहार में बसे हैं. इनकी आबादी लगभग 20 लाख के करीब बताई जाती है. इस बिरादरी के लोग सबसे अधिक किशनगंज में रहते हैं. इस जिले में इनकी आबादी आधी है. ये आर्थिक और शैक्षणिक स्तर काफी पिछड़ी आबादी है. फिलहाल यह बिरादरी बिहार राज्य के पिछड़े वर्ग की सूची में शामिल हैं. जबकि ये अत्यंत पिछड़ी वर्ग में शामिल किए जाने की मांग लंबे समय करते आ रहे हैं.
पिछले विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के राजद के 16, जदयू के 7 और कांग्रेस के 10 सहित कुल 33 मुस्लिम उम्मीदवार थे और इनमें से 24 उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की थी. राजद से 11 जदयू से 5, कांग्रेस से 6.
इस बार महागठबंधन में राजद, कांग्रेस और वाम दल हैं. राजद 144, कांग्रेस 70 बाकि 29 पर वाम दलों के उम्मीदवार होंगे. हालांकि महागठबंधन की ओर से इस बार भी 33 मुस्लिम प्रत्याशी हैं. राजद ने 18, कांग्रेस ने 12 और वाम दल ने 3 मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट दिया है. इधर एनडीए गठबंधन में जदयू 115, बीजेप 110, आवामी हिंदुस्तानी मोर्चा 6 और विकासशील इंसान पार्टी 11 सीट पर चुनाव लड़ रही है. लेकिन जदयू के 11 मुस्लिम प्रत्याशी को अलग कर दें तो किसी भी दल से मुस्लिम नाम नहीं है.
प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब पिछले दिनों महागठबंधन के सीट के बंटवारे पर हुई समहमति की जानकारी दी गई तब मंच पर कोई भी मुस्लिम नेता नहीं था. क्या राजद में मुसलमानों की भागीदारी कम हुई है, इसके जवाब में राजद नेता डॉ नवल किशोर ने कहा, “मैं पूछता हूं कि पार्टी का प्रधान महासचिव कौन है? अब्दुल बारी सिद्दीकी. पहले कौन था? कमरे आलम. कौन कहां फंसा हुआ, किस कारण, किस परिस्थिति में नहीं है. वह नहीं दिखता है. कॉन्फ्रेंस में जो दिखा, बस वहीं मुद्दा है.”
लेकिन पूर्व केंद्रीय मंत्री और रालोसपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा के मीडिया एडवाइजर प्रमोद कुमार सिंह इस दलील से संतुष्ट नहीं हैं. उन्होंने तंज कसते हुए कहा, “कुछ लोग राजनीति में आकर सेक्युलर हो जाते हैं.” सिंह ने महागठबंधन पर आरोप लगाते हुए कहा, “वे देखते हैं कि पैसे से कौन मजबूत है. बीजेपी-आरएसएस या कौन कहां से आ रहा, ये सब नहीं देखा जाता है. उम्मीदवार उनके पार्टी के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ने के तैयार हो, बस.”
कोरोनावायरस के बढ़ते संक्रमण के कारण कैदियों को पैरोल पर छोड़े जाने को लेकर सुप्रीम के कोर्ट के आए निर्देश के बाद, 23 मार्च खबरें आई कि झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार यादव सहित राज्य के 70 कैदियों को पैरोल पर रिहा कर सकती है. लेकिन 8 अप्रैल को झारखंड सरकार ने एक बैठक में तय किया कि आर्थिक अपराध के मामले में और सात साल से अधिक के सजायाफ्ता को पैरोल नहीं दी जाएगी.
यादव के वकील प्रभात कुमार ने बताया कि उनकी ओर से पैरोल की कोई मांग नहीं की गई है और जब मांग ही नहीं की गई है तो सरकार बिना मांग के पैरोल नहीं देती है. कानून के मुताबिक सजायाफ्ता कैदी को पैरोल पर छोड़ा जाना सरकार के अधीन आता है. कोई सजायाफ्ता कैदी साल में एक महीने की पैरोल ले सकता है. कैदियों के लिए जेल में साल 9 महीने का होता.
तो क्या यादव को अंतिम दो चरणों से पहले, जिनमें 170 से अधिक सीटों पर मतदान होना है, जमानत न भी मिली तो पैरोल पर रिहा किया जा सकता है? इस पर कुमार ने कहा, “पैरोल के बारे हमलोगों ने न तो सोचा है और न ही आगे सोचना है. इसलिए अगर-मगर का कोई सवाल नहीं है. यादव फाइनली बेल पर ही बाहर आएंगे.”