1981 में कांशीराम ने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति का गठन किया. समिति का नारा था “ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया छोड़ बाकी सब हैं डीएस-फोर.” अब तीन दशक बाद जब 2022 में उत्तर प्रदेश राज्य विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं बहुजन समाज पार्टी प्रबुद्ध समाज गोष्ठियां कर रही है. इन गोष्ठियों का मकसद ब्राह्मण, त्यागी और भूमिहार समुदायों को अपने पाले में कर चुनावी मैदान फतेह करना है.
गोष्ठी का उद्देश्य 2007 में पार्टी द्वारा अपनाई गई उस रणनीति को दोबारा सफल बनाना है जिसके जरिए उसने उस साल सत्ता हासिल की थी. लेकिन लगता नहीं कि यह रणनीति इस बार भी वही परिणाम लाएगी जैसे 2007 में आए थे. मुंबई में स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में पीएचडी कर रहे कृष्ण मोहन ने इस गोष्ठी के बारे में मुझसे कहा कि यह बसपा की राजनीति का हिस्सा हो सकता है लेकिन यह बहुजन मिशन के लिए ठीक नहीं है. लेकिन सामाजिक संगठन भीम कमांडो के संस्थापक अमित रजवान कहते हैं कि पार्टी को सभी जातियों के वोट चाहिए इसलिए यह रणनीति गलत नहीं मानी जा सकती. उन्होंने बताया कि इन गोष्ठियों में ब्राह्मण हिस्सा ले रहे हैं. उनका मानना है कि ब्राह्मण सबसे अधिक बुद्धिजीवी लोग होते हैं और उनका लंबे समय से संसाधनों पर कब्जा रहा है. रजवान ने दावा किया कि सभी सरकारों ने ब्राह्मणों को धोखा दिया है.
1987 में इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया पत्रिका ने कांशीराम का एक साक्षात्कार छापा था. उस साक्षात्कार में कांशीराम ने कहा था कि ऊंची जाति के लोग उनकी पार्टी की सदस्यता ले सकते हैं लेकिन नेतृत्व नहीं कर सकते. उन्होंने कहा था, “नेतृत्व हमेशा पिछड़ी जातियों के हाथ में रहेगा क्योंकि मुझे डर है यदि हमारी पार्टी का नेतृत्व ऊंची जातियों के हाथ में चला जाता है तो वह बदलाव की प्रक्रिया को कर रख देंगे.” बसपा के लिए 2007 का विधानसभा चुनाव महत्वपूर्ण माना जाता है. वह चुनाव कांशीराम के निधन के एक साल बाद हुआ था. चुनाव में बसपा की सोशल इंजीनियरिंग सफल हुई. उसे 403 में से 206 सीटें मीली और उसका वोट प्रतिशत बढ़ कर 30 फीसदी हो गया. कारवां में प्रकाशित मायावती की प्रोफाइल बताती है कि उन्होंने “सर्वजन” नारे के तहत सफलता से ब्राह्मण और दलित वोटों को अपने पाले में कर लिया था.
हाल के प्रबुद्ध सम्मेलनों को बसपा 2007 में अपनाई गई अपनी रणनीति की पुनरावृत्ति बता रही है. गाजियाबाद में 10 अगस्त को हुई प्रबुद्ध समाज गोष्ठी में बसपा के महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ने उपस्थित लोगों को बताया कि 2007 की पार्टी की जीत में किस तरह ब्राह्मणों ने योगदान दिया था. उन्होंने उल्लेख किया कि उस साल बसपा का नारा था “जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी.” मिश्रा ने 2005 की भी बात की जब ब्राह्मण बसपा की रैली में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे और मायावती के नारे “जिसकी जितनी तैयारी, उसकी उतनी भागीदारी” का स्वागत किया करते थे.
लेकिन कृष्ण मोहन कहते हैं कि सतीश मिश्रा का दावा उतना सही नहीं है. मोहन ने बताया कि उस चुनाव में बसपा ने 86 ब्राह्मण उम्मीदवार को टिकट दिए थे जिनमें से 40 जीत के आए थे जो 50 फीसदी भी नहीं है. उन्होंने आगे कहा, “उस वक्त बसपा में बड़े बैकवर्ड नेता हुआ करते थे जो आज नहीं हैं और कांशीराम साहब की मौत 2006 में हुई थी तो मतदाताओं ने उनको श्रद्धांजलि स्वरूप बसपा को वोट दिया था. उस सरकार के बनने में बहुजन समाज का बड़ा योगदान था.” 2007 से हाल तक उत्तर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य बहुत हद तक बदल गया है. 2007 में कुर्मी, कुशवाहा और राजभर ने बसपा का समर्थन किया था जो अब नहीं करते हैं. कारवां में इस साल जुलाई में प्रकाशित असद रिजवी की रिपोर्ट बताती है :
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