बसपा का प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन, कांशीराम की विचारधार पर चुनावी प्रपंच भारी

कारवां के लिए सुनील कश्यप
01 September, 2021

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1981 में कांशीराम ने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति का गठन किया. समिति का नारा था “ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया छोड़ बाकी सब हैं डीएस-फोर.” अब तीन दशक बाद जब 2022 में उत्तर प्रदेश राज्य विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं बहुजन समाज पार्टी प्रबुद्ध समाज गोष्ठियां कर रही है. इन गोष्ठियों का मकसद ब्राह्मण, त्यागी और भूमिहार समुदायों को अपने पाले में कर चुनावी मैदान फतेह करना है.

गोष्ठी का उद्देश्य 2007 में पार्टी द्वारा अपनाई गई उस रणनीति को दोबारा सफल बनाना है जिसके जरिए उसने उस साल सत्ता हासिल की थी. लेकिन लगता नहीं कि यह रणनीति इस बार भी वही परिणाम लाएगी जैसे 2007 में आए थे. मुंबई में स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में पीएचडी कर रहे कृष्ण मोहन ने इस गोष्ठी के बारे में मुझसे कहा कि यह बसपा की राजनीति का हिस्सा हो सकता है लेकिन यह बहुजन मिशन के लिए ठीक नहीं है. लेकिन सामाजिक संगठन भीम कमांडो के संस्थापक अमित रजवान कहते हैं कि पार्टी को सभी जातियों के वोट चाहिए इसलिए यह रणनीति गलत नहीं मानी जा सकती. उन्होंने बताया कि इन गोष्ठियों में ब्राह्मण हिस्सा ले रहे हैं. उनका मानना है कि ब्राह्मण सबसे अधिक बुद्धिजीवी लोग होते हैं और उनका लंबे समय से संसाधनों पर कब्जा रहा है. रजवान ने दावा किया कि सभी सरकारों ने ब्राह्मणों को धोखा दिया है.

1987 में इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया पत्रिका ने कांशीराम का एक साक्षात्कार छापा था. उस साक्षात्कार में कांशीराम ने कहा था कि ऊंची जाति के लोग उनकी पार्टी की सदस्यता ले सकते हैं लेकिन नेतृत्व नहीं कर सकते. उन्होंने कहा था, “नेतृत्व हमेशा पिछड़ी जातियों के हाथ में रहेगा क्योंकि मुझे डर है यदि हमारी पार्टी का नेतृत्व ऊंची जातियों के हाथ में चला जाता है तो वह बदलाव की प्रक्रिया को कर रख देंगे.” बसपा के लिए 2007 का विधानसभा चुनाव महत्वपूर्ण माना जाता है. वह चुनाव कांशीराम के निधन के एक साल बाद हुआ था. चुनाव में बसपा की सोशल इंजीनियरिंग सफल हुई. उसे 403 में से 206 सीटें मीली और उसका वोट प्रतिशत बढ़ कर 30 फीसदी हो गया. कारवां में प्रकाशित मायावती की प्रोफाइल बताती है कि उन्होंने “सर्वजन” नारे के तहत सफलता से ब्राह्मण और दलित वोटों को अपने पाले में कर लिया था.

हाल के प्रबुद्ध सम्मेलनों को बसपा 2007 में अपनाई गई अपनी रणनीति की पुनरावृत्ति बता रही है. गाजियाबाद में 10 अगस्त को हुई प्रबुद्ध समाज गोष्ठी में बसपा के महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ने उपस्थित लोगों को बताया कि 2007 की पार्टी की जीत में किस तरह ब्राह्मणों ने योगदान दिया था. उन्होंने उल्लेख किया कि उस साल बसपा का नारा था “जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी.” मिश्रा ने 2005 की भी बात की जब ब्राह्मण बसपा की रैली में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे और मायावती के नारे “जिसकी जितनी तैयारी, उसकी उतनी भागीदारी” का स्वागत किया करते थे.

लेकिन कृष्ण मोहन कहते हैं कि सतीश मिश्रा का दावा उतना सही नहीं है. मोहन ने बताया कि उस चुनाव में बसपा ने 86 ब्राह्मण उम्मीदवार को टिकट दिए थे जिनमें से 40 जीत के आए थे जो 50 फीसदी भी नहीं है. उन्होंने आगे कहा, “उस वक्त बसपा में बड़े बैकवर्ड नेता हुआ करते थे जो आज नहीं हैं और कांशीराम साहब की मौत 2006 में हुई थी तो मतदाताओं ने उनको श्रद्धांजलि स्वरूप बसपा को वोट दिया था. उस सरकार के बनने में बहुजन समाज का बड़ा योगदान था.” 2007 से हाल तक उत्तर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य बहुत हद तक बदल गया है. 2007 में कुर्मी, कुशवाहा और राजभर ने बसपा का समर्थन किया था जो अब नहीं करते हैं. कारवां में इस साल जुलाई में प्रकाशित असद रिजवी की रिपोर्ट बताती है :

2012 में 25 प्रतिशत वोट हासिल करने के बावजूद विधानसभा में बसपा की सीट घटकर 80 हो गई थी. जबकि उस चुनाव में अधिकतर मुस्लिम बहुल सीटों पर जीत दर्ज करने वाली समाजवादी पार्टी 224 सीटों और 29 प्रतिशत वोटों के साथ सत्ता में आई थी. 2017 के चुनाव में कथित तौर पर उच्च जाति, गैर-जाटव दलित और गैर-यादव अन्य पिछड़ा वर्ग समुदायों के समर्थन से 312 सीटों और 39 प्रतिशत वोटों के साथ बीजेपी सत्ता में आई. उस वर्ष बसपा का वोट प्रतिशत 22 और सीटें 19 तक आ गईं. राज्य की कुल दलित आबादी में लगभग 54 प्रतिशत और कुल आबादी में 9 प्रतिशत जाटव दलित हैं. इनके द्वारा बसपा को वोट दिए जाने के बावजूद मायावती अन्य समुदायों के समर्थन को बरकरार नहीं रख पाईं.

2007 में उत्तर प्रदेश में बीजेपी उतनी मजबूत पार्टी नहीं थी जितनी वह अब हो गई है और 2007 के बाद से बसपा 2014 के लोकसभा चुनावों में कोई सीट भी नहीं जीत पाई है. 2012 के विधानसभा चुनाव में भी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा था. 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा के 19 विधायक थे जिनमें 12 विधायकों को पार्टी से निकाल दिया है. इसके अलावा इस बार बसपा ने एलान किया है वह किसी भी दल के साथ गठबंधन नही करेंगी. 2019 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और लोकदल उसके सहयोगी थे. इस गठबंधन का फायदा उसे 10 लोकसभा सीटों में मिला. लेकिन वह गठबंधन ज्यादा दिनों तक नहीं चला और जल्द ही इसके परिणाम भी सामने आ गए.

उपरोक्त प्रबुद्ध सम्मेलनों के साथ-साथ बसपा का पिछड़ा सम्मेलन भी चल रहा है. बसपा के अंदर कोई भी पार्टी विंग नहीं होती. पार्टी के अंदर भाईचारा कमेटी और सेक्टर प्रभारी महत्वपूर्ण माने जाते हैं. पार्टी में प्रवक्ता की भूमिका भी कम ही समझी जाती थी पर इस बार चार प्रवक्ताओं की घोषणा की गई है. प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन को लेकर मायवती ने तीन बार ट्वीट किया है और इस पर अपनी दो प्रेस कॉन्फ्रेंस भी की है.

बसपा का वोटर साइलेंट वोटर समझा जाता है. माना जाता है वह ज्यादा मुखर हो कर सामने नहीं आता. बसपा के लोग मीडिया से दूरी रखते हैं. वे कहते हैं कि बसपा पार्टी नहीं मान्यवर कांशीराम का मिशन है. मैंने सतीश मिश्रा के गाजियाबाद और ग्रेटर नोएडा में हुए प्रबुद्ध सम्मेलनों को कवर करते हुए अगल-अलग स्थानों के लोगों से बात की. गजियाबाद और ग्रेटर नोएडा में मैंने पाया कि मंच पर “परशुराम की जय” नारे लग रहे थे और शंख बजा कर कार्यक्रम का उद्धघोष हो रहा था. ग्रेटर नोएडा के सम्मेलन में भाग लेने आए भट्टा परसौल के अशोक शर्मा ने बताया कि योगी सरकार में “हम लोगों का मान-सम्मान घटा है और उसे बढ़ाने के लिए ये सम्मेलन हो रहे हैं.”

शर्मा का मानना है कि ब्राह्मण चाहते हैं कि राजनीति में उनकी भी भागेदारी हो. वह कहते हैं, “बीजेपी सरकार में हमारे समाज को लेकर कुछ अनदेखी तो हो ही रही है. हमारे समाज को लग रहा है कि हमको सरकार में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां नहीं दी जा रही हैं. हमारे गांव में तो ऐसी ही चर्चा हो रही है. यहां हमारे अगल-बगल के गांवों की बात करें तो किसी गांव में 10 घर और किसी गांव में 20 घर से ज्यादा ब्राह्मणों के नहीं हैं. आसपास के इलाकों में ठाकुर और गुर्जर ज्यादा हैं. वे हम लोगों की अनदेखी करते हैं. हम लोग जब अपने घरों में बैठते हैं तो घर के बुजुर्ग, नौजवान सब मिलकर चर्चा करते हैं. सारे लोग समझते हैं कि इस शासन में हम लोगों को ज्यादा दिक्कत हुई है.” शर्मा ने बताया कि 2007 में यहां के ब्राह्मणों ने बसपा को वोट किया था लेकिन उसके बाद बसपा को इस समाज ने वोट नहीं दिया.

ग्रेटर नोएडा के ही राकेश पांडे ने मुझसे कहा कि फिलहाल ब्राह्मण समाज को सभी राजनीतिक दल साधने पर लगे हैं लेकिन बीजेपी शांत है. उन्होंने दावा किया कि बीजेपी जल्द ही अपने ब्राह्मण समाज के नेताओं को इस काम पर लगाएगी. पांडे ने कहा कि चाहे कुछ भी हो उनका समाज योगी को चाहता है.

फिर भी बीएचयू के प्रोफेसर महेश अहिवारा मानते हैं कि इन सम्मेलनों का असर होगा. उन्होंने बताया कि 2012 में बसपा के प्रति लोग दिग्भ्रमित हो गए थे लेकिन पिछले पांच साल प्रदेश में दलित और ब्राह्मण विरोधी काल रहा है और लोग कुछ भी बोलने से डरने लगे हैं.

बसपा के प्रबुद्ध सम्मेलन इसलिए भी चर्चा में हैं क्योंकि ब्राह्मण समाज मीडिया में बड़ा स्थान रखता है. इसलिए बसपा को लगता है कि ऐसा कर वह मीडिया को भी एक हद तक साध सकती है.