जमात-ए-इस्लामी और कश्मीर में मुख्यधारा की विफलता

वसीम अंद्राबी/हिंदुस्तान टाइम्स/गैटी इमेजिस

17 मार्च मध्य रात्रि से कुछ वक्त पहले अवंतीपोरा में एक स्कूल के प्रिंसिपल 29 वर्षीय रिजवान पंडित को सुरक्षा अधिकारियों ने स्थानीय पुलिस के साथ मिल कर उनके घर से गिरफ्तार कर लिया. दो दिन बाद जम्मू कश्मीर पुलिस ने एक वक्तव्य जारी किया और बताया कि रिजवान की मृत्यु पुलिस हिरासत में हो गई है और उसे आतंकवाद से संबंधित मामले में गिरफ्तार किया गया था. अब तक पुलिस ने इस बारे में बहुत कम जानकारी दी है. उसने रिजवान की गिरफ्तारी और बाद में मौत के कारण के बारे में नहीं बताया है. हालांकि पुलिस ने रिजवान की मौत के बाद उसके खिलाफ पुलिस कस्टडी से भागने की कोशिश करना मामला दर्ज किया है. शुरुआती पोस्टमार्टम रिपोर्ट में बताया गया है कि रिजवान की मौत गांवों से हुए रक्त रिसाव के कारण हुई है. रिजवान को इस्लामिक संगठन जमात-ए-इस्लामी जम्मू कश्मीर का समर्थक माना जाता था. उसके पिता असादुल्लाह पंडित इस संगठन का सदस्य है.

जमात-ए-इस्लामी जम्मू कश्मीर के सदस्यों और समर्थकों को भारतीय राज्य द्वारा सताए जाने का लंबा इतिहास है. पिछले 3 दशकों से जमात दो तरह के काम कर रहा है. वह सामाजिक-धार्मिक संगठन के रूप में स्कूलों और मस्जिदों का संचालन करता है और साथ ही राजनीतिक संगठन के रूप में वह इस्लामिक कानूनों से शासित स्वायत्त कश्मीर राज्य की स्थापना की वकालत करता है. 28 फरवरी को, रिजवान को गिरफ्तार करने से एकाध हफ्ते पहले भारत सरकार ने जमात पर प्रतिबंध लगा दिया था. इस संगठन पर लगा यह तीसरा प्रतिबंध है. हालांकि जमात-ए-इस्लामी जम्मू कश्मीर भारत के धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ढांचे का विरोध करता है फिर भी नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी जैसी मुख्यधारा की पार्टियों ने जमात पर लगाए गए प्रतिबंध का तत्काल विरोध किया. कश्मीर की राजनीतिक में जमात की भूमिका को समझना जटिल काम है.

इस साल उस पर लगे प्रतिबंध से 5 दिन पहले कश्मीर से जमात के 150 से अधिक सदस्यों को गिरफ्तार किया गया. साथ ही पुलिस ने जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के एक प्रमुख और बड़े अलगाववादी नेता यासीन मलिक को भी गिरफ्तार कर लिया. इसके अगले महीने जेकेएलएफ को भी प्रतिबंधित कर दिया गया.

जमात-ए-इस्लामी का इतिहास कश्मीर के इतिहास से और इस क्षेत्र में शासन करने वाली राजनीतिक पार्टियों के इतिहास से जुड़ा हुआ है. जमात पर लगे सभी प्रतिबंध उस समय लगाए गए जब भारत की पक्षधर मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां कमजोर पड़ी और भारत सरकार को कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन का सामना करना पड़ा. इस तीसरे प्रतिबंध के बाद 1990 के दशक में सशस्त्र बलों द्वारा जमात के सदस्यों और समर्थकों की गिरफ्तारी और उनको गायब कर देने जैसी घटनाओं की याद फिर ताजा हो गई है.

जमात की स्थापना इस्लामिक विचारक और दार्शनिक सैयद अब्दुल अल मौदूदी ने 1940 के दशक में की थी. वह मानते थे कि इस्लाम एक ऐसी व्यवस्था है जो व्यक्तिगत और सामूहिक रूप में मुसलमानों के सभी क्रियाकलापों को संचालित करती है. जिस जमात की परिकल्पना मौदूदी ने की थी वह ईश्वर के कानून द्वारा संचालित इस्लामिक राज्य की स्थापना की वकालत करता था और लोकतंत्र और धर्म निरपेक्षता के मानकों पर स्थापित राज्य व्यवस्था की खिलाफत करता था. हिंदुस्तान के बंटवारे के बाद मौदूदी पाकिस्तान चले गए और जमात दो धड़ो में बंट गया- जमात-ए-इस्लामी पाकिस्तान और जमात-ए-इस्लामी हिंद. 1952 में कश्मीर में जमात की अलग शाखा बनी जो भारतीय शाखा से अलग थी. इसका नाम था जमात-ए-इस्लामी जम्मू कश्मीर.

कश्मीर में जमात की विचारधारा ने सूफी परंपरा को चुनौती दी. सूफी परंपरा को विभिन्न धर्मों के लिए सह अस्तित्व का वातावरण निर्माण करने का श्रेय जाता है. जमात ने राजनीतिक इस्लाम की वकालत की. भारतीय राज्य कश्मीर की सूफी परंपरा को कश्मीरियत के रूप में पेश करता है. कश्मीरियत के बारे में कहा जाता है कि यह सूफी और वैष्णव हिंदू मान्यताओं का मिश्रण है. इसी नैरेटिव को दोहरा-दोहरा कर कश्मीर के सार्वजनिक जीवन में राजनीति इस्लाम को जगह नहीं दी जाती है.

हमीदा नईम जैसे बहुत से कश्मीरी शिक्षाविदों का तर्क है कि भारत सरकार ने कश्मीरियत का इस्तेमाल सूफी पहचान का अराजनीतिकरण करने और कश्मीरी राष्ट्रवादी आंदोलन को धर्मनिरपेक्षता के अपने संस्करण में समाहित करने के लिए किया है. कश्मीरियत के इस नैरेटिव के केंद्र में कश्मीर की एक पुरानी राजनीतिक पार्टी नेशनल कांफ्रेंस और उसके नेता शेख अब्दुल्ला थे. यही वह कारण है जिसमें कश्मीर में जमात-ए-इस्लामी जम्मू कश्मीर ने अपनी जड़ें जमाई. घाटी में जमात की भूमिका को समझने के लिए क्षेत्र के जटिल राजनीतिक इतिहास पर निगाह डालना जरूरी हो जाता है.

1951 में कश्मीर में हुए चुनावों में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने दिल्ली में शासन कर रही कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ा. 75 में से मात्र 2 निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव हुए क्योंकि अन्य सभी जगह विपक्षी पार्टियों को नामांकन भरने नहीं दिया गया. अब्दुल्लाह को जम्मू कश्मीर का प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया.

शेख अब्दुल्ला और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कश्मीर घाटी में कश्मीरियत के प्रचार और राजनीतिक इस्लाम के दमन में मुख्य भूमिका निभाई. यह पार्टी शुरू से ही जमात की मुखालफत करती रही है. दोनों के बीच दुश्मनी इतनी गहरी है कि जमात ने अब्दुल्लाह सरकार द्वारा प्रस्तावित ऐतिहासिक भूमि सुधार का भी विरोध किया जिसने कश्मीर में भूमि के मालिकाने की हदबंदी की और भूमिहीन किसानों और मजदूरों में इसे बांटा. वह भी भू-स्वामियों को मुआवजा दिए बिना. इस भूमि सुधार में किसानों की सामाजिक-आर्थिक हैसियत को बड़े स्तर में बदल दिया. इसके बावजूद जमात ने इस बलपूर्वक भूमि वितरण को गैर इस्लामिक करार दिया.

जमात के इस विरोध का एक कारण यह भी बताया जाता है कि उसे डर था कि कश्मीर की जनता जनमत संग्रह में अब्दुल्लाह का समर्थन कर सकती है. इस्लामिक कानून के तहत चलने वाली शासन की वकालत करने वाली जमात, पाकिस्तान के साथ विलय की पक्षधर थी. और सभी जानते हैं कि अब्दुल्लाह इस विलय के खिलाफ थे. लेकिन भारत सरकार ने जनमत संग्रह कभी होने नहीं दिया और 1953 में कश्मीर की आजादी की वकालत करने के लिए अब्दुल्लाह को गिरफ्तार कर लिया गया. वह अगले 2 दशकों तक जेल में रहे. कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कांग्रेस के समर्थन से कई बार शासन किया. 1964 में जवाहरलाल नेहरू ने नेशनल कॉन्फ्रेंस को कांग्रेस पार्टी में मिला लिया.

यही वह समय है जब जमात कश्मीर की सामाजिक और धार्मिक क्षेत्रों में घुसपैठ करने लगी. इस संगठन ने स्कूल खोले जो इस्लामिक ज्ञान को आधुनिक शिक्षा पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर पढ़ाते थे, वह अपनी पाठ्य पुस्तक खुद बनाने लगी और समय-समय पर बड़े समारोह, जिन्हें इज्तिमा कहा जाता है, करने लगी, जिसमें कश्मीरियों को जमात की सामाजिक और धार्मिक विचारधारा से परिचित कराया जाता था. अब्दुल्लाह की गिरफ्तारी और नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस की तानाशाही सत्ता ने असंख्य कश्मीरी युवाओं को जमात का समर्थक बना दिया. साथी जमात ने राज्य में साक्षरता के विस्तार का लाभ उठाया जो डोगरा शासन में अत्याधिक कम था. जमात ने किताबें प्रकाशित की और उर्दू पत्रिकाएं निकाली.

1970 आते-आते जमात द्वारा संचालित स्कूलों में कश्मीर के हजारों लोगों को शिक्षा मिलने लगी. इसके बाद संगठन ने इन सभी स्कूलों को फलाह-ए-आम यानी “सभी का कल्याण” नाम के ट्रस्ट में मिला दिया. 1972 में ट्रस्ट को “गैर राजनीतिक संस्था” के रूप में पंजीकृत करा लिया जो “मानवता की सेवा और शिक्षा को समर्पित है”. जमात के स्कूल और सामाजिक गतिविधियों ने कश्मीरी समाज में इसकी लोकप्रियता और स्वीकार्यता को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाई.

जमात का संगठनिक ढांचा संस्थागत और वर्गीकृत है. इसके शीर्ष में अध्यक्ष या अमीर होता है. जमात का सदस्य बनने के लिए कई साल तक सामाजिक और धार्मिक सेवा का प्रशिक्षण लेना पड़ता है और यही कारण है कि जमात के सदस्य हमेशा से ही बहुत सीमित संख्या में रहे हैं. बशारत पीर ने “कर्फ्यूड नाइट” किताब में जमात को कश्मीर में “अल्पसंख्यक” बताया है. यदि सदस्यता के लिहाज से देखें तो पीर की यह बात सच है लेकिन यदि उसको मिलने वाले समर्थन की बात करें तो जमात की लोकप्रियता आज कश्मीर में किसी भी राजनीतिक समूह से अधिक है.

जमात में चुनावी राजनीति में पहले पहल 1963 में पंचायती चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवारों को उतार कर प्रवेश किया था. 1969 में भी जमात ने ऐसा ही किया. उस वक्त ऐसा करने के लिए जमात को भारी आलोचना का सामना करना पड़ा था. इसके जवाब में जमात ने अपने विरोधियों को कहा था कि शक्तिशाली पदों में रहकर वह अपने संदेश का अधिक प्रभावशाली तरीके से प्रसार कर सकती है. 1970 के शुरुआती सालों में संगठन के महासचिव रहे कारी सैफुद्दीन ने चुनाव में भाग लेने के निर्णय का बचाव यह कहकर किया था कि “यदि संवैधानिक और लोकतांत्रिक माध्यमों से प्रशासन के कामकाज में किसी भी तरह का सुधार लाया जा सकता है तो जमात इसकी अनदेखी नहीं कर सकती.”

लेकिन जमात विधानसभा में ज्यादा सफलता हासिल नहीं कर पाई. 1971 में जमात ने लोकसभा चुनावों में भाग लिया लेकिन सभी सीटों पर उसकी हार हुई. इसके अगले साल हुए विधानसभा चुनावों में जमात ने 22 सीटों पर चुनाव लड़ा और 5 सीटों पर उसे जीत मिली. यह अब तक का उसका सबसे अच्छा प्रदर्शन है. 1987 तक जमात चुनावों में भाग लेती रही. जमात के पूर्व सदस्य और अलगाववादी नेता अब्दुल गनी भट्ट के अनुसार चुनावों में भाग लेना जमात के संदेशों के प्रचार का साधन था. साप्ताहिक पत्रिका कश्मीर लाइफ को भट्ट ने बताया, “ हमारा उद्देश्य युवाओं को शिक्षित और क्रियाशील रखना था. हमने यही किया. हम सरकार बनाना कभी नहीं चाहते थे.”

1970 के दशक में भारत में बदल रहे राजनीतिक वातावरण ने जमात को बहुत हद तक प्रभावित किया. 1971 में पाकिस्तान के साथ भारत के युद्ध के बाद बांग्लादेश अस्तित्व में आया. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो और भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शिमला समझौते पर हस्ताक्षर किए और “दोनों देशों के बीच के विवादों को शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाने” का करार किया. यहां तक की कश्मीर विवाद को भी द्विपक्षीय वार्ता का मामला बना दिया और अन्य शांतिपूर्ण उपाय की ठीक से खोज नहीं की गई. आने वाले सालों में भारत ने दावा किया कि कश्मीर उसकी आंतरिक समस्या है और इसका पाकिस्तान से कोई लेना देना नहीं है.

1975 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की जिसे अब्दुल्लाह ने जम्मू कश्मीर में विस्तार होने दिया. इस बात के बावजूद की धारा 370 के तहत भारतीय संविधान, इस क्षेत्र में आपातकाल के विस्तार को रोकता है. पॉल पॉपर/गैटी इमेजिस

युद्ध में भारत की जीत के बाद अब्दुल्लाह नरम पड़ गए. उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया. अब्दुल्लाह ने इंदिरा गांधी के साथ समझौता कर लिया और वह कश्मीर के मुख्यमंत्री बन गए. लेकिन वह कांग्रेस सरकार के मुखिया बने. यहां तक की अब्दुल्लाह ने भारत में कश्मीर के विलय को स्वीकार कर लिया और आत्म निर्णय की मांग का दमन किया. जमात ने इंदिरा-अब्दुल्लाह समझौते का पुरजोर विरोध किया. जमात ने इसे कश्मीर पर राष्ट्र संघ के प्रस्ताव का उल्लंघन बताया. उस प्रस्ताव में जनमत संग्रह को कश्मीर विवाद के समाधान के लिए जरूरी बताया गया है. हालांकि अन्य पक्षों से इस समझौते का बहुत विरोध नहीं हुआ लेकिन जमात समर्थन जुटाने और इसके खिलाफ आंदोलन करने में समर्थ रही. जमात ने अब्दुल्लाह पर बिक जाने और मुख्यमंत्री पद के लिए कश्मीर और कश्मीर की जनता के साथ धोखेबाजी करने का आरोप लगाया. परिस्थिति पर नियंत्रण पाने और घाटी में भारत की जगह बनाने के लिए अब्दुल्लाह ने जमात के खिलाफ कार्रवाई करने का निर्णय किया.

1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की और अब्दुल्लाह ने जम्मू कश्मीर में इसे विस्तार होने दिया जबकि धारा 370 के तहत भारतीय संविधान, इस क्षेत्र में आपातकाल के विस्तार को रोकता है. आपातकाल की घोषणा के तुरंत बाद जमात पर पहली बार प्रतिबंध लगा दिया गया. क्षेत्र में उस वक्त नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस पार्टियां ही सक्रिय थीं.

इसके बाद जमात के कार्यालयों को सील कर दिया गया, इसके स्कूलों को बंद कर दिया गया और निर्वाचित प्रतिनिधियों, जिसमें सैयद अली शाह गिलानी भी शामिल थे, गिरफ्तार कर लिया गया. गिलानी ने अपनी आत्मकथा “वुलकर किनारे” में लिखा है कि इंदिरा गांधी जम्मू-कश्मीर में आपातकाल लगाने के खिलाफ थीं, लेकिन विरोधियों को कुचलने की मंशा से अब्दुल्लाह ने जम्मू कश्मीर में आपातकाल लगाने के लिए इंदिरा को तैयार कर लिया. 1977 तक जमात पर प्रतिबंध लागू रहा.

प्रतिबंध के बाद जमात ने अपने आधार को विस्तार देना शुरू किया. कश्मीर में उसने बड़ी-बड़ी जन सभाएं आयोजित की और अपनी छात्र शाखा जमात-ए-तुलबा की स्थापना की. 1979 में तुलबा के पहले अध्यक्ष शेख ताजम्मुल के नेतृत्व में तुलबा ने सरकारी स्कूलों में अनिवार्य इस्लामिक शिक्षा शामिल करने की मांग के साथ आंदोलन शुरू किया. उन लोगों को कश्मीरी युवाओं के बढ़ते पश्चिमीकरण का भय था और वह इस्लाम की दुहाई देकर इसे रोकना चाहते थे.

प्रतिबंध के बाद जैसे-जैसे जमात खुद को पुनः स्थापित करने में लगा था पाकिस्तान में चल रही गतिविधियों का असर कश्मीर में भी पड़ने लगा. 4 अप्रैल 1979 में जिया उल हक ने जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी पर लटका दिया. 2 साल पहले एक सैन्य तख्तापलट के जरिए जिया उल हक पाकिस्तान के छठें राष्ट्रपति बन गए थे. भुट्टो को फांसी होने के बाद, नेशनल कॉन्फ्रेंस के कार्यकर्ताओं ने जमात और उसके सदस्यों पर हमला करना शुरू कर दिया. उन लोगों ने आरोप लगाया कि जमात, जिया की करीबी है और भुट्टो की फांसी में भी इसका हाथ है. जमात के खिलाफ बड़े पैमाने पर हुई हिंसा को अब्दुल्लाह सरकार का सक्रिय समर्थन मिला. जमात के सदस्यों के सेब के बागानों को काट दिया गया. यहां तक कि उसके स्कूल भी जला दिए गए. सैंकड़ों जमाती सदस्यों और समर्थकों को अपने परिवार के साथ गांव छोड़ कर भागना पड़ा. कई इलाकों में यह हमले 3 दिन और कई जगह हफ्ते भर होते रहे. जमात के अनुमान के हिसाब से 38 करोड़ रुपए की उसकी संपत्ति नष्ट कर दी गई.

1980 में आत्म निर्णय के लिए कश्मीरी आंदोलन में शक्तिशाली उभार आया जो दशक के अंत तक उग्र संघर्ष में बदल गया. 1983 के विधानसभा चुनावों में जमात ने 26 सीटों से चुनाव लड़ा लेकिन वह एक भी सीट नहीं जीत पाई. जमात ने चुनाव में धांधली का आरोप लगाया. शेख अब्दुल्लाह के बेटे फारूक अब्दुल्लाह के नेतृत्व वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस ने इस चुनाव में स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया. इसके बाद वाले सालों में भारत में मुस्लिम विरोधी दक्षिणपंथी विचारधारा के उभार और कश्मीरी राजनीति में आंतरिक लोकतंत्र की कमी के कारण भारत विरोधी आंदोलन तीव्र हो गया. जमात और जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट जैसे उग्रवादी समूहों ने इस स्थिति का फायदा उठा कर आंदोलन के लिए समर्थन जुटाया.

1987 के विधानसभा चुनावों में यह टकराहट चरम पर पहुंच गई. इस विधानसभा चुनाव को कश्मीर की राजनीतिक इतिहास का महत्वपूर्ण चरण माना जाता है. साथ ही यह चुनाव वह आखिरी चुनाव था जिसमें जमात ने प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया. चुनाव से पहले कश्मीर में मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट का उदय हुआ जिसे जमात का समर्थन हासिल था. इसे कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रभुत्व को चुनौती देने के लिए बनाया गया था. मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट ने कश्मीर में इस्लामिक सत्ता स्थापित करने की घोषणा के साथ चुनाव लड़ा. जैसे ही मतगणना आरंभ हुई यह स्पष्ट हो गया कि मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट को अच्छा समर्थन मिला है और बहुत से लोगों ने अनुमान लगाया कि उसे 15 से 20 सीटें मिल सकती हैं.

फिर भी जब परिणाम आए तो नेशनल कॉन्फ्रेंस को 40 सीटों में जीता बताया गया. कांग्रेस को 26 सीटें मिली और मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट ने 4 सीटों पर जीत हासिल की. व्यापक तौर पर माना जाता है कि उन चुनावों में धांधली हुई थी. ऐसी रिपोर्टें भी आईं कि गुंडों ने मतदान केंद्रों पर कब्जा कर लिया और नेशनल कॉन्फ्रेंस की मोहर वाले बैलट बॉक्सों को रख दिया. मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के कई नेताओं को गिरफ्तार कर लिया और इसके नेताओं की मतगणना केन्द्र में पिटाई की गई. चुनाव परिणामों ने कई आंदोलनों को जन्म दिया और सशस्त्र द्वंद शुरू कर दिया.

मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट का समर्थन करने वाले बहुत से कश्मीरी युवा हथियारों की ट्रेनिंग लेने पाकिस्तान जाने लगे. ट्रेनिंग के बाद यह लोग आजादी के समर्थक आतंकी समूह के सदस्यों के रूप में वापस आते. मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के उम्मीदवार मोहम्मद युसूफ शाह ने अपना नाम सैयद सलाहुद्दीन कर लिया और आगे चल कर वह हिजबुल मुजाहिदीन का प्रमुख बन गया. सलाहुद्दीन के चुनाव के प्रबंधक यासीन मलिक जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट प्रमुख बन गए.

जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट की स्थापना उग्रवादी नेता अमानुल्लाह खान और मकबूल भट्ट ने 1960 के दशक में जम्मू कश्मीर नेशनल लिबरेशन फ्रंट के नाम से पाकिस्तान के मुजफ्फराबाद में की थी. इस फ्रंट के बनने के तत्काल बाद भट्ट कश्मीर लौट आए और कश्मीरी युवाओं को ट्रेनिंग देने लगे. उन्हें 1966 में एक अपराध के लिए गिरफ्तार कर लिया गया. उन्होंने अपने बचाव में कहा कि “1953 में शेख अब्दुल्लाह की गिरफ्तारी और उन्हें अपदस्थ करने के बाद, कश्मीर में जो नए राजनीतिक वातावरण का निर्माण हुआ है वह उन्हें मंजूर नहीं है.” 1980 में उन्हें मौत की सजा सुनाई गई और इसकी 4 साल बाद उन्हें फांसी दे दी गई. उनकी मौत के बाद जमात ने अपने मुखपत्र अजान में शोक संदेश छापा जिससे ऐसा संदेश जा रहा था की जमात आजादी के लिए सशस्त्र संघर्ष से दूर रहने की इच्छा रखती है. उस संदेश में जमात ने भट्ट के लिए शहीद शब्द का इस्तेमाल नहीं किया.

1987 के चुनावों में हुई धांधली के बाद जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट ने पाकिस्तान और भारत से स्वतंत्र कश्मीर राष्ट्र की स्थापना के लिए सशस्त्र आंदोलन का नेतृत्व किया. आंदोलन में उसे मुजफ्फराबाद और लंदन में रहने वाले कार्यकर्ताओं का समर्थन प्राप्त हुआ. यासीन मलिक भी पाकिस्तान चले गए और 1989 में जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के सैन्य कमांडर की हैसियत से घाटी में वापस आ गए. इसके तुरंत बाद हिजबुल मुजाहिदीन भी अस्तित्व में आ गया.

हालांकि हिजबुल मुजाहिदीन और जेकेएलएफ कश्मीर की आजादी के लिए भारतीय राज्य से लड़ रहे थे, फिर भी बनने वाली सरकार की तस्वीर को लेकर दोनों में विचारधारा के स्तर पर अंतर था. हिजबुल मुजाहिदीन के संस्थापक और पूर्व प्रमुख मोहम्मद एहसान दार ने अपने संगठन को जमात का तलवारधारी हाथ बताया है. जमात ने कभी भी औपचारिक तौर पर इस संबद्धता को स्वीकार नहीं किया है तो भी इसने आतंकी समूह या दार के वक्तव्य को खारिज नहीं किया. जमात की तरह ही, हिजबुल मुजाहिदीन भी स्वतंत्र इस्लामिक राज्य की स्थापना की बात करता है. यहां तक कि जमात के अधिकांश सदस्यों ने सार्वजनिक तौर पर खुद को हिजबुल मुजाहिदीन के साथ जोड़ा है. इससे हिजबुल मुजाहिदीन और उसका संगठन मजबूत हुआ है. दूसरी और जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट, धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के सिद्धांतों पर आधारित राज्य की स्थापना की बात करता है. परिणाम स्वरूप कश्मीर में दोनों समूहों के बीच कई बार टकराव हुआ है दोनों ही तरफ से कई लोगों की मौत हुई है. लेकिन कश्मीर में हिजबुल को प्राप्त सामाजिक और संगठनिक स्वीकारता, जिसके पीछे जमात का अप्रत्यक्ष समर्थन भी है, के कारण जम्मू कश्मीर लिबरेशन को पीछे हटना पड़ा.

1990 के दशक में पॉपुलर पॉलिटिक्स की जगह आतंकी समूहों ने ले ली. विभिन्न आतंकी समूहों से जुड़े हजारों आतंकियों ने न केवल भारतीय सत्ता के सैन्य प्रतीकों पर हमला किया बल्कि भारत के समर्थकों पर भी हमला करना शुरू कर दिया. सितंबर 2010 में कारवां में प्रकाशित गिलानी की प्रोफाइल में जमात के पूर्व अध्यक्ष शेख मोहम्मद हसन ने बताया है कि शुरुआत में आतंकियों को समर्थन देने में अलगाववादी नेता हिचकिचा रहे थे लेकिन बाद में यह माना कि उसकी छात्र शाखा तुलबा के सदस्य हिजबुल में शामिल हैं. हसन ने एक बात को याद करते हुए बताया गिलानी ने कहा था कि हम लोग “मोर्चें पर लड़ रहे अपने आदमियों से नाता नहीं तोड़ सकते”.

भारत सरकार के दमन के बाद विद्रोह ने और गंभीर रूप ले लिया. जनवरी 1990 में जगमोहन को जम्मू कश्मीर का राज्यपाल नियुक्त किया गया. जगमोहन की नियुक्ति के दो दिन बाद केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल ने 50 से अधिक प्रदर्शनकारियों को मार डाला. इस हत्याकांड को “गांव काडल नरसंहार” के नाम से जाना जाता है. इसके बाद भी कई नरसंहार हुए. इसी दौरान उग्रवादियों ने कश्मीरी पंडितों को लक्ष्य बनाया और घाटी से सैकड़ों और हजारों पंडितों ने पलायन किया.

आतंक रोधी अभियानों और हिंसक उग्रवाद के बीच 1990 में जगमोहन प्रशासन ने एक बार फिर जमात पर प्रतिबंध लगा दिया जो 1995 तक कायम रहा. एक बार फिर जमात के स्कूलों को बंद कर दिया गया और उसके कार्यालयों को सील कर दिया गया. इस बार जमात का दमन ज्यादा तीव्र था. इसके कई सदस्यों की हत्या हुई. 1994 में जेकेएलएफ से निकले एक आतंकी संगठन, इखवान उल मुसलमीन, ने स्वयं को आतंक रोधी मिलिशिया के रूप में परिवर्तित कर लिया और भारत सरकार के लिए काम करने लगा. इखवान के सदस्य आत्मसमर्पण करने वाले आतंकी होते थे जिन्हें भारत की सरकार और सुरक्षा एजेंसियों का समर्थन मिलता था. इन लोगों ने खासतौर पर जमात के सदस्यों को निशाना बनाया ताकि हिजबुल मुजाहिदीन के साथ सामाजिक और वैचारिक संबंध को तोड़ा जा सके.

जब आतंकवाद की तीव्रता कम होने लगी तो इखवान के सदस्यों को स्थानीय पुलिस, भारत सीमा सेना और यहां तक कि कश्मीर के राजनीतिक दलों में शामिल किया जाने लगा. जब जमात के सदस्यों पर हमला होने लगा तो 1997 में जमात ने खुद को सार्वजनिक तौर पर उग्रवाद से दूर कर लिया. दूसरे प्रतिबंध में जमात के जिन सदस्यों को गिरफ्तार किया गया था उनमें उस वक्त जमात के अध्यक्ष गुलाम मोहम्मद भट्ट भी थे. रिहा होने के बाद उन्होंने घोषणा की कि जमात का किसी भी उग्रवादी संगठन से संबंध नहीं है.

दूसरे प्रतिबंध में जमात के जिन सदस्यों को गिरफ्तार किया गया था उनमें उस वक्त जमात के अध्यक्ष गुलाम मोहम्मद भट्ट भी थे. शाहिद तांत्रे

व्यापक तौर पर माना जाता है कि इस तरह की सार्वजनिक घोषणा के बाद जमात के अंदर कलह हो गया था. उदाहरण के लिए गिलानी, 1950 के दशक से जमात के सदस्य रहे, का हमेशा ही सशस्त्र संघर्ष की तरफ झुकाव था. असल में उग्रवाद के तीव्र होने के बाद गिलानी को हिजबुल मुजाहिदीन के सदस्य अपना आध्यात्मिक नेता मानने लगे थे. भट्ट की घोषणा के बाद गिलानी ने अपना विरोध स्पष्ट कर दिया. उन्होंने घोषणा की कि “उग्रवाद के बारे में उनका कथन उनका अपना व्यक्तिगत विचार है और इसे पार्टी का विचार नहीं माना जाना चाहिए.” जब 2000 में भट्ट फिर जमात के अमीर बने तो दोनों के बीच चल रहा शीत युद्ध संगठन के अंदर कई गुटों को जन्म दे चुका था. बाद में गिलानी जमात से अलग हो गए और 2004 में तारीख-ए- हुर्रियत नाम से अलगाववादी समूह बना लिया.

जुलाई 1999 में पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने घोषणा की कि वह कांग्रेस से अलग होकर खुद की जम्मू कश्मीर पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी का गठन कर रहे हैं ताकि नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रभुत्व को चुनौती दी जा सके. 2002 में पहली बार चुनाव लड़ रही पीडीपी ने 16 सीट जीतकर कांग्रेस के साथ गठबंधन सरकार बना ली. कश्मीरियों को भारतीय मुख्यधारा राजनीति के पक्ष में करने के लिए सालों तक नेशनल कॉन्फ्रेंस को समर्थन देने के बाद पीडीपी के रूप में कांग्रेस को नई सहयोगी पार्टी मिल गई थी.

पीडीपी ने जनता को मोबिलाइज करने के लिए उन्हीं प्रतीकों का इस्तेमाल किया जिनका पूर्व में नेशनल कॉन्फ्रेंस करती रही थी. इसके अधिकांश प्रतीक इस्लामिक और पाकिस्तान समर्थक होते थे. उदाहरण के लिए शेख अब्दुल्लाह के सहयोगी मिर्जा अक्सर अपनी जेब में पाकिस्तानी नमक की ढेली लेकर चलते थे जो हरे रंग के रुमाल में लिपटी रहती थी. अपने भाषण के अंत में वह नाटकीय अंदाज में ढेली को निकाल कर दर्शकों को दिखाते मानो कहना चाहते हो यदि उनकी पार्टी जीती तो पाकिस्तान दूर नहीं रह जाएगा. लेकिन यह बस एक दिखावा था.

पीडीपी और सईद की बेटी महबूबा मुफ्ती ने इसी रणनीति को दोहराया. उदाहरण के लिए पीडीपी पार्टी के झंडे के लिए हरे रंग का इस्तेमाल किया और मुफ्ती ने चुनाव प्रचार में हरे रंग का अबाया पहन कर प्रचार किया. यह दोनों ही प्रति इस्लाम और पाकिस्तान से संबंध का इशारा हैं. पार्टी के प्रतीक के रूप में कलम और दवात का प्रयोग भी महत्वपूर्ण चौकी यह मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट का भी प्रतीक था. 1996 के बाद मुफ्ती लापता और हत्या कर दिए गए आतंकियों के परिवार से मिलने लगीं. अभी हाल में सत्ता से बाहर हो जाने के बाद महबूबा मुफ्ती ने इस तरह की मुलाकात करना शुरू कर दी है जिसमें वह उन लोगों को न्याय देने का आश्वासन देती हैं.

पीडीपी का जमात के साथ बहुत ही दिलचस्प संबंध है. 2008 के विधानसभा चुनावों के बाद इंडियन एक्सप्रेस ने एक हेड लाइन बनाई थी : “बहिष्कार की अपील के बावजूद जमात के कार्यकर्ताओं ने पीडीपी का समर्थन किया”. उस रिपोर्ट में जमात की मजबूत उपस्थिति वाले स्थान के एक निवासी को यह कहते हुए कोट किया गया है कि उसने पीडीपी को उसके चुनाव चिन्ह की वजह से वोट दिया है. रिपोर्ट में आगे लिखा है, “यह स्पष्ट है कि कुछ अपवादों को छोड़कर कशमीर भर में जमात-ए-इस्लामी के समर्थकों ने पीडीपी को वोट दिया है”. जमात के अध्यक्ष ने इन आरोपों का खंडन किया और कहा कि “कुछ समर्थकों ने हो सकता है वोट दिया हो लेकिन जमात के सदस्य और जमात के समर्थक में स्पष्ट अंतर है.” जमात के समर्थकों के कारण जब भी उसे इस तरह परेशानी का सामना करना पड़ता है जमात इसी तरह से अपना बचाव करती है.

जमात के राजनीतिक इतिहास और नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ उसके शत्रुतापूर्ण संबंधों के मद्देनजर इस बात की संभावना है कि उसने सक्रिय तौर पर चुनावों में पीडीपी का समर्थन किया हो. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अंत में लिखा है: “जैसा कि राजनीतिक गठबंधन में होता है पीडीपी और जमात तब तक दोस्त हैं जब तक उनके साझा शत्रु का अस्तित्व है.” इस बात पर विवाद हो सकता है या जमात ने नेशनल कॉन्फ्रेंस को सत्ता से बाहर करने के लिए पीडीपी का इस्तेमाल किया या पीडीपी ने चुनाव जीतने के लिए जमात का. फिर भी यह स्पष्ट है कि कांग्रेस सरकार ने नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेतृत्व को हटाकर नरम अलगाववाद की छवि वाली पार्टी को श्रीनगर में भारत के नए प्रतिनिधि के तौर पर स्थापित होने दिया.

आज महबूबा मुफ्ती जमात पर लगे प्रतिबंध का पुरजोर विरोध कर रही हैं और उन्होंने घोषणा की है कि यदि पीडीपी सत्ता में आई तो वह जमात और जेकेएलएफ पर लगे प्रतिबंध को हटा देगीं. उनकी पार्टी ने दोनों ही प्रतिबंधित समूह को कानूनी सहायता की पेशकश की है. लेकिन जुलाई 2016 में जब हिजबुल कमांडर बुरहान वानी की हत्या हुई थी उस वक्त मुफ्ती ने, जो मुख्यमंत्री थीं, जमात पर अप्रत्यक्ष हमला भी किया था. उन्होंने कहा था कि “इखवान के दौर में जो लोग घर नहीं जा सकते थे वह लोग आज सरकार के खिलाफ षड्यंत्र कर रहे हैं”. मुफ्ती ने कहा था कि यह “लोग अकृतज्ञ हैं”. जमात पर अकृतज्ञ होने का आरोप लगाकर शायद वह यह सुझाव दे रही थीं कि उन्होंने इखवान के अत्याचारों से बचने में जमात के लोगों की मदद की थी और जब उनकी सरकार को उनकी जरूरत थी तो वह लोग मदद नहीं कर रहे हैं.

2014 में भारत में हुए लोकसभा चुनाव ने जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव क्षेत्र की राजनीति को बड़े स्तर में बदल दिया. आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस को शिकस्त दी और विधानसभा चुनावों में भी उसने राज्य में 25 सीटें जीत ली. इसके बाद बीजेपी ने पीडीपी के साथ मिल कर राज्य में सरकार बना ली. बीजेपी का सत्ता में आना, कश्मीरियों को 1950 के दशक की जम्मू प्रजा परिषद पार्टी के चुनाव अभियान की याद दिलाता है. जम्मू प्रजा परिषद की स्थापना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता बलराज मधोक ने की थी जो बाद में भारतीय जन संघ में विलय हो गई. अपने चुनाव प्रचार में जम्मू प्रजा परिषद ने “एक निशान, एक विधान और एक प्रधान” की मांग उठाई थी. प्रजा परिषद के नारे की निरंतरता के तहत बीजेपी ने लगातार धारा 370 को खत्म करने की मांग की है.

आतंकवाद के सालों बाद जमात ने खुद को विद्रोह की राजनीति से अलग कर लिया है और समाज सेवा, शिक्षा और धार्मिक सुधार जैसे क्षेत्रों पर ध्यान दे रही है. जमात द्वारा संचालित स्कूलों और अनाथालय में जम्मू कश्मीर पुलिस अधिकारियों के बच्चों को भी दाखिल किया जाता है. जुलाई 2015 में श्रीनगर के पुलिस कंट्रोल रूम ने राहत मंजिल अनाथालय और स्कूल के बच्चों के लिए इफ्तार का आयोजन किया. राहत मंजिल का संचालन जमात करती है और इसमें तकरीबन 500 बच्चे रहते हैं. इस कार्यक्रम में आने वालों में आतंक रोधी अभियानों की पहचान रखने वाले, पुलिस के वरिष्ठ अधीक्षक इम्तियाज हुसैन भी शामिल हुए. इसके अतिरिक्त 2014 में जम्मू में आई बाढ़ के दौरान राहत और पुनर्वास प्रयासों में जमात और तुलबा ने प्रमुख भूमिका निभाई. इस काम के लिए कश्मीरी समाज ने इन संगठनों की बहुत सराहना की है.

2014 में जम्मू में आई बाढ़ के दौरान राहत और पुनर्वास प्रयासों में जमात और तुलबा ने प्रमुख भूमिका निभाई. इस काम के लिए कश्मीरी समाज ने इन संगठनों की बहुत सराहना की है. अदनान अबीदी/रॉयटर्स

जमात के इतिहास से यह समझ आता है कि भारत सरकार 1940 के दशक से अनुशासन को बनाए रखने के लिए एक ही तरीका अपना रही है. जब स्वतंत्रता पूर्व की राजनीतिक पार्टी मुस्लिम कॉन्फ्रेंस कश्मीर का विलय पाकिस्तान में किए जाने की बात कर रही थी तब भारत ने उस पार्टी और उसकी राजनीति को समाप्त करने के लिए नेशनल कॉन्फ्रेंस की स्थापना की. इसी तरह के कदम उसने शेख अब्दुल्ला के खिलाफ भी उठाए. तब से लेकर आज तक भारत ने समय-समय पर जमात का दमन किया है ताकि कश्मीर की मुख्यधारा की पार्टियां भारत के हितों की रक्षा घाटी में करती रहें.

हालांकि जमात, कश्मीर में इस्लामिक सिद्धांतों के आधार पर पुरानी व्यवस्था के खिलाफ नया भाष्य तैयार करना चाहती है लेकिन उसके संगठन का इतिहास यह भी दिखाता है अपने इस मकसद को पाने के लिए उसने कई बार अपनी आधारभूत विचारधारा से समझौता भी किया है. उसने चुनावों में हिस्सेदारी की, इसके बाद उसने जानबूझ कर कश्मीरी उग्रवादी आंदोलन से अपने रिश्ते को अस्पष्ट रखा और हाल में ही उसने आत्म निर्णय वाली राजनीति से खुद को दूर कर समाज सेवा में ध्यान केंद्रित किया है. इसके अतिरिक्त जमात की छात्र शाखा तुलबा, कश्मीर प्रशासनिक सेवा में छात्रों के लिए करियर काउंसलिंग भी चलाता है. कश्मीर प्रशासनिक सेवा जम्मू कश्मीर में धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र से जुड़ी संस्थाओं के प्रभावकारी प्रशासन के लिए भारत सरकार का सहयोग करती है. यह बात जमात विचारधारा से सीधे तौर पर अलग है.

इस संदर्भ में एक सवाल खड़ा होता है कि भारत में जमात पर प्रतिबंध क्यों लगाया. पिछले कई सालों से, खासतौर पर 2008 में अमरनाथ मंदिर प्रबंधन बोर्ड को जंगल की 100 एकड़ जमीन हस्तांतरित करने को लेकर हुए आंदोलन के बाद भारत सरकार घाटी में हालात के सामान्य होने की बात को स्थापित करने के लिए जूझ रही है. सड़कों में इसका नियंत्रण खत्म हो गया है और हिंसा और धमकी की बदौलत यह भूभाग अपना नियंत्रण चला रही है. इसके अतिरिक्त उन दलों ने भी जिन्होंने चुनावों में भाग लिया और उनके नेताओं और कई सारे राजनीतिक विश्लेषकों ने बार-बार माना है कि कश्मीर में मुख्यधारा की पार्टियां अप्रासंगिक हो रही हैं.

बीजेपी और पीडीपी गठबंधन में टूट हो जाने के बाद कश्मीर में दिल्ली के नजदीकी आ गए सज्जाद लोन ने भी कहा है कि धारा 35 ए को हटाने के प्रयास से मुख्यधारा का स्थान अप्रासंगिक बन जाएगा. कांग्रेस के नेता तारिक हमीद कारा ने भी कहा है कि मुख्यधारा की पार्टी और राजनेता अप्रासंगिक बन गए हैं. नेशनल कांफ्रेंस के नेता नासिर असलम वानी और पीडीपी के नेता निजामुद्दीन भट्ट ने भी मुख्यधारा की राजनीति के कमजोर पड़ जाने की बात की है. फरवरी 2019 में इंडियन एक्सप्रेस में लिखे एक लेख में बीजेपी के महासचिव राम माधव ने भी लिखा है, “कश्मीर घाटी में क्षेत्रीय समझदारी को लेकर भारत बड़ी समस्या में है जिससे पाकिस्तान को मदद मिल रही है. यह नरैटिव अलगाववादी है- अलगाववाद और विक्टिमहुड का है”.

यह सच है कि आज के कश्मीर में मुख्यधारा की राजनीतिक गतिविधियां किनारे लगा दी गई हैं. चुनावी रैलियों की संस्कृति खत्म हो गई है. राजनीतिक दलों को अपने सुरक्षित कार्यालयों में या कुछ चयनित स्थानों में सार्वजनिक बैठकें करनी पड़ रही है. लोग निर्वाचन क्षेत्रों में राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ मारपीट करते हैं. तीन सालों से ज्यादा समय से अनंतनाग संसदीय सीट खाली पड़ी है क्योंकि निर्वाचन आयोग सुरक्षा स्थिति के मद्देनजर उप चुनाव कराने में असफल है. जून 2016 में मुफ्ती ने जब विधानसभा चुनाव में भाग लेने के लिए सीट छोड़ी थी तभी से सीट खाली है. अब इस सीट पर आने वाले आम चुनावों में चुनाव होगा. लेकिन इस एकमात्र सीट में भी अप्रैल से मई के बीच तीन चरणों में चुनाव होगा. साथ ही निर्वाचन आयोग ने घोषणा की है कि उम्मीदवारों की सुरक्षा के मद्देनजर विधानसभा चुनाव आम निर्वाचन के साथ नहीं होंगे.

हाल के सालों में मिलिटेंसी से जुड़ने वाले लोगों की संख्या में इजाफा हुआ है जिसके चलते मुख्यधारा के अप्रासंगिक होनी की छवि बन गई है. लोग उग्रवादियों के अंतिम संस्कार में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं और भारतीय सशस्त्र बलों के फल्श आउट अभियानों के बाद उनका समर्थन कर रहे हैं. सशस्त्र बल मिलिटेंसी को खत्म करने या उसके ओवरग्राउंड संजाल को तोड़ने में असफल साबित हुए हैं. इसी संदर्भ में जमात पर भारतीय आक्रामकता को समझना चाहिए क्योंकि कश्मीर में आज भी जमात को अलगाववाद के लिए जनमत तैयार करने वाला मुख्य समूह माना जाता है. बावजूद इसके कि उसने खुद को इससे राजनीतिक रूप से अलग कर लिया है.

ऐसा लगता है कि कश्मीर में मुख्यधारा की गतिविधियों को चलाने के लिए भारत सरकार ने इसके विचारधारात्मक विरोध को खत्म करने का फैसला लिया है. साथ ही भारत सरकार द्वारा राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के बाद, जो अब कम से कम जून 2019 तक जारी रहेगा, बीजेपी ने विवादास्पद मुद्दों को उठाना शुरू कर दिया है. उदाहरण के लिए बीजेपी-पीडीपी गठबंधन ने धारा 370 में उल्लेखित जम्मू-कश्मीर के लिए विशेष प्रावधानों को जारी रखने का आश्वासन दिया था लेकिन आगामी चुनावों से पहले यह विवादास्पद बन गया है.

28 मार्च 2019 को वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने ब्लॉग में लिखा कि “धारा 35-ए संवैधानिक रूप से कमजोर धारा है जो जम्मू और कश्मीर के लोगों को समृद्धि होते अर्थतंत्र, आर्थिक गतिविधियां और रोजगार से वंचित रखती है”. गौरतलब है कि तीसरी बार प्रतिबंध लगने से जमात के सदस्यों की धरपकड़, सुप्रीम कोर्ट में संवैधानिक प्रावधानों को चुनौती देने वाली याचिका के दायर होने से दो दिन पहले की गई.

जमात के दमन का लक्ष्य केवल कश्मीरी मुख्यधारा को चुनाव लड़ने के लिए माहौल बना कर देना नहीं है. कश्मीर में भारत की सैन्य शक्ति को देखते हुए और लोकसभा चुनावों के मद्देनजर विधानसभा चुनाव किसी भी वक्त कराया जा सकता है और मन चाहा मत प्रतिशत हासिल किया जा सकता है. नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी या बीजेपी सरकार बना सकती है और कश्मीर में सामान्य स्थिति का नाटक जारी रखा जा सकता है.

जमात और जेकेएलएफ जैसी अन्य आजादी समर्थक पार्टियों पर प्रतिबंध लगाने का मकसद, राजनीतिक दलों को प्रतिरोध रहित सार्वजनिक स्पेस उपलब्ध कराना है जहां विरोध का स्वर सुनाई न पड़ता हो. इसका असली मकसद भारत समर्थक नजरिया बनाना है जो दिखाता हो कि हर कश्मीरी की पसंद भारत है. राम माधव का लेख उस बात की ओर इशारा करता है जिसे भारत सरकार यहां हासिल करना चाहती है. वह लिखते हैं, “यदि वह गुमराह है तो उसे रास्ता दिखाइए, यदि वह शरारती है तो उसे सजा दीजिए, यदि वह गद्दार है तो उसे मिटा दीजिए, लेकिन उसके भीतर भारत को भर दीजिए.”