बंगाल में संघ के "ग्राउंडवर्क" की फसल काटने को तैयार बीजेपी

2017 में पश्चिम बंगाल में जिलों-जिलों में रावनवमी की झांकियां निकाली गईं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं का कहना है कि इसकी तैयारी उन्होंने सालों तक की थी. समीर जाना / हिंदुस्तान टाइम्स

अप्रैल 2017 में पश्चिम बंगाल में कुछ ऐसा हुआ जो पहले कभी नहीं हुआ था. जिलों-जिलों में भगवा गमछा पहने लोग घूमते दिख रहे थे और साथ ही जय श्रीराम का नारा लगाते हुए तलवारें और त्रिशूल हवा में लहरा रहे थे. आसनसोल और बीरभूम की सड़कों में हजारों ऐसे लोग घूम रहे थे. भगवे झंडे गाड़ियों, घरों और दुकानों में लगे हुए थे. कोलकाता में हिंदू देवताओं की झांकियां एक से दूसरे स्थानों पर घुमाई जा रही थीं. यह राज्य दुर्गा पूजा के लिए प्रसिद्ध है लेकिन रामनवमी का ऐसा हर्षोल्लास अप्रत्याशित था.

राज्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं ने मुझसे कहा कि यह अप्रत्याशित नहीं था बल्कि इसके लिए संघ ने सालों तक जमीनी स्तर पर काम किया है और इस साल के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को इस जमीनी काम का लाभ मिलेगा.

2018 में भी रामनवमी के अवसर पर ऐसी ही धूमधाम दिखाई दी और आसनसोल और रानीगंज जैसे स्थानों में सांप्रदायिक हिंसा हुई. जल्द ही जय श्रीराम तृणमूल कांग्रेस और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ बीजेपी का युद्धघोष बन गया. जारी विधानसभा चुनावों में धार्मिक ध्रुवीकरण बड़े स्तर पर मतदाताओं को प्रभावित कर रहा है और ऐसा लगता है कि वर्तमान टीएमसी सरकार के खिलाफ भारतीय जनता पार्टी ही मुख्य प्रतिद्वंदी पार्टी है. एक दशक पहले हुए 2011 के विधानसभा चुनावों में भगवा पार्टी को राज्य में केवल 4 फीसदी मत प्राप्त हुए थे. 2016 के विधानसभा चुनावों में उसे सिर्फ तीन सीटों में जीत हासिल हुई थी लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में 40 प्रतिशत मत हासिल किया जो एक हैरान करने वाला आंकड़ा है.

2021 के विधानसभा चुनाव के अंतिम नतीजे चाहे जो भी हों लेकिन इस बात से किसे इनकार होगा कि राज्य में बीजेपी की लहर है. तृणमूल कांग्रेस और बनर्जी अपनी सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं. भगवा पार्टी दावा कर रही है कि राज्य में बीजेपी की सुनामी आएगी और कई राजनीतिक विश्लेषकों को विश्वास है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता और गृहमंत्री अमित शाह की चुनावी रणनीति राज्य में पार्टी के उत्थान के मुख्य कारक हैं. लेकिन पर्दे के पीछे संघ की कई सालों की मेहनत है. वरिष्ठ संघ पदाधिकारी और उसके जमीनी कार्यकर्ताओं ने मुझे बताया कि संघ ने व्यापक स्तर पर जन परिचालन किया है और लोगों की भर्ती की है. उन्होंने मुझे यह भी बताया कि कैसे संघ ने हिंदू राष्ट्रवाद के मुद्दे पर केंद्रित अभियान चलाए हैं और संगठन का सफलता के साथ विस्तार किया है. आरएसएस के नेताओं ने मुझसे कहा कि संघ परिवार ने 2016 में ही “मिशन बंगाल” लक्ष्य बना लिया था. मार्च 2017 में संघ ने औपचारिक रूप से एक प्रस्ताव पारित किया था. आरएसएस के नेता शिबाजी मंडल ने मुझसे कहा, “संघ जब निश्चय कर लेता है तो उस लक्ष्य को पाने के लिए पूरी ताकत लगा देता है. संघ ने बंगाल पर 2017 में प्रस्ताव पारित किया था. तभी से बंगाल को सुधारने का काम चालू हुआ है.”

43 साल के मंडल स्कूल में पढ़ाते हैं और यहां संघ की मध्य बंगाल इकाई के बौद्धिक प्रमुख हैं. अभी हाल तक संघ ने अपने कामकाज की सहजता के लिए बंगाल को दो प्रांतों में बांट कर रखा था : दक्षिण बंगाल और उत्तर बंगाल. जब संघ का विस्तार बीरभूम जिले के आसपास के जिलों में हुआ तो उसने केंद्रीय बंगाल प्रांत बना लिया. केंद्रीय बंगाल का क्षेत्राधिकार पांच विभागों में बटा है, जो हैं- बीरभूम, वर्धमान, बांकुरा, हुगली और नाडिया. इन इलाकों में फैक्ट्रियों और हिंदी भाषी जन समुदाय की बड़ी उपस्थिति के चलते आसनसोल, रानीगंज, दुर्गापुर और बीरभूम में संघ का विस्तार आसान हुआ है. इस साल अप्रैल में मैंने संघ के बीरभूम मुख्यालय में मंडल से मुलाकात की.

मुख्यालय में पिछले तीन महीनों से संघ परिवार के कार्यकर्ता चुनाव की तैयारी में व्यस्त थे. उस दिन मंडल रणनीति और कार्यान्वयन मीटिंग में भाग लेने वाले थे. हमारी बातचीत में उन्होंने बताया कि क्यों पश्चिम बंगाल से बनर्जी और उनकी पार्टी को हटाना जरूरी है और क्यों संघ के लिए यह राज्य महत्वपूर्ण है. मार्च 2017 में अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा, जो निर्णय लेने वाली आरएसएस की शीर्ष इकाई है, ने प्रस्ताव पारित किया था जिसमें संघ ने पश्चिम बंगाल में “जिहादी तत्वों के वृद्धि” और “राज्य सरकार द्वारा मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति के लिए राष्ट्र विरोधी तत्वों को प्रोत्साहन देने” एवं “राज्य में हिंदू जनसंख्या के घटने पर चिंता” व्यक्त की थी.

प्रस्ताव में राज्य में पूर्व में हुई हिंसा की घटनाओं का उल्लेख था. प्रस्ताव में तुष्टीकरण की राजनीति करने के लिए बनर्जी सरकार की आलोचना की गई थी और नागरिकों से अपील की गई थी कि जेहादी हिंसा के खिलाफ जागरूक हों. इसके अलावा आरएसएस की शीर्ष इकाई ने केंद्र सरकार से राज्य में राष्ट्र विरोधी जिहादी तत्वों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने की अपील की थी.

दक्षिण बंगाल के 63 साल के प्रचारक प्रमुख विप्लव रॉय ने मार्च 2017 के उस प्रस्ताव में उल्लेखित दो प्रमुख चिंताओं को मुझसे साझा किया जिसमें कहा गया था कि उनका उद्देश्य इस्लामी जेहादी तत्वों के अत्याचार को रोकना है. उन्होंने बताया कि “बांग्लादेश में गायों की तस्करी को रोकने के लिए कॉरिडोर का क्रैकडाउन जरूरी है और दहशत के राज को खत्म करने की आवश्यकता है. उसमें एक समझदारी थी कि यदि बंगाल को संभाला नहीं गया तो वह दूसरा कश्मीर बन जाएगा.” उन्होंने बताया कि उनका उद्देश्य बंगाली राष्ट्रवाद के विचार को बढ़ने से रोकना है. रॉय ने दावा किया है कि प्रस्ताव के पारित होने के बाद संघ ने अपनी उर्जा आक्रमक रूप से संगठन के विस्तार में लगा दी. संघ ने 2017, 2018 और 2019 के लिए लक्ष्य निर्धारित किए और तय किया कि रामनवमी को विस्तार अभियान के लिए इस्तेमाल किया जाए.

मंडल ने मुझे बताया कि रामनवमी की झांकी निकालने का उद्देश हिंदू नौजवानों की आक्रामकता का प्रदर्शन करना था. “यह हमारा शक्ति प्रदर्शन था और इसकी तैयारी 2016 से ही शुरू कर दी गई थी.” अपनी विभिन्न इकाइयों और संगठनों के द्वारा संघ परिवार ने बंगाल भर में मंदिरों और धार्मिक स्थलों का भ्रमण किया और उन्हें रामनवमी की झांकी निकालने के लिए तैयार किया. संघ का उद्देश्य प्रत्येक संभावित जिलों में हजारों हिंदू नौजवानों को झांकी निकालने के लिए परिचालित करना था. संघ ने रामनवमी उद्यापन समितियों की स्थापना की और हिंदू जागरण मंच और विश्व हिंदू परिषद जैसे उसके संगठनों ने परिचालन अभियान में सहयोग दिया. रामनवमी उद्यापन समिति को सबसे पहले जिला स्तर पर बनाया गया और फिर उनका विस्तार वार्ड स्तर तक किया गया.

मंडल ने बताया कि 2017 में बीरभूम के उप संभाग सिउरी में रामनवमी की झांकी निकाली गई जिसमें 15000 हिंदुओं ने भाग लिया और उसी साल रामपुरहाट उप संभाग में निकाली गई झांकी में 15000 से 20000 लोगों ने भाग लिया. मंडल ने बताया कि एक ही झटके में सभी जिलों में हजारों नौजवानों ने आरएसएस की सदस्यता ली और संघ की संगठन शक्ति बढ़ गई. उन्होंने यह भी कहा कि बीजेपी को इसका राजनीतिक फायदा मिला है और टीएमसी बैकफुट पर आ गई है और उसे भी ऐसी ही झांकियां निकालने के लिए मजबूर होना पड़ा है.

रामनवमी के नाम पर हिंदुत्व का आक्रमक विस्तार पश्चिम बंगाल में पहली बार देखा गया और रामनवमी इस आक्रमकता की शुरुआत भर थी जिसके बाद संघ ने अपनी पहलकदमी बढ़ा दी.

रामनवमी की झांकियों के बाद ऐलान किया गया कि वीएचपी जैसे संगठन दशहरे के उपलक्ष में राष्ट्र पूजन का आयोजन करेंगे. मंडल ने कहा कि लेकिन 2017 से दशहरा के उपलक्ष में इस प्रकार के व्यापक शक्ति प्रदर्शनों को रोक दिया गया. मंडल ने बताया, “हालांकि राष्ट्र पूजन पुरानी परंपरा है लेकिन हमने इसका आक्रामक विस्तार 2017 के बाद रोक दिया क्योंकि राष्ट्र पूजन करने पर हमारे कार्यकर्ताओं के ऊपर सैकड़ों मुकदमे दर्ज किए गए थे. गौरतलब है कि पहली बार रामनवमी की झांकी निकालने के बाद पश्चिम बंगाल के बीजेपी अध्यक्ष दिलीप घोष सहित कई लोगों पर आर्म्स एक्ट के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी. लेकिन इनसे बीजेपी टीएमसी की प्रमुख प्रतिद्वंदी भी बन गई और जय श्रीराम ममता बनर्जी और पार्टी के खिलाफ उसका नारा बन गया. ममता बनर्जी ने जितना इस नारे का विरोध किया उतना अधिक लाभ बीजेपी आरएसएस को हुआ.

संघ के पदाधिकारियों ने मुझे बताया कि 2016 में जब बीजेपी विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई तो संघ सक्रिय हो गया. संगठन के भीतर के लोगों ने मुझे बताया कि संघ पश्चिम बंगाल को “दूसरा कश्मीर” बनने नहीं देना चाहता. संघ की राजनीति के केंद्र में यह प्रोपेगेंडा है कि “बांग्लादेशी घुसपैठिए” पश्चिम बंगाल के जनसंख्या संतुलन को बिगाड़ना चाहते हैं. अपने दावे के समर्थन में वह अक्सर राज्य की मुस्लिम आबादी का हवाला देते हैं जो विभाजन के वक्त लगभग 19 प्रतिशत थी लेकिन 2011 की जनगणना में बढ़ कर 27 प्रतिशत हो गई है. 1980 के दशक में आरएसएस ने पश्चिम बंगाल में घुसपैठ के प्रभाव का आकलन करने के लिए प्रत्येक जिले में अपना सेंसस करवाया था. यह बात मुझे प्रचार प्रमुख रॉय ने कोलकाता में बताई. उन्होंने कहा, “किसी सीपीएम ने हमारे सेंसस को बोगस कहा था.”

संघ परिवार ने राज्य के पूर्वी तटीय इलाकों में बसे बांग्लादेशी हिंदुओं को आकर्षित करने पर भी ध्यान दिया है. बीजेपी नेता और मेघालय और त्रिपुरा के पूर्व राज्यपाल तथागत रॉय ने मुझे बताया, “आरएसएस ने बांग्लादेशी हिंदू शरणार्थियों पर ध्यान दिया है और उसे अपने पक्ष में करने का प्रयास किया है. इससे पहले सीपीएम का इस वोट बैंक पर कब्जा था.” पिछले दशकों में आरएसएस ने बांग्लादेश से भारत आने वाले शरणार्थियों का नैरेटिव तैयार करने का प्रयास किया है जबकि वह मुसलमानों को घुसपैठिए बताता है. मोदी ने स्वयं शरणार्थी और घुसपैठियों का अंतर करते हुए पश्चिम बंगाल और असम में चुनावी भाषण दिए हैं. विवादास्पद नागरिकता संशोधन कानून, जिसे बीजेपी सरकार ने 2019 में पारित किया, वह इसी नैरेटिव को स्थापित करता है.

आरएसएस की सदस्यता ऑनलाइन लेने का विकल्प है. इसे 2013 में शुरू किया गया था और इससे संगठन का अच्छा विस्तार हुआ है. इसने शाखाओं के लिए नए स्वयंसेवक भर्ती करना सहज बनाया है. रॉय के अनुसार, पश्चिम बंगाल उन राज्यों में है जहां आरएसएस की ऑनलाइन सदस्यता सबसे अधिक ली गई है. उन्होंने यह भी कहा कि भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा 2018 में नागपुर स्थित संघ मुख्यालय के भ्रमण के बाद आरएसएस की सदस्यता में बढ़ोतरी हुई. “उनके भ्रमण के बाद पश्चिम बंगाल में डॉक्टर, डिजाइनर और शिक्षक जैसे पेशेवर लोग संघ के प्रति आकर्षित हुए.” प्रचार प्रमुख ने कहा कि इस नए ट्रेंड के कारण बंगाल में उन्होंने अपनी रणनीति को बदलते हुए मिलन कार्यक्रम शुरू किए जो साप्ताहिक होते हैं. समय अनुसार इन कार्यक्रमों को शाखा में परिवर्तित कर दिया जाता है. रॉय के अनुसार, मार्च 1 से लेकर 15 मार्च के बीच दक्षिण बंगाल में 4000 नए पंजीकरण हुए. उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल में फिलहाल 1700 शाखाएं, 800 मिलन इकाइयां और 300 मंडलियां हैं. उन्होंने दावा किया कि राज्य के 294 विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में प्रत्येक में 4000 स्वयंसेवक काम कर रहे हैं. मुस्लिम बहुल मुर्शिदाबाद जैसे इलाकों में संघ कमजोर है.

संघ राज्य में वोटरों को आकर्षित करने के लिए जन जागरण भी कर रहा है. राज्य में संघ का परिचालन विस्तारित और व्यापक है. उदाहरण के लिए इस साल फरवरी में संघ ने सचेतन नागरिक मंच शुरू किया था जिसका उद्देश्य 1000 संघ समर्थक समूह को परिचालित करना था जो टीएमसी को प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से बाहर करना चाहते हैं. इनका इस्तेमाल संघ की रणनीति को कार्यान्वित करने के लिए किया गया. संघ ने राज्य और जिला स्तरों पर समितियां बनाई हैं. आरएसएस के पदाधिकारियों के अनुसार, मंच के जरिए संघ ने राज्य से टीएमसी को बाहर करने के लिए तीन चरणों में अभियान का नियोजन और कार्यान्वयन किया है. पहले चरण में आरएसएस ने उन मुद्दों की पहचान की जो पश्चिम बंगाल के मतदाताओं से जुड़े हैं. उन मुद्दों को लीफलेट और हैंडबिल्स के जरिए वितरित किया गया. इन मुद्दों में बंगाली भाषा, औद्योगिक विकास और तुष्टीकरण के खिलाफ इस्लामिक प्रभाव को बंगाली टेक्स्ट बुक से हटाने की मांगें थीं. रॉव के अनुसार, तकरीबन 40 से 45 लाख लीफलेट फरवरी से मार्च के अंतिम सप्ताह तक बांटे गए. इस जागरूकता अभियान में राज्य की स्कूली किताबों में बदलाव की मांग भी शामिल थी. आरएसएस के अधिकारियों का दावा है कि इस्लामिक प्रभाव में आकर हिंदू संस्कृति से जुड़े शब्दों को वैकल्पिक शब्दों या उर्दू के शब्दों से बदला जा रहा है. जब मैंने इसके बारे में प्रचार प्रमुख विप्लव रॉव से पूछा तो उन्होंने बताया कि पिछले सालों में बंगाली टेक्स्ट बुक से “हमारी संस्कृति को प्रतिबिंबित करने वाले शब्द हटाए गए हैं.” उदाहरण के लिए उन्होंने बताया कि रामधनु को रंगधनु, आकाश को आसमान, मां को अम्मा में बदला गया है. उन्होंने पूछा कि राम को रंग से अलग करने का क्या मतलब है?

मतदाता जागरूकता अभियान के दूसरे चरण में संघ ने प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में महिलाओं, बुद्धिजीवियों, युवाओं एवं छात्रों और प्रभावशाली व्यक्तियों की बैठकें कीं. आरएसएस के पदाधिकारियों के अनुसार, 294 विधानसभा सीटों में 800 से 1200 जन जागरण मीटिंगें आयोजित की गईं. एक अनुमान के मुताबिक प्रत्येक मीटिंग में तकरीबन 800 संघ कार्यकर्ता और समर्थकों को परिचालित किया गया. इन मीटिंगों के जरिए आरएसएस ने चुनाव अभियान को बूथ स्तर तक किया. इन मीटिंगों का उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा लोगों को मतदान करने के लिए प्रेरित करना था.

तीसरे और अंतिम चरण में आरएसएस ने बहुत सावधानी से काम किया. वरिष्ठ आरएसएस पदाधिकारियों ने चरणबद्ध तरीके से अभियान चलाया. उदाहरण के लिए, बीएचपी के नेताओं सहित संघ परिवार के कई वरिष्ठ पदाधिकारियों ने 15 अप्रैल के आसपास आसनसोल-बीरभूम इलाके में मोर्चा जमाया. इस क्षेत्र में मतदान सातवें और आठवें चरण में 26 और 29 अप्रैल को संपन्न हुआ है. इन क्षेत्रों में संघ ने घर-घर जाकर मतदाताओं से अपने लोकतांत्रिक अधिकार का इस्तेमाल करने का आग्रह किया.

आसनसोल के बर्नपुर में मैंने वीएचपी के वरिष्ठ पदाधिकारी सचिन सिंघो से बातचीत की जो ज्यादातर दिल्ली कार्यालय से काम करते हैं. उनसे मेरी मुलाकात आरएसएस द्वारा रख-रखाव किए जाने वाले एक पार्क में हुई जहां संघ के कार्यकर्ता बंगाली नववर्ष मना रहे थे. 66 साल के सचिन सिंघो जन जागरण अभियान की देखरेख करने और “ऐसे कामों को अंजाम देने यहां पहुंचे थे जिन्हें सार्वजनिक नहीं किया जा सकता.” उन्होंने रामनवमी की झांकियों की तैयारी की समीक्षा की और स्थानीय कार्यकर्ताओं से अपील की कि आयोजन भव्य होना चाहिए. जब उनसे इसका कारण पूछा गया तो उन्होंने कहा कि अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास के बाद की यह पहली रामनवमी है. सिंघो ने कहा, “पिछले साल कोविड-19 लॉकडाउन के कारण हम यह कार्यक्रम नहीं कर पाए थे और इसलिए इस बार इसे भव्य रूप में किया जाना चाहिए.” वहीं उपस्थित स्वयंसेवक और पूर्व बीजेपी पदाधिकारी तरुण बनर्जी ने मुझसे कहा कि “रामनवमी कार्यक्रम की तैयारी जोर-शोर से जारी है जिसमें हम 5000 से अधिक झंडे घरों और वाहनों में लगाएंगे.” उस वक्त झांकियों की तैयारी ने टीएमसी और सीपीएम के नेताओं को संत्रासित कर दिया था. टीएमसी के एक वरिष्ठ नेता और राज्य के मंत्री ने नाम न छापने की शर्त पर मुझे बताया, “हमें इस इलाके में अपने अच्छे प्रदर्शन का पूरा विश्वास है लेकिन हमें यह नहीं पता कि रामनवमी कार्यक्रम के बाद की स्थिति कैसी होगी. अगर कार्यक्रम के चलते सांप्रदायिक हिंसा हुई तो सब कुछ बदल जाएगा.” अंततः संघ परिवार ने अपने कार्यकर्ताओं को बढ़ते कोविड-19 मामलों के मद्देनजर कार्यक्रम रोक देने का निर्देश दे दिया.

लेकिन आरएसएस ने जन जागरण कार्यक्रम चलाना जारी रखा. सिंघो ने मुझसे कहा, “हिंदुओं को एक होने की जरूरत है और इस प्रयास के लिए हम गांव-गांव जा रहे हैं, मंदिरों और धर्मस्थलों का दौरा कर रहे हैं और समुदाय आधारित संगठन बना रहे हैं.” उन्होंने आगे कहा, “इस चुनाव में हिंदू मतदाताओं को निशाना बनाया जा रहा है. ग्रामीण इलाकों में हिंदुओं की अस्मिता पर हमला हो रहा है. हमारे लिए यह पंजाब और बंगाल में विभाजन के वक्त की स्थिति जैसी स्थिति है और हम यहां हिंदू मतदाताओं को सामाजिक सुरक्षा देने के लिए मौजूद हैं.”

मैंने संघ के कई ऐसे कार्यकर्ताओं से मुलाकात की जो निरंतर मतदाताओं से मिलकर उनसे वोट डालने की अपील कर रहे हैं. आरंभ में ये लोग इस बात पर जोर नहीं देते कि वह किस राजनीतिक पार्टी को मतदान करें और केवल मुद्दों की बात करते हैं. लेकिन उनकी प्रतिक्रिया से साफ पता चलता है कि वह लोग प्रत्यक्ष तौर पर मतदाताओं को प्रभावित कर रहे हैं. बर्नपुर में एक मस्जिद के पास लगी एक शाखा में 46 साल के संघ कार्यकर्ता अजय वर्मा ने जो मुद्दे मुझे बताए वह थे : राज्य में हिंदुओं की स्थिति, तुष्टीकरण की राजनीति, राष्ट्रीय सुरक्षा, चीन द्वारा “भारत की एक इंच जमीन भी नहीं ले पाना”, राज्य की जनसांख्यिकी का बदलना और राज्य में औद्योगीकरण और रोजगार निर्माण की आवश्यकता.

वर्मा ने कहा कि उनका सपना मृत्यु से पहले अखंड भारत प्राप्त करना है. उन्होंने बताया कि संघ  के कार्यकर्ता इन मुद्दों को मतदाताओं के सामने रखते हैं और उनसे मतदान करने की अपील करते हैं.

देशभर में राम मंदिर निर्माण के लिए चंदा इकट्ठा किया गया और इस काम में आरएसएस और बीजेपी ने सहयोग दिया. मिसाल के लिए, बर्धमान इकाई के पूर्णकालिक प्रचारक परितोष साहा ने मुझे बताया कि संघ परिवार ने चंदा अभियान के दौरान पश्चिम बर्धमान जिले में तीन लाख 60 हजार परिवारों से मुलाकात की. आसनसोल में उत्तर प्रदेश के अयोध्या में बनने वाले मंदिर के लिए 72000 लोगों ने चंदा दिया. बौद्धिक प्रमुख मंडल के अनुसार, एक करोड़ रुपए के करीब चंदा बीरभूम से इकट्ठा किया गया था. कई पदाधिकारियों ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकारा कि चुनावों में इसका लाभ बीजेपी को मिलेगा.

बनर्जी सरकार पर मुस्लिमों की तुष्टीकरण की राजनीति और घुसपैठियों की मदद करने का आरोप आरएसएस के पदाधिकारी और उसके निचले स्तर के कार्यकर्ता लगाते हैं. अनुमान लगाया जा सकता है कि संघ परिवार के जन जागरण अभियान में यह विषय मुख्य रूप से उठाए जाते हैं. यह रणनीति और व्यापक जन परिचालन आरएसएस और बीजेपी के तृणमूल को पश्चिम बंगाल से हटाने के प्रयास का हिस्सा है. लेकिन महज दो दशक पहले तक संघ-बीजेपी और ममता बनर्जी संघर्ष में एक दूसरे के सहयोगी थे.

लोगों को सिर्फ इतना याद है कि बनर्जी अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार में कैबिनेट मंत्री थीं लेकिन वे यह भूल गए हैं कि दिल्ली में आयोजित आरएसएस के कार्यक्रम में उनकी प्रशंसा की गई थी. सितंबर 2003 में एक पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में, जिसमें आरएसएस के शीर्ष पदाधिकारी भी शामिल हुए थे, बनर्जी को मां दुर्गा का अवतार बताया गया था. इसके जवाब में बनर्जी ने संघ परिवार की भूरी-भूरी प्रशंसा की थी और कहा था कि यह एक पहला अवसर है जब वह आरएसएस के शीर्ष नेताओं से मिल रही हैं लेकिन उन्हें तुरंत ही एहसास हो गया कि यह लोग सच्चे देशभक्त हैं. इसके बाद बनर्जी ने उनसे अपील की थी कि पश्चिम बंगाल से कम्युनिस्टों को खदेड़ने में वह उनकी मदद करें.

आरएसएस के कई पदाधिकारियों ने पुष्टि की कि 2011 के विधानसभा चुनावों में “आतंक का राज खत्म करने के लिए” उन्होंने अनाधिकारिक रूप से टीएमसी के लिए लोगों का समर्थन मांगा था. बनर्जी की जीत के साथ पश्चिम बंगाल से 34 साल पुराना वाम मोर्चे का शासन खत्म हो गया. हुगली, पश्चिम मिदनापुर और पूर्व मिदनापुर जैसे जिलों में आरएसएस इकाइयों ने टीएमसी को सत्ता में लाने के लिए अपनी ऊर्जा लगा दी थी. इस सहयोग का संभावित कारण यह था कि वाममोर्चा सरकार के दौरान आरएसएस राज्य में अपना विस्तार नहीं कर पा रहा था. साहा ने मुझसे कहा, “कम्युनिस्ट हाथ से नहीं मारता था, पेट का भात मारता था.”

एक अन्य वरिष्ठ संघ अधिकारी ने आरोप लगाया कि वाममोर्चा सरकार के दौरान शाखा लगाने वाले लोगों को झूठे मामलों में फंसाया जाता था जिसके कारण शाखाएं बंद हो जाती थीं. वाममोर्चा सरकार के पतन के बाद शाखाओं ने राज्य में विस्तार करना शुरू किया. विप्लव रॉय ने मुझे बताया कि पिछले दशक में शाखा की संख्या गिरकर 800 हो गई थी जो अब 1700 है. साहा ने भी मुझे बताया कि 2011 के बाद से आरएसएस के विस्तार का श्रेय टीएमसी को मिलना चाहिए. उन्होंने कहा, “बनर्जी की मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति ने हमें अवसर दिया. उससे हिंदुओं को एहसास हुआ कि वह कमजोर हो रहे हैं और हमने उन्हें जागरूक किया.”

सिंह ने बताया कि टीएमसी के दोबारा सत्ता में आने के बाद उसके साथ संघ का टकराव बढ़ गया. उन्होंने बताया, “अपने पहले कार्यकाल में ममता बनर्जी ने भारतीय संस्कृति का तिरस्कार नहीं किया लेकिन जब दूसरी बार निर्वाचित हुईं तो वह तुष्टिकरण की राजनीति करने लगीं. जिस वजह से उनके खिलाफ लोगों के भीतर गुस्सा उबलने लगा.” यह आरोप एक ऐसी मुख्यमंत्री के खिलाफ लगाए जा रहे हैं जिन्होंने राज्य भर में दुर्गा पूजा पंडाल के लिए कोष उपलब्ध कराया है और ब्राह्मण पुजारियों के लिए 1000 रुपए के भत्ते की घोषणा की है.

बंगाल में आरएसएस के एक शीर्ष पदाधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर एक खुलासा यह भी किया कि संघ ने अपने सहयोगी संगठन के द्वारा ममता बनर्जी को “आतंकियों को पनाह देने वाली” बताने का अभियान चलाया था. उन्होंने यह नहीं बताया कि इस अभियान की शुरुआत कब हुई थी लेकिन इशारा किया कि वह कुछ साल पहले शुरू हुआ था. 2021 में आकर बीजेपी के राज्य अध्यक्ष घोष ने मुख्यमंत्री पर ऐसे आरोप ऑन रिकार्ड लगाने शुरू कर दिए. बीजेपी इन आरोपों के पक्ष में साक्ष्य नहीं देती है और ना ही कोई विश्वसनीय रिपोर्ट या तथ्य पेश करती है लेकिन फिर भी संघ परिवार ने अपने चुनावी अभियान को धार्मिक ध्रुवीकरण पर केंद्रित रखा है. 2016 के चुनावों में बीजेपी-आरएसएस ममता बनर्जी को “ममता बानो” कहते थे और 2021 में बीजेपी के शुभेंदु अधिकारी जैसे नेता ममता बनर्जी को बांग्लादेशी बता रहे हैं. जब मैंने उनसे पूछा कि अभियान में बनर्जी का चरित्र हनन क्यों किया जा रहा है तो वह आरएसएस अधिकारी गुस्सा हो गए और इन आरोपों का बचाव करने लगे. उन्होंने कहा, “जो भी आज ममता बनर्जी के साथ हो रहा है वह उनकी तुष्टीकरण की राजनीति के परिणामस्वरूप है. आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने सबसे अधिक बलिदान केरल और पश्चिम बंगाल में दिया है और बलिदान के इस अध्याय का अंत 2021 में हो जाएगा.”

इन सालों में पश्चिम बंगाल में आरएसएस ने जबरदस्त विस्तार किया है. आज संघ परिवार वनवासी कल्याण आश्रम और सरस्वती शिशु मंदिर और एकल विद्यालय जैसे कई शैक्षिक संस्थान चला रहा है. संघ के साथ ही वीएचपी जैसी उसकी सहयोगी संस्थाएं इस कार्य में मदद कर रही हैं. शाखाओं की मदद से वह हजारों बच्चों को आकर्षित कर रहा है जिन्हें बाल स्वयंसेवक कहा जाता है. लेकिन एक चिंता भी आरएसएस के नेताओं ने मुझसे साझा की. उनका मानना है कि वीएचपी की दुर्गा वाहिनी जैसे महिला शाखाएं विस्तार नहीं कर पाई हैं.

इस चुनाव में मतदाताओं को जागरूक करने के लिए संघ ने अपनी समस्त मानव संसाधन ऊर्जा लगा दी है. संघ परिवार ने बंगाल में अपनी पहली शाखा 1939 में लगाई थी और हाल तक उसे विस्तार के लिए कांग्रेस और वाम मोर्चा से संघर्ष करना पड़ रहा था. 2011 में उसने कम्युनिस्टों को राज्य से अपदस्थ करने के लिए टीएमसी का साथ दिया. इसके अगले दशक में उसने बंगाल में अपने संगठन को मजबूत किया. आरएसएस का “मिशन बंगाल” का कार्य प्रगति पर है. 2021 में जबकि बीजेपी बंगाल की सत्ता में आने को लालायित है तो ऐसे में संघ परिवार ने उसे एक ऐसी उर्वर भूमि तैयार करके दी है जिसे उसने स्वयं सींचा और जोता है. और इसीलिए तो आरएसएस को बीजेपी का मातृ संगठन कहा जाता है.