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भारत में लोकतंत्र अभी ज़िंदा है. हां, बहुत क़रीबी मुक़ाबला था लेकिन 4 जून को देश ने राहत की आह भरी है. 240 सीटों के साथ बीजेपी लोक सभा की सबसे बड़ी पार्टी तो बन गई लेकिन नरेन्द्र मोदी और उनके समर्थक ख़ूब समझते हैं अब वह बात नहीं रही. वहीं, ‘हारा’ हुआ विपक्ष जीत का जश्न मना रहे हैं.
परिणाम आने के पांच दिन बाद मोदी ने तीसरी बार प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली. इस तरह उन्होंने अपनी ही पार्टी के अटल बिहारी वाजपेयी की बराबरी तो कर ली, जिन्होंने 1996, 1998 और 1999 में प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली थी, लेकिन भारत के सम्मानित नेता और आज़ादी की लड़ाई के नायक जवाहरलाल नेहरू की बराबरी करने की मोदी की मंशा अधूरी रह गई. नेहरू ने 1962 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी को लगातार तीसरी बार अपने दम पर भारी बहुमत दिलाया था. इससे पहले भी नेहरू ने ब्रिटिश राज के तहत हुए 1946 के चुनावों में पार्टी को बड़ी जीत दिलाई थी और वायसराय की कार्यकारी परिषद के उपाध्यक्ष, प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली थी. 15 अगस्त 1947 और 26 जनवरी 1950 को उन्हें फिर से भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई. फिर 1952, 1957 और 1962 के लोक सभा चुनावों में उन्होंने कांग्रेस को भारी जीत दिलाई.
मोदी हार से बच तो गए लेकिन बड़ी मुश्किल से. वह भी ऐसी पिच पर जिसे उनके लिए ही तैयार किया गया था. इस बार के चुनाव न तो स्वतंत्र थे और न ही निष्पक्ष. चुनाव आयोग पक्षपाती और अक्षम साबित हुआ. इसने बेशर्मी से सत्ताधारी पार्टी को लाभ पहुंचाने के लिए तंगनज़री और द्वेष के साथ काम किया.
मोदी और उनकी पार्टी के नेताओं ने हर दिन आदर्श आचार संहिता की धज्जियां उड़ाईं. झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को प्रचार करने का मौक़ा तक अदालतों ने नहीं दिया. मतदाताओं को डराने और धोखाधड़ी के बारे में ढेरों मीडिया रिपोर्टों के बावजूद चुनाव आयोग और न्यायपालिका ने कार्रवाई नहीं की. प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग, सीबीआई और एनआईए विपक्षी दलों को निशाना बनाते रहे. कांग्रेस पार्टी के बैंक खाते बंद कर दिए गए और चुनाव प्रचार के बीच जांच एजेंसियां गैर बीजेपी नेताओं को तलब करती रहीं.
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