Thanks for reading The Caravan. If you find our work valuable, consider subscribing or contributing to The Caravan.
इस साल 31 अगस्त को नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन अथॉरिटी ने असम में नागरिकों की अंतिम सूची प्रकाशित की जिसमें 19 लाख से ज्यादा लोगों को सूची से बाहर कर दिया गया. एनआरसी डेटा दर्शाते हैं कि बांग्लादेश के साथ लगे सीमावर्ती जिलों की तुलना में, जहां मुख्य रूप से बंगाली मूल के मुसलमानों की बहुलता है, असम के हिंदू बहुसंख्यक क्षेत्रों में सूची से बाहर होने वालों का अनुपात ज्यादा है. इसके चलते राज्य की भारतीय जनता पार्टी सरकार ने इस परियोजना का ही खंडन कर दिया. इस बीच गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि हिंदुओं को एनआरसी से बाहर होने के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है क्योंकि जब केंद्र की बीजेपी सरकार नागरिकता संशोधन विधेयक पारित करेगी तो उन्हें नागरिकता दे दी जाएगी. विधेयक में भारत के तीन पड़ोसी देशों के छह गैर-मुस्लिम समुदायों को नागरिकता देने का प्रस्ताव है. वास्तव में सरकार के निशाने पर असम के बंगाल मूल के मुसलमान हैं, जिन्हें लंबे समय से बांग्लादेश से आए अवैध घुसपैठी के रूप में देखा जाता रहा है.
बंगाल मूल के मुस्लिम समुदाय को ऐतिहासिक रूप से दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों द्वारा हिंदू वोटों को मजबूत करने के लिए निशाना बनाया जाता रहा है. मुंबई में 1990 के दशक के मध्य में, शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने शहर की कई झुग्गी बस्तियों में रहने वाले "अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों" को निकाल बाहर करने का आह्वान किया था. शिवसेना ने आरोप लगाया था कि मुंबई में अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशियों की संख्या चार करोड़ तक है.
कारवां की रिपोर्टिंग फेलो आतिरा कोनिक्करा ने अक्टूबर महीने में मुंबई में नागरिक-समाज संगठन सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड सेक्युलरिज्म के निदेशक इरफान इंजीनियर से बात की. इंजीनियर एक एक्टिविस्टों की अगुवाई वाली उस फैक्ट-फाइंडिंग कमिटी के सदस्य थे जिसने 1990 के दशक में देश निकाला अभियान के चरम पर मुंबई के बंगाली बहुल इलाकों का सर्वेक्षण किया था. इस साल जून में इंजीनियर ने एनआरसी अपडेशन से प्रभावित समुदायों की स्थिति का जायजा लेने के लिए असम का दौरा भी किया.
इस इंटरव्यू में उन्होंने बंगाली-मुस्लिम समुदाय को बांग्लादेशी के रूप में चिन्हित किए जाने, महाराष्ट्र से उन्हें खदेड़े जाने और एनआरसी को लागू किए जाने की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बारे में चर्चा की. मुंबई में बंगाल मूल के मुसलमानों के साथ अपनी बातचीत को याद करते हुए, इंजीनियर ने कहा, “हमने उन लोगों से भी बात की थी जिन्हें निर्वासित किया गया था और वे वापस आ गए. उन्होंने कहा, “हम भारतीय हैं. हम बांग्लादेश में किसी को नहीं जानते. हमारा कोई मूल स्थान नहीं है, कोई गांव नहीं है. हमें नहीं पता था कि कहां जाना है.''
आतिरा कोनिक्करा : क्या आप उस ऐतिहासिक संदर्भ को बता सकते हैं जिसमें बंगाल मूल के मुसलमानों को विदेशी या विशेष रूप से बांग्लादेशियों के रूप में चिन्हित किया जाने लगा?
इरफान इंजीनियर : यह उन्नीसवीं सदी की बात है, ठीक-ठीक कहें तो बीसवीं सदी की. अंग्रेजों ने बंगाल से असम में प्रवास को प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया. एक ओर वे अपना राजस्व बढ़ाना चाहते थे और दूसरी ओर बीसवीं शताब्दी के शुरूआत में ही बंगाल में सूखा पड़ा. बंगाली किसान जो सूखे का सामना कर रहे थे और पलायन करने को तैयार थे, उन्हें सस्ती जमीन दी गई. उन्हें उस जमीन पर खेती करने के लिए कहा गया. उस समय जब अभी भारत का विभाजन नहीं हुआ था, यह शुरुआती पलायन संघर्ष का कारण बना. इस संघर्ष को नियंत्रित करने के लिए एक लाइन प्रणाली अपनाई. अंग्रेजों ने एक ऐसी रेखा खींची जिसके आगे वे बंगाल से पलायन करने वाले लोगों को भूमि आवंटित नहीं करते. असम एक ऐसा राज्य था जहां असमिया अल्पमत में थे. मुस्लिम लीग और हिंदू राजनेताओं के बीच लगातार संघर्ष हुआ, कांग्रेस नेताओं ने प्रवास का विरोध किया. प्रवासियों का झुकाव मुस्लिम लीग की तरफ था. कांग्रेस को प्रवासन से खतरा महसूस हुआ क्योंकि इससे उनके निर्वाचित होने की संभावना कम हो गई.
एक खतरा और भी था कि अगर असम में मुसलमान बहुसंख्यक हो गए तो वह पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा बन जाएगा. 1946 में कैबिनेट मिशन प्लान, (जो कि ब्रिटिश सरकार द्वारा स्वतंत्र भारत के गठन का प्रस्ताव था) की मांग थी कि असम को मुस्लिम बहुल प्रांतों के परिसंघ का हिस्सा बनना चाहिए. यह पूरा संघर्ष पलायन से प्रेरित था. विभाजन के बाद के दंगों के चलते असम से मुसलमानों का पलायन बढ़ गया. उनमें से कुछ को जबरन पूर्वी पाकिस्तान में प्रवासित कर दिया गया. हम इतिहास के इस परिप्रेक्ष्य को नहीं छोड़ सकते हैं.
1951 में उन्होंने असम के लिए नागरिकों की राष्ट्रीय रजिस्ट्री बनाना शुरू किया. तब दो चीजें हुईं. पहली, यह प्रक्रिया पूरी नहीं हुई. वे हर एक की गिनती नहीं करते थे. और दूसरी बात, बहुत से लोग बाहर पलायन कर गए थे. तब प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू और पूर्वी पाकिस्तान के प्रधान मंत्री लियाकत अली खान ने एक समझौते पर दस्तखत किए जिसे नेहरू-लियाकत समझौते के रूप में जाना जाता है. इस समझौते के तहत उन लोगों को वापस लौटने की इजाजत दे दी गई जो पलायन कर गए थे. एनआरसी पूरा होने के बाद, कई लोग वापस आ गए और उन्हें रिकॉर्ड नहीं किया गया. फिर कांग्रेस सरकार ने उन्हें भगाना शुरू किया. बंगाली मुसलमान जो असम चले गए थे, उन्होंने असमिया को अपनी भाषा के रूप में अपनाया था. उन्होंने अपने बच्चों को असमिया स्कूलों और कॉलेजों में भेजा. फिर भी उन्हें बदनाम और कलंकित किया गया.
आतिरा : देश के बाकी हिस्सों की राजनीति में यह कैसे दिखाई दिया?
इरफान : असम में जो हुआ था वह आजादी से पहले हुआ था. ऐसा नहीं होना चाहिए था लेकिन औपनिवेशिक सरकार ने ऐसा किया. लेकिन हमें ऐसे तरीके ईजाद करने चाहिए थे जिनसे एक-दूसरे के अधिकारों को सम्मान मिलता. इसके बजाय, असमिया राजनेताओं ने एक-दूसरे का खौफ पैदा करने का काम किया. पहले उन्हें अवैध प्रवासी कहा जाता था. पचास के दशक में उन्हें पाकिस्तानी कहा जाता था. यहां तक कि बांग्लादेश बनने से पहले भी, विदेशी या पाकिस्तानी के रूप में उनकी निंदा की जाती थी. 1946 में जब सभी भारतीय ही थे, उन्हें अवैध प्रवासियों के रूप में कलंकित किया गया था.
हिंदुत्ववादी विचारधारा के राजनेताओं ने इसमें एक अच्छा मौका देखा. महाराष्ट्र में, शिवसेना सभी प्रवासियों के खिलाफ थी. साठ के दशक के अंत में पहला आंदोलन दक्षिण भारतीयों के खिलाफ शुरू हुआ था. फिर अस्सी के दशक में, जब उन्होंने हिंदुत्व को एक विचारधारा के रूप में अपनाया, जो पूरे भारत में फैल गई, तो उनकी राजनीति मुस्लिम विरोधी के रूप में तेज हो गई. बंगाल में काफी ज्यादा मुस्लिम आबादी है. रोजगार और आजीविका की तलाश ने उन्हें पूरे भारत में महानगरीय शहरों में धकेल दिया. इस मामले में, शिवसेना का पलायन-विरोधी कार्यक्रम, गैर-मराठियों और मुसलमान दोनों के खिलाफ था. ये उनके लिए सबसे सटीक शिकार थे.
आतिरा : क्या नब्बे के दशक के दौरान निर्वासन के मामलों में कोई बदलाव आया?
इरफान : जब महाराष्ट्र में चुनाव होने वाले थे तो पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषन मतदाता सूची को अपडेट कर रहे थे. रफीक जकारिया, जो एक पूर्व मंत्री थे, को अवैध प्रवासी के रूप में सूचीबद्ध किया गया था. इससे माहौल गर्मा गया. यह 1993-94 के आसपास की बात थी. इसलिए मुंबई दंगा हुआ था. बाल ठाकरे ने बांग्लादेशियों पर पूरे दंगों का दोष मढ़ना शुरू कर दिया. उन्होंने दावा करना शुरू कर दिया कि मुम्बई में लाखों की संख्या में बांग्लादेशी हैं.
हमने मुंबई में सभी बंगाली भाषी इलाकों का दौरा किया. भारतीय या बांग्लादेशी को छोड़िए, वहां उस समय 20 हजार बंगाली भी नहीं थे. वे जरी मजदूर या घरेलू कामगार या निर्माण मजदूर थे. निर्माण कार्य में लगे मजदूरों ने माना था कि वे सत्तर के दशक में बांग्लादेश से आए थे. लेकिन उन्होंने कहा कि "यहीं हमारी शादी हुई है, यहां हमारे बच्चे हैं." उनमें से कितने बांग्लादेशी थे, यह कहना मुश्किल है.
आतिरा : क्या खौफ पैदा करने के लिए आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया था?
इरफान : दंगाइयों के रूप में उनकी क्षमता, उनके हुनर की बढ़ा-चढ़ा कर बात की गई और उनकी संख्या को भी बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया था. 1995 में शिवसेना के सत्ता में आने से पहले और बाद में कई लोगों को निर्वासित किया गया था. हमने संख्या में कोई बदलाव नहीं देखा. मुझे ओपी बाली याद हैं, जो बाद में मुंबई के पुलिस आयुक्त बने. वे निर्वासन के प्रभारी थे. हमने उनसे 1992 से 1996 तक निर्वासित लोगों की संख्या बताने के लिए कहा. हमने संख्या को लेकर कोई भारी उछाल नहीं देखा. हमने अपनी सीमित क्षमता में इसे एक बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश की.
आतिरा : उस समय निर्वासन की अनुमानित संख्या कितनी थी?
इरफान : अगर मुझे ठीक से याद है तो शिवसेना के सत्ता में आने के बाद यह संख्या 182 थी. आप दावा कर रहे हैं कि लाखों अवैध बांग्लादेशी अप्रवासी रह रहे हैं, तो आप क्या कर रहे हैं? संख्या इतनी कम क्यों हैं? हमने उन लोगों से भी बात की जिन्हें निर्वासित किया गया था और वे वापस आ गए थे. उन्होंने कहा, “हम भारतीय हैं. हम बांग्लादेश में किसी को नहीं जानते. हमारा कोई मूल स्थान नहीं है, कोई गांव नहीं है. हमें नहीं पता था कि कहां जाना है.”
आतिरा : किस आधार पर उन्हें वापस भेजा गया?
इरफान : उन्हें मनमाने ढंग से कुछ इलाकों से उठा लिया गया था. पहले उन्हें जबरन कोलकाता ले जाया गया और कोलकाता से उन्हें सीमा पुलिस को सौंप दिया गया. उन्हें सीमा पर ले जाया गया और बांग्लादेशी क्षेत्र में धकेल दिया गया. बंदूक तानकर उनसे कहा जाता, ''पीछे मुड़कर देखा तो मार देंगे.'' और जब वे बांग्लादेशी क्षेत्र में प्रवेश करते तो बांग्लादेशी राइफल्स कहते, "आगे बढ़े तो मार देंगे." बांग्लादेश ने उन लोगों को स्वीकार नहीं किया था जिन्हें भारत ने अपने क्षेत्र में धकेल दिया था. वे सब वापस आ गए. उन्होंने हमसे कहा, "हमारे पास वहां घर नहीं है. हम कहां जाएंगे?” अपनी यात्रा के दौरान, उन सभी के साथ गलत व्यवहार किया जाता, खासकर महिलाओं के साथ. उनके "घुसपैठिया" कहकर पुकारा जाता था.
आतिरा : आपने पुलिस अधिकारियों और प्रशासन से भी बात की. जिस तरह से उन्होंने यह किया क्या उससे उनके साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह झलकते थे?
इरफान : बाली ने इसे यह सुनिश्चित करने के लिए अपने कर्तव्य के रूप में देखा होगा कि प्रक्रिया ठीक ढंग से चल रही है. उनमें कोई पूर्वाग्रह नहीं था. लोगों को हिरासत में लेने वाले पुलिस अधिकारी जानते थे कि वे विदेशी नहीं थे. वे अपनी ताकत का मजा ले रहे थे या अपना कर्तव्य निभाने को मजबूर थे. इन सबके बावजूद केवल 182 (निर्वासित) थे. तो यह सब क्या था? और उनके (बीजेपी और शिवसेना गठबंधन) सत्ता में आने के बाद, वे भूल गए. सत्ता में आते ही बांग्लादेशी मुद्दा खत्म हो गया.
आतिरा : आप जून में एनआरसी लागू किए जाने की निगरानी के लिए असम गए थे. क्या आपको वहां कोई ऐसी समानता नजर आई जो नब्बे के दशक की आपकी केस स्टडी से मेल खाती हो?
इरफान : बिना किसी डेटा के यह कहते हुए या इस पर यकीन दिलाते हुए भारत के सर्वोच्च न्यायालय का मानना था कि 80 लाख बांग्लादेशी असम में हैं. सरकार के लिए हर मुसलमान एक बांग्लादेशी है.
अगर मुंबई में अवैध बांग्लादेशियों के बारे में बाल ठाकरे के भाषणों पर एक बार फिर से भरोसा किया जाए तो आपको शिवसेना से पूछना होगा कि कितने निर्वासित किए गए हैं? 1995 से 1999 तक आप सत्ता में रहे. 2014 से आप फिर से सत्ता में हैं. तब आपने क्या किया? तथ्य यह है कि यह कोरी लफ्फाजी है.
जब हम तीन-चार साल पहले असम गए थे, तो हमने पाया कि बंगाली भाषी मुसलमान और असम के मुसलमान एनआरसी का स्वागत कर रहे हैं. हमें उम्मीद थी कि इसका उल्टा होगा. उन्होंने कहा कि हमें हमेशा बांग्लादेशियों के रूप में चिन्हित किया जाता रहा. हमारे लिए तो यह साबित करने का मौका है. कोई भी आ रहा है और हमसे हमारे दस्तावेज दिखाने के लिए कह रहा है. बंगाली भाषी हिंदू मजदूरों के बीच भी खौफ था, लेकिन काफी हद तक वे सुकून में थे. उन्होंने कहा कि यह सब हमारे साथ नहीं होगा क्योंकि हम हिंदू हैं. यह हमारे लिए नहीं है. यह मुसलमानों के लिए है. मुसलमान अपने दस्तावेजों को रखने में बहुत सजग थे क्योंकि वे आरोपी थे. नदी की धारा मुड़ने और बाढ़ के कारण कुछ ने अपने दस्तावेज खो दिए थे.
आतिरा : जब आप अभी हाल ही में वहां गए थे तो क्या तब आपको ऐसा मिला कि यह सहकारी रवैया बदल गया था? क्या आपको प्रशासन के खिलाफ कोई गुस्सा नजर आया?
इरफान : यह प्रशासन के खिलाफ गुस्सा नहीं था. यह बेबसी की भावना थी. उन्होंने उत्पीड़न महसूस किया. अगर किसी ने लगभग 300 किलोमीटर दूर से शिकायत कर दी, तो पूरे परिवार को एक गाड़ी किराए पर लेकर एनआरसी सुनवाई केंद्र में सिर्फ इसलिए जाना होगा क्योंकि किसी ने बिना किसी सबूत के या बगैर यह जाने कि आरोपित कौन है, आरोप लगा दिया. लेकिन वे अभी भी इस अवैध घुसपैठिए होने के ठप्पे से छुटकारा पाने के लिए सहयोग करने में कड़ी मेहनत कर रहे थे. जब हम असम गए तो मैंने अपनी टीम के सदस्यों से कहा, आखिरकार एनआरसी घोषित होने के बाद कुछ भी नहीं बदलेगा. वे पूरी एनआरसी प्रक्रिया पर ही तोहमत लगाना शुरू कर देंगे. असमिया सभी बंगाली लोगों को असम से बाहर करना चाहते हैं. इसलिए ऐसी कोई भी प्रक्रिया जिससे असम में एक भी बंगाली बच जाता है, उन्हें मंजूर नहीं होगी.
आतिरा : एनआरसी में शामिल कई लोगों को आपत्तियों का सामना करना पड़ा. जिन आपत्तिकर्ताओं को वे जानते भी नहीं थे, उन्होंने उनके खिलाफ शिकायत दर्ज की थी. क्या आपको लगता है कि ये आपत्तियां विशेष रूप से मुसलमानों के खिलाफ लक्षित हैं?
इरफान : ऑल असम स्टूडेंट यूनियन या आसू मुसलमानों को निशाना नहीं बना रही है. वह बंगालियों-हिंदू बंगालियों और मुस्लिम बंगालियों को निशाना बना रही है. हिंदुत्व से प्रेरित लोग मुसलमानों को निशाना बना रहे हैं. हिंदू बंगाली उन्हें स्वीकार्य हैं. वे हिंदू-मुस्लिम के आधार पर ध्रुवीकरण चाहते हैं. आसू असमिया और गैर-असमिया की तर्ज पर ध्रुवीकरण करना चाहता है.
आतिरा : आपत्तियां दर्ज करने की प्रक्रिया कैसे काम करती है?
इरफान : कोई भी आपत्ति दर्ज करा सकता है. जरूरी नहीं कि आपत्तियां दर्ज करने वाले व्यक्ति के पास कोई सबूत या कोई आधार हो जिसके चलते वह मानता है कि किसी व्यक्ति को गलत तरीके से शामिल किया गया था. कुछ जाने माने हिंदुओं के खिलाफ भी आपत्तियां दर्ज की गईं.
आतिरा : एनआरसी का विरोध करने के तरीके क्या हो सकते हैं?
इरफान : मैंने जिन मांगों का सुझाव दिया है, उनमें से एक यह है कि जो एनआरसी में शामिल हैं, उनसे पूछताछ नहीं की जानी चाहिए. वे इस प्रक्रिया में काफी उत्पीड़न से गुजर चुके हैं. इसलिए अब उनकी नागरिकता पर सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए. जिन लोगों को एनआरसी से बाहर रखा गया है, उन्हें अपने दस्तावेजों को पेश करने का अवसर दिया जाना चाहिए. यदि उनके पास अपनी नागरिकता साबित करने के लिए दस्तावेज हैं, तो प्रक्रिया उनके लिए खुली होनी चाहिए. जिन लोगों के पास अपनी नागरिकता साबित करने के लिए दस्तावेज नहीं हैं, उनके पास संविधान के तहत सभी बंदी प्रत्यक्षीकरण अधिकार, मौलिक अधिकार होने चाहिए. या तो उन्हें इस प्रमाण के साथ निर्वासित करें कि वे किसी अन्य देश के हैं, लेकिन जब तक वे यहां हैं, उन्हें हिरासत में न रखा जाए और विदेशी न्यायाधिकरणों की मनमानी समाप्त होनी चाहिए.
आतिरा : एनआरसी को लागू किए जाने के बाद क्या आपको लगता है कि असम के बाहर भी सामान्य रूप से मुसलमानों में खौफ है?
इरफान : आपको यह देखना चाहिए कि बंगाल में क्या हो रहा है. लोग अपने जन्म प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए कतार में खड़े हैं. यह सरकार सभी नागरिकों को कतारों में खड़ा करना चाहती है. नोटबंदी के दौरान, हर आदमी बैंकों की कतारों में खड़ा था और अब एनआरसी में ऐसा हो रहा है. यहां तक कि हिंदू भी डर गए हैं और अपने जन्म प्रमाण पत्र बनवा रहे हैं. महाराष्ट्र में मुसलमान खौफ में हैं. यहां के कुछ मुसलमानों ने मुझे फोन किया और पूछा कि उन्हें किस तरह के दस्तावेज अपने पास रखने चाहिए?