“दिल्ली हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का रवैया हैरान करने वाला”, जामिया हिंसा मामले की सुनवाई पर बोले वकील

जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के छात्रों के समर्थन में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में नारे लगाते युवा वकील. अल्ताफ कादरी

19 दिसंबर को दिल्ली उच्च न्यायालय ने नागरिकता संशोधन कानून, 2019 के खिलाफ जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों द्वारा आयोजित विरोध प्रदर्शन के जवाब में दिल्ली पुलिस की हिंसक कार्रवाई की जांच की मांग करने वाली छह याचिकाओं पर सुनवाई की. खबरों के मुताबिक, 15 दिसंबर को पुलिस विश्वविद्यालय परिसर में जबरन घुस आई थी और उसने लाइब्रेरी में तोड़-फोड़ की और छात्रों को बेरहमी से मारा. उस रात हुए पुलिस हमले में लगभग दो दर्जन छात्र घायल हुए. दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर एक याचिका के अनुसार पुलिस ने पचास छात्रों को हिरासत में भी लिया. लगभग उसी वक्त उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में भी इसी तरह की पुलिसिया कार्रवाई हो रही थी.

याचिकाकर्ताओं, जिनमें जामिया के छात्र भी शामिल हैं, ने दिल्ली उच्च न्यायालय से अंतरिम राहत की मांग करते हुए अनुरोध किया है कि अदालत इस मामले में तत्काल राहत दिलाए. याचिकाकर्ताओं ने मांग की है कि मामलों की न्यायिक जांच कर और छात्रों को गिरफ्तारी और अन्य प्रकार की प्रतिशोध कार्रवाई से सुरक्षा दी जाए. लेकिन अदालत ने इन याचिकाओं पर तत्काल सुनवाई न कर 4 फरवरी 2020 तक के लिए सुनवाई को स्थगित कर दिया है.

स्थगन के बारे में हमने ह्यूमनराइट लॉ नेटवर्क से बात की. यह एक गैर सरकारी संस्था है जो जामिया से गिरफ्तार लोगों को कानूनी सहायता प्रदान कर रही है. हमने एचआरएलएन के चौधरी अली जिया कबीर, गुंजन सिंह और फिदेल सेबेस्टियन से बात की. ये तीनों वकील उच्च न्यायालय की सुनवाई में मौजूद थे. अदालत में जो कुछ हुआ उस पर टिप्पणी करते हुए गुंजन सिंह ने बताया, "इस तरह के जरूरी के मामले को, जिसमें हिंसा हुई है, जिसमें पुलिसिया अत्याचार हुआ है, जिसमें छात्रों पर हमलों की खबरें आईं हैं- उसे सिविल मामले की तरह लिया गया."

दो दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने जामिया और एएमयू से संबंधित मामले की सुनवाई की थी. याचिकाकर्ताओं ने कई मेडिको-लीगल सर्टिफिकेट और छात्रों को लगीं चोटों की तस्वीरें अदालत में पेश की लेकिन सुनवाई के दौरान महाधिवक्ता तुषार मेहता ने कहा कि केवल तीन छात्र घायल हुए हैं. कबीर के अनुसार, यह "तथ्यों की गलती नहीं थी और कानूनी तर्क भी नहीं है. यह सरासर झूठ है. बतौर युवा वकील यह हमारी अंतरात्मा को झकझोर देता है.”

सुप्रीम कोर्ट ने “मामलों की प्रकृति, विवादों की प्रकृति और उन व्यापक क्षेत्रों को देखते हुए, जहां ये संबंधित घटनाएं घटित होने की बात कही गई है” याचिकाकर्ताओं को संबंधित उच्च न्यायालयों में जाने का निर्देश दिया. सर्वोच्च न्यायालय ने मामले की सुनवाई करने से यह कह कर इनकार कर दिया कि घटनाएं अलग-अलग क्षेत्रों से संबंधित हैं. इस पर सिंह कहना था, "इन कार्रवाइयों में समानता है. छात्र प्रदर्शन कर रहे थे और पुलिस ने हमला किया. यह पूरी तरह से दूसरे के मत्थे दोष मढ़ने जैसी बात है."

अपने आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने संबंधित उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों पर पूरे मामले को यह कह कर छोड़ दिया कि "अगर उचित पाया गया" तो वे इस मामले की जांच के लिए समितियां नियुक्त कर "विचार" कर सकते हैं. आदेश में यह भी कहा गया है कि उच्च न्यायालय "उचित सत्यापन के बाद अपनी जानकारी में आए गिरफ्तारी और चिकित्सा उपचार के मामलों" पर यथोउचित आदेश पारित करने के लिए "स्वतंत्रता होगी".

तीनों वकीलों का मानना है कि 19 दिसंबर की सुनवाई के दौरान, याचिकाकर्ताओं ने जामिया में हुई हिंसा में शामिल पुलिस कर्मियों के खिलाफ प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने और अदालत द्वारा नियुक्त "विश्वसनीय स्रोत" को मामले से संबंधित सभी साक्ष्य सौंपने की मांग की. सेबेस्टियन ने कहा कि सबूतों में सीसीटीवी फुटेज शामिल है, "जो कि महत्वपूर्ण हैं." वकीलों ने कहा कि उन्हें सीसीटीवी फुटेज से छेड़छाड़ किए जाने की आशंका है.

गुंजन सिंह ने कहा कि सुनवाई के दौरान दिल्ली उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं के निवेदन पर किसी तरह का आदेश पारित नहीं किया. दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डीएन पटेल और न्यायाधीश हरि शंकर की खंडपीठ ने बस प्रतिवादी (केंद्र सरकार, दिल्ली सरकार और दिल्ली पुलिस) को नोटिस जारी कर याचिका पर अपने जवाब दाखिल करने का आदेश दिया और मामले को 4 फरवरी तक के लिए स्थगित कर दिया.

याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने अदालत से अनुरोध किया कि अगर न्यायालय कोई आदेश पारित नहीं करना चाहती तो उसे अंतरिम प्रार्थना को खारिज कर देना चाहिए. अगर ऐसा होता है तो याचिकाकर्ताओं के समक्ष सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का विकल्प होगा. कबीर ने कहा, "माननीय अदालत ने इस अनुरोध को भी अस्वीकार कर दिया." सिंह ने बताया कि अदलात के आदेश के कारण याचिकाकर्ताओं के पास कोई कानूनी रास्ता नहीं बचा. "अगर अदलात ऐसा कोई आदेश ही नहीं देती जिस पर हमें आपत्ति है तो हम सुप्रीम कोर्ट में उसे चुनौती कैसे दे सकते हैं?"

उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने जब किसी तरह का आदेश पारित करने से इनकार कर दिया तो अदालत में मौजूद वकील दंग रह गए. सुनवाई खत्म होने पर वे लोग नारे लगाने लगे, “शर्म करो! शर्म की बात है!” अगले दिन पटेल ने सरकारी वकील को बात न रखने देने और आक्रामक टिप्पणी करने की जांच के लिए समिति बनाने पर अपनी सहमति जता दी.

ऐसा लगता है कि छात्रों के संबंध में कानूनी तौर पर पुनर्विचार करने से जानबूझकर इनकार किया गया है. 2 नवंबर को दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट परिसर में पार्किंग की जगह पर पुलिस और वकीलों के बीच झड़पें हुईं थी. अगले दिन, पटेल और शंकर की खंडपीठ ने मामले पर स्वत: संज्ञान लेते हुए दो पुलिस कर्मियों को कार्रवाई से बचाने के लिए अंतरिम सुरक्षा दे दी लेकिन 16 दिसंबर को जब एक याचिकाकर्ता ने बीती रात जामिया परिसर में पुलिसिया कार्रवाई से संबंधित मामले में तत्काल सुनवाई के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया तो अदालत ने इस मामले को सुनने से इनकार कर दिया.

जामिया मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने जो किया उससे अलग राय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने दी. इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अलागढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थिति को "युद्ध जैसा" बताया. 19 दिसंबर को अलीगढ़ के जिला मजिस्ट्रेट को घायलों को चिकित्सा सहायता प्रदान करने का निर्देश जारी किया.

दिल्ली उच्च न्यायालय ने अदालती कार्यवाही में जिस तरह की देरी की उससे कबीर, सेबेस्टियन और सिंह को झटका लगा है. इस बीच पूरे भारत में सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने और कठोर तरीके से कार्रवाई की है. तीनों वकील राजधानी में सीएए-विरोधी प्रदर्शनों के बाद पुलिस की बर्बरता के गवाह हैं.

कबीर 15 दिसंबर की रात कालकाजी पुलिस स्टेशन में मौजूद थे. वहा जामिया के कई छात्रों को हिरासत में लिया गया था. कबीर ने बताया कि वहां छात्र जब किसी को वीडियो बनाते देखते तो फौरन अपना वीडियो बनाने के लिए कहते क्योंकि वे यह दर्ज करा लेना चाहते थे कि जब उन्हें हिरासत में लिया गया था वे जिंदा थे. कबीर ने बताया, "वे यह दिखाना चाहते थे जब उन्हें पुलिस ने हिरासत में लिया था तब वे जीवित थे क्योंकि उन्हें यकीन ही नहीं था कि पुलिस उन्हें जिंदा छोड़ेगी.”

वकीलों ने बताया कि कालकाजी पुलिस ने वकीलों के साथ सहयोग नहीं किया. स्टेशन हाउस ऑफिसर (एसएचओ) ने वकीलों को घंटों तक छात्रों से मिलने नहीं दिया. कबीर ने कहा, "कानूनी सहायता पाना हिरासत में लिए गए किसी भी व्यक्ति का संवैधानिक अधिकार है. वे वकीलों को मिलने नहीं दे रहे हैं. वे परिजनों को सूचित नहीं कर रहे हैं. वे हिरासत में लिए गए लोगों की सूची जारी नहीं कर रहे हैं.”

कबीर ने जिन छात्रों से बात की उन्होंने बताया कि उन्होंने पुलिसकर्मियों को जामिया लाइब्रेरी में महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करते देखा है. हालांकि अब तक किसी महिला ने यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज नहीं कराई है. इसके अलावा, सेबेस्टियन ने बताया, "हमारी जानकारी में आया है कि जामिया के अंदर एक भी महिला कांस्टेबल तैनात नहीं थी."

कबीर के अनुसार, अधिकांश छात्रों ने वकीलों से निवेदन किया कि वे हिरासत में लिए जाने के बारे में उनके परिजनों को सूचित न करें क्योंकि उनके परिवार की चिंता बढ़ जाएगी. वकीलों ने बताया, “उनमें से कई हमें भी अपना नाम या नंबर नहीं बता रहे थे.” छात्रों ने वहां मौजूद वकीलों से कहा, "देखिए, हम कोई केस-वेस दर्ज नहीं कराना चाहते."

हिरासत में लिए एक घायल छात्र के बारे में कबीर ने बताया कि जब उन्होंने उस छात्र का सिर छुआ तो हाथ खून से सन गया. “यह चोट शाम 7 बजे लगी होगी. मैं रात 10 बजे उनसे बातचीत कर रहा था. अगर 10 बजे तक लगातार खून बह रहा है तो आपने उसके इलाज का कैसा इंतेजाम किया है?” कबीर ने कहा कि हिरासत में एक छात्र दिल का मरीज था. छात्र ने पुलिस से कहा, “देखो मैं दिल का मरीज हूं. मेरे पास दवा नहीं है. मुझे ठीक नहीं लग रहा है.” लेकिन पुलिस ने उसकी हालत पर ध्यान नहीं दिया.

इन खामियों के कारण वकीलों ने दिल्ली उच्च न्यायालय से मामले में कड़ी कार्रवाई करने की अपेक्षा की थी. वकीलों ने कहा, “यह बस एक घटना नहीं है जो 15 दिसंबर को हुई. जब इस मामले की सुनवाई हो रही थी तब देश भर में हजारों लोगों को हिरासत में लिया जा रहा था या गिरफ्तार किया जा रहा था. यह कोई दीवानी या सिविल मामला नहीं है कि इंतजार हो सकता है. उन लोगों को गंभीर चोटें आई हैं और उनकी जिंदगी दांव पर लगी है.”