"मुस्लिम विरोधी व्यवस्था के खिलाफ" जामिया के छात्रों का आंदोलन

शकीब केपीए
16 December, 2019

We’re glad this article found its way to you. If you’re not a subscriber, we’d love for you to consider subscribing—your support helps make this journalism possible. Either way, we hope you enjoy the read. Click to subscribe: subscribing

"अगर संसद अनकी है, तो सड़क तुम्हारी है." दिल्ली स्थित केंद्रीय विश्वविद्यालय जामिया मिलिया इस्लामिया में पढ़ने वाले अफाक हैदर अन्य छात्रों से नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 के खिलाफ एक लंबी लड़ाई के लिए तैयार रहने का आग्रह कर रहे थे. जामिया के मुख्य गेट के बगल में एक ऊंची जगह से खड़े होकर शोध छात्र अफाक ने भीड़ को संबोधित करते हुए कहा कि यह संविधान को बचाने की लड़ाई है और यह किसी भी धर्म के खिलाफ नहीं. हैदर ने छात्रों से इस तथ्य पर गर्व करने के लिए कहा कि बिना किसी मुख्यधारा की पार्टी और मीडिया के समर्थन के मुस्लिम समुदाय इस प्रदर्शन का नेतृत्व कर पा रहा है.

नागरिकता अधिनियम के कानून बन जाने के दो दिन बाद 14 दिसंबर को जामिया के छात्रों ने नागरिकता अधिनियम के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू किया. इस अधिनियम के तहत प्रवासियों को उनके धर्म के आधार पर भारतीय नागरिकता दी जाएगी. भारत के तीन मुस्लिम बहुल पड़ोसी देशों- अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से बौद्ध, जैन, सिख, ईसाई, पारसी और हिंदू समुदायों के सदस्यों को नागरिकता दी जाएगी, बशर्ते वे 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत में आ चुके हों. लेकिन इस अधिनियम के तहत मुस्लिम समुदाय के प्रवासियों को देश की नागरिकता नहीं दी जाएगी और उन्हें अवैध अप्रवासी माना जाता रहेगा. जिन भी छात्रों से मैंने बात की उनका मानना था कि यह अधिनियम पूरे देश भर में राष्ट्रीय नागरिक पंजिका को लागू करने की तैयारी है- जिसका उपयोग भारतीय मुसलमानों को नागरिकता से वंचित करने के लिए किया जाएगा. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह संपूर्ण भारत में एनआरसी को लागू करने का संकल्प बार-बार दोहराते हैं.

प्रदर्शन से पहले दिन जामिया के छात्रों ने घोषणा की थी कि वे अधिनियम के विरोध में संसद तक मार्च करेंगे. पत्रकारिता के छात्र शाहीन अब्दुल्ला ने मुझसे कहा, "संसद की ओर मार्च करने का पूरा विचार सांसदों को यह बताने के लिए था कि हम अधिनियम के खिलाफ हैं क्योंकि अभी सत्र चल रहा है." जैसे ही छात्र इकट्ठे हुए, स्थानीय लोग भी उनके साथ शामिल हो गए. जामिया मुस्लिम बहुल विधानसभा क्षेत्र ओखला में स्थित है. इस विरोध मार्च को देखते हुए दिल्ली पुलिस ने सड़क में नाकाबंदी कर दी. प्रदर्शनकारी नाकाबंदी की जगह तक पहुंचे तो पुलिस से उनकी झड़प हो गई. पुलिस ने छात्रों पर लाठी चार्ज कर दिया और भीड़ को तितर-बितर करने के लिए आंसू गैस का इस्तेमाल किया. कई चश्मदीदों ने मुझे बताया कि पुलिस द्वारा बल प्रयोग अनुचित और एकतरफा था. पुलिस विश्वविद्यालय परिसर में भी घुस आई और अब्दुल्ला सहित कई छात्रों को पीटा. उन्हें पुलिस ने 41 अन्य छात्रों के साथ हिरासत में लिया था और उन सभी को देर शाम रिहा कर दिया गया.

शोधार्थी रमीश ईके ने बताया कि संसद तक मार्च करने के इरादे से विरोध शुरू हुआ. उन्होंने कहा कि इस विरोध का ​नेतृत्व छात्रों के हाथ में था इसलिए कोई दीर्घकालिक लक्ष्य नहीं था और उन्होंने सोचा था कि जैसे-जैसे मार्च आगे बढ़ता जाएगा यह बड़ा होता जाएगा. विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व कई छोटे छात्र संगठन कर रहे थे. हालांकि, इससे पहले कि छात्र स्पष्ट रूप से अपनी कार्ययोजना को बता पाते, पुलिस ने आक्रामक ढंग से शक्ति प्रदर्शन करना शुरू कर दिया.

विरोध प्रदर्शन के दूसरे दिन, छात्रों ने मांग पूरी न होने तक परिसर में ही बैठे रह कर विरोध प्रदर्शन करना तय किया. छात्र नेताओं ने विश्वविद्यालय परिसर के भीतर ही विरोध करने का आह्वान किया था. छात्रों से ऐसी अपील की गई थी कि वे ​परिसर के बाहर फिर से इकट्ठा हो गए स्थानीय लोगों के साथ शामिल न हों, हालांकि उनकी भागीदारी पर बहस हो रही थी और यह विवादास्पद था. वामपंथी छात्र-संगठनों के कुछ हिंदू छात्र भी मौजूद थे. हर तरफ, इस बात पर चर्चा हुई कि धर्म का मुद्दा या संविधान का संरक्षण विरोधों के केंद्र में होना चाहिए. हालांकि, छात्र पहले दिन के विरोध प्रदर्शन की मुख्यधारा की मीडिया की कवरेज के प्रति गुस्सा और निराश थे.

मुख्यधारा के अखबारों और टेलीविजन ने छात्रों को दंगाइयों के रूप में प्रस्तुत किया औरनिहत्थे छात्रों के खिलाफ पुलिस के अनुचित बल प्रयोग को तर्कसंगत बताने की कोशिश की. इंडियन एक्सप्रेस ने पत्थर फेंकने वाले छात्रों और पुलिस वालों के घायल होने की तस्वीरें छापी. अखबार में किसी भी छात्र के घायल होने की कोई तस्वीर नहीं थी. द हिंदू ने भी छात्रों की आक्रामकता को उजागर करने वाली एक इसी तरह की एक तस्वीर छापी. टेलीविजन चैनल ज्यादातर कैंपस से बाहर निकल टेलीविजन के पत्रकारों और कैमरा मैन का पीछा करने वाले छात्रों के फुटेज चलाते रहे. एक छात्र, जिसे मैं विश्वविद्यालय की कैंटीन में मिला था, ने कहा "द हिंदू वालों को हमारी चोटें नहीं दिखती क्या?"

दो दिनों के विरोध प्रदर्शन के दौरान मैंने कम से कम पचास छात्रों, स्थानीय निवासियों और कामकाजी लोगों से बात की, जो अपनी एकजुटता दिखाने आए थे. ज्यादातर छात्रों ने नरेन्द्र मोदी सरकार और न्यायपालिका के खिलाफ गुस्से का इजहार किया जो लंबे समय से उबाल पर था. बाबरी मस्जिद के विध्वंस, बाटला हाउस मुठभेड़ और विश्वविद्यालय के खिलाफ मीडिया द्वारा चलाए जा रहे बदनाम करने के अभियान को अभी तक भुलाया नहीं जा सका था, और अब मोदी और उनके मंत्रियों की सार्वजनिक मंच पर भी मुसलमानों के प्रति खुली दुश्मनी थी. छात्रों ने कहा कि पहले उन्होंने भारत की धर्मनिरपेक्ष संस्कृति और बहुसंख्यक समुदाय पर भरोसा किया था. लेकिन अब, जैसा कि छात्रों में से एक ने कहा, "हमारी नागरिकता छीन लिए जाने के बाद हमारे पास क्या बचेगा?"

एमए इतिहास की छात्रा आयशा रेना ने बताया कि यह अधिनियम मुस्लिमों के साथ भेदभाव करता है और एक मुस्लिम होने के नाते “हिंदुत्व सरकार के अत्याचार के खिलाफ खड़ा होना उनका अधिकार है.” 13 दिसंबर को छात्र प्रदर्शनकारियों के साथ पुलिस की मुठभेड़ में ओखला के रहने वाले अफजल रहमान के सिर में चोट आई. उन्हें पुलिस ने लाठी से पीटा था. रहमान ने मुझसे कहा, “आज के हालात में, देश में कोई विपक्ष नहीं है. मेरा मानना है कि देश भर के छात्र समुदाय उस खाली जगह को भर रहे हैं.” वह छात्रों को प्रोत्साहन देने के लिए विरोध में शामिल हुए थे. हिदायतुल्लाह और मोहम्मद डाबर खान, दोनों स्थानीय निवासियों ने मुझे बताया कि उनका मानना है कि मौजूदा सरकार अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ है और अब जब उनकी नागरिकता पर ही खतरा है, तो उन्होंने बाहर आकर विरोध करना मुनासिब समझा.

जहां विरोध के पहले दिन पुलिस कार्रवाई का सामना करना पड़ा वहीं दूसरे दिन छात्र समुदाय विरोध के वैचारिक उलझन में फंसे दिखे. प्रदर्शनकारी इस बात पर बंटे हुए थे कि विरोध के केंद्र में धर्म हो या संविधान. कुछ छात्रों का मानना ​​था कि उन्हें सरकार द्वारा, उनके धर्म के कारण, अधिनियम के माध्यम से निशाना बनाया जा रहा है और इसलिए धार्मिक पहचान के बारे में लोगों से बात करना और रैली करना आवश्यक है. वे चाहते थे कि छात्र नेता स्थानीय निवासियों को धर्म के नाम पर इस अधिनियम के खिलाफ लड़ाई में शामिल होने दें. छात्रों में से एक, सिबाहतुल्लाह साकिब ने मुझे बताया कि स्थानीय लोगों को "गलत नहीं समझा" जाना चाहिए क्योंकि मुस्लिम समुदाय "लंबे समय से महसूस कर रहा है कि उसे निशाना बनाया जा रहा है." उन्होंने कहा कि समुदाय "बाबरी फैसले" पर चुप रहा लेकिन "सीएबी ने गुस्से को भड़का दिया.सोशल मीडिया ऐसा है कि हम खुलकर अपने मन की बात भी नहीं कह सकते. यह विरोध व्यवस्था के मुस्लिम विरोधी रवैये के खिलाफ जमा गुस्सा ​था.” छात्रों के इस समूह ने बहुसंख्यक समुदाय से समर्थन की उम्मीद छोड़ दी थी और इसलिए वे धर्म के आधार पर आंदोलन को केंद्रित करना चाहते थे.

उस दिन विश्वविद्यालय के मुख्य गेट के पास के धरना स्थल पर कुछ युवा छात्र कभी-कभार माइक्रोफोन छीन लेते थे और स्थानीय लोगों को शामिल करने के लिए कहते थे "बतौर मुस्लिम उन्हें साथ मिलकर लड़ना चाहिए." हालांकि, वरिष्ठ छात्र नेताओं ने, जिनमें ज्यादातर शोधछात्र हैं, जल्द ही माइक्रोफोन ले लिया और छात्रों से कैंपस के भीतर ही विरोध करने और संवैधानिकता से न भटकने का आग्रह किया.

अधिकांश छात्रों का मत था कि विरोध प्रदर्शन में केवल अधिनियम को निरस्त करने की मांग होनी चाहिए और भाषणों में धर्म की कोई बात नहीं होनी चाहिए. वे चाहते थे कि सभी धर्मों के लोग विरोध में शामिल हों और उनका मानना था कि केवल इस्लाम पर ध्यान देने से ज्यादा लोग इसमें शामिल नहीं हो पाएंगे. कई छात्रों ने मुझे यह भी बताया कि उन्होंने परिसर के भीतर ही विरोध प्रदर्शन सीमित रखने का फैसला किया था क्योंकि स्थानीय लोगों द्वारा की गई किसी भी उकसावे की कार्रवाई के चलते पुलिस की प्रतिहिंसा का शिकार छात्र भी बनेंगे. जब बाहर के स्थानीय निवासियों ने प्रदर्शन में शामिल होने के लिए कहा तो एक छात्र वक्ता ने कहा कि "हम अपने करियर को खतरे में नहीं डालना चाहते."

विरोध स्थल से कुछ मीटर की दूरी पर एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के छात्र मोहम्मद शाहरुख एक तख्ती लेकर खड़े थे जिसमें लिखा था, “एनआरसी क्या मसला क्या? ला इलाहा इल्लल्लाह.” शाहरुख ने कहा कि वह विरोध को सांप्रदायिक बनाने की कोशिश नहीं कर रहे हैं. "जब आपको किसी विशेष धर्म से होने के चलते निशाना बनाया जा रहा है तो हम उस धर्म के बारे में बात किए बिना आंदोलन कैसे कर सकते हैं?" उन्होंने कहा कि, "वे कहते हैं कि हमें बहुमत के समर्थन की जरूरत है लेकिन सबसे पहली बात तो यही है कि अगर बहुमत ने हमारा समर्थन किया होता तो हमारी हालत कभी ऐसी नहीं हुई होती.” राष्ट्रीय जनता दल, जिसका वर्तमान लोकसभा में कोई सदस्य नहीं है, को छोड़कर, किसी भी राजनीतिक संगठन ने अभी तक जामिया के छात्रों को अपना समर्थन नहीं दिया है.

विचारों में अंतर के बावजूद, छात्र प्रतिरोध जाहिर करने के लिए परिसर में रहना चाहते थे. एक छात्रा, फरहीन जो अपना पूरा नाम नहीं बताना चाहती थीं, ने कैंपस में एक दीवार पर चित्र बना दिया था. चित्र में अमित शाह को मुस्लिम व्यक्ति से पूछते हुए दिखाया गया है, "क्या मैं आपको जानता हूं?" फरहीन ने मुझे बताया कि शाह की "हर बात में मुस्लिम शामिल हैं." उनका मानना ​​था कि शाह "मुस्लिम-मुक्त देश" चाहते हैं. उन्होंने कहा कि शांतिपूर्ण प्रदर्शन में अपने दोस्तों को पुलिस द्वारा पिटते हुए देखना "निराशाजनक" हैं. उन्होंने बताया, "मीडिया ने इसे नहीं दिखाया. मीडिया कहां है? तब मैंने दीवार पर चित्र ​बनाया. अगर मुझे कॉलेज की हर दीवार पर चित्र बनाने का मौका मिला तो मैं ऐसे ही चित्र बनाउंगी."

विश्वविद्यालय के गेट के बाहर, स्थानीय लोगों ने विरोध प्रदर्शन जारी रखा और सड़क को बाधित कर दिया. छात्रों ने उनका साथ देने से इनकार कर दिया. स्थानीय निवासी पहले दिन की तरह सड़कों पर निकल आए थे, लेकिन वे नेतृत्वविहीन थे और संगठित नहीं थे. वे रह-रह कर परिसर के अंदर लग रहे नारों को लगा रहे थे और फिर खामोश हो जाते थे. बुर्का पहने कुछ स्थानीय महिलाओं ने मानव श्रृंखला बनाई और सड़क को अवरुद्ध कर दिया. जब मैंने उनसे बात की, तो वे मीडिया से नाराज लगीं. उन्होंने कहा कि पत्रकार ही उन्हें खराब तरह से पेश कर रहे हैं और उन्हें निराश कर रहे हैं. एक महिला ने अपना नाम बताने से इनकार करते हुए बताया, “मेरे घर पर दो छोटे बच्चे हैं. लेकिन आज मैं यहां हूं. क्योंकि उनका भविष्य खतरे में है. आप हमारा समर्थन क्यों नहीं करते? आप सरकार को यह क्यों नहीं बताते कि यह बिल मुसलमानों के खिलाफ है?”

Thanks for reading till the end. If you valued this piece, and you're already a subscriber, consider contributing to keep us afloat—so more readers can access work like this. Click to make a contribution: Contribute