यूएपीए की धारा 13 और माओवाद : झारखंड के आदिवासियों के खिलाफ राज्य के दो औजार

स्टेन स्वामी की मौत के बाद यूएपीए के खिलाफ प्रदर्शन करते छात्र, नन और नागरिक समाज कार्यकर्ता. 84 वर्षीय सोशल एक्टिविस्ट फादर स्टेन स्वामी की भीमा कोरेगांव मामले में 9 अक्टूबर 2020 को यूएपीए की धाराओं के तहत हुई गिरफ्तारी हुई थी. करीब नौ महीना मुंबई की तलोजा जेल में बंद रहने के बाद 6 जुलाई 2021 को मुंबई के भदरा अस्पताल में उनकी मौत हो गई. एसओपीए इमेजिस/एलमी फोटो

16 जुलाई को छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले की जेल में बंद 121 आदिवासियों को दंतेवाड़ा जिले की एनआईए कोर्ट ने यूएपीए समेत अन्य गंभीर धाराओं में दोषमुक्त करार दिया, और फिर अगले दिन 17 जुलाई को झारखंड के रामगढ़ से आदिवासियों के मुद्दों पर रिपोर्ट करने वाले स्वतंत्र पत्रकार रूपेश कुमार सिंह को गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) समेत अन्य धाराओं में दर्ज एक पुराने मामले में गिरफ्तार किया गया. दोनों ही मामलों का संबंध माओवाद से जुड़े होने से है.

24 अप्रैल 2017 को सुकमा जिले के बुरकापाल में हुए एक माओवादी हमले में, जिसमें 25 सीआरपीएफ जवान मारे गए थे, शामिल होने के आरोप में बीते पांच सालों से भी अधिक समय से उपरोक्त 121 आदिवासी समाज के लोग जेल में बंद थे. वहीं रूपेश की गिरफ्तारी का कारण सरायकेला खरसांवा जिले के कांड्रा थाने में नवंबर 2021 में दर्ज मुकदमा रहा, जिसमें पिछले साल 13 नवंबर को एक करोड़ के रुपए के इनामी नक्सली प्रशांत बोस और उनकी पत्नी शीला मरांडी गिरफ्तार हुए थे.

16 जुलाई को रिहा हुए 121 आदिवासी उन हजारों आदिवासियों में से हैं जिनकी जिंदगी यूएपीए जैसे सख्त कानून की धाराओं के तहत लगाए गए मुकदमों के चलते सालों साल सलाखों के पीछे बीत जाती है.

गुजरे सालों में इस कानून के दुरुपयोग पर होने वाली बहासों के केंद्र में झारखंड राज्य प्रमुखता से रहा है क्योंकि यहां आदिवासियों की एक बड़ी संख्या है जो खुद के ऊपर लगे माओवाद के आरोप से मुक्ति की न्यायिक लड़ाई लंबे समय से लड़ रहे हैं.

यूएपीए के प्रावधान के दुरुपयोग की बातें जिन नेताओं ने मुखर होकर उठाई, उनमें झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी हैं. 84 वर्षीय चर्चित सोशल एक्टिविस्ट फादर स्टेन स्वामी की भीमा कोरेगांव मामले में 9 अक्टूबर 2020 को यूएपीए की धाराओं के तहत हुई गिरफ्तारी को लेकर हेमंत सोरेन कहा था, “गरीबों, वंचितों और आदिवासियों की आवाज उठाने वाले 83 वर्षीय वृद्ध स्टेन स्वामी को गिरफ्तार कर केंद्र की बीजेपी सरकार क्या संदेश देना चाहती है? अपने विरोध की हर आवाज को दबाने की यह कैसी जिद्द?” सोरेन का निशाना केंद्र सरकार पर था क्योंकि मुंबई से रांची आई राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) की टीम ने स्टेन स्वामी को गिरफ्तार किया था. उनके वकील उनकी लगातार गिरती सेहत का हवाला देकर जमानत की गुहार लगाते रहे लेकिन जमानत नहीं मिली. कई बीमारियों से ग्रासित स्वामी की तबीयत इतनी बिगड़ी कि उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया और आखिरकार, करीब नौ महीना मुंबई की तलोजा जेल में बंद रहने के बाद 6 जुलाई 2021 को उन्होंने मुंबई के भदरा अस्पताल में आखिरी सांस ली.

{1}

झारखंड के वे जंगल जहां खनिज अधिक हैं, उन इलाकों में माओवाद के आरोप में हजारों आदिवासियों की गिरफ्तारी हुई है. एक आरटीआई से पता चलता है कि झारखंड में बीते 13 सालों (2009 से 2021 तक) में यूएपीए की धाराओं के तहत 704 मामले दर्ज किए गए हैं. इसमें 52.3 प्रतिशत केस आदिवासियों पर दर्ज हुए हैं, जबकि 23.1 प्रतिशत ओबीसी और 6.7 प्रतिशत दलित हैं.

पिछले महीने सीपीआई (एम) झारखंड इकाई के सचिव प्रकाश विप्लव ने उपरोक्त सूचना उक्त आरटीआई के माध्यम से प्राप्त की है. प्राप्त सूचना के अनुसार, स्पेशल ब्रांच ने यूएपीए के तहत दर्ज 458 केस का ब्योरा दिया है. जबकि छह जुलाई तक राज्य के 100 से भी अधिक थानों से प्राप्त सूचना के मुताबिक यूएपीए के 248 मामलों की सूची प्राप्त हुई है.

विप्लव का मानना है कि राज्य में 5000 से भी अधिक लोगों पर यूएपीए की धराएं लगाई हैं. हालांकि आरटीआई से जो सूचना मिली है उसमें जितने केस हैं उतने ही आरोपियों की संख्या बताई गई है, लेकिन विप्लव का कहना है कि प्राथमिकी को ऑनलाइन चैक करने पर हर केस में औसतन 4-5 लोग आरोपी बनाए गए हैं और उस हिसाब से संख्या काफी बढ़ जाती है.

विप्लव के मुताबिक राज्य में नक्सल और उससे जुड़ी घटनाएं होती हैं और ऐसा भी नहीं है कि पुलिस की कार्रवाई हमेशा गलत होती है. लेकिन यहां अधिकांश आदिवासी लोग सताए जा रहे हैं और माओवाद के भय का इस्लेमाल नेचुरल रिसोर्सेज (प्राकृतिक संसाधनों) को कंट्रोल (नियंत्रित) करने के लिए किया जा रहा है."

यूएपीए के तहत जिन लोगों पर मुकदमा दर्ज किया गया है उसका जातिवार आंकड़ा पब्लिक डॉमेन में नहीं मिलता है. 2019 में इसे लेकर कर किए सवाल पर तत्कालीन केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने राज्यसभा को बताया था, “2016 से 2019 के बीच एनसीआरबी के आकंड़ों के मुताबिक 5922 मामले सिर्फ यूएपीए के तहत दर्ज किए गए हैं. लेकिन इन आकड़ों में ये नहीं बताया गया है कि जिनके ऊपर यूएपीए के मामले दर्ज किए गए हैं वे किस बिरादरी या समूह से आते हैं.”

ऐसे में झारखंड के संदर्भ में आरटीआई से प्राप्त यूएपीए के दर्ज मुकदमों का आकंड़ा काफी महत्व रखता है. प्रकाश विप्लव का कहना है कि उन्हें इस तरह का आकंड़ा जुटाने में एक साल लगा है. दरअसल, इस बाबत आरटीआई लगाने के बाद उनको झारखंड पुलिस मुख्यालय से फोन भी आया. वह इस बारे में बताते हैं, “हमने यह कहीं नहीं सुना है कि आरटीआई लगाने पर आपसे संबंधित कार्यालय आरटीआई लगाने का उदेश्य पूछे. लेकिन हमसे पूछा गया. झारखंड पुलिस मुख्यालय से मुझे कॉल कर पूछा गया कि मैं यह जानकारी क्यों मांग रहा हूं, इसको मांगने का क्या उदेश्य है? तो हमने कहा कि इस तरह के मामले में जो निर्देष लोग हैं उन लोगों की पैरवी हम कोर्ट के माध्यम से करना चाहते हैं क्योंकि हम लोगों को जो जानाकारी मिली है उसमें बहुत सारे लोग निर्देष हैं.”

विप्लव के मुताबिक उन्हें आरटीआई इसलिए लगानी पड़ी क्योंकि एनसीआरबी में यूएपीए से जुड़े उपलब्ध आकड़ें आधे-अधूरे हैं. इसके लिए उन्होंने झारखंड राज्य के गृह विभाग और झारखंड पुलिस मुख्यलाय दोनों से आरटीआई से माध्यम से तीन सवाल पूछे थे : यूएपीए के तहत कितने लोग बंदी हैं, वे लोग किस सामुदाय व जाति से आते हैं; और इनका सोशल स्टेटस क्या है?

फिलहाल विप्लव की टीम इस बात का अध्ययन कर रही है कि यूएपीए के आरोप में लोग कितने सालों से जेल में बंद हैं और उनकी पीड़ा क्या है.

आरटीआई की सूचना के मुताबिक, 2019 से 2021 के बीच माओवाद के 119 मामलों में यूएपीए की धारा लगाई गई है. इसी तरह 2009 से 2011 के बीच 136 मामले दर्ज किए गए. तीन सालों में यूएपीए के तहत दर्ज यह सर्वाधिक आकंड़ा है. इसमें गौर करने वाली बात यह कि इस दौरान केंद्र और राज्य में विपरित गठबंधन की सरकारें रही हैं, जिससे जाहिर होता है कि झारखंड में केंद्रीय एजेंसियों का दखल ज्यादा रहा है.

इसे समझने के लिए हम झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले को देख सकते हैं जहां यूएपीए के दर्ज मुकदमें सबसे अधिक है. सारंडा का जंगलएक समय एशिया का सबसे घना जंगल हुआ करता था. फिलहाल 820 वर्ग कि. मी. पर फैले इस जंगल का ज्यातर हिस्सा पश्चिमी सिंहभूम जिले के चाईबासा में आता है. देश के 40 प्रतिशत खनिज पाए जाने वाले झारखंड के चाईबासा में सबसे अधिक लौह अयस्क है. यहां टाटा स्टील, एसआर रूंगटा ग्रुप, शाह ब्रदर्स, बीएन खिरवाल माइंस जैसी बड़ी कंपियनां खनन करती हैं.

इन इलाकों से माओवाद को लेकर खबरें भी आती रहती हैं. आरटीआई से मिली सूचना में यूएपीए के सबसे अधिक 187 मामलें इसी जिले में दर्ज हुए हैं. जबकि दूसरे नंबर पर दुमका 57 व तीसरे पर गुमला 42 है. ये तीनों जिले आदिवासी बहुल और पांचवी अनुसूची में आते हैं. 

 

हंसराज मीणा के ट्वीटर हैंडल से ली गई फोटो. 2017 में छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में बुर्कापाल नक्सली हमले में गिरफ्तार 121 आदिवासियों को न्यायालय ने निर्दोष करार देते हुए 16 जुलाई 2022 को रिहा कर दिया.

{2}

पिछले महीने की छह जुलाई को स्टेन स्वामी की पहली पुण्यतिथि पर रांची में झारखंड जनाधिकार महासभा ने अपनी एक सर्वे रिपोर्ट जारी कर बताया कि झारखंड पुलिस गरीब और आदिवासियों को माओवादी घटनाओं में फर्जी ढंग से आरोपी बनाकर फंसाती है और इन्हें कई-कई साल लग जाते हैं आरोपमुक्त होने में. महासभा का कहना है यह एक उत्पीड़न है और इसमें यूएपीए की भी बड़ी भूमिका होती है. सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक बोकारो जिला के गोमिया और नावाडीह प्रखंड में इस तरह के मामलों में 23 लोग विचारधीन हैं. इनमें 21 लोग बेल पर बाहर हैं जबकि दो जेलों में बंद हैं. वहीं 8 लोग पूर्ण रूप से आरोपमुक्त हैं. इन 31 लोगों में से कई परमाओवाद के एक से अधिक मामले दर्ज हैं.

इन्हीं नामों में 44 साल के आदिवासी सुखलाल अगरिया हैं जो बीते 18 साल से अपने ऊपर लगे माओवाद का केस लड़ रहे हैं. गोमिया के तिलैया पंचायत में पड़ने वाले दकासाड़म गांव के सुखलाल पर दर्ज तीन प्राथमिकी के बोझ ने उन्हें कर्जे मेंडूबा दिया है. मुझसे बातचीत में उन्होंने कहा, “कौनसी धारालगाई है मुझपर, मुझे नहीं पता. लेकिन पहली बार 2005 में पुलिस चार बजे भोर में मुझे घर से उठाकर ले गई थी. पूछने पर बस इतना बताया कि मैं माओवादी को खाना खिलाता हूं और उनको सहयोग करता हूं. तीन दिन तक पुलिस ने मुझे थाना थाना (लालपनिया, तेनुघाट, महुआटांड) घुमाया. जमीन पर लेटाकर दो घंटे तक लाठी से पीटा. फिर महुआटांड थाना लेकर आया और सादे कागज पर मुझसे ठप्पा लिया. इसके बाद तेनुघाट जेल भेज दिया.पांच महीने बाद जेल से बाहर निकला.”

सुखलाल को दो और मामलों में जेल जाना पड़ा है. वह इस बारे में बताते हैं,“2009 की बात है. शुक्रवार का दिन था. मैं दनिया (दकासाड़म के बगल वाला गांव) बाजार अंडा बेचने गया था. वहां शाम में एक परिचित ने मुझे घर तक छोड़ने को कहा, तो मैंने अपनी मोटरसाइकिल से उसे छोड़ दिया. जब छोड़कर वापस अपने घर लौट रहा था तभी पुलिस ने पीछे से मेरे पैर में गोली मारी. मैं मोटरसाइकिल रोक कर उतर गया. इतने में ही पुलिस पास आकर यह कहते हुए मुझे पकड़ ली कि मैं भाग रहा था. इसके बाद पुलिस हमको लालपनिया लेकर आई और वहां मेरा बैंडेज करवाया. जब यहां का डॉक्टर ने रेफर कर दिया तो दूसरे दिन भोर में वे लोग मुझे बोकारो हॉस्पिटल लेकर पहुंचे. यहां एक महीना रख कर इलाज करवाया. इसके बाद फिर महुआटाड़ थाना लेकर आए और यहां भी सादे पेपर पर मेरा ठप्पा लेकर तेनुघाट जेल भेज दिया. हम यहां फिर साल भर जेल में रहें.”

इस मामले में सुखलाल पर आरोप है कि कि उन्होंने माओवादियों के साथ मिलकर रेल पटरी उड़ाई है और उनके पास से विस्फोटक पदार्थ बरामद हुआ है. आखिरी बार पुलिस ने सुखलाल को 2014 में गिरफ्तार किया. इस बार उनके ऊपर आरोप लगा कि उन्होंने एक चौकीदार की हत्या की है. स्वयं को बेकसूर बताने वाले सुखलाल ने इस केस में भी एक साल तेनुघाट जेल में बिताया. उन्होंने कहा, “हमको महाजन से कर्जा लेकर केस लड़ना पड़ा. कर्जा चुकाने लिए हमको और मेरे बेटों (चार बेटा, एक बेटी और पत्नी) को मजदूरी करनी पड़ती है. कोर्ट-कचहरी के चक्कर में अबतक लाख रूपए से ज्यादा खर्च हो गया है. परिवार चलाने के लिए बट्टिया पर दूसरे का खेत जोतते हैं जिससे मात्र तीन महीने का ही गल्ला हो पाता है. बाकि के महीनों में मजदूरी करनी पड़ती है. गरीबी के कारण किसी बच्चों को पढ़ा नहीं पाया.”

तीनों केस में सुखलाल बारी-बारी से हाई कोर्ट से बेल पर बाहर आए. उनके मुताबिक 2005 के केस में तो वह बरी हो गए हैं लेकिन 2009 और 2014 का केस उनपर आज भी चल रहा है.

सुखलाल के वकील लक्ष्मीकांत प्रसाद के मुताबिक महुआटांड थाना में एक रेलवे कर्मचारी के द्वाराअज्ञात प्राथमिकी दर्ज कराई गई थी. कांड संख्या 42/2009 में यूएपीए की धारा 10/13/15 (गैर-कानूनी गतिविधि के लिए सजा) लगाई गई है. इसके अलावा क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट एक्ट (सीएलए) की धारा 17(उग्रवादी, नक्सली या विध्वंशकारी गतिविधियों में शामिल होना), विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 3/5(अवैध हथियार और गोलाबारूद रखना) और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 427, 307, 120 भी लगाई है.

वकील के मुताबिक कांड संख्या 50/2014 में भी सुखलालआरोपी हैं. आईपीसी की धारा, 147, 148, 149, 353, 302 और सीएल एक्ट की धारा 17 के तहत उनपर मामला चल रहा है. लक्ष्मीकांत कहना है, “मेरा मानना है कि पुलिस अपना कोरम पूरा करने के लिए इन जैसे ग्रामीणों को पकड़ती है. ये ग्रामीण(आरोपी) पुलिस और उग्रवादी दोनों तरफ से पिसाते हैं. हो सकता है कि उग्रवादी लोग इनके घर आते हैं और इन्हें डरा धमकार खाना बनवाते होंगे. ऐसी स्थिति में वे खाना बनाकर उग्रावादियों को खिलाते हैं. तब पुलिस इन्हें पकड़ ले जाती है.”

लक्ष्मीकांत इन दोनों ही केस में सुखलाल को बाइज्जत बरीकरवाने का दावा करते हैं. कहते हैं कि वह इस केस में पांच मुदालय में (मामले में आरोपी) से दो की रिहाई करा चुके हैं. उन्हीं में से एक 27 मई को रिहा हुए 43 साल के रतिराम मांझी हैं. मांझी भी आदिवासी हैं और दकासाड़म गांव के रहने वाले हैं. माओवाद के आरोप का दंश रति राम के परिवार ने सात सालों तक सहा. इस बीच उनकी दो बेटी इसकी शिकार बनीं. रतिराम ने कहा, “कस्तूरबा गांधीस्कूल में दाखिले के लिए हमने दो बेटी का आवेदन दिया था. सेलेक्शन भी हो गया था. स्कूल प्रबंधन ने कहा कि बच्चियों को भेज दीजिए. लेकिन किसी ने मेरे बारे में स्कूल जाकर कहा कि मैं माओवादी हूं. इसके बाद स्कूल वालों ने दाखिला देने से इंकार कर दिया. इसकी वजह से तीन साल तक बच्चियों की पढ़ाई बाधित रही.”

उनके साथ क्या हुआ था इस बारे में रतिराम आगे बताते हैं, “14 जनवरी 2015 को दो बजे रात में घर से सीआरपीएफ वालों ने उठा लिया. वे मुझे गोमिया स्थित सीआरपीएफ कैंप ले गए. उन्होंने कहा कि महुआटांड के एक चौकीदार का तुमने मार्डर किया है. तुमने ही गोली मारी है. तुम माओवादी हो बोलकर डंडे से बांधकर लटकाया दिया और पिटाई की. दिन भर रखा और दूसरे दिन वहां से तीन बजे मुझे महुआटांड थाना वाले लेकर आए. फिर तीसरे दिन मुझे तेनुघाट जेल भेज दिया गया. जब हम जेल में थे तब मेरे परिवार वालों को सीआरपीएफ बहुत परेशान करते थे. तीन बार उनलोगों ने मेरे घर पर जाकर छापा मारा. कहा कि रतिराम मांझी ने जिस बंदूक से गोली मारी है वह बंदूक दो. बेल मिलने के बाद भी वे लोग दो बार मेरे घर आए.”

रतिराम मांझी आठ महीने बाद हाई कोर्ट से बेल मिलने के बाद जेल से बाहर आए. परिवार चलाने के लिए वह खेती-किसानी के अलावा नरेगा में काम करते हैं. उनकी पत्नी बाजार-बाजार सब्जी बेचती हैं. दो बड़ी बेटियों का ब्याह कर दिया है. जबकि दो छोटी बेटी और एक बेटा पढ़ाई कर रहे हैं.

माओवाद का आरोप झेल रहें हीरालाल टुडू और सुरजमनी ने भी बहुत कुछ खोया है. ये दोनों पास के ही गांव टुटीझरना के रहने वाले आदिवासी हैं और रिश्तेदार भी. 24 साल के हीरालाल 28 महीना जेल में रहकर बाहर आए हैं. इस दौरान मां के गुजर जाने को वह अपना सबसे बड़ा नुकसान मानते हैं. 8 फरवरी 2018 को हाई कोर्ट से बेल मिलने के बाद अब उन्हें कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं. वह बताते हैं, “सितंबर 2015 से फरवरी 2018 तक जेल काटी है मैंने. जब मैं तेनुघाट जेल गया था तब मेरी बेटी सिर्फ सात दिन की थी और एक साल के भीतर ही मेरी मां सदमे से मर गई, मेरा इंतजार करते करते. मैं तो उसका आखिरी बार चेहरा भी नहीं देख पाया.”

वह आगे बताते हैं,पुलिस हमको 2014 में लालपनिया मेंजो बस बलास्ट हुआ था, उसमें ही पकड़ कर ले गई थी. पुलिस ने हमसे बोला कि मैंने पार्टी वालों का बंदूक घर में झुपा कर रखा है. उनलोगों ने घर में जगह जगह गड्डा कोड़ दिया, लेकिन उन्हें कुछ नहीं मिला. तीन दिन तक थाने में मुझे रखा और सुबह शाम पीटते रहे. जब मेरे गांव के प्रतिनिधि लोग थाना आए तो पुलिस वाले उनसे कहने लगे कि उनपर दबाव है इसलिए उन्होंने मुझे पकड़ा है. उन्होंने कहा कि हल्का केस बनाकर मुझे जेल भेज रहे हैं, जिसमें मैं तीन महीने में बाहर आ जाऊंगा.पुलिस वालों ने एक कागज पर मुझसे साइन करने को कहा. हमने कहा कि मेरे ऊपर कोई केस ही नहीं है तो हम साइन क्यों करेंगे? तो वे कहने लगे कि हल्का केस है, साइन कर दो,ऊपर से दबाव है हमलोगों पर. यह कहते हुए पूरा कागज पढ़ने भी नहीं दिया और साइन करवाकर जेल भेज दिया.”

इसी केस में सुरजमनी 29 महीने जेल में रहने के बाद वह गांव और घर वालों के लिए बदल सी गई हैं. अब वह किसी से बात नहीं करती हैं और उनका हर दिन सोच और सदमे  में गुजरता है. मैंने भी कई बार बात करने कोशिश की, लेकिन उसने एक शब्द नहीं बोला. हीरालाल टुडू सुरजमनी के बारे बताते हैं, “यह चार बहनों में दूसरे नंबर की हैं. इनके बाद एक भाई और दो बहन हैं. घर में सबकी शादी हो गई लेकिन इनका कोई रिश्ता नहीं आता है. माओवाद के आरोप ने इनकी जिंदगी बर्बाद कर दी.”

हीरा लाल टुडू ने इंटर तक पढ़ाई की है और फिलहाल वह नरेगाका काम करते हैं. वह कहते हैं कि न्यायिक लड़ाई लड़ते-लड़ते अबतक उनका 80 हजार रुपया खर्च हो चुका है. इसके लिए उन्हें अपने रिश्तेदारों से कर्ज भी लेना पड़ा है.

इन दोनों के वकील कुंदन कुमार सिंह के बताया कि 2014 में गोमिया थाना में एक माओवाद का एक मामला दर्ज हुआ था. प्रथामिकी संख्या 47/14 के अनुसार आईपीसी की धारा 147, 148, 149, 326, 307, 353. आर्म्स एक्ट 27, विस्फोटक पदार्थ 3/4/5,सीएलए एक्ट 17 एवं यूएपीए एक्ट 10/13 के तहत मामला चल रहा है. पुलिस पक्ष के 14 गवाह गुजरे हैं और सभी ने अभियुक्तों को पहचानने से इंकार कर दिया है. वकील का कहना है कि वह इस मामले में पांच लोगों का केस देख रहे थे, जिनमें से 2017-18 में दो लोग रिहा हो चुके हैं और ये दोनों भी आदिवासी हैं. वकील को उम्मीद है कि बाकि तीनों भी रिहा होंगे, जिनमें हीरालाल टुडू और सुरजमनी शामिल हैं.

इसी तरह की आपबीती गोमिया प्रखंड के मातहत आने वाले टिकाहारा पंचायत के चोरगांवा गांव के 44 वर्षीय जगरनाथ मरांडी भी सुनाते हैं. इनके मुताबिक पुलिस ने इन्हें माओवाद के आरोप में 2011 में गिरफ्तार किया, जिसमें वह पांच महीने बाद तेनुघाट जेल से बाहर आएं. इस मामले में इन्हें हाईकोर्ट से बेल मिली. वह बताते हैं,“जब मैं इस केस में 2015 में बरी हो गया तो इसके तुरंत बाद मेरे उपर माओवाद का एक और केस लाद दिया गया. चार साल बाद 2019 में मैंने इसमें सेरेंडर किया और तीन महीने बाद जेल से बाहर आया. इसमें मुझे हाईकोर्ट से बेल मिली.”

जगरनाथ के वकील उज्जवल मुखर्जी ने बताया, “जगरनाथ जिस 29/11 कांड संख्या में 2015 में बरी हुआ है वो केस लालपनिया थाना में दर्ज हुआ था और इसमें आईपीसी 415, यूएपीए एक्ट 10/13,सीएलए एक्ट 17 की धारा लगाई गई थी. जबकि 2015 में महुआटांड थाना में दर्ज कांड संख्या 28/15  में फिस्फोटक पदार्थ 3/5, सीएलए एक्ट 17 के धारा के तहत विचारधीन हैं.”

झारखंड जनाधिकार महासभाकी सर्वे रिपोर्ट में 43 साल के एक संथाली आदिवासी बिरसा मांझी के बारे बताया गया है कि उन्हें भी पुलिस माओवाद के नाम पर प्रताड़ित कर रही है. यह वही बिरसा मांझी हैं जिन्हें लेकर जनवरी से फरवरी के बीच कई खबर प्रकाशित हुई है. सर्वे रिपोर्ट और खबर के मुताबिक बिरसा को दिसंबर 2021 में गोमिया प्रखंड अंतर्गत जागेश्वर विहार थाना में बुलाकर कहा गयाकि वह एक लाख रुपए के इनामी नक्सली हैं. पुलिस ने बिरसा को सेरेंडर करने को कहा. पुलिस के अनुसार बिरसा मांझी के पिता का नाम बुधु मांझी हैं. जबकि बिरसा और उनके गांव वालों और आधार कार्ड के मुताबिक बिरसा के पिता का नाम रामेश्वर मांझी है. बिरसा का यह भी कहना है उसका माओवाद से कोई जुड़ाव नहीं है. हालांकि बिरसा को पुलिस ने अभीतक गिरफ्तार नहीं किया, लेकिन उन्हें कई बार थाना में बुलाया जा चुका है. इस कारण इनके परिवार को हर समय गिरफ्तारी का डर लगा रहता है. तिलैया पंचायत के चोरपानिया गांव के रहने वाले बिरसा इंट भट्टा पर मजदूरी का काम किया करते हैं.

सर्वेक्षित मामले और आरोपियों की आपबीतीके बारे में जब बोकारो जिले के एसपी चंदन कुमार झा से उनका पक्ष जानने के लिए मैंने उन्हें फोन किया तो उन्होंने विस्तृत सवाल सूची व्हाट्सऐप करने को कहा. मैंने सवालों की सूची उन्हें व्हाट्सऐप की तो उसके जवाब में उन्होंने जल्द ही अपडेट करने की बात कही. तीन दिन बीत जाने के बाद जब उनका जवाब नहीं आया तो मैंने उन्हें जवाब भेजने के लिए अनुरोध किया. जिसपर उन्होंने कहा कि हम डिटेल के जवाब रेडी (तैयार) करवा रहे हैं. छह दिन बीत जाने के बाद भी उनका जवाब नहीं आया तो मैंने उन्हें फिर से जवाब भेजने के लिए रिमाइंडर मैसेज भेजा. लेकिन एक महीना बीत जाने के बाद भी उनका कोई जवाब नहीं आया. झारखंड जनाधिकार महासभा के सिराज दत्ता ने मुझसे सर्वे रिपोर्ट के बारे में कहा, “सभी लोग(आरोपी, आरोपमुक्त) बेइंतेहा गरीब हैं. इसमें अधिकांश आदिवासी हैं. इन सभी 31 लोगों को महज संदेह पर माओवादी घटना में आरोपी बनाया गया. इनमें कई का गुनाह बस इतना रहा होगा कि वे डर से माओवादियों को खाना खिलाए होंगे या गांव में उनकी मीटिंग में भाग लिए होंगे. पिछली सरकार (भाजपा) में व्यापक पैमाने पर राज्य में आदिवासियों, गरीबों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ यूएपीए और राजद्रोह की धारा का इस्तेमाल हुआ. पिछले साल 2020 में भी राज्य में यूएपीए के 86 मामले दर्ज किये गए हैं.”

झारखंड जनाधिकार महासभा ने अगस्त 2021 से जनवरी 2022 के दौरान यह सर्वे तैयार किया था, जिसमें आदिवासी-मूलवासी अधिकार मंच बोकारो, आदिवासी विमेंस नेटवर्क और बगईचा जैसे संगठनों सहयोग किया.

महासभा का मानना है कि सर्वेक्षित सभी मुकदमें फर्जी हैं. इनकी मांग है इसकी निष्पक्ष जांच के लिए न्यायिक जांच का गठन किया जाए एवं जल्द से जल्द इन मुकदमों को वापस ले और जो इस मामले दोषी पुलिस पदाधिकारियों हैं उनके खिलाफ कार्रवाई हो. इसके अलावा आरोपमुक्त लोगों के परिवार को सरकार मुआवजा और नौकरी दे और यूएपीए कानून को रद्द करे.

रिपोर्ट में बताया गया है कि सर्वेक्षित लोगों का घर जंगलों और पहाड़ों से लगा हुआ है. गोमिया और नवाडीह प्रखंड के इलाकों में आजादी के बाद से अबतक कोयला खदान, बोकारो थर्मल पावर स्टेशन और तेनुघाट पावर प्लांट एवं बारूद फैक्ट्री लगाई गई. सन 1965 में यहां बनाए गए तेनुघाट डैम के लिए 22 मौजे के 31 गांवों के 21624 परिवार को विस्थापित किया गया और इन लोगों की 17434 एकड़ रैयती और लगभग 10000 एकड़ सामुदायिक जमीन अधिग्रहण की गई. इनमें से कईयों का दशकों बाद भी ना ही पुनर्वास हो पाया और ना नौकरी मिल पाई. फिलहाल इन इलाकों के चोरातांड में कोयला का व्यवसायिक खनन शुरू किए जाने की तैयारी है, जिसके लिए फिर ग्रामीणों का जबरन विस्थापन किया जाएगा.

 

{3}

6 जुलाई 2022 को सीपीआईएम और झारखंड जन अधिकार महासभा द्वारा आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में प्रेस को संबोधित करते हुए हीरालाल टुडू. सौजन्य : मो. असग़र खान

2016 में मिशन सारंडानाम से किताब लिख चुके मानवाधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग का मानना है कि माओवाद के बहाने आदिवासियों के अस्तित्व को मिटाकर उनके संसाधनों पर कब्जा करना ही हर सरकार की प्राथमिकता रही है.

अपनी किताब का जिक्र करते हुए ग्लैडसन ने कहा, “झारखंड में पुलिस जिसको भी नक्सली के नाम पर पकड़ती है उसपर यूएपीए कानून लगा देती है. सारंडा में यह एकदम आम है. झारखंड का 25 प्रतिशत आयरन ओर सारंडा के जंगल में है और यहां पर सिर्फ आदिवासी रहते हैं, तो उनको कैसे हटाएंगे आप? सबसे आसान तरीका है उन्हें नक्सली घोषित करो. यह सब खूब हुआ है इन इलाकों में. कभी ऑपरेशन ग्रीन हंट(2009) के नाम पर तो कभी ऑपरेशन एनाकोंडा (2011) के नाम पर. जब केंद्र सरकार ने ऑपरेशन ग्रीन हंट शुरू किया था, तभी हमने दिल्ली में एक कॉन्फ्रेंस में बोला था कि यह ऑपरेशन का मकसद माओवादियों को खत्म करने के आड़ में आदिवासियों को खत्म कर उनके संसाधनों पर कब्जा करना है. तब उस कॉन्फ्रेंस में कई शिक्षाविद ने हमारी बात नहीं मानी थी. मैंने कहा था कि मैं इसे साबित कर दूंगा. 2016 में मिशन सारंडा किताब में मैंने यह साबित भी कर दिया.”

ग्लैडनस आगे कहते हैं, “भले ही ऑपरेशन जैसे अभियान को रोक दिया गया है लेकिन आज भी माओवाद के नाम पर आदिवासियों की गिरफ्तारियां रुकी नहीं है और इसपर कोई बोलने वाला नहीं है. जो बोलेगा उसपर राजद्रोह का मुकदमा कर देंगे. देखिए, एक कवाहत है कि कुत्ते को पागल साबित करो और फिर गोली मार दो. कोई सवाल नहीं पूछेगा. इसी तरह आदिवासियों को नक्सली बताकर गोली मार दो, कोई सवाल नहीं पछेगा. देश में यह ट्रेंड है कि मुस्लिम को आतंकवादी बोलो और आदिवासियों को नक्सली फिर आपसे कोई भी सवाल नहीं करेगा. आप सरकारी आंकड़ा उठाकर देखिए, यूएपीए आदिवासी, दलित, मुस्लिमों पर दर्ज मिलेंगे.”

280 पन्नों की पुस्तक सारंडा मिशन में ग्लैडसन ने माइनिंग कंपनियों और माओवादियों के बीच गहरे संबंध एवं लाखों रुपयों के लेनदेन की बात भी कही है. साथ ही माइनिंग कंपनियों द्वारा उपयोग किए जाने वाला विस्फोटक पदार्थ माओवादियों तक कैसे पहुंचता इसे लेकर सवाल भी उठाया है. किताब के मुताबिक इन दोनों ऑपरेशन के दौरान सारंडा में 22 नई माईनिंग लीज दी गई एवं 9 सीआरपीएफ कैंप बना दिए गए हैं, जिससे जाहिर होता है कि सारंडा विकास योजना को लागू करने के पीछे नई माईनिंग परियोजना को लागू करना था.

खनिज की उपलब्धता और आदिवासियों पर यूएपीए लागाने के सहसंबंध अथवा कोरिलेशन पर, आरटीआई लगाने वाले विप्लव बताते हैं, “प्राथमिकी (एफआईआर) के विश्लेषण सेकई बातें स्पष्ट होती है, जैसे ज्यातर जहां जंगल, माइंस-मिनरल्स है और जहां पर प्रोटेस्ट की संभावना है, वहीं पर केस फ्रेम (बना) कर टेरर (आतंकित करना) बनाया गया है. आप चाईबासा को ही लीजिए, यहां मिनरल्स बड़े पैमाना पर हैं. हजारीबाग को देख लीजिए, यहां पर भूमि अधिग्रहित की गई, जिसे लेकर ग्रामीणों ने आंदोलन किया. आंदोलन पर प्रशासन की गोलीबारी से कई ग्रामीणों की मौत तक हुई. लेकिन हम धनबाद और रामगढ़ को देखते हैं तो यहां यूएपीए के मामले न के बराबर हैं. क्यों? क्योंकि यहां सरकार का पब्लिक सेक्टर ठीक से काम कर रहा. यहां जमीन लेने की संभावना नहीं बनती है. और अगर यहां जमीन लेंगे तो पब्लिक सेक्टर को बंद करके लेनी पड़ेगी. माओवाद के मुकदमे वहां ज्यादा मिलेंगे जहां कारपोरेट की माइंस पर गैरकानूनी गतिविधियां हैं."

विप्लव आगे कहते हैं, “आप यह भी पाएंगे किजब झारखंड में बीजेपी की सरकार नहीं रहती है तो राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) का इस्तेमाल यहां ज्यादा होता है, और जब बीजेपी की सरकार यहां रहती है स्टेट मिशनरी का इनवॉलमेंट अधिक हुआ है. इससे साफ है कि केंद्र सरकार ने झारखंड के आदिवासी, दलितों के लिए एनआईए को इंस्ट्रूमेंट टूल्सकी तरह यूज(हथियार-औजार की तरह इस्तेमाल) किया है.”

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की2020 रिपोर्ट के अनुसार देश की जेलों में कुल 488511 कैदी बंद है. इनमें 371848 कैदी विचाराधीन हैं जिसमें 73 प्रतिशत आदिवासी, दलित और ओबीसी से आते हैं. जबकि 20 प्रतिशत मुस्लिम हैं. विचाराधीन कैदियों की सूची में झारखंड का 17103 संख्या के साथ छठे स्थान पर है. वहीं एक रिपोर्ट के मुताबिक स्टेन स्वामी जेलों में बंद 6000 आदिवासी हैं, की न्यायिक लड़ाई लड़ रहे थे. इनमें अधिकतर की गिरफ्तारियां यूएपीए के तहत हुई हैं. स्वामी के सहयोगी रहे और सारंडा के सामाजिक कार्यकार्ता सुशील बारला इस बारे में बताते हैं, “ऑपरेशन ग्रीन हंट और एनाकोंडा अभियान में सबसे अधिक 3000 आदिवासी को सिर्फ सारंडा के इलाकों से गिरफ्तारी किया गया. इनमें अधिकतर के पास पहचान पत्र, राशन कार्ड, वन पट्टा तक नहीं थें. मैंने इसे लेकर 2014 में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग को पत्र लिखा, जवाब में उधर से पश्चिमी सिंहभूम के उपायुक्त और झारखंड के जनजातीय कल्याण विभाग के सचिव को निर्देश दिया गया कि मामले को देख उचित कार्रवाई करें. हालांकि उसके बाद कुछ लोगों तक सुविधा उपलब्ध जरूर पहुंची है, लेकिन अभी भी एक हजार से अधिक लोग राशन कार्ड और आधार कार्ड, वनपट्टा से वंचित हैं, जिन्हें हर समय यह डर रहता है कि पुलिस उन्हें माओवादी बताकर उठा न ले जाए.”

स्टेन स्वामी के साथ मिलकर काम कर रही लीगल टीम से जुड़े एक अधिवक्ता शिव प्रसाद सिंह ने बताया, “विचाराधीन कैदियों को लेकर 2017में झारखंड हाईकोर्ट में पीआईएल दायर की गई थी. पीआईएल पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया था कि झारखंड में कितने विचाराधीन कैदी हैं, खासकर- आदिवासी और दलित, उनके बारे में पूरी विस्तृत जानकारी दे. सरकार ने जानकारी भी दी थी, अब उसे देखना पड़ेगा, कितनी संख्या है? लेकिन मेरा कहना है कि गरीब आदिवासी, दलित पर खबरें तो आ जाती हैं, मगर ये क्यों जेलों में बंद, इन्हें क्यों पकड़ा जाता है, इनके घर वाले का जीवन-यापन कैसे होता है, इसे लेकर लड़ाई करने वाले बहुत कम लोग है.”

बीते छह सालों में यूएपीए की धाराओं का धड़ल्ले से इस्लेमाल हुआ है. केंद्र सरकार ने राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में एनसीआरबी का हवाला देते हुए बताया था कि 2016 से 2020 के बीच देश के विभिन्न हिस्सों में यूएपीए के तहत क्रमशः 999, 1554, 1421, 1948, 1321 लोगों को यूएपीए के तहत गिरफ्तारियां हुई है. बीते पांच सालों में देशभर में यूएपीए के तहत 7243 लोग गिरफ्तार किए गए हैं. इस दौरान यूएपीए के तहत 72 फीसदी गिरफ्तारियों में बढोतरी हुई है. जबकि इसमें 2.2 प्रतिशत ही लोगों पर आरोप तय हो पाए हैं.

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मदन बी लोकुर ने यूएपीए के प्रावधान को राजद्रोह से अधिक खतरनाक बताया है. हाल ही में उन्होंने एक कार्यक्रम में यूएपीए की धारा 13 के प्रावधान के दुरुपयोग को लेकर चिंता जाहिर की है. उन्होंने कहा, “राजद्रोह कानून में कुछ अपवाद थें जहां राजद्रोह के आरोप लागू नहीं किए जा सकते, पर यूएपीए की धारा 13 के तहत कोई अपवाद नहीं है. यदि यह प्रावधान बना रहता है, तो यह बद से बदतर स्थिति में जाने जैसा होगा.”

लोकुर ने यूएपीए की जिस धारा के दुरुपयोग की बात की है उसका इस्लेमाल झारखंड में अधिक देखने को मिलता है. यूएपीए के तहत यहां जितने भी मामले दर्ज हुए हैं उनमें से अधिकांश में धारा 13 लगाई गई है.आरटीआई के जरिए स्पेशल ब्रांच की ओर से दी जानकारी के मुताबिक 458 मामलों में से 378 केस में धारा 13 लगाई गई है.

मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज(पीयूसीएल) से जुड़े झारखंड हाईकोर्ट के अधिवक्ता शैलेश पोद्दार का भी मानना है कि धारा 13 का दुरुपयोग काफी होता है और ये झारखंड में भी हुआ है. उनके मुताबिक यह सेक्शन बहुत वाइडऔर वेग है जिसके कारण इसका मिस यूज होता है.

इस धारा को समझाते हुए पोद्दार कहते हैं, “सेक्शन 13 कहता है कि कोई भी व्यक्ति जो अनलॉफुल एक्टिविटी में (गैरकानूनी गतिविधि में) या किसी प्रतिबंधित संगठन संगठन या फिर आरोपी से, किसी तरह का सलाह मश्वरा, सहयोग या उसकी पैरवी करता है तो उस पर सेक्शन 13 लग सकता है. अब उदाहऱण के लिए कोई डॉक्टर किसी नक्सली या प्रतिबंधित संगठन से जुड़े होने के आरोपी का इलाज करता है, उसे इलाज के लिए सलाह-मश्वरा देता है तो क्या ये सभी काम सहयोग में आएंगे, और क्या चार्ज लगा दिया जाएगा? ये सारी शब्दावली वाइड और वेग हैं जिन्हें सही से परिभाषित नहीं किया गया है."

पोद्दार कहते हैं, “वे राज्य जहां आदिवासी राइट्स की बात होती है या जो नक्सल प्रभावित हैं वहां तो पुलिस का सबसे आसान हथियार है यूएपीए और उसकी धारा 13. देखिए, यूएपीए, ऑफेंस विदाउट विक्टिम है. इसमें कोई विक्टिम नहीं होता है. उदाहरण के तौर पर अगर आपको के ऊपर हत्या का इलजाम लगाना होगा, तो एक डेड बॉडी दिखानी पड़ेगी. यूएपीए में कोई डेड बॉडी नहीं दिखानी होती है. बस पुलिस इतना कहेगी कि आप माओवादी हैं, हो गया काम. इस तरह के केस में पुलिस को ज्यादा कुछ साबित नहीं करना पड़ता है. आप देखिएगा कि पुलिस यूएपीए का इस्तेमाल डाराने और जेल में रखने के लिए करती है. माओवाद का आरोप लगाइए और यूएपीए लगा दीजिए.  पुलिस दिखाने के लिए विस्फोटक पदार्थ और प्रतिबंधित संगठन के बैनर, पर्चे दिखा देगी कि ये आपके घर से मिला है.”

इस पूरे मामले पर झारखंड के आईजी अभियान और झारखंड पुलिस के प्रवक्ता अमोल वेणुकांत होमकर से पुलिस का पक्ष जानने के लिए जब मैंने उनसे संपर्क किया तो उन्होंने अपनी व्यस्तता बताते हुए कहा, “आप सवाल भेज दीजिए, मैं देखूंगा और मैं उस हिसाब से जवाब दूंगा.” इसके बाद मैंने उन्हें सवालों की सूची व्हाट्सऐप कर दी. इसके बाद एक रिमाइंडर मैसेज भी किया. कई दिन बाद जब कोई जवाब नहीं आया तो दो से तीन दिन के अंतराल में मैंने उन्हें चार बार कॉल किया लेकिन उन्होंने एक बार भी कॉल रिसीव नहीं किया. सवाल भेजे जाने को लगभग एक महीना बीत जाने के बाद भी जवाब नहीं आया है. वहीं इस बारे में झारखंड के डीजीपी निरज सिन्हा को भी कई बार कॉल किया, लेकिन उन्होंने भी कॉल रिसीव नहीं किया.

मानवाधिकार के मुद्दों पर काम करने वाले लोगों का कहना है कि झारखंड में माओवाद के आरोप को पुलिस प्रशासन एक हथियार की तरह इस्तेमाल करता है. इसे आधार बना कर कभी किसी आदिवासी की पिटाई की जाती तो कभी गोली मार दिया जाता है. इसी साल लातेहार जिले छिपादोहर थाना क्षेत्र कुकु गांव निवासी अनिल कुमारसिंह खरवार की पुलिस द्वारा कथित तौर पर की गई पिटाई के मामले में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने भी जांच कर कार्रवाई का आदेश दिया था. लेकिन अनिल सिंह ने मुझे बताया कि कई बार आवेदन देने के बाद भी अब तक उनकी एफआईआर दर्ज नहीं कई गई है. आखिर में उन्होंने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है लेकिन यहां सिर्फ सुनवाई की तिथी मिल रही है.

42 साल अनिल सिंह खरवार एक आदिवासी किसान हैं जिन्हें लातेहार गारु थाना की पुलिस माओवादियों की मदद करने के आरोप में 22 फरवरी को एक बजे रात में घर से पकड़ कर ले गई थी. अनिल सिंह ने बताया कि थाना में ले जाकर पुलिस ने उनकी लाठी से पिटाई की और उनके प्राइवेट पार्ट में पेट्रोल डाल दिया.

हमने जब अनिल सिंह खरवार से इस बारे में जानने के लिए फोन किया तो वह डॉक्टर के यहां अपना इलाज करवाने पहुंचे हुए थे. उन्होंने कहा, “मेरा गुनाह बस इतना है कि मैं जंगल में रहता हूं. इस गुनाह के लिए पुलिस ने मुझे सैकड़ों बार लाठी से मारा है. पिटाई से मेरा बांया हाथ बेकार हो गया वो नहीं उठ पाता है. दवा कराने के लिए हम डॉक्टर साहब के यहां आएं. मार-मार कर मेरी चमड़ी उधेड़ दी उन लोगों ने. तीन दिन तक थाना में रखने के बाद थाना प्रभारी रंजीत कुमार यादव कहते हैं कि गलती हो गई मुझसे, मुझे माफ कर दो. घर वालों को पिटाई के बारे में मत बताना.”

पिछले साल जून में ही गारू थाना क्षेत्र पीरी के जंगल में 24 वर्षीय ब्रह्मदेव सिंह की हत्या और सबूत मिटाने के आरोप में सीआरपीएफ के डिप्टी कमांडेंट समेत आठ सुरक्षाबलों पर दर्ज 3 मई को दर्ज एफआईआर की जांच की जा रही है. इस मामले में दो एफआईआर दर्ज हुई हैं. शुरुआत में पुलिस ने 13 जून को आदिवासी ग्रामीणों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की थी. इसमें पुलिस ने दावा किया था कि ब्रह्मदेव सिंह की मौत क्रॉसफायर की घटना थी. एफआईआर के मुताबिक “माओवादी की खोज में सीआरपीएफ का एक दस्ता सर्च अभियान में था. इस दौरान पीरी जंगल में सुरक्षाबलों का सामना हथियार से लैस आदिवासियों से होता है. जवानों के द्वारा उन्हें गोली नहीं चलाने और रुक जाने और सरेंडर करने की चेतावनी दी गई, बावजूद जवानों पर गोलीबारी की गई. इसके बाद सुरक्षाकार्मियों ने आत्मरक्षा में फायरिंग की.”

जबकि मृतक ब्रह्मदेव की पत्नी जेरामणि देवी ने कॉन्टर एफआईआर दर्ज कराने के लिए गारू थाना और लातेहार मजिस्ट्रेट अदालत में कई चक्कर लगाए, लेकिन उनकी प्राथमिकी दायर नहीं की गई. आखिर में उन्होंने उच्य न्यायालय में याचिका दायर की, जिसके जवाब में झारखंड पुलिस ने कहा है कि इस मामले में 3 मई को ही एफआईआर दर्ज कर ली गई है. मामले की सीआईडी जांच की जा रही है. वहीं जेरामणी ने दायर याचिका में मांग की है कि घटना की सीबीआई जांच हो और उन्हें दस लाख रुपए मुआवजा दिया जाए.

इन दोनों मामलों पर लातेहार एसपी अंजनी अंजन ने बताया, “अनिल सिंह की तरफ से एफआईआर के लिए हम लोगों को अब तक कोई भी आवेदन या रिसीविंग नहीं मिला है और न ही कोर्ट से इस पर कोई आदेश आया है. लेकिन अनिल सिंह वाली घटना की सूचना मिलते ही हम लोगों ने गारू थाना प्रभारी को थाना से हटा कर लाइन हाजिर कर दिया था. इसके बाद एक जांच कमेटी का गठन भी किया था, जिसकी रिपोर्ट के आधार पर डिपार्टमेंटल प्रोसिडिंग (विभागीय कार्यवाही) चल रही है.” तो आपने लाइन हाजिर किस आधार पर किया? इसके जवाब उन्होंने कहा कि उन्हें मीडिया रिपोर्ट से जानकारी मिली थी घटना के बारे में. वहीं ब्रह्मदेव सिंह के मामले में एसपी अंजनी अंजन ने कहा, “इस मामले में दो एफआईआर हुई है. एक एफआईआर की जांच सीआईडी कर रही है. दूसरा एफआईआर, जो कोर्ट के माध्यम से हुई है, उसकी जांच हम लोग कर रहे हैं.”

आरटीआई प्राप्त हुई सूचना में मुताबिक गारू थाना अंतगर्त एसटी, एससी और अल्पसंख्यक सामुदाय के 18 लोग गिरफ्तार किए हैं जिनमें आठ लोगों पर यूएपीए के तहत मुकदमा चल रहा है. पिछली सराकर में झारखंड में पत्थलगड़ी आंदोलनकारियों पर दर्ज राजद्रोह के मुकदमे के बारे में मुख्यमंत्री सोरेन ने विपक्ष में रहते वादा किया था कि सत्ता में आते ही मुकदमें वापस लेंगे. उन्होंने 2019 में सराकर बनने के बाद हुई पहली कैबिनेट बैठक में यह निर्णय लिया कि राजद्रोह के मुकदमे को वापस लिया जाएगा. अब यह जांच का विषय है कि बीते तीन सालों में राजद्रोह के कितने मुकदमें वापस हुए हैं.

लेकिन बतौर आदिवासी मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन यूएपीए जैसे मुद्दे पर कोई वादा क्यों नहीं करते हैं जिसके मुकदमों में अधिकतर विचाराधीन कैदी आदिवासी हैं. मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन स्टेन स्वामी की गिरफ्तारी पर केंद्र सरकार की आलोचना तो करते रहे लेकिन स्वामी जिस यूएपीए की धाराओं में जेल गए थे और वह जिनकी लड़ाई लड़ रहे थे, उन पर दर्ज यूएपीए के मुकदमों पर मुख्यमंत्री ने खुद कुछ कहा हो, ऐसी खबरें देखने पढ़ने को नहीं मिलती हैं.

इस बारे जब उनकी ही पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा के महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्या से उनका पक्ष जानना चाहा तो उन्होंने बस इतना कहा, “हमारी सरकार इस पर प्लान कर रही है. हम इस तरह के मामले का रिव्यू करेंगे और जो झूठे मुकदमें में फसाएं गए हैं उन पर 15 अगस्त को कोई निर्णय लिया जाएगा.” 15 अगस्त को क्या फैसला हुआ इसकी पुष्टि मैं नहीं कर सका हूं.