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साल 2000 में छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के बाद से ही, प्रदेश में हुए सभी चुनावों में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच का मुकाबला कभी एकतरफा नहीं रहा. लेकिन 2018 के इस विधानसभा चुनाव में (18 सीटों में पहले चरण का चुनाव 12 नवंबर को सम्पन्न हो चुका है. बाकी की 72 सीटों में कल मतदान होगा.) एक तीसरा मोर्चा भी चुनावी मैदान में है. स्वयं को अनुसूचित जनजाति कंवर का बताने वाले अजीत जोगी साल 2000 और 2003 के बीच प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री रहे. दो साल पूर्व जोगी ने कांग्रेस को अलविदा कहा और जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जेसीसी) नाम से नई पार्टी बना ली. इस साल अक्टूबर में जेसीसी ने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के साथ गठबंधन बना लिया जिसमें बाद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) भी शामिल हो गई. यह गठबंधन प्रदेश की सभी 90 सीटों पर चुनाव लड़ रहा है. 55 सीटों पर जेसीसी और 35 पर बसपा ने उम्मीदवार उतारे हैं और जेसीसी ने अपने हिस्से से 2 सीटें सीपीआई को देने का वादा किया है.
उम्मीद की जा रही है कि यह गठबंधन बीजेपी और कांग्रेस के वोटों को प्रभावित करेगा. प्रदेश में पिछले 15 सालों से मुख्यमंत्री रमन सिंह के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार है लेकिन इन दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के बीच वोट प्रतिशत का अंतर 2 प्रतिशत से अधिक कभी नहीं रहा. 2013 के विधानसभा चुनाव में वोटों का यह अंतर घट कर 0.75 प्रतिशत पर आ गया था. इसके अलावा एक और बात है कि प्रत्येक सीट में उम्मीदवारों के बीच जीत का अंतर अच्छा खासा रहा है. यानी जीतने वाले उम्मीदवार ने प्रतिद्वंद्वी को बड़े अंतर से हराया है. साथ ही सिटिंग विधायक अक्सर हार गए. पिछले चुनाव में कांग्रेस पार्टी के 26 विधायक चुनाव हार गए थे. पार्टियों के बीच वोटों का अंतर कम रहने के बावजूद सत्ता विरोधी लहर से पार पाना छत्तीसगढ़ में राजनीतिक दलों के लिए मुख्य चुनौती है.
जून 2018 में छत्तीसगढ़ की हिंदी वेबसाइट सीजीवॉल डॉट कॉम और गैर सरकारी संगठन फोर्थ डायमेंशन डिजिटल स्टूडियो ने ‘छत्तीसगढ़ का मूड’ नाम से चुनाव सर्वेक्षण कराया था. यह सर्वेक्षण मेरे नेतृत्व में हुआ था. बीजेपी के वर्तमान कार्यकाल में उसकी नीतिगत विफलता के कारण इन चुनावों को कांग्रेस के पक्ष में जाता देखा जा रहा है. प्रदेश के कई निर्वाचन क्षेत्रों में पार्टी मजबूत है और सत्ता विरोधी लहर का उसे लाभ मिलता दिख रहा है. अक्टूबर के मध्य में जब जेसीसी-बसपा-सीपीआई गठबंध की घोषणा हुई तो राजनीतिक विशलेषकों ने अपने पूर्वानुमानों में संशोधन करते हुए कयास लगाया कि यह गठबंधन कांग्रेस के वोटों पर सेंधमारी करेगा. लेकिन राज्य में समुदायों की स्थिति और सीटों के बंटवारे के अध्ययन से लगता है कि यह गठबंधन बीजेपी के लिए भी उतना ही बड़ा खतरा है जितना कांग्रेस के लिए है.
केन्द्र में बीजेपी की सरकार के प्रदर्शन के कारण प्रदेश में बीजेपी कमजोर पड़ी है और उपरोक्त गठबंधन प्रदेश में उसके गणित को बिगाड़ सकता है. 2003 और 2013 के बीच जब केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी, उस वक्त राज्य सरकार ने प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्राम रोजगार गारंटी कानून जैसी योजनाओं को सफलता के साथ लागू कर अच्छा प्रर्दशन किया था. 2014 में केन्द्र में बीजेपी की सरकार के बनने के बाद इन योजनाओं के आवंटन को कम कर दिया गया. उसके बाद माल एवं सेवा कर (जीएसटी) और नोटबंदी के कारण भाजपा का कोर वोट बैंक (मध्यमवर्ग व व्यापारी) पार्टी से नाराज हो गया.
बीजेपी ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को भी निराश करने की गलती की, जो राज्य की आबादी का क्रमशः 12 और 32 प्रतिशत हैं. अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार रोकथाम कानून को कमजोर बनाने का बीजेपी का प्रयास और अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ बढ़ते अत्याचार के प्रति उसकी उदासीनता के कारण दलित और आदिवासियों के बीच उसका समर्थन कम हुआ है.
दूसरी ओर जेसीसी को जोगी के नेतृत्व का लाभ मिलेगा. वे अनुसूचित जाति समुदायों में काफी लोकप्रिय हैं, खासकर प्रभावशाली सतनामी तथा सूर्यवंशी और गांडा जैसे अन्य समुदायों के बीच. ऐसा माना जाता है कि उनके दादा दलित थे और ईसाई धर्म अपना लिया था. जोगी जब तक कांग्रेस में रहे वे इन समुदायों का अच्छा खासा वोट पार्टी को दिलाते रहे. लेकिन दोनों राष्ट्रीय पार्टियों ने मुख्यमंत्री के रूप में उनकी संभावनाओं को कम करके आंका. 2016 में पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिए जोगी के बेटे अमित को कांग्रेस पार्टी ने बाहर कर दिया. परिणामस्वरूप पिता और पुत्र ने पार्टी छोड़ दी और जेसीसी का गठन कर लिया. जेसीसी को अच्छी तरह पता है कि नई पार्टी होने के कारण अकेले चुनाव लड़ने से वह कोई प्रभाव छोड़ने में कामयाब नहीं रहेगी. इसलिए दलित और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों का समर्थन हासिल करने के लिए जेसीसी ने बसपा और सीपीआई के साथ गठबंधन बनाया है.
इन समुदायों का वोट, जो कांग्रेस को जाता दिख रहा था, अब कांग्रेस और गठबंधन के बीच बंटता दिख रहा है. इस बात को समझते हुए कांग्रेस पार्टी अन्य पिछड़े वर्गों, ओबीसी, में घुसपैठ करने का प्रयास कर रही है जो पारंपरिक रूप से बीजेपी का साथ देते रहे हैं. प्रदेश की जनसंख्या का कुल 45 प्रतिशत ओबीसी है. ओबीसी समुदाय में साहू प्रभुत्वशाली हैं और उसके बाद कुर्मी और यादव आते हैं. पिछले पांच वर्षों के दौरान पार्टी ने किसानों के मुद्दों पर लगातार आंदोलन किए. इस साल कांग्रेस के चुनावी अभियान की कमान कुर्मी समुदाय से आने वाले कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भूपेश बघेल और साहू समुदाय के ताम्रध्वज के हाथों में है. राज्य के लोक निर्माण विभाग मंत्री राजेश मूणत से जुड़ी कथित विवादास्पद वीडियो के संबंध में बघेल पर चार्जशीट दायर की गई है. इसके कारण उनकी छवि शहरी इलाकों में कमजोर पड़ी है लेकिन ग्रामीण मतदाओं में इसका कुछ असर नहीं हुआ है.
लगभग 10 सीटों में कांग्रेस ने गठबंधन के मुकाबले कमजोर उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं. उदाहरण के लिए लोरमी सीट के लिए गठबंधन ने धर्मजीत सिंह को टिकट दिया है. धर्मजीत सिंह तीन बार कांग्रेस विधायक रह चुके हैं और एक बार विधान सभा के उपाध्यक्ष भी रहे हैं. धर्मजीत के खिलाफ कांग्रेस पार्टी ने मुंगेली जिले की पंचायत के उपाध्यक्ष शत्रुहन “सोनू” चंद्राकर को यहां से मैदान में उतारा है जो धर्मजीत सिंह के मुकाबले कम अनुभवी हैं. खैरागढ़ में कांग्रेस के विधायक को सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा है और उनके खिलाफ आदिवासी समुदाय के जमींदार मैदान में हैं.
राज्य के दलित मतदाताओं के लिए गठबंधन एक विकल्प के रूप में उभरा है. 8 के आसपास सीटों में गठबंधन ने अपनी रणनीति के तहत ऐसे उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है जो उन समुदायों से हैं जो आमतौर पर बीजेपी को वोट देते हैं.
बिल्हा में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष धरम लाल कौशिक का मुकाबला गठबंधन के उम्मीदवार सियाराम कौशिक से है. सक्ती और बैकुंठपुर में दोनों ने ओबीसी उम्मीदवर- साहू और राजबाड़े को टिकट दिया है. पाटन निर्वाचन क्षेत्र से दोनों ने साहू उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है. इस सीट पर कांग्रेस के भूपेश बघेल मैदान में हैं. बघेल कुर्मी हैं लेकिन दमदार हैं.
धरसिवा से बीजेपी के देवजी पटेल मैदान में हैं, जो खुद को कुर्मी बताते हैं. उनका मुकाबला जेसीसी-बसपा-सीपीआई के पन्ना लाल साहू से है. टिकट वितरण के दौरान साहू समुदाय ने इस सीट पर अपने समुदाय के उम्मीदवार को टिकट देने की मांग बीजेपी से की थी. लेकिन बीजेपी ने सिटिंग विधायक संतोष उपाध्याय को ही टिकट दे दिया. जेसीसी-बसपा-सीपीआई गठबंधन ने रणनीतिक हिसाब से इस सीट पर रोहित साहू को टिकट दिया है.
अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीट लैलुंगा पर गठबंधन और बीजेपी ने प्रभावशाली राठिया समुदाय के उम्मीदवारों को टिकट दिया है. इस सीट पर कांग्रेस ने सिदार को टिकट दिया है जो राठिया के नीचे माने जाते हैं.
इन सीटों पर बीजेपी का वोट कट सकता है लेकिन गठबंधन की जीत होना स्वाभाविक बात नहीं होगी. छत्तीसगढ़ में मात्र दलित वोटर चुनाव परिणाम तय नहीं कर सकता. छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों के लगभग 10 निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति के मतदाताओं की संख्या 15 से 30 प्रतिशत है. इन निर्वाचन क्षेत्रों में ओबीसी और सामान्य श्रेणी के मतदाताओं की भूमिका निर्णायक होगी. यहां कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीधा मुकाबला है.
हालांकि कांग्रेस नेताओं ने जोगी पर बीजेपी के साथ मिलकर पार्टी के वोट काटने का आरोप लगाया है लेकिन ऐसा लगता है कि कांग्रेस के वोटों में इस बार इजाफा होगा. दलित वोटर बीजेपी से नाराज है लेकिन गठबंधन की संभावना को लेकर आश्वस्त नहीं दिखाई दे रहा. 7 नवंबर को, पहले चरण के मतदान से पांच दिन पहले सनातनी नेता गुरु बल दास अपने परिवार और समर्थकों के साथ कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए. गठबंधन की जगह उनका कांग्रेस पार्टी का चयन करना राज्य में समुदाय के भीतर चल रहे मंथन को दर्शाने के साथ चुनाव परिणाम पर पड़ने वाले असर को भी दिखाता है.
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