भारत में एड हॉक न्यायिक जांच आयोगों का कड़वा सच

2008 में बाटला हाउस मुठभेड़ में दिल्ली पुलिस के व्यवहार को लेकर न्यायिक जांच की मांग करते प्रदर्शनकारी. भारत में कहीं न कहीं कोई व्यक्ति हमेशा न्यायाधीशों से तथ्यों की पुष्टि करने और सच्चाई को उजागर करने की मांग कर रहा है. मनप्रीत रोमाना/एएफपी/गैटी ईमेजिस

14 सितंबर 2020 को उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले के बुल गरही गांव में, बाजरे के खेत में 19 वर्षीय दलित युवति का गांव के कुछ लड़कों ने बलात्कार कर अधमरी हालत में छोड़ दिया. घटना के बाद उसके परिजन उसे  सदमे की हालत में पास के चांदपा पुलिस थाने ले गए. पीड़िता ने कटी हुई जीभ से घटना और कथित अपराधियों के बार में बताया. लेकिन ड्यूटी पर मौजूद पुलिसकर्मियों ने पीड़िता की शिकायत पर ही सवाल खड़ा करते हुए मदद की गुहार को खारिज कर दिया. बाद में परिवार ने उसे अलीगढ़ के स्थानीय मेडिकल कॉलेज में भर्ती कराया और जनता के आक्रोश को देखते हुए अधिकारियों ने मामला दर्ज कर पीड़िता का बयान लिया. कथित घटना के आठ दिन बाद की गई फॉरेंसिक जांच के नतीजे आने के बाद पुलिस ने दावा किया कि बलात्कार के सबूत नहीं हैं.

पीड़िता की गंभीर हालत को देखते हुए परिवार ने पीड़िता को दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में भर्ती कराया लेकिन एक दिन बाद, 29 सितंबर को उसकी मौत हो गई. उसकी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में बलात्कार, गला घोंटना और  रीढ़ की हड्डी में लगी चोट का उल्लेख है. पुलिस ने परिवार को उसका शव नहीं ले जान दिया और गरही लाकर और इलाके की घेराबंदी करके रिश्तेदारों को बिन बताए ही दाह संस्कार कर दिया.

इस घटना ने पूरे देश का ध्यान खींचा लेकिन अधिकारी मामले में किसी भी गड़बड़ी की बात से इनकार करते हैं. उत्तर प्रदेश सरकार ने घटना का संज्ञान लेते हुए केंद्रीय जांच ब्यूरो से जांच कराने का आदेश दिया जबकि विपक्षी दलों ने इस कदम को खानापूर्ती बताया है.

कम्युनिस्ट पार्टियों ने स्वतंत्र न्यायिक जांच की मांग की, तो वहीं बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के जज के नेतृत्व में न्यायिक जांच कराने की मांग की. दलित अधिकार संगठन भीम आर्मी ने भी सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश से पुलिस की कार्रवाई की जांच कराने की मांग की है.

परिवार की भी यही मांग थी. उन्होंने संवाददाताओं से कहा, “हम चाहते हैं कि उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में जांच कराई जाए." राज्य सरकार द्वारा मुआवजे की पेशकश का जवाब देते हुए पीड़िता के पिता ने बीबीसी के एक रिपोर्टर से कहा, "मुझे न्याय चाहिए पैसे नहीं. मैं दिहाड़ी मजदूर हूं, दो सौ रुपए रोज कमाता हूं और मैं पचास रुपए पर गुजारा कर सकता हूं, लेकिन न्याय जरूर लूंगा."

भारत के सेवानिवृत्त न्यायाधीश बहुत व्यस्त जीव होते हैं. सेवानिवृत्त होने के बाद वे जो काम करते हैं, उन पर लोगों की अलग-अलग प्रतिक्रियाएं होती हैं लेकिन फैक्ट फाइंडिंग ऐसा काम है जिस पर लगभग सभी की सहमित होती है कि जजों से ही कराई जानी चाहिए. अकेले पिछले एक साल में नेताओं, वकीलों और नागरिक समूहों ने मांग की है कि पेगासस जासूसी, दिल्ली के भयानक दंगे, जिनमें 53 लोग मारे गए, कोविड-19 महामारी से निपटने में नीतिगत विफलता, प्रवासी संकट और राष्ट्रीय राजधानी में गणतंत्र दिवस समारोह के दौरान प्रदर्शन कर रहे किसानों के खिलाफ पुलिसिया साजिश और ऐसे जाने कितने मामलों की जांच उनके नेतृत्व में कराई जाएं. कहीं न कहीं, कोई न कोई, हमेशा इन बुजुर्ग जजों से निष्पक्ष न्याय कराने और सच्चाई उजागर करने की आस लगाए बैठा है.

लेकिन न्यायिक आयोगों के काम को करीब से समझने से भान होता है कि ऐसी मांगों को लेकर सावधान होना जरूरी है. ऐतिहासिक रूप से इन आयोगों की समीक्षा बताती है कि सेवानिवृत्त जज भारतीय राज्य के प्रति वफादार होते हैं न कि तथ्यों के प्रति. बुल गरही का पीड़ित परिवार और हम सभी को ऐसे लोगों की जरूरत है जिन पर हम यह भरोसा कर सकें कि वे सत्य-तथ्य को स्वीकार करते हों और जवाबदेहिता के सिद्धांत को मानते हों.

भारतीय सुप्रीम कोर्ट के जज 65 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त होते हैं लेकिन वे कभी अपने काम से दूरी नहीं बना पाते. बाजार में उनके लिए काम करने के ढेरों विकल्प हमेशा मौजूद रहते हैं. कुछ जज शिक्षण और लेखन के क्षेत्र में करियर चुनते हैं. भोपाल स्थित राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी और उसकी अन्य राज्य इकाइयां उन्हें विशेषज्ञों के रूप में नियुक्त करती हैं. इसी तरह राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय उन्हें लैक्चरर रख लेते हैं. बेंगलुरु का नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी, कोलकाता का राष्ट्रीय न्याय विज्ञान विश्वविद्यालय और अन्य विधि शिक्षण संस्थान जजों को प्रोफेसर के रूप में नियुक्त करते हैं. अन्य जज विदेशी विश्वविद्यालयों में बेहतर पदों पर चले जाते हैं. कुछ जज मोनोग्राफ, पाठ्यपुस्तक आदि के लेखन में हाथ आजमाते हैं. ज्यादातर मोनोग्राफ संवैधानिक कानूनों पर होते हैं जो केवल कुछ मुट्ठी भर विधि छात्रों के काम आते हैं. कुछ प्रकाशन गृह भी सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को कानून की पाठ्यपुस्तकों और कानून से जुड़े लेखों के संपादन के लिए काम पर रखते हैं. इन पुस्तकों में ऐसी पुरानी किताबें होती हैं जिनमें समय-समय पर निरंतर संशोधन की आवश्यकता होती है. हालांकि मेहनत का सारा काम दूसरे लेखक करते हैं, जिनको क्रेडिट नहीं दिया जाता, लेकिन किराए पर लिए गए बड़े नाम पहले पन्ने की शोभा बढ़ाते हैं. यह चालाकी का सौदा प्रकाशकों और न्यायाधीशों दोनों पर बराबर जचता है : एक अधिक किताबें बेचता है, दूसरा बैंक रॉयल्टी खाता है.

2005 की शुरुआत में जब मैं कानून की पढ़ाई कर रहा था तब मेरे पास कानून की किताबें प्रकाशित करने वाले, उस वक्त के सबसे प्रमुख प्रकाशन गृह के मालिक का फोन आया जो मुझसे व्यक्तिगत रूप से मिलना चाहते थे. उन्होंने मुझसे प्रशासनिक कानून पर लिखी लगभग बीस वर्ष पुरानी एक प्रमुख पाठ्यपुस्तक जिसे फिर से लिखने की आवश्यकता थी, का संपादन करने को कहा. मैं उनके समक्ष किताब की प्रस्तावना में संपादक बतौर मेरा नाम रखने की शर्त रखी.

कुछ दूसरे किस्म के भी न्यायाधीश होते हैं जो सेवा अवकाश के बाद का वक्त भी अदालत में ही बिताते हैं. अपने शुरूआती वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने चंद्रशेखर अय्यर, विवियन बोस और वैंकटराम अय्यर सहित कुछ न्यायाधीशों को सेवानिवृत्त होने के बाद भी संक्षिप्त अवधि के लिए फिर से नियुक्त किया था. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 128 इसकी अनुमति देता है. लेकिन यह प्रथा बाद में समाप्त कर दी गई और 1990 के दशक के बाद से किसी भी सेवानिवृत्त न्यायाधीश को सर्वोच्च न्यायालय में फिर से नियुक्त नहीं किया गया है.

उच्च न्यायालयों में चीजें थोड़ी अलग हैं. अप्रैल 2016 में विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों ने अपने-अपने न्यायालयों में सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को फिर से नियुक्त करने का एक प्रस्ताव पारित किया. भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने इस प्रस्ताव के समर्थन में एक सभा को संबोधित करते हुए कहा कि इन न्यायाधीशों को फिर से नियुक्त करने से भारत में लंबित पड़े मामलों के विशाल ढेर को कम करने में मदद मिल सकती है. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. फिर अप्रैल 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका के जवाब में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों को निर्देश दिया कि वे अपने सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को फिर से अतिरिक्त दो या तीन वर्षों के लिए नियुक्त करें.

सर्वोच्च न्यायालय ने सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को मुकदमेबाजी के मामलों के लिए भी नियुक्त किया है. उदाहरण के लिए 2016 में अदालत ने पूर्व न्यायाधीश विक्रमजीत सेन को बिलडरों और खरीदारों के बीच जारी कानूनी मुकदमेबाजी का मध्यस्थ नियुक्त किया. 2021 में एक अन्य मामले में सर्वोच्च ने कर्नाटक के गोकर्ण महाबलेश्वर मंदिर के प्रशासन के लिए पूर्व न्यायाधीश बीएन श्रीकृष्ण की देख-रेख में  निगरानी समिति का गठन किया था.

अन्य मामलों में अदालत ने न्यायाधीशों को नीतिगत सलाह देने या कुछ पक्षों के व्यवहार की निगरानी करने के लिए नियुक्त किया है. 2012 में एस. राजसीकरन नाम के एक सर्जन ने खराब सड़कों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. उन्होंने आरोप लगाया कि पुराना कानून भारतीय सड़कों पर बेवजह हादसे होने का कारण बन रहा है. अदालत ने सेवानिवृत्त न्यायाधीश केपीएस राधाकृष्णन की निगरानी में मोटर-वाहन कानूनों की समीक्षा करने के लिए सड़क सुरक्षा समिति का गठन किया. ऐसी ही अन्य समितियों के जनादेश में राजधानी के बढ़ते वायु प्रदूषण में सुधार, भारतीय चिकित्सा परिषद के प्रशासन में सुधार और सबसे आश्चर्यजनक भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के काम-काज को दुरुस्त करना भी शामिल है.

न्यायाधीशों का एक तीसरा समूह भी है जो निजी परामर्शदाता के रूप में निजी कंपनियों में काम करता है. कुछ मानवाधिकार के क्षेत्र में सक्रिय हैं और कुछ गैर सरकारी संगठनों के सलाहकार हैं. कारपोरेट अधिकारी और सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयां फीस के बदले कानूनी सलाह इनसे लेते हैं. ये कानूनी रणनीतियां तैयार करने में सहायता करने के अलावा भविष्य में हो सकने वाले नुकसान से भी बचाते हैं. अधिकारी उनसे लापरवाही और भ्रष्टाचार के आरोपों से बचाव के लिए भी मदद मांगते हैं.

फिर बात आती है भारत की आलसी कानून व्यवस्था को बायपास करने की इच्छा रखने वाली मध्यस्थता के जरिए विवाद समाधान करने वाली संस्थाओं की. इस क्षेत्र की एक अग्रणी संस्था इंडियन काउंसिल ऑफ आर्बिट्रेशन द्वार मार्च 2021 में सुप्रीम कोर्ट के तीस से अधिक पूर्व न्यायाधीशों को मध्यस्थों के पैनल में शामिल किया गया था. लेकिन मध्यस्थ बनने का कैरियर भी सभी के लिए एक जैसा नहीं होता, कुछ न्यायाधीश इसमें आश्चर्यजनक सफलता पाते हैं तो कुछ बस खाली डेस्क पर समय बिताते हैं.

पूर्व न्यायाधीशों का चौथा समूह भी है जो  ट्रिब्यूनलों में अपनी सेवा फिर से शुरू करता है. आज की तारीख में सशस्त्र बल न्यायाधिकरण, केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण, खाद्य सुरक्षा अपीलीय न्यायाधिकरण, औद्योगिक न्यायाधिकरण, राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण, दूरसंचार विवाद निपटान और अपीलीय न्यायाधिकरण जैसे बहुत से न्यायाधिकरण हैं. उनका मुख्य काम अत्यधिक बोझ में दबे कोर्ट रूम से अलग तेजी और आसान प्रक्रिया से न्याय उपलब्ध कराना है. लेकिन सरकारों ने ट्रिब्यूनल के कामकाज और नियुक्तियों की बारीकी से निगरानी करते हुए उन्हें अपने शिकंजे में रखा है. सुप्रीम कोर्ट ने ट्रिब्यूनल की अधिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए नवंबर 2020 में एक नई व्यवस्था का आदेश दिया और इस जुलाई में फिर से अपने आदेश को दोहराया. 2000 और 2020 के बीच सेवानिवृत्त होने वाले सुप्रीम कोर्ट के सौ के आस-पास न्यायाधीशों में से लगभग चालीस न्यायाधिकरणों में पुनर्स्थापित हुए हैं. ये नियुक्तियां न्यायाधीशों के सार्वजनिक करियर को लंबा करने और इन संस्थाओं को न्यायिक वैधता प्रदान करने का दोहरा काम करती हैं.

बाकि बचे सेवानिवृत्त न्यायाधीश विवेकाधीन पदों पर आराम का जीवन बताते हैं. जिनमें कुछ राजनीतिक, संवैधानिक और अंतरराष्ट्रीय स्तर के पद हैं. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने न्यायाधीशों की इस तरह नियुक्तियां करने के चलन की शुरुआत 1952 में सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधी सैय्यद फजल अली को ओड़िसा का राज्यपाल नियुक्त करके की थी. जब नेहरू ने अपने फैसले की घोषणा की उस समय अली न्यायाधीश के पद पर आसीन थे. जिसके बाद नैतिकता की दुहाई देने वाले लोग इस मूर्खता भरे निर्णय को लेकर असंतोष जाहिर करते रहे. लेकिन नेहरू ने अली और अन्य न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद के प्रस्तावों की पेशकश करना जारी रखा. उन्होंने जजों को राज्यपाल और राजदूत बनाया, विश्वविद्यालय प्रशासन में जगह दिलाई, सलाहकार आयोग और अनुसंधान आयोग की जिम्मेदारी भी सौंपी.

शुरुआती दिनों में राज्यों को भाषाई इकाइयों में पुनर्गठित करने का जिम्मा अली को, सीमा विवादों को सुलझाने का एमसी महाजन को, मंत्रियों के अपराध संबंधी जांच का काम एसआर दास को, नौकरशाही से पूछताछ का काम एसके दास को, व्यवसायिक भ्रष्टाचार की जांच विवियन बोस को और निविदा नीति संबंधी सिफारिशें देने का कार्य वेंकटराम अय्यर को सौंपा गया. तब से यह चलन आगे ही बढ़ा है और नेहरू द्वारा शुरू की गई परंपरा अब न्यायिक व्यवस्था की एक परंपरा बन गई है.

सेवानिवृत्ति के बाद की ये नियुक्तियां बड़े स्तर पर प्रतिक्रियाओं का कारण बनती हैं . पहले किए गए अकादमिक और अदालती फैसलों पर इन नियुक्तियों से अधिक संदेह पैदा तो नहीं होता लेकिन सवाल तो बनता ही है कि अदालतें कुछ पूर्व न्यायाधीशों को ही एड ह़ॉक अथवा तदर्थ भूमिकाओं के लिए क्यों चुनती हैं, अन्य को क्यों नहीं?

यह हम नहीं जानते क्योंकि अदालतों के भीतर की बात शायद ही सामने आ पाती है. चैंबर बना कर अभ्यास करना और मध्यस्थता, दोनों ही कानूनी हलकों में कभी-कभार बेचैनी पैदा करते हैं लेकिन शायद ही यह कभी खबरों में जगह पाते हैं. इसके उलट ट्रिब्यूनल में की गई नियुक्ति समाचारों में लगातार तूफान लाती रहती हैं. कुछ लोग इस तरह की नियुक्तियों की निंदा करते हैं जो इस बात को लेकर चिंतित हैं कि सरकारें उन्हें न्यायपालिका की स्वतंत्रता को खत्म करने के लिए नियोजित कर रही हैं. जबकि अन्य लोग इसके उलट तर्क देते हैं कि केवल सेवानिवृत्त न्यायाधीश ही न्यायाधिकरणों की स्वतंत्रता की रक्षा कर सकते हैं. विवेकाधीन पदों का पांचवां विकल्प, विशेष रूप से कटु प्रतिक्रियाओं को जन्म देता है. अधिकतर आलोचक सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को राज्यपाल, राजदूत या सांसद मनोनीत करके राजनीतिक पदों पर ले जाने का कड़ा विरोध करते हैं. हालांकि वे नागरिक महत्व के अनुसंधान संबंधी आयोगों के लिए जजों की नियुक्तियों पर जोर देते हैं. सेवानिवृत्त न्यायाधीशों में कुछ खास किस्म की अप्रत्यक्ष विशेषता होती है जो उन्हें इन आयोगों के लिए आदर्श बनाती है.

न्यायपालिका इकबाल पर टिकी है. इसके अलावा इसके पास और कुछ नहीं है. 1788 में अमेरिकी संविधान के मूल हस्ताक्षरकर्ताओं में से एक अलेक्जेंडर हैमिल्टन ने इसे सरकार की सबसे कमजोर शाखा का नाम दिया. विधायिका देश के वित्त को नियंत्रित करती है और नागरिकों के लिए नियम कानून बनाती है. कार्यकारी सेना को आदेश देता है. हैमिल्टन ने बताया कि न्यायपालिका के पास न ही बल है और न ही बल प्रयोग करन की ताकत, वह सिर्फ निर्णय करती है. इसकी आज्ञाकारिता पूरी तरह विश्वास पर टिकी हुई है यानी इस बात पर कि लोगों को न्यायाधीशों की निष्पक्षता पर विश्वास करना चाहिए.

आश्चर्यजनक रूप से न्यायिक आचरण के अंतर्राष्ट्रीय नियम और दिसंबर 1999 में अपनाए गए भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायिक जीवन से जुड़े मूल्य न्यायपालिका में विश्वास की भूमिका को बढ़ाने पर आधारित हैं. वे मूल्य स्वतंत्रता, निष्पक्षता, अखंडता, औचित्य, समानता और परिश्रम को आधार बना कर न्यायाधीशों को अपने हर काम में उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, जिसका उद्देश्य न्यायाधीशों और न्यायिक प्रक्रिया में विश्वास पैदा करना होता है. लेकिन भारत में लंबे समय से न्यायाधीशों के सम्मान और ईमानदारी, नैतिकता और उत्कृष्टता, चातुर्य को पहचाना जाता रहा है. कार्यालय में हो या इसके बाहर, न्यायाधीशों पर उतना ही भरोसा किया जाता है जितना सेवानिवृत्त न्यायाधीशों पर. ध्यान दें कि किस तरह सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को आजीवन न्यायमूर्ति कहा जाता है. भारत में न्यायाधीशों को दिया गया ओहदा स्थायी ही रहता है. एक बार जो न्यायाधीश बन गया, वह हमेशा न्यायाधीश ही कहलाएगा. यह हमारी जाति व्यवस्था का किया धरा है. विशेष रूप से हिंदू चेतना में न्याय को ब्राह्मणों के साथ स्थायी रूप से जोड़ कर देखा जाता रहा है.

जबकि इस समुदाय के बुजुर्गों ने स्थानीय विवादों में मध्यस्थता का दायित्व उठाया लेकिन उच्च स्तर तक पहुंचने वाले विवादों के लिए ब्राह्मणों को न्यायाधीश बनाया गया. रियासतों में कार्यवाहक पुजारियों द्वारा न्यायिक कर्तव्य भी निभाए गए. इसके अलावा उन्होंने शाही सलाहकारों, न्यायविदों या न्यायाधीशों के रूप में कार्य किया. 1772 में ईस्ट इंडिया कंपनी के पहले गवर्नर जनरल विलियम हेस्टिंग्स ने अनजाने में इन रिवाजों की शुरुआत करते हुए अंग्रेजी न्यायाधीशों को निर्देश दिया कि विरासत, विवाह, जाति, और अन्य धार्मिक मामलों में, यदि वे मुसलमान से जुड़े हैं तो कुरान के कानून और जेंटू (गैर मुसलमानों) से संबंधित हैं तो शास्त्रों का पालन किया जाए. "इसलिए हिंदू ग्रंथों के विशेषज्ञों, पंडित और शास्त्रियों, को सलाहकार और मध्यस्थ के रूप में औपनिवेशिक बेंचों के साथ काम करके निर्णय देने में भागीदार बनाया गया.  (मुसलमानों से जुड़े विवादों में मौलवी ने यही काम किया.) इस आदेश ने भारत की नई कानूनी व्यवस्था में ब्राह्मणों की पुरानी भूमिका को फिर से मजबूत करने का काम किया. जैसा कि कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिंदू कानून पढ़ाने वाले प्रोफेसर जेडीएम डेरेट ने कहा है कि, "गैर-ब्राह्मणों ने स्वीकार किया कि ब्राह्मण ही कानून के प्रतिपादक हैं और हिंदू धर्म को जिस तरह से धर्मशास्त्र की व्याख्या की आवश्यकता है उसे केवल ब्राह्मण जानते हैं."

इंपीरियल यूनियन ऑफ ब्रिटिश जजेज एंड ब्राह्मिन्स को 1864 में भंग कर दिया गया. इसके बाद ब्राह्मण न्यायिक सलाहकार के रूप में बैंचों पर नहीं थे. लेकिन जैसे-जैसे एंग्लो-इंडियन कानूनी व्यवस्था का विस्तार हुआ उच्च जातियों, विशेष रूप से ब्राह्मणों ने न्यायालयों  में निचले स्तर के पद संभाले और उभरती कानून व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाईं. जैसे-जैसे आधुनिक अदालतों ने प्राचीन व्यवहारों/रिवाजों का अनुसरण किया न्यायाधीशों के रूप में ब्राह्मणों का सांस्कृतिक ज्ञान और आगे बढ़ता गया.

बदले में नए शासन ने इस ज्ञान का उत्साह के साथ प्रयोग भी किया. 1990 तक भी उच्चतम न्यायालय के चालीस प्रतिशत से अधिक न्यायाधीश ब्राह्मण थे. इसके बाद से यह आंकड़ा थोड़ा कम हुआ है लेकिन भारत में जनसांख्यिकीय प्रतिनिधित्व के लिहाज से बेहद अनुपातहीन रहा है.

जर्मन दार्शनिक कार्ल शिमिट ने एक बार लिखा था, "राज्य के आधुनिक सिद्धांत से जुड़ी सभी महत्वपूर्ण अवधारणाएं धर्मशास्त्रीय अवधारणाओं को धर्मनिरपेक्ष करके तैयार की गई हैं." आधुनिक भारतीय की सभी महत्वपूर्ण कार्यप्रणाली, शिमिट के आईने में देंखें तो, जातिवादी संरचना को धर्मनिरपेक्ष बना कर बनाई गई हैं.

न्यायपालिका की आंतरिक कार्यप्रणाली स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करती है. कल के ब्राह्मण ही वर्तमान समय के न्यायधीश हैं, हालांकि सभी न्यायाधीश ब्राह्मण जाति के नहीं हैं लेकिन वे ब्राह्मणों की तरह काम करते हैं. जैसे एक ब्राह्मण हमेशा ब्राह्मण ही होता है, वैसे ही एक न्यायाधीश भी हमेशा न्यायाधीश ही रहता है. न्यायाधीशों के प्रति इसी सम्मान के चलते विपक्षी नेताओं ने 2020 के दिल्ली दंगों की जांच सेवानिवृत्त न्यायाधीश से कराने की मांग की थी.

इस सम्मान को ध्यान में रखते हुए भारतीय जनता पार्टी ने 1990 के दशक में कश्मीर घाटी में हुए हिंदुओं के नरसंहर की जांच एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश के नेतृत्व में कराने की मांग रखी. इसी सम्मान ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) को 2010 में तत्कालीन सरकार में हुए दूरसंचार स्पेक्ट्रम घोटाले की समीक्षा करने के लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को नियुक्त करने के लिए प्रेरित किया.

पिछले पांच दशकों में नेताओं की जांच करने वाले सेवानिवृत्त या कार्यरत उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों से जुड़े आयोग के जांच परिणामों पर विचार करें तो क्या यह तथ्य इस अजीबोगरीब विश्वास को सही ठहराते हैं? (मैं इसमें नीतियों की सिफारिश करने के लिए गठित आयोगों को बाहर रख रहा हूं और केवल वही जानकारियां उपयोग में ला रहा हूं जो पहले से ही सार्वजनिक हैं.)

31 अक्टूबर 1984 की दोपहर को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सिख अंगरक्षकों ने उनकी हत्या कर दी. घटना के कुछ ही देर में प्रतिशोध लेने के लिए संगठित भीड़ ने सिखों पर हमला कर दिया जिससे पूरी दिल्ली चींख उठी. एक साल बाद, 1985 में, इंदिरा के बेटे और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने नरसंहार की जांच के लिए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश रंगनाथ मिश्रा को नियुक्त किया. मिश्रा की रिपोर्ट ने बिना किसी व्यक्ति विशेष का नाम लिए पुलिस की उदासीनता को ही हिंसा का कारण बताया और गांधी की कांग्रेस पार्टी को दोष मुक्त ठहरा दिया.

मई 2000 में बीजेपी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने मामले की फिर से जांच शुरू कराई. उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जी.टी. नानावती ने 1984 में घटनाओं के क्रम और अधिकारियों की चूक की जांच की. मिश्रा के विपरीत नानावती ने कांग्रेस नेताओं जगदीश टाइटलर, सज्जन कुमार और एचकेएल भगत पर भीड़ को सिखों पर हमले करने के लिए उकसाने का आरोप लगाया. लेकिन यह रिपोर्ट उनकी नियुक्ति के पांच साल बाद फरवरी 2005 में सामने आई. तब तक एनडीए आम चुनाव हार चुकी थी और सत्ता फिर से कांग्रेस के पास आ गई थी. और इसी कारण कुमार के अलावा पार्टी के किसी भी बड़े नेता को किसी भी तरह के कानूनी परिणाम का सामना नहीं करना पड़ा.

27 फरवरी 2002 की सुबह अहमदाबाद से अयोध्या जाने वाली साबरमती एक्सप्रेस जब अहमदाबाद में अपने अंतिम गंतव्य से कुछ घंटे पहले स्थिति गोधरा जंक्शन पर खड़ी थी तब उसके कोच एस-6 में आग लग गई जिसमें लगभग पांच दर्जन हिंदू तीर्थयात्री जल कर मारे गए. एक दिन बाद पूरे गुजरात में भीषण हिंसा भड़क उठी. सांप्रदायिक हमलों में कम से कम एक हजार लोग मारे गए, जिनमें से ज्यादातर मुसलमान थे. अगले महीने राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश केजी शाह को दंगों की जांच के लिए नियुक्त किया. दो महीने बाद आलोचना के दबाव में मोदी ने नानावती को जांच आयोग में शामिल किया जिसके निष्कर्षों की पहली रिपोर्ट छह साल बाद आई. (तब तक शाह की मृत्यु हो चुकी थी और एक अन्य सेवानिवृत्त न्यायाधीश अक्षय मेहता ने नानावती के साथ जांच का काम किया). पैनल ने निष्कर्ष निकाला कि स्थानीय मुसलमानों ने हिंदुओं को मारने की साजिश के तहत ट्रेन में आग लगाई थी.  साथ ही न्यायाधीशों ने मोदी और उनके मंत्रियों की दंगों में किसी भी तरह की संलिप्तता को खारिज कर दिया. मोदी, जो लगातार इन दंगों में शामिल होने के आरोपों से परेशान थे, को इस रिपोर्ट से फायदा हुआ. एक अन्य आयोग ने इसके विपरीत तथ्यों की घोषणा की.

अगस्त 2004 में तत्कालीन रेल मंत्री और मोदी के राजनीतिक प्रतिद्वंदी लालू प्रसाद यादव ने यूसी बनर्जी को ट्रेन जलने के मामले में एक समानांतर जांच करने का जिम्मा सौंपा. उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश बनर्जी ने जनवरी 2005 में अपनी अंतरिम रिपोर्ट दाखिल की. उन्होंने रिपोर्ट मे लिखा, “कोच के अंदर लगी आकस्मिक आग के कारण पीड़ितों की मृत्यु हुई. इस घटना में कोई मुस्लिम मास्टरमाइंड या भीड़ शामिल नहीं थी. यह निष्कर्ष राज्य चुनाव से ठीक पहले आया, जो यादव के अनुकूल था.

पैटर्न पर ध्यान दें तो समझ आता है कि न्यायाधीशों द्वारा निकाले गए निष्कर्ष अलग-अलग होते हैं. जैसी रिपोर्ट चाहिए उसके लिए वैसे जज का चयन होता है. अभिलेखागार जल्दी परिणाम चाहने वाली रिपोर्टों से अटे पड़े हैं.

जुलाई 1985 में विपक्षी दलों ने हरियाणा की कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री भजन लाल के खिलाफ राजीव गांधी को 53-पृष्ठ का आरोप पत्र भेजा. इसमें भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी, भाई-भतीजावाद, मुनाफाखोरी और इसी तरह कई आरोप लगाए गए थे. तब गांधी ने आरोपों की जांच करने के लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीश जसवंत सिंह को नियुक्त किया. महज एक महीने से भी कम समय में सिंह ने 150 पन्नों की रिपोर्ट तैयार की जिसमें गांधी के इस मित्र को सभी आरोपों से मुक्त कर दिया गया. हालांकि जब गांधी के प्रतिद्वंदियों पर जांच की बात आई तो कहानी अलग थी.

1989 में जब गांधी पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लग रहे थे तो ध्यान भटकाने के लिए उन्होंने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी रामकृष्ण हेगड़े की जांच का जिम्मा उच्चतम न्यायालय न्यायाधीश कुलदीप सिंह को सौंपा. सिंह ने कर्तव्यनिष्ठा का परिचय देते हुए हेगड़े को कई मामलों में दोषी ठहराया. तब तक सत्ता गांधी के हाथ से जा चुकी थी लेकिन रिपोर्ट के निष्कर्षों से शर्मिंदा होने के कारण हेगड़े को योजना आयोग में अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था. मित्र से विरोधी बने लोगों को भी इसी तरह के दुर्भाग्य का सामना करना पड़ा.

1986 में वित्त मंत्री वीपी सिंह ने भारतीय फर्मों द्वारा विदेशी मुद्रा कानून के उल्लंघन की जांच का काम एक अमेरिकी फर्म को दिया. सिंह ने इस पर गांधी से परामर्श नहीं किया था और सरकार और कांग्रेस पार्टी को संभावित शर्मिंदगी से बचाने के लिए ठीकरा वित्त मंत्री के सिर पर ही फोड़ दिया गया. उनकी पार्टी के ही सहयोगियों ने आरोप लगाया कि सिंह ने केंद्रीय खुफिया एजेंसी के साथ किसी बाहरी फर्म को काम पर लगा कर भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता किया है. गांधी ने तब इस विवाद की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों, एमपी ठक्कर और एस नटराजन को नामित किया. लोगों की नजरों से दूर अपने आवासों से ही काम करते हुए इन न्यायाधीशों ने इस मामले की जांच की. मामले में पक्षकारों में से एक का प्रतिनिधित्व करने वाले धाकड़ वकील राम जेठमलानी ने ठक्कर देते हुए नटराजन से कहा, "अब आप मेरी नजरों में लॉर्डशिप नहीं हैं क्योंकि आप सर्वोच्च न्यायालय के जज के रूप में नहीं बैठे हैं. क्षमा करें, मैं आपको केवल कमिशनर ही कह कर संबोधित करूंगा."

न्यायाधीशों की रिपोर्ट में सिंह को दोषी ठहराया जाना किसी के लिए भी हैरान0 की बात नहीं थी और उस समय गांधी को अपने राजनीतिक के ढलते सितारों को थामने के लिए इसकी जरूरत थी. जब तब रिपोर्ट बाहर आई तब तक सिंह ने कांग्रेस छोड़ दी थी और गांधी के कट्टर विरोधी बन गए थे.

इसका एक अन्य उदाहरण अप्रैल 2004 में संयुक्त राष्ट्र महासचिव कोफी अन्नान द्वारा इराक में खाद्य तेल कार्यक्रम में भ्रष्टाचार की जांच के लिए अमेरिकी फेडरल रिजर्व के पूर्व अध्यक्ष पॉल वोल्कर को आमंत्रित करना भी है. जिसके बाद 2005 में आई वोल्कर की रिपोर्ट ने कांग्रेस पार्टी और इसके कद्दावर नेता नटवर सिंह के सहयोगियों को भ्रष्टाचार का दोषी ठहराया. रिपोर्ट के बाद भड़के विपक्ष को शांत करने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वोल्कर के भारत से जुड़े निष्कर्षों की पुन: जांच करने के लिए आरएस पाठक को नियुक्त किया. भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पाठक ने पार्टी नेताओं से पूछताछ या कोई स्पष्टीकरण मांगे बिना ही कांग्रेस को आरोपों से मुक्त कर दिया. उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि नटवर सिंह ने दूसरों को बेईमानी से सौदे हासिल कराने में अनुचित मदद की, लेकिन व्यक्तिगत रूप से उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला है. विपक्ष ने बाद में दावा किया कि इस जांच के जरिए कांग्रेस पार्टी नटवर सिंह को बदनाम कर खुद को मजबूत करना चाह रही थी.

दरअसल, उस समय पार्टी को जो चाहिए था पाठक ने वही किया. फिर से अगस्त 2005 में असम की कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने राज्य में 1990 के दशक में एक अलगाववादी समूह यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम द्वारा की गईं हत्याओं की जांच की मांग की. इसका जिम्मा उन्होंने उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश केएन सैकिया को सौंपा. 1998 तक जवाबी हत्याओं का दौर शुरू हो गया था, जब नकाबपोश बंदूकधारियों ने संदिग्ध (यूएलएफए) उल्फा उग्रवादियों के रिश्तेदारों, दोस्तों और हमदर्दों पर आधी रात को गोलियां चलाईं. (उन्होंने पत्रकारों और कार्यकर्ताओं की भी हत्याएं कीं) इन हत्याओं पर सैकिया की रिपोर्ट ने गोगोई के राजनीतिक विरोधी और इन हत्याओं के समय राज्य के मुख्यमंत्री रहे पीके महंत को दोषी बताया.

कभी-कभी आयोग सीधे तौर पर अपने गठनकर्ताओं को लाभ नहीं पहुंचाते हैं लेकिन तब भी न्यायाधीश अपने मालिकों की सेवा करने के तरीके ढूंढ लेते हैं.

2 जनवरी 1975 को बिहार के समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर बम फटा. धमाके में इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल में रेल मंत्री एलएन मिश्रा गंभीर रूप से घायल हो गए और अगले दिन उनकी मृत्यु हो गई. कांग्रेस के लिए चंदा इकट्ठा करने के संबंध में मिश्रा भ्रष्टाचार के आरोपों के घेरे में थे जिसे लेकर विपक्ष ने दावा किया उनकी हत्या गांधी के लिए फायदेमंद साबित हुई. उन्होंने विस्फोट से संबंधित तथ्यों और परिस्थितियों की जांच करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश केके मैथ्यू का चयन किया. वह रिपोर्ट गांधी द्वारा जून में आपातकाल की घोषणा करने के बाद बाहर आई जिसमें हत्यारों की पहचान नहीं हो पाई लेकिन मैथ्यू ने गांधी के राजनीतिक विरोधी जयप्रकाश नारायण और इंदिरा सरकार के खिलाफ उनके लोकलुभावन आंदोलन की निंदा करने के लिए एक खंड रिपोर्ट में जरूर जोड़ दिया. न्यायाधीश ने शंका जाहिर की कि, "आंदोलन और आंदोलन के दौरान मिश्रा के खिलाफ लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से उत्पन्न हिंसा के माहौल ने अपराध को अंजाम देने के लिए अनुकूल माहौल प्रदान किया."

नारायण के आंदोलन को रिपोर्ट में शामिल करके मैथ्यू ने गांधी के संवैधानिक तख्तापलट को पूर्वव्यापी सही ठहरा दिया. सही परिणाम लाने के लिए सही न्यायाधीश, दोषमुक्त होने या जांच को अपने अनुसार मोड़ने के लिए न्यायाधीशों को चुनने की कांग्रेस की नीति रहस्य नहीं है. भारतीय राजनीति में ऐसे नेताओं की भरमार है जो इन जांचों के लिए उपयुक्त व्यक्ति खोजने में कुशल हैं. 2000 के दशक की शुरुआत में अंडरकवर पत्रकारों ने रक्षा सोदौं में भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करने के लिए सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष, रक्षा मंत्री के राजनीतिक सहयोगियों और रक्षा मंत्रालय के वरिष्ठ कर्मचारियों का रक्षा सौदे में नकदी लेते हुए एक स्टिंग ऑपरेशन किया. स्टिंग के तुरंत बाद राजनीतिक दलों में इसका फायदा उठाने की होड़ लग गई. रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश एसएन फुकन के नेतृत्व में जांच का आदेश दिया. जैसा कि इन मामलों में होता आया है, फर्नांडीस को बरी कर दिया गया. विपक्ष कांग्रेस के प्रवक्ता जयपाल रेड्डी ने सच्चाई को उजागर करते हुए कहा, “फुकन को सरकार ने चुना था इसलिए स्वाभाविक है कि वह मंत्री को क्लीन चिट ही देंगे." एक दशक बाद जब विपक्ष सत्ता में आया तो कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने एक जांच के लिए जिस न्यायाधीश को चुना उस पर बीजेपी ने आपत्ति जताई.

2011 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार में दूरसंचार मंत्री रहे कपिल सिब्बल ने 2001 और 2009 के बीच दूरसंचार लाइसेंस और 2जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में कथित भ्रष्टाचार की जांच के लिए एक सदस्यीय आयोग का गठन किया. इसका कार्यभार सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश शिवराज पाटिल को सौंपा गया. उनकी रिपोर्ट ने कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन में सिब्बल से पहले मंत्री रहे ए राजा को दोषमुक्त कर दिया लेकिन 2004 से 2009 के बीच सत्ता में रहे यूपीए प्रशासन और इससे पहले बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार के कई सरकारी अधिकारियों पर  उंगली उठाई. उस सरकार में दूरसंचार मंत्री रहे अरुण शौरी ने पाटिल की आलोचना करते हुए इसे यूपीए की मदद के लिए तैयार की गई रिपोर्ट बताया. उन्होंने कहा, "एक चुना हुआ न्यायाधीश सरकार की सुविधा के हिसाब से रिपोर्ट बना कर सरकर को देता है. यह एक तरह की दुष्टता है." कुछ साल बाद बीजेपी नेता अरुण जेटली ने पाटिल के खिलाफ उन आरोप को खारिज कर दिया जिसमें जोर देकर कहा गया था कि सिब्बल ने एनडीए सरकार के घोटाले का पता लगाने के लिए मनपसंद न्यायाधीश को चुना था. सभी राजनीतिक दल न्यायपालिका को लेकर अपने बिगडैल रवैये को बखूबी जानते हैं फिर भी वे हमेशा आदर्शों पर चलने का दिखावा करते हैं. सेवानिवृत्त या कार्यरत न्यायाधीशों द्वारा लिखी गई रिपोर्टें उन्हीं लोगों के हितों के काम आती हैं जो उन्हें पद पर स्थापित करते हैं.

आयोग वेंडिंग मशीनों की तरह काम करते हैं, अगर उन्हें बनाने वालों के खिलाफ आरोप लगते हैं तो रिपोर्टें उनको दोषमुक्त कर देती हैं और यदि विपक्ष के खिलाफ आरोप लगाए जाएं तो अपराधी घोषित कर देती हैं.

भले ही रिपोर्ट का निष्कर्ष सही हो लेकिन यह पैटर्न बेहद समस्याग्रस्त है. दिल्ली में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने के बाद 1977 में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई द्वारा करवाई गई जांचों पर गौर करें. देसाई ने अपनी पूर्ववर्ती इंदिरा गांधी और उनके सलाहकारों द्वारा आपातकाल के समय की गई ज्यादतियों की अलग-अलग आठ जांच शुरू कराई जिनका नेतृत्व उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों ने किया. इसमें इंदिरा गांधी के खिलाफ जांच करने वाला प्रसिद्ध शाह आयोग, उनके बेटे संजय गांधी और मारुति कंपनी में की गई वित्तीय बर्बादी की जांच के लिए गुप्ता आयोग, गांधी के विश्वासपात्र और रक्षा मंत्री बंसीलाल के खिलाफ रेड्डी आयोग और कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों और उनके द्वारा सत्ता के दुरुपयोग की जांच करने के लिए ग्रोवर आयोग शामिल हैं. इन सभी आयोगों की रिपोर्टें जांच के दायरे में आए लोगों और संस्थाओं के खिलाफ ही आई थीं जोकि देसाई के लिए भी अच्छी बात थी क्योंकि रिपोर्ट के जरिए उन्हें वही मिला जो वह चाहते थे.

शायद ही कभी कोई आयोग रहा हो जिसने गठनकर्ता की अवज्ञा की होगी. देसाई द्वारा कराई गई पेचीदा नागरवाला मामले की जांच इसी का एक उदाहरण है. 24 मई 1971 को आरएस नागरवाला ने फोन पर इंदिरा गांधी की आवाज में बात करके दिल्ली में भारतीय स्टेट बैंक की हाई-प्रोफाइल पार्लियामेंट स्ट्रीट शाखा से साठ लाख रुपए निकलवा लिए. और फिर दस मिनट तक चले मुकदमे में नागरवाला को सजा हो जाना, जेल में उसकी मौत और कार दुर्घटना में जांच अधिकारी की मौत होने का एक घटनाक्रम दिखाई दिया.

देसाई ने जांच के लिए उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश पी जगनमोहन रेड्डी को चुना. रेड्डी ने निर्विवाद तथ्यों और कई कमियों की पहचान की, लेकिन उनके आधार पर किसी पर आरोप मड़ने से से इनकार कर दिया. उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि उपलब्ध तथ्यों से गांधी के अपराध में शामिल होने का पता नहीं चलता है. यह एक दुर्लभ रिपोर्ट थी जिसमें एक विरोधी के खिलाफ जांच होने पर आयोग ने उन्हें दोषमुक्त कर दिया.

इसी तरह की एक दूसरी रिपोर्ट भी देसाई से ही जुड़ी हुई थी. जुलाई 1978 में देसाई और उनके गृहमंत्री चरण सिंह के रिश्तेदारों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे. अप्रैल 1979 में प्रधानमंत्री ने दावों की जांच के लिए उच्चतम न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश सीए वैद्यलिंगम को नियुक्त किया. जनवरी 1980 में दी गई वैद्यलिंगम की रिपोर्ट में 41 आरोपों की जांच करके देसाई के बेटे और बहू के साथ-साथ सिंह की पत्नी को भी सात मामलों में दोषी करार दिया गया. आयोग ने इसके निर्माता को ही नहीं बक्शा. लेकिन पुराने समय की इन खराब वेंडिंग मशीनों के लिए ये दोनों सम्मानजनक बातें थीं.

भारत के न्यायिक आयोग की जांच पूर्व निर्धारित लगती है. उनकी नियुक्तियों ने शुरुआती उन्माद को शांत करने, विपक्ष का ध्यान भटकाने, मंत्रियों पर कीमती समय खपाने, सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को आधिकारिक पद प्रदान करने और सरकारी खजाने को खाली करने का काम किया है. अमेरिकी राजनीतिक वैज्ञानिक जॉर्ज गैडबोइस के साथ बातचीत में उच्चतम न्यायालय के कई न्यायाधीशों ने कुछ आयोगों के गलत ढग से बनने के बारे में बताया है. उन्होंने बताया कि मंत्रियों ने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को परेशान करने के उद्देश्य से आयोगों को प्रयोग किया है. लेकिन निष्कर्षों के पैटर्न से पता चलता है कि कुछ परिणाम तोड़-मरोड़कर भी पेश किए गए हैं. इस तरह देखें तो भारतीयों को ऐसे आयोगों पर अविश्वास करना चाहिए. लेकिन इसके बजाय उनका इसकी अखंडता को लेकर भ्रम बना हुआ है. लोग इन स्पष्ट तथ्यों की उपेक्षा करते हुए भारतीय सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की दृढ़ता से पूजा करते हैं और उनकी गरिमा को बढ़ाते हैं.

सितंबर 2020 में वकील कॉलिन गोंजाल्विस ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखे एक लेख में  न्यायाधीशों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए उच्चतम न्यायालय द्वारा इनकार किए जाने की निंदा की. उन्होंने पूछा : “सच क्यों नहीं बताया जा सकता है? नाम उजागर क्यों नहीं किए जा सकते? विवरण बाहर क्यों नहीं आ सकता? दशकों से वकालत करने वाले और जानकारी रखने वाले वरिष्ठ वकीलों की गवाही दर्ज क्यों नहीं की जा सकती? और किन्हें यह सब दर्ज करना चाहिए? इन सवालों पर सुझाव देते हुए वह आगे लिखते हैं, "निष्पक्ष और ईमानदार सेवानिवृत्त न्यायाधीशों के एक आयोग को यह सब दर्ज करना चाहिए." उन्होंने यह नहीं बताया कि उनकी पहचान कैसे की जाए. शायद सेवानिवृत्त न्यायाधीशों का एक और आयोग यह कम करे? यहां तक ​​कि विपक्षी दल भी, जो इस बारे में बेहतर जानते हैं, इस विश्वास के रहस्यमय लालच से बच नहीं सकते हैं.

शायद भारतीयों को इस चलन पर आपत्ती जतानी चाहिए, बरसो से चले आ रहे भरोसे पर सवाल खड़ा करना चाहिए और सेवानिवृत्त न्यायाधीशों पर थोड़ा कम और खुद पर अधिक विश्वास करते हुए एक क्रांतिकारी विकल्प के साथ आगे आना चाहिए. आधुनिक लोकतंत्र अप्रत्यक्ष प्रणाली पर आधारित हैं जहां नागरिक अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से व्यवस्था को नियंत्रित करते हैं. वे प्रतिनिधि बाद में कानून बनाने, नीतियों को निष्पादित करने और लोगों के जीवन को बेहतर बनाने का कार्य करते हैं. समय-समय पर होने वाले चुनाव इन प्रतिनिधियों को चुनने का अवसर प्रदान करते हैं. वे सुनिश्चित करते हैं कि प्रतिनिधि नागरिकों के हितों और प्राथमिकताओं के प्रति वफादार बने रहें.

बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के दौरान विद्वानों ने स्व-शासन के लिए तैयार किए गए अप्रत्यक्ष लोकतंत्र के इस रूप को अंतिम सुधा के रूप में प्रतिष्ठित किया. लेकिन अब ऐसा नहीं है. अज्ञानता, पूर्वाग्रह, अभिजात वर्ग का निर्णयों पर नियंत्रण, भ्रष्टाचार जैसी चुनावी विकृतियों के चलते इतिहासकार, दार्शनिक और राजनीतिक नए वैकल्पों की तलाश कर रहे हैं. दार्शनिक एलेक्स ग्युरेरो और अन्य लोगों ने लोकतंत्र को नए सिरे से मजबूत करने के लिए एक पुरानी एथेनियन व्यवस्था को फिर से तैयार करने का सुझाव दिया है. वे इसे लोटोक्रेसी कहते हैं. इसके अन्य नाम सॉर्टिशन और डिमार्ची हैं. ग्युरेरो ने स्वास्थ्य देखभाल, जलवायु परिवर्तन,  उपभोक्ता संरक्षण, उच्च शिक्षा और इसी तरह के मुद्दों पर काम करने के लिए कई एकल असेंबली का सुझाव दिया है. तीन सौ रेंडमली चुने गए लोग इन असेंबलियों में नियुक्त किए जाएंगे. प्रत्येक लोटोक्रेट का कार्यकाल तीन साल का होगा. ग्युरेरो ऐसी को स्वैच्छिक सेवा मानते हैं लेकिन लोटोक्रेट जब सेव करना शुरू करेंगे तो उन्हें वित्तीय प्रोत्साहन, अपने और परिवार के लिए आवास और इच्छानुसार काम करने का अधिकार होगा. इसके अलावा नियंत्रण बनाए रखने के लिए वे विशेषज्ञों से सहायता लेंगे, निवेश पर ध्यान देंगे, सामुदायिक प्रतिक्रिया पर बहस कराएंगे और कानून बनाएंगे.

लोटोक्रेसी का विचार भारत के लिए नया नहीं है. 1993 में हुए एक संवैधानिक संशोधन के जरिए पंचायती राज व्यवस्था को सरकारी प्रशासन के तीसरे स्तर के रूप में शामिल किया गया था. मतदाता हर पांच साल में स्थानीय प्रशासकों का चुनाव करते हैं और पंचायत की एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होती हैं. कुछ राज्यों ने इसे आधी सीटों तक कर दिया है. प्रत्येक चुनावी में विशिष्ट सीटों को आरक्षित किया जाता है. यह सीट स्तरीय लोटोक्रेसी है. इस तरह के आरक्षण की प्रभावशीलता पर नोबेल पुरस्कार विजेता एस्थर डुफ्लो के शोध सहित कई सारे शोध बताते हैं कि इस सिस्टम ने अच्छी तरह से काम किया है.

मैं सत्य-तथ्य आयोगों के लिए लोटोक्रेटिक सिद्धांत का समर्थक हूं. किसी भी दंगे, पुलिस गड़बड़ी या राजनीतिक अपराध की जांच के लिए नागरिकों द्वारा चयनित पैनल हो. आम नागरिकों को तथ्य जांच करने वालों के रूप में इस्तेमाल करना एक आम बात है.

भारत सहित कई देशों में जूरी सिस्टम प्रयोग किया गया है. जूरी के सदस्य अधिवक्ताओं को सुनते हैं, फिर विचार-विमर्श करते हैं और अभियुक्त के दोषी या निर्दोष होने का निर्णय देते हैं. भारत की अंतिम जूरी ने जनवरी 1973 में कलकत्ता के एक मामले पर काम किया था जिसमें दो व्यक्तियों पर हत्या और गंभीर चोट पहुंचाने का मुकदमा चलाया गया था. जूरी सदस्यों ने उन दोनों को बरी कर दिया. लगभग पचास साल बाद भारत को जूरी सदस्यों से आयुक्तों के रूप में फिर से काम लेना चाहिए. कुछ मामलों में आयुक्त जूरी सदस्यों की तुलना में अधिक काम करते हैं, जैसे पीड़ितों की पहचान करना, गवाहों से पूछताछ करना, सबूतों का निरीक्षण करना, रिपोर्ट लिखना. जबकि कुछ मामलों में वे कम काम करते हैं क्योंकि वे किसी भी पक्ष के अपराधी या बेगुनाही का फैसला नहीं करते. आयोग केवल तथ्य ढूंढते हैं; वे कानूनी निर्णय नहीं दे सकते.

लोटोक्रेटिक आयोगों को लागू करने के लिए नागरिकों का चयन कैसे किया जाए, कितने लोगों को शामिल किया जाए और कहां से लोगों को चुना जाए जैसे कुछ बिंदुओं पर सहमति की आवश्यकता होती है. इसके अलावा क्या आयुक्तों को भुगतान किया जाना चाहिए, और यदि हां तो कितना? स्वतंत्र विशेषज्ञ सहायता कैसे उपलब्ध कराई जानी चाहिए? और आयुक्तों को यथोचित रूप से कैसे सुरक्षा प्रदान की जाए? जैसे अन्य मुद्दों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है. ये मामले विवादास्पद हैं लेकिन सुलझाना इतना मुश्किल नहीं है.

तथ्य जांचकर्ताओं के रूप में गैर-विशेषज्ञों के विचार को भौतिक वैज्ञान में मान्यता की दिलचस्प कहानी है. ब्रिटिश समाजशास्त्री एलन इरविन और अमेरिकी पक्षी विज्ञानी रिक बोनी सिटिजन साइंटिस्ट अथवा नागरिक वैज्ञानिक शब्द को ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी में शामिल करने के प्रस्ताव के लगभग बीस साल बाद, जुन 2014 को, इसे इस शब्दकोष में शामिल कर लिया गया.

इरविन विज्ञान और वैज्ञानिक प्रक्रियाओं को जनता तक ले जाने की इच्छा रखते थे. ये नागरिक वैज्ञानिक डेटा और ज्ञान के क्षेत्र में शौकिया काम करते हैं. वे डेटा संग्रहकर्ता, दुभाषिए, समस्या का पता लगाने, यहां तक ​​कि डेटा विश्लेषक जैसी कई जिम्मेरियां निभाते हैं. कुछ पेशेवर वैज्ञानिकों के साथ काम करते हैं, तो कुछ डीआईई के तले कड़ी मेहनत करते हैं. उन्होंने कई क्षेत्रों में खोजों और आविष्कारों का बीड़ा उठाया है. उदाहरण के लिए कैलिफोर्निया स्थित काउंटर कल्चर लैब्स शौकिया आनुवंशिकीविदों के एक समूह की सहायता से एक सामान्य और सस्ते इंसुलिन का उत्पादन करने का प्रयास कर रही है. तेजी से नागरिक वैज्ञानिको की उपस्थिति पारिस्थितिकी, भूविज्ञान, सूक्ष्म जीव विज्ञान, पक्षी विज्ञान, समुद्र विज्ञान के क्षेत्र में बढ़ रही है. राष्ट्रीय अकादमियों, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों, समर्पित पत्रिकाओं और प्रतिष्ठित शैक्षणिक सम्मेलनों के समर्थन से वे वैश्विक स्तर पर छाप छोड़ रहे हैं. सामान्य नागरिक यदि पूर्वाग्रह और डेटा संदूषण के डर के बावजूद विज्ञान से जुड़े काम कर सकते हैं तो क्या वे नागरिक शास्त्र के मामले नहीं संभाल सकते?

वर्तमन समय में भारत में न्यायिक जांच आयोगों पर जजों का एकाधिकार है. हम उन पर इसलिए भरोसा करते हैं क्योंकि अन्य सभी शासी संस्थानों पर अविश्वास का माहौल है. विश्वसनीयता की इस कमी ने हमारे लोकतंत्र को बेहद कमजोर कर दिया है.

यह गणतंत्र निर्वाचित पदों, नियुक्त अधिकारियों, व्यस्त व्यवसायों, स्वंयसेवी मंडली और संघर्षरत नागरिकों का एक जमावड़ा है और सिर्फ न्यायाधीशों (और एक हद तक सेना को भी) को छोड़ बाकि सभी को गैर भरोसेमंद बताना विनाशकारी होगा.

जाति और पंथ, राजनीति और नैतिकता,  क्षेत्र और धर्म में विभाजित आम नागरिकों को तथ्यों और सच्चाई का पता लगाने का कार्य सौंपना लोकतंत्र में एक महत्वाकांक्षी प्रयोग है, लेकिन हमारे गणतंत्र को इसकी बेहद आवश्यकता भी है.

विखंडित करने वाली वास्तविकताएं और सांप्रदायिक मूल्य भारत को तेजी से जकड़ रहे हैं. इनसे रुष्ट नागरिक शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर दबा लेना चाहते हैं. वे चाहते हैं कि एक ऐसे निजी स्थान हो जहां केवल उनकी तरह सोचने वाले लोग रहते हों.

और जैसा कि मानवविज्ञानी थॉमस हैनसेन ने द लॉ ऑफ फोर्स : दि वायलेंट हार्ट ऑफ इंडियन पॉलिटिक्स में चेताया है, ये निजी लेकिन उफनते ठिकाने हिंसा और रक्त के लिए हमारी प्रवृत्ति को भड़का रहे हैं. स्पष्ट मतभेद होने के बावजूद भारतीयों को साथ जोड़ना, चर्चा करना और तथ्यों पर सहमत होना विश्वास को फिर से जगा सकता है.  ये बातचीत नागरिक तालमेल पैदा करने का काम करेंगी. जिसके बाद वे फिर से मतभेदों के साथ रहना सीख सकते हैं.

यह कोई बेकार सिद्धांत नहीं है. अपनी बहुचर्चित किताब एथनिक कॉन्फ्लिक्ट, सिविक लाइफ में आशुतोष वार्ष्णेय ने घटते सामुदायिक संबंधों के जानलेवा नतीजों के बारे में बताया है. उन्होंने भारतीय शहरों के तीन समूहों का विश्लेषण किया. वार्ष्णेय ने दिखाया कि कैसे उकसावों के बावजूद अंतर-जातीय संबंध वाले शहरों में शांति बनी रही.

निरंतर और मजबूत व्यक्तिगत बातचीत वाले शहर, मोहल्लों, बाजारों और सामुदायिक केंद्र, ट्रेड यूनियन, शैक्षिक, व्यापार संघ जैसे संगठनात्मक नेटवर्कों ने सांप्रदायिक शांति में बेहतर प्रदर्शन किया. विविधता के बीच जुड़ाव मायने रखता है. इसने लोगों की जानें बचाई है यह हमारे लोकतंत्र को भी बचा सकता है. कुछ संदेह समझ में आता है. क्या नागरिक अपनी व्यक्तिगत पहचान बनाए रखते हुए निष्पक्ष रूप से जांच कर सकते हैं? क्या वे उन शातिर दबावों का विरोध कर सकते हैं जो पक्षपाती होने का दबाव बनाएंगे? इन जैसे कुछ संदेह समझ में आते हैं. क्या वे कमिशन के बाद पहले की तरह हो सकेंगे?

मैं भविष्यवाणी नहीं कर सकता लेकिन हमें इसकी कोशिश करनी चाहिए क्योंकि आज न्यायिक आयोग, जैसा कि मैंने ऊपर कहा है, वेंडिंग मशीन ही हैं. कोई चीज जिसका परिणाम प्रत्याशित नहीं होता वही प्रगति का मानदंड है. रेंडमली या बेतरतीब ढंग से चुने गए नागरिकों का आयोग ऐसी अप्रत्याशितता की गारंटी देता है. वे निश्चित रूप से आज के बेईमानी से भरे आयोगों से बेहतर ही होंगे.